गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

एक शीर्शकविहीन कविता

रोज़ दिखते हैं,
ऐसे मंज़र कि,
अब तो ,
किसी बात पर ,
दिल को,
हैरानी नहीं होती॥

झूठ और फरेब से,
पहले रहती थी शिकायत,
पर अब उससे कोई,
परेशानी नहीं होती॥

रोज़ करता हूँ ,
एक कत्ल,
कभी अपनों का,
कभी सपनो का,
बेफिक्र हूँ ,
गुनाहों कि फेहरिस्त,
किसी को दिखानी नहीं होती॥

लोग पूछते हैं,
बदलते प्यार का सबब,
कौन समझाए उन्हें,
रूहें करती हैं, इश्क,
मोहब्बत कभी,
जिस्मानी नहीं होती॥

सियासतदान जानते हैं,
कि सिर्फ़ उकसाना ही बहुत है,
शहरों को ख़ाक करने को, हर बार,
आग लगानी नहीं होती॥

पाये दो कम ही सही,
पशुता में कहीं आगे हैं,
फितरत ही बता देती है,
नस्ल अब किसी को अपनी,
बतानी नहीं होती॥

अजय कुमार झा
9871205767

2 टिप्‍पणियां:

  1. सियासतदान जानते हैं,
    कि सिर्फ़ उकसाना ही बहुत है,
    शहरों को ख़ाक करने को, हर बार,
    आग लगानी नहीं होती॥
    bahut sahi kaha,bahut badhiya.

    जवाब देंहटाएं
  2. mehek jee,
    aapkaa shukragujaar hoon ek pratikriyaa dene ke liye aur doosraa pratikriaaon par bhee apnee pratikria dene ke liye. dhanyavaad.

    जवाब देंहटाएं

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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