रविवार, 15 अगस्त 2010

नया सफ़र ........एक नए चेहरे के साथ

जैसा कि आप सबको बताया ही था पिछली पोस्ट में कि एक नए सफ़र पर निकलने वाला हूं । और यकीन जानिए बस कुछ देर पहले ही लौटा हूं । इससे पहले कि कुछ और भी बताऊं इस सफ़र के बारे में ....चलिए आपको अपने नए चेहरे से मिलवाया जाए । इसके पीछे कारण क्या रहे और इसके परिणाम क्या निकले ये तो बाद में बताऊंगा ...फ़िलहाल तो आप सिर्फ़ ये बताईये कि .........क्या नया चेहरा ठीक है सचमुच ........

ये मेरा पुराना चेहरा...........




और ये है नया चेहरा .....................

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

पहियों पर दौडती जिंदगी .............अजय कुमार झा


न न .........न तो मेरी टूर एंड ट्रेवेल्स टाईप की कोई नौकरी है...........और न ही मैं बस या ट्रक चलाता हूं ...आप्स सोच रहे होंगे कि तो आखिर फ़िर क्यों लिखा मैंने कि पहियों पर दौडती जिंदगी ......। जो कुछ चंद बातें मुझे बेहद पसंद हैं ......जैसे पढना , लिखना , मित्रता करना, रेडियो सुनना , खासकर समाचार ........और सबसे अलहदा .....खूब घूमना । अब ये तो नहीं पता कि घूमने का शौक पिताजी की हर तीन साल बाद ट्रांसफ़र वाली नौकरी के कारण दर्जनों शहर डोलते फ़िरते रहने के कारण हो गया ..या इसी कारण से हम खूब शहर दर शहर भटके । पिताजी की नौकरी ने , और उससे भी ज्यादा उनकी परिवार को साथ रखने की प्रतिबद्धता ने हमें बहुत से शहरों से मिलवाया । उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक । और पूर्व से लेकर पश्चिम भारत तक । बहुत सारे शहरों से , बल्कि कहूं कि उस क्षेत्र की सभ्यता से , संस्कृति से , वहां की भाषा से भीतर तक परिचय होता गया मेरा ।

इसके बाद शहरों को धांगने का अगला दौर शुरू हुआ , अपनी प्रतियोगिता परीक्षाओं के दौरान देश के अलग अलग भागों के छोटे बडे शहरों को करीब से देखने का मौका । उन्हें देखने का मौका भर ही कहना ठीक लगता है .......क्योंकि सिर्फ़ चंद घंटों से लेकर चंद दिनों तक में तो उन शहरों कस्बों से बस हाथ भर मिलाते से लगते थे । चाहे वो उडीसा का छोटा सा शहर बालेश्वर हो ...या फ़िर कि ..हैदराबाद-सिंकदराबाद के जुडवां भाईयों जैसे शहर .....चाहे वो उत्तर प्रदेश का छोटा सा कस्बा .........एटा-इटावा, हो या फ़िर नैनीताल और शिमला जैसे पर्वतीय नगर । हर सफ़र ने जिंदगी को एक नई कहानी दी । उस समय तो जैसे एक नियम सा बन गया था और मोटे मोटे तौर पर जोडता हूं तो यही पता चलता है कि औसतन प्रति वर्ष दस हज़ार किलोमीटर और कम से कम तीन शहरों से मुलाकात तो हो रही थी ।

मगर कहते हैं न कि नौकरी तो बेडी है जी बेडी । बस नौकरी में क्या बंधे .....बंध कर रह गए ।
इसके बाद तो बस बेडी के साथ हथकडी भी लग गए .........और फ़िर बाद में ताला भी जड ही दिया गया ...लो नहीं समझे ..मतलब कि शादीशुदा प्राणी के अनुरूप .पहले एक अदद घरवाली के साथ साथ बाद में दो नन्हें मुन्ने भी आ गए .....तो लग गया न पक्का ताला ।

