मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

माता हिडिम्बा देवी मंदिर , क्लब हाउस मनाली -हुस्न पहाड़ों का (शिमला यात्रा-III)




पिछली गर्मियों की छुट्टीयों में अचानक ही पहाड़ों की सैर का बना कार्यक्रम कैसे आगे बढ़ रहा था ये आप इन और इन पोस्टों में पहले ही पढ़ देख चुके हैं | शिमला , कुफरी आदि के बाद स्वाभाविक रूप से अगला पड़ाव था मनाली | बुलबुल की तबियत अब ठीक हो चुकी थी और श्रीमती जी के ऊपर घुमावदार रास्ते की घबराहट पूरी तरह हावी थी | खैर अभी तो हमें अगले तीन दिनों तक ऐसे ही या कहूं कि इससे भी अधिक दुरूह रास्तों और वाकयों से गुजरना था | मित्र अरविन्द जी के साठ अगली सीट पर बैठ कर उन घुमावदार रास्तों पर हम बहुत सी सीधी और घुमावदार बातें किये चले जा रहे थे | 


जैसा कि मैं अपनी पिछली पोस्टों में कई बार कह चुका हूँ कि पहाड़ों में घूमने का एक आनंद यह भी है कि जितनी खूबसूरत आपको अपनी मंजिल यानी कोइ पहाडी ,शहर , गाँव या कस्बा दिखाई देता है उससे कई गुना खूबसूरती उन तक पहुँचने वाले रास्तों के दोनों और और आसपास बिखरी रहती है | बस आप उसे अपने भीतर कितने भीतर तक बसा और समा पाते हैं ये देखने वाली बात होती है | रास्तों से मेरी दोस्ती वैसे भी बहुत पुरानी है सो मेरी नज़र सामने और आसपास के रास्तों पर थी और कान मित्र अरविन्द जी के बातों पर ....देखिये रास्तों की खूबसूरती की एक बानगी  






 पहाडी रास्तों पर चलते हुए जिस एक बात की आशंका सबसे ज्यादा रहती है वो है पास की पहाड़ियों से शिलाओं , चट्टानों और पथ्थरों के खिसक कर सड़क पर कभी भी आ जाने की संभावना और उस स्थिति में सड़क पर चलते वाहनों के लिए बचने की कोइ गुंजाईश नहीं रहती | हालांकि प्रदेश सरकार , स्थानीय एजेंसियों व् सभी सम्बंधित लोगों को शुक्रिया कहा जाना चाहिए क्योंकि अधिकांशत: सड़क अच्छी स्थति में मिली हमें अभी तक तो .......
सड़क किनारे बना हुआ छोटा सा शिव मंदिर 
 हम मनाली पहुँच चुके थे और मनाली पहुँचते ही जो दो बातें एक साथ पता चली वो ये कि एक तो यहां शिमला से कहीं अधिक भीड़ होने के कारण होटल मोटल आदि में बहुत मारा मारी वाली स्थिति थी ऐसे में हमारे मित्र अरविन्द जी द्वारा पहले ही किया गया इंतजाम बेहद काम आया | मगर दूसरी और सबसे बड़ी समस्या जो पूरे पहाड़ों में सभी जगह कम या ज्यादा मगर मिली सब जगह वो रही पार्किंग की समस्या ,उसे भी अरविन्द जी ने अपने स्तर पे निपटा ही दिया ...

मनाली में ठिकाना रहा यहाँ 

मैं घुमक्कड़ी करते हुए बहुत सारे स्थानों पर जा चूका हूँ और उनमें निश्चित रूप से बहुत से पहाडी स्थल भी थे , किन्तु अब चूंकि पूरी फुर्सत में पहाड़ों को जानने  और समझने ही गया था सो सब कुछ बहुत ध्यान से देख और समझ रहा था | लगभग एक सी जीवन शैली , एक ही जैसी दुकानें , एक ही जैसी जरूरतें और एक सी आदतें , कुछ कुछ को छोड़कर सबमें एक वही एक सी बात मगर वो एक सी बात का सम्मोहन भी अजब था और हमेशा से रहा होगा  , तभी पहाड़ शुरू से देव और मनुष्यों को अपनी ओर खींचते रहे थे | 



