रविवार, 3 फ़रवरी 2008

शहरी होने की कीमत

कल ही गाँव से माँ का फोन आया, कहने लगी " बेटा दुर्गा पूजा गयी, छत पूजा भी हो गयी, मकर सक्रान्ति बीता, और बसंत पंचमी भी आने को है, और लगता नहीं है कि होली पर भी तेरी सूरत देख पाउंगी, तेरे शहरी होने की मैं और कितनी कीमत चुकाउंगी रे "।

मैं हमेशा की तरह अवाक और चुप था। मगर इस बार माँ के इस सवाल ने मुझे झिन्झोर कर रख दिया। गाँव से शहर आना मजबूरी थी और शहरी बन जाना नियति। पढाई के बाद और नौकरी में आने से पहले के बीच के वक़्त में जो सोच , जो तनाव मन मस्तिष्क में था उस ने कभी ये मौका ही नहीं दिया कि मैं ये अंदाजा भी लगा सकूं कि कितना कुछ खोना पडा और उस वक़्त इसकी गुंजाइश भी नहीं थी। पर मुझे क्या पता था कि मैं यहाँ का हुआ तो फिर यहीं का होकर रह जाऊँगा।

यहाँ नौकरी, ओहदा, सम्मान, सब कुछ हासिल कर लिया। मगर वो मासूमियत, वो अपनेपन का एहसास, दूसरों के दर्द और अपनी खुशियों को साझा करने का सुख , वो कुछ कर गुजरने की तमन्ना, कुछ बदल डालने की ललक, वो दोस्तों का साथ, माँ पिताजी, दादी, नानी, आम के बाग़, सब कुछ खो गया। ना जाने कहाँ, कब, कितना पीछे॥


मगर सबसे बड़ी कीमत चुकाई मेरे माँ पिताजी ने जो बिल्कुल उस माली के तरह हैं जिसके ऊगाये चंदन के पेड़ से सारा जहाँ महकता है सिवाय उसके अपने आँगन के ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी व आपकी माताजी की बात समझ सकती हूँ । परन्तु हर माता पिता को पक्षियों कि तरह अपने बच्चों के उड़ना सीखने के बाद उड़ने पर ही खुश होना चाहिये । यह सोच कि बच्चे और भी बड़ा आकाश नापेंगे ।
    घुघूती बासूती

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  2. aadarniya mired jee,
    bahut bahut shukriyaa ki ek maa ke man kaa doosraa pehloo bhee dikha diya apne . apnaa sneh banaye rakhein.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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