मगर यहां एक सुखद संयोग रहा .........हमारी श्रीमती जी को भी घूमने फ़िरने का बेशक एडिक्शन न सही ....मगर थोडा बहुत शौक तो था ही । बस फ़ट्टे पर चढाने का काम करना होता है .........वो हम बखूबी कर ही लेते हैं । श्रीमती जी के साथ शादी की स्कीम में ,पंजाब भ्रमण की मुफ़्त स्कीम का पूरा लाभ उठाते हुए .....पंजाब और उसके आसपास के क्षेत्र को ही अपनी भ्रमणस्थली बनाते हुए , पिछले कुछ सालों से दे दनादन छापे जा रहे हैं पंजाब को । पिछले साथ दौरा आगे बढ कर ....डलहौज़ी तक पहुंच गया था ( बदकिस्मती से उस यात्रा वृत्तांत के वादे के बावजूद अब तक उसे नहीं लिख पाया हूं ) और इस तरह से अब फ़िर से घूम फ़िर कर गाडी उसी पटरी पर आ गई है ।

और हर साल अब फ़िर एक दो शहर मेरे अपने मन के नक्शे में छपते जा रहे हैं ।
वैसे जिस तरह शादी से पहले दोस्तों के साथ , कभी काम बेकाम , शहरों की ओर उड चलना .........मंजिल मकसद से दूर ......सिर्फ़ और सिर्फ़ वहां जाने के लिए .....एक अलग ही अनुभव रहा उसी तरह अब बाल बच्चों को लेकर .....रोज की चकचक से , रोज की मशीनशुदा जिंदगी से .....रोज की उसी बंधी हुई दिनचर्या से ....और सुबह उठ कर रोज ही इस शहर का मुंह देखने की मजबूरी से दूर ......कहीं चल उडने का जब भी विचार बनता है तो ......तन मन रोमांचित हो उठता है । जब कार इस राजधानी की सीमा को अलविदा कह रही होती है .......हम मन ही मन सोच रहे होते हैं ....जब वापस तुमसे हैंड शेक करेंगे तो फ़िर से यादों के एलबम में जाने कितनी ही फ़ोटुएं , जाने कितने अच्छे बुरे पल , जाने कितनी ही बातें , कितने दिन कितनी रातें .......अनमोल बन चुकी होती हैं ।

श्रीमती जो हमारी भ्रमणकारी ट्रिप इसलिए अच्छी लगती है क्योंकि .....उन दिनों में फ़ुल्लम फ़ुल बस उनके ही होकर रह जाते हैं । वैसे यहां बताते चलूं कि सबका मानना है कि मैं बडा केयरिंग हूं ..उनके लिए .....और शायद हूं ही ।
एक वक्त हआ करता था जब बेफ़िक्र और लापरवाह की तरफ़ सफ़र की तैयारी पर निकल जाते थे ....और फ़िर चाहे वो सफ़र ..हिंदी के सफ़र से शुरू होकर .....अंग्रेजी के सफ़र तक चलता जाए ....हम चल ही देते थे । मगर अब ऐसा नहीं है , अब तो बच्चों की जरूरी दवाई से लेकर , उस स्थान के संभावित मौसम के अनुसार कपडे लत्ते , कैमरा, या मोबाईल ,टॉर्च, एक डोरी ,कुछ मजबूत थैले , टेलिफ़ोन डायरी , और ऐसी ही जरूरी चीज़ें , कैश और उसका विकल्प भी ......सब कुछ बाकायदा तैयार करके ही निकलते हैं ।

सच पूछिए तो सफ़र से एक मुहब्बत सी हो गई है ...............और अब तो तमन्ना भी यही है कि जिंदगी का पहिया और सफ़र का पहिया यूं ही साथ साथ चलता रहे .......और ये जिंदगी यूं ही पहियों पर कटती रहे .....॥

रविवार, 8 अगस्त 2010

हरेक इंसान के अंदर होता है एक चैंपियन ........अजय कुमार झा


शायद इस बात को मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं कि स्कूली दिनों में, मैं कभी भी एक मेधावी छात्र ,नहीं रहा , हां ऐसा भी नहीं रहा कि अभिभावकों को इस बात की चिंता भी नहीं रहती थी कि कहीं फ़ेल तो नहीं हो जाएगा बेटा । और यकीनन उस समय आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धी युग की शुरूआत भी नहीं हुई थी इसीलिए , वो आजकल का सुसाईडल माहौल भी नहीं था । हम मजे में पढाई लिखाई के साथ स्कूल का लुत्फ़ उठाए जाए रहे थे ।