मनालीहाट की एक दूकान 

हिडिम्बा मंदिर की और मुड़ने वाले मार्ग पर आधुनिक सलून 

सूचना ,दिशा व् दूरी प्रदर्शक बोर्ड 
 मनाली में सबसे पहले पर्यटक हिडिम्बा मंदिर ही देखने जाते हैं मैंने भी बचपन से लेकर अब तक इसकी विशेष बनावट के कारण ध्यान में बस गए मंदिर के बारे में बहुत पढ़ा देखा सुना था |हिडिम्बा , दुसरे नंबर के पांडू पुत्र महाबलशाली भीम की पत्नी स्थानीय भील युवती थीं | पूरा मंदिर परिसर एक कमाल की शान्ति और सुकून की चादर ओढ़े हुए था | बहुत ही मनमोहक और आकर्षक 
हिडिम्बा मंदिर परिसर के खूबसूरत पेड़ों के बीच हम सब 

                   महाभारतकालीन प्राचीन हिडिम्बा मंदिर में कतारबद्ध श्रद्धालु                                                    
वहां खूबसूरत खरगोशों और मेमनों के साथ खेलने का आनंद 

मंदिर परिसर के अहाते में बैठा एक पेशेवर चित्रकार 

मंदर की बाईं और के नीचे रास्ते के पास लगा हुआ छोटा सा बाजार 
यहीं इस बाज़ार के साथ छोटे छोटे कई रेस्तरां मिल गए जिनमें और कुछ मिले न मिले मगर हम सबके सदाबहार पसंद आलू के पराठे मिल गए जिन्हें उदरस्थ किया गया वो भी लस्सी के बड़े ग्लास के साथ |

हिडिम्बा मंदिर से आगे निकले तो क्लब हाउस की तरफ बढ़ चले | एक छोटा सा सुन्दर सा पिकनिक व् खरीददारी स्पॉट , यहाँ बच्चों को बहलाए रखने के लिए बहुत सारे ताम झाम हैं , बोटिंग शोटिंग है सो अलग से | यहाँ बच्चों की मम्मी को अपने सबसे पसंदीदा काम की याद बहुत ज़ोरों से हो आई क्योंकि सामने ही इम्पोरियम से झांकती झिलमिलाती चमकदार वस्तुएं उन्हें बुलाने लगी थीं | सो वे चली उनकी ओर और हम बच्चों समेत उनके खेल कूद वाले क्षेत्र की तरफ 
मनाली क्लब हाउस 
अहाते में गोलू और बुलबुल 
 बहुत छोटे थे तब शायद लखनऊ में परिवार के साथ कभी बोटिंग का आनंद लिया था बस यही याद था थोडा थोडा | बुलबुल की मम्मी जी जितना पहाड़ों से डरती थीं उससे ज्यादा पानी से सो उनके होते हमें ये इजाज़त भी शायद ही मिलती मगर मौके का फायदा उठा हम गंगा नहा लिए , मतलब बोटिंग कर आये | बुलबुल को ये शिकायत रही कि उसके पाँव उन पैदलों तक क्यों नहीं पहुँचते 

बच्चों के साथ बोटिंग का आनंद 

दोपहर ढलने लगी थी और इससे पहले कि हम और थक कर चूर होते विश्राम का समय हो चला था | अब आगे हमें मनाली से मणिकरण साहिब की ओर निकलना था , जिसके बेहद खतरनाक और भयावह रास्तों का हमें लेश मात्र भी अंदाज़ा नहीं था और यदि होता तो बकौल श्रीमती कभी भी यहाँ नहीं फटकते ..मगर नहीं आते तो ताउम्र अफ़सोस ही रहता ....

मणिकरण के किस्से अगली पोस्ट में 


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