शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

जाने क्यूँ (एक कविता )

जाने क्यूँ,
आज,
हरेक शख्श,
हर एक बात पर,
खफा खफा सा है ??

जाने क्यूँ,
काफिले का,
हर राहगीर,
और महफ़िल,
सजाने वाला भी,
जुदा जुदा सा है॥

अब तो ,
कुछ भी,
नया नहीं लगता,
हर दर्द, हर चोट,
हरेक हादसा,
मुझको, लगता ,
सुना सुना सा है॥

पहली किरण की,
थपकी से,
जिस कली ने,
बाहें है फैलाई,
सुबह सुबह ही,
वो फूल भी लगता,
थका थका सा है॥

तारीखें तो ,
बदल रही हैं,
मगर ,
जाने क्यूँ,
कब से ,
ये वक़्त,
रुका रुका सा है।

2 टिप्‍पणियां:

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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