पढाई में गंभीरता का आलम तो बस ये था कि , मैट्रिक की परीक्षा देते हुए जब उस वर्ष आते जाते , लोग बाग रोक टोक कर यही पूछते कि , " और कैसी हो रही है परीक्षाएं ?" हम सोचते कि यार ये वार्षिक परीक्षाएं तो हर साल ही इसी तरह होती हैं , फ़िर इस बार कौन खास लड्डू पेडे जडे हुए हैं , जो सभी को इत्ती चिंता हो रही है । मगर ये तो भांप ही गए थे कि कुछ न कुछ गडबड तो है ही । खैर जब रिजल्ट आया तो ....सम्मान के साथ थर्ड डिवीजन से पास होकर ....हम अपने मां बाबूजी के लाडले बने ही रहे । मगर उस समय एक बात बडे ही गहरे तक उतरी , हुआ ये कि कुछ हमारे सहपाठी , जो पढाई में हमसे भी गए गुजरे थे ...........सोचिए क्या जमाना था वो भी .हमसे भी गए गुजरे .......उनके नंबर हमसे कहीं ज्यादा था .....अब ये मत पूछिएगा कि कैसे थे ........चलिए नए बच्चों के लिए बताते चलते हैं कि .....ये उस वक्त एक कला होती थी ..बडी ही बारीक बारीक सी कला ...एक दम फ़र्रे दार हुनर था .....और एक से एक विद्यार्थी थे इसके सिद्धहस्त ......आजकल की तरह नहीं कि बस पोथी पढ पढ जग मुआ............तो उसी कलाकारी से संपन्न कुछ सहपाठियों ने हमे भी पीछे छोड दिया ।




मगर उस दिन जो खटका लगा , हालांकि पिताजी माताजी सहित खानदान में किसी को भी ऐसी कोई उम्मीद नहीं थी कि मैट्रिक में हम कोई चमत्कार कर दिखाएंगे कि बाद में रिजल्ट बनाने वाले पर ही शक होने लगे , मगर फ़िर भी झटका तो हमें लगा ही .....और वो दिन और आज का दिन । हमने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा ...। मुझे अब तक याद है कि जब भारतीय वायु सेना के लिए मेरा चयन हुआ था तब मेरी उम्र महज अठारह साल थी , मगर चिकित्सकीय परीक्षा के दौरान , बचपन में कुहनी में लगी हुई एक चोट के कारण अनफ़िट करार दिए जाने से मां को मुंह मांगी मुराद मिल गई थी , आखिर पति के बाद पुत्र को भी वर्दी में झेल पाने को , खासकर उस उम्र में , तब वो तैयार नहीं थीं ।

इसके बाद शुरू हुआ वो बैंकिंग की परीक्षाओं के दौर में दौड लगाने का सिलसिला । आलम ये था कि हमारे ही सहपाठियों और मित्रों में से आज कुल चौबीस जन बैंकों की सेवा कर रहे हैं । हम सब जो बचे हुए थे , राजधानी की ओर उड चले । यहां एक वर्ष की जीतोड तैयारी के बाद जो परिणाम आया वो जरूर ही सुखद रहा । कुल पैंतीस परीक्षाएं , और उनमें से उनत्तीस में चयन ...। इसके बाद साक्षात्कार का दौर और अंतिम से रूप से चयन भी हुआ तो आठ आठ स्थानों पर ...। ईपीएफ़ओ, भारतीय रेलवे, दिल्ली उच्च न्यायालय, ऑल इंडिया रेडियो पटना , आदि में ...मगर नियति ने दिल्ली के लिए सब तय कर दिया था ।

और फ़िर एक रेल यात्रा के दौरान मिला एक सहपाठी जिसे मेरी नियुक्ति के बारे में , और उससे अधिक मेरी सफ़लता के बारे में जानकर बहुत ही आश्चर्य हुआ था । वो सोच रहा था कि अबे यार तू ..मतलब कैसे ...? मैं सोच रहा था कि हां सच ही सोच रहा था वो । और मैं जान चुका था कि हरेक आदमी के अंदर एक चैंपियन होता है ...बस जरूरत इस बात की होती है कि वो अपने अंदर छुपे चैंपियन को बाहर आने के लिए कब तैयार करता है ।

यही कुछ हाल खेलों के लिए भी रहा । शारीरिक तौर पर न तो कभी गामा पहलवानों में गिनती रही न ही कभी असार्थ्यवानों में । फ़ुटबॉल, हॉकी, शतरंज, बैडमिंटन, वॉलीबॉल, और क्रिकेट भी ......सभी में साथी खिलाडियों के अनुसार मैं अच्छा खिलाडी थी .....अलबथा कभी स्कूल कॉलेज की टीम में नहीं रहा ...या नहीं लिया गया । लेकिन फ़ंडा वही रहा कि जिस खेल को खेला अपना सब कुछ उसमें झोंकने की कोशिश जरूर रही ।

इसके आगे का सफ़र भी कुछ कुछ ऐसा ही चलता रहा , चाहे वो काम के दौरान प्रेम और फ़िर प्रेम विवाह की बात हो ......चाहे लेखनी को पहले सिर्फ़ शौकिया तौर पर शुरू करने के बाद उसमें सारी व्यावसायिकता डाल देने की बात .....नौकरी के कई सालों बाद .......एक चुनौती के रूप मे विधि की शिक्षा को लेकर उसे पार कर देने की जिद हो या और भी कुछ । मैं अपने अंदर के चैंपियन को पहले टटोलता हूं , मुझे यकीन होता है कि ....वो है तो कहीं भीतर ही ..इसलिए कितने दिनों तक छुपा रह सकता है ...और जैसे ही उससे मिलता हूं ..उसे इतनी रफ़्तार और शक्ति देता हूं कि .............फ़िर सफ़लता दूर नहीं रहती । इसलिए मेरा तो यही मानना है कि .....सबके अंदर एक चैंपियन होता है .......क्यों होता है न ????

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

कहां हैं वो एनसीसी कैडेट्स, स्काउट्स ,गाईड्स ....और पंद्रह अगस्त की तैयारियां ...अजय कुमार झा



इधर राजधानी दिल्ली में पंद्रह अगस्त की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं ...और क्या तैयारियां हैं ....लानत है ..जिनपर मैं थोडी देर में लानत मुलामत भेजता हूं । मगर जब भी तैयारियों की खासकर छ्ब्बीस जनवरी , और पंद्रह अगस्त की बात आती है तो मुझे अक्सर अपने स्कूल के दिनों की वो एनसीसी , स्काउट्स और गाइड्स की दुनिया याद आती है ।

उफ़्फ़ क्या ज़ज़्बा हुआ करता था उन दिनों , वो नन्हें नन्हें शरीरों पे सजी हुई वो खाकी वर्दी , और गाइड्स बनी हुई नन्हीं नन्हीं बालिकाएं ......जैसे एक जुनून सा हुआ करता था ....कि मानो इन तीनों में से एक से जुडना तो है ही । मुझे अच्छी तरह याद है कि शायद वो सातवीं क्लास थी जब मैंने पहली बार एनसीसी कैडेट के रूप में अपने स्कूल की टोली में शामिल होने की सोची थी ......और जब स्टोर रूम में ड्रैस सलेक्ट करने की बारी आई तो ...हा हा हा ..फ़िटिंग देख कर लगा कि ....वर्दी में मुझे टांग दिया गया है ...हाफ़ निकर की लंबाई बस एडियों से कुछ ही ऊपर तक थी और कमीज जो फ़ुल थी उसकी बांहे बस इतनी ही लंबी थी कि यदि आधा काट भी देता तो भी मेरे पूरे हाथ से थोडी लंबी ही बैठती .....। मैं तो झुंझला ही उठा था ........मगर किसी तरह से एक वर्दी उठा कर घर ले कर आया और फ़िर दर्जी ने अपनी पूरी कारीगरी दिखाते हुए उसे जैसे तैसे मेरे साईज का बना ही दिया ।

यहां एक बात और बताता चलूं कि हालांकि स्मार्टनेस में हमेशा ही स्काऊट्स की अनोखी ड्रैस , वो कमर पर लटकती रस्सी, चाकू और गले में लाल रुमाल नुमा सा स्टाइलिश स्कार्फ़ जिसमें बडे ही करीने से स्काउट्स का बैज लगा होता था । मगर चूंकि स्काउट्स की ड्रैस और वो तमाम अस्त्र शस्त्र खुद ही खरीदने होते थे इसलिए हम मिडिल क्लास फ़ैमिली बच्चे उस लिहाज से एनसीसी के लिए ही परफ़ैक्ट थे । और गाइड्स बनी हुई वो नीली वर्दी में सजी हुई स्कूल की लडकियां , खूब साथ निभाती थीं इस नन्हीं फ़ौज का ।

एनसीसी से जुडने का निर्णय शायद वो पहला ऐसा निर्णय था मेरा जो मैंने घर पर मम्मी पापा को बिना बताए ही ले लिया था और फ़िर वर्दी भी उठा लाया था । मां पिताजी के थोडा सा झुंझलाने के बाद ( हालांकि उनकी झुंझलाहट इस वजह से ज्यादा थी कि मुझ नालायक को पढाई से बचने का एक और बहाना मिल रहा था ) मैं बन ही गया था एनसीसी कैडेट , और उसके बाद तो जैसे अगले पांच छ: वर्षों तक एनसीसी और अपना साथ अटूट सा रहा । हफ़्ते में एक दिन शायद शनिवार का दिन होता था वो , स्कूल के आखिरी पीरीयड के साथ ही ड्रिल , परेड का अभ्यास । मुझे अब भी याद है कि पहले दूसरे दिन और बांकी के कई दिनों तक तो कदम ताल मिलाने के लिए मुझे खासा अभ्यास करना पडा था । और फ़िर वो पैकेट में कभी समोसे तो कभी नमकीन का नाश्ता .....ओह उसका भी अपना ही एक स्वाद था । एनसीसी से जुडने के लिए मुझे सबसे ज्यादा डांट तब पडी जब पहली बार कैंपिंग में जाने के लिए मेरा नाम भी चयन सूची में आया । हालांकि उसके लिए भी मैंने कम तिकडम नहीं लडाई थी । मगर काफ़ी नानुकुर के बाद इज़ाजत मिल ही गई । और पंद्रह दिनों के लिए मैं पहली बार पटना के पास स्थित बिहटा एयरफ़ोर्स स्टेशन में अपने अन्य बहुत से साथियों के साथ पहुंचा ..अब यहां एयरफ़ोर्स की भर्ती परीक्षा आयोजित की जाती है । वो पंद्रह दिन भी यादगार रहे । इसके बाद तो एनसीसी ए सर्टिफ़िकेट से बी सर्टिफ़िकेट तक का सफ़र खूब रोमांच में बीता ।

छब्बीस जनवरी और पंद्रह अगस्त से पहले की तैयारी के दिन ..वाह पढाई लिखाई सब गौण करके पूरी टुकडी जुट जाती थी ..एकदम ऐसी तैयारी मानो जंग के सिपाही तैयार हो रहे हों । और फ़िर चीफ़ गेस्ट को गार्ड और औनर के साथ स्कूल के भीतर तक लाने की वो अनोखी जिम्मेदारी ...कमाल था सब कुछ ।अब सोचता हूं तो फ़िल्मी लगता है । शायद एक फ़ोटो अब भी मम्मी के पुराने संदूक में पडी हो मेरी । रास्ते में चलते हुए एनसीसी की वर्दी कुछ अलग ही गर्व का अनुभव कराती थी । अब तो जाने कितने ही साल हो गए किसी भी नन्हें सिपाही को देखे हुए । यहां राजधानी में तरह तरह के कंपीटीशन की तैयारी में बच्चों को बहुत कुछ बना हुआ देखता हूं ....मगर आंखें उन्हीं एनसीसी, स्काउट्स और गाइडस को तलाशती है ।

दिल्ली में पंद्रह अगस्त की जो तैयारी होती है उससे तो चिढ सी हो जाती है । रेहडी पटरियों को बंद कराने का काम पूरे जोरों शोरों पर , जगह जगह पतंग की दुकानें सज रही हैं । पुलिस की नाक में दम , जहां देखिए बस पुलिस ही पुलिस .....और वो भी तब जब उस ऐन दिन .....पूरी दिल्ली इस तरह से बंद मानो मातम मनाया जा रहा हो । एक ऐसा अघोषित कर्फ़्यू कि क्या कहा जाए कि जश्न का दिन है या मातम का । और ये सब इसलिए क्योंकि आतंकी हमले का डर बना रहता है । अजी लानत है ...बताईये एक तरफ़ तो महाशक्ति बनने के सपने ..दूसरी तरफ़ आजादी के दिन को भी ढंग से न मना पाने का मलाल ...........। चलिए छोडिए .....क्या आपको दिखते हैं नन्हें सिपाही .....???? बताईयेगा तो जरा .....

बुधवार, 4 अगस्त 2010

कैसे कह दूं यार .....कि कोई फ़र्क नहीं पडता .....अजय कुमार झा



अपन शुरू से ही मस्तमौला टाईप के प्राणी रहे हैं .......जहां बैठे वहीं धूनी शूनी जमा ली ....ये नहीं देखा कि ....कंपनी देने के इंसान साथ बैठेंगे या भूत प्रेतों की टोली ............जो जैसा मिला ..उसीसे हो लिए ......बस थोडी देर की ही झिझक और कैफ़ियत .....फ़िर क्या झाजी और क्या प्राजी ...। इसलिए ही अक्सर ये कहते सुनते पाए जाते कि ...चलो यार कोई फ़र्क नहीं पडता ......। मगर जाने क्यों ..कभी कभी लगा कि नहीं यार ऐसा कैसे ..........कि कोई फ़र्क नहीं पडता ??




सिर्फ़ एक दो माह पहले ही ब्लॉगवाणी जैसा प्यारा, दमदार, और सबसे लोकप्रिय ( ब्लॉगवाणी की हैसियत तो कुछ ऐसी थी , आप उससे प्यार करें ...या आप उससे कुढ कर नफ़रत करें .......मगर दोनों ही स्थितियों में आप उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते ) , यकायक ही चलते चलते ..फ़्रीज़ हो गया ..........वो भी भरी गर्मी में ..। जाने कितनी ही मिन्नतें , प्रार्थनाएं , मनुहार , और पोस्टों के बावजूद , वो न मानना था .......न ही माना ...। चर्चा चली तो ..कहा गया ...छोडो यार कोई फ़र्क नहीं पडता .....सब कुछ नार्मल हो जाएगा ....कोई न कोई उसकी जगह भी आ जाएगा ..ब्लॉगिंग भी नहीं रुकेगी ........। और सच में ही सब कुछ वैसा ही हुआ .....चिट्ठाजगत के साथ इंडली , और हमारीवाणी जैसे नए एग्रीगेटर्स ने पदार्पण भी किया ..........मगर फ़िर भी .......हां फ़िर भी ......कैसे कह दूं यार ..कि कोई फ़र्क नहीं पडा......। आंकडे बता रहे हैं कि पाठकों की संख्या ....आधे से भी कम हो गई है .....अब हम बिपाशा बसु या आमिर खान तो ठहरे नहीं कि ....लोग ब्लॉगवाणे के सहारे नहीं ....डायरेक्ट गूगल बाबा के हलक में घुस कर हमें पढने के लिए भागे आएं .........क्यों है न ?


टेलिविजन ने ब्लैक एंड व्हाईट से लेकर रंगीन तक के सफ़र के साथ ही इंसान के सफ़र को ...हिंदी और इंगलिश के सफ़र ...दोनों ही फ़्लेवर का मजा दिया ..और अब तो लद गए वो जमाने जब कितने चैनल टाईप के सवाल पूछे जाते थे ....अब तो लाईफ़ झिंगालाला हो रही है सबकी ...तो ऐसे में एक दिन अचानक ही टीवी में बोला पटाखा ...और उसके बाद शांति ही शांति ......। ये क्या हुआ ....फ़िर कहा गया छोडो यार ....कोई फ़र्क नहीं पडता ......और भी गम हैं जमाने में .....और फ़िर एक टीवी की ही आवाज और चित्र नहीं है न घर में , बांकी की चिल्ल पों तो मची ही हुई है .........। मैकेनिक जी बुलवाए गए ........जाते जाते कह गए कि चौबीस घंटे में वापस आएंगे ये बुद्धु बक्से जी महाराज .......। और पूछिए मत वो कमी ( अरे उस टीवी वाली खाली जगह के अलावा भी ) जो खली .....वो तो इतना खली ...कि बस समझिए कि वो खली ...खली जितनी खली ......। और तब भी मन में आया कि कैसे कह दूं यार ...........कि कोई फ़र्क नहीं पडता ।


इसी दौर में ......खराब स्वास्थ्य के कारण .....हुआ कि जिस ब्लॉगिंग से हम इस कदर चिपके हुए थे कि ....घर से लेकर बाहर तक श्रीमती जी ने उसे हमारा ..extra marital affairs तक घोषित कर दिया था ....अपनी उस ....प्रेयसी से भी हमें, मिनट , घंटे, दिन तो दूर हफ़्ता और महीना तक दूर होना पडा .....। और सोचिए कि उस पर ही कहा गया कि ......कोई बात नहीं यार .....कोई फ़र्क नहीं पडता .....। मगर ये हम ही जानते हैं .........ओह नहीं ये तो आप सब भी जानते हैं कि ....फ़र्क तो पडता है .....कितना पडता है .......भले एक पोस्ट लेखक के रूप में न सही ........एक पाठक ( बताईये यहां हम झा जी से पाठक जी हो जाते हैं ) के रूप में ....वो भी टिप्पेरे पाठक के रूप में....... हमारी गैरमौजूदगी से फ़र्क पडता है न .......बिल्कुल पडता है जी .........क्यों है न ????

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

हां ! तो कौन कहता है हिंदी ब्लॉगिंग से कमाई नहीं होती बे........




जब मैंने ब्लॉगिंग शुरू की थी , तब वो ब्लैक एंड व्हाईट पिक्चर की तरह नहीं भी तो भी थ्री डी डायमेंशन वाली भी नहीं थी । हालांकि तब हमें खुद इस बात की सुध नहीं थी कि ब्लॉगिंग में घुस कर हम कोई तीर मारने जा रहे हैं .......बस ये कुछ इस तरह था मानो जो कलम घिसाई करते थे वो कुछ कुछ लोहा कुटाई में परिवर्तित हो रहा था ...। मगर प्रतिक्रियाओं ने जरूर एक रोमांच सा बढा दिया था .....और आज जो नए बैट्समैन ..अरे नए ब्लॉगर यार ... एक पोस्ट लिखने के बाद ..टिप्पणी की हाफ़ सेंचुरी की उम्मीद बांध बैठते हैं ..उनके लिए बताते चलें कि उस वक्त तो स्कोर कुछ इस तरह का हुआ करता था कि पच्चीस पोस्टें ....पढी गईं ....दस बार .....टिप्पणी .....अबे चलो दस के दस यूं ही निकल जाया करते थे ....। और हमारी बहादुरी देखिए ..कि हम डटे रहते थे मैदान में ....आखिर बाद में लंबी पारी जो खेलनी थी ।

मगर फ़िर भी पहले के एक डेढ सालों तक बस कैफ़े वाले का पिछले जन्म का कोई कर्जा लिया था ...ससुरे का वही उतारते से रहे । बाद में श्रीमती जी ने जाने किस डर से ( हालांकि ये अभी तक एक राज बना हुआ है कि उन्हें हमारे एक डेढ घंटे की आजादी से दुशमनी के कारण , या फ़िर कैफ़े में होने वाले "लव आजकल "टाईप के फ़्लू से हमें बचने बचाने की खातिर , ) हमें लैपटॉप गिफ़्ट कर दिया । हा हा हा ......वो दिन और आज का दिन ...आज तक उस घडी को कोसती हैं .........मुई ब्लॉगिंग न हो गई सौतन हो गई ....। अब हमारा क्या है ..हमारा तो दोनों पर ही जोर नहीं चलता ......ने ये छोडी जाती है ...न वो हमें छोडती है ..खैर ये तो घर घर की कहानी है । मारिए गोली इसे ।

तो मैं कह रहा था कि जब घर पर ही कंप्यूटर ले लिया तो ये बिल्कुल उसी तरह से हो गया जैसे किसी अघोरी को शमशान में ही फ़्लैट मिल गया हो ...अब दिन रात धूनी जमी रहती थी । मगर कसम इस लैपटॉप की जो कभी ये ख्याल मन में आया हो कि ........एक धेला भी किसी दिन इस ब्लॉगिंग के नाम पर ....मुझे मिलेगा । अलबत्ता जिन एक आध मित्रों को मैंने जबरन इस ब्लॉगिंग में उतारा .....उन्हें जरूर ये कहा कि बस एक बार आप ब्लॉगिंग शुरू करो ...कुछ दिनों में ही नौकरी से भी मन उकताने लगेगा ...इतना नांवा कूटोगे ....इश्वर खैर करे ...आज यदि वे सब ये पोस्ट पढें तो .जरूर ही मुझे कोस कर माफ़ कर दें .....क्योंकि थोडे दिनों बाद नौकरी से मन तो उकताने लगा उनका ......मगर नांवें के चक्कर में नहीं ...टिप्पणी के चक्कर में ......ये तो होना ही था । मुझे पता था इस गूगल बाबा को कौन सा हम हिंदी के ब्लॉगर .....नोबेल पुरस्कार जितवा देंगे ..जो हमारे खाते कुछ बांधे ।


अचानक एक दिन श्री रवि रतलामी जी की एक पोस्ट के माध्यम से ( शायद उनकी रविवारीय चिट्ठाचर्चा वाली पोस्ट थी ) में उन्होंने दैनिक जागरण के नए ब्लॉगिंग मंच जागरण जंक्शन से परिचय करवाया ।


हमने भी आव देखा न ताव ..दन्न से "ब्लॉग बकबक " के नाम से खाता खोल दिया । वर्डप्रैस के प्लेटफ़ार्म पर होने के कारण ये जितना सुस्त था उतना ही उबाऊ भी । मगर इसकी जिस खासियत ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो ये थी कि जितने भी लोग इस मंच से जुडे हुए थे वे सब के सब ...हिंदी के अनियमित , दूर दराज़ के क्षेत्र से , और बहुरंगी ब्लॉगर थे । अपने लिए तो ये एक वैकल्पिक मंच की तरह था । सो ब्लॉगर पर जो भी लिखते ..उसे वहां चेप आते ।

कुछ दिनों बाद पता चला कि जागरण जंक्शन पर एक प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है "ब्लॉग स्टार कॉंटेस्ट " । इसमें विजेताओं को , प्रथम तीन को तो लैपटॉप , एक डिजिटल कैमरा , और एक मोबाईल मिलने की घोषणा की गई । अन्य सात लोगों को 1100 की राशि दिए जाने की योजना थी । मगर हाय री किस्मत , जब हमें ये पता चला , तब तक उस ब्लॉग का यूजर नेम और पासवर्ड ही हम भूल गए । सो टालमटाल वाली बात हो गई । मगर फ़िर पाबला जी के सहयोग से उसे फ़िर से ढूंढ निकाला गया , उन्होंने बताया कि किस तरह से नया पासवर्ड बनाया जा सकता है ।
खैर गाडी चलती रही , इसके बाद एक दिन अचानक , एक मेल मिली कि आपको प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ बीस ब्लॉगों की सूची में स्थान दिया गया है । आयं , हम चौंके , अबे जब पासवर्ड भूल कर ब्लॉगिंग कर रहे तो तो टॉप ट्वेंटी में , यदि याद रहता तो ...। खैर उसके बाद अपना भी थोडा बहुत मन लगने लगा ,घुस जाते थे जब तब वहां , और अपने "झा जी कहिन " की चर्चाओं में भी उस मंच की पोस्टों का जिक्र किया मैंने कई बार । अंतत: एक दिन एक और मेल आई कि आपके ब्लॉग को सर्वश्रेष्ट दस ब्लॉगकी सूची में स्थान दिया गया है ।

बस ....उसके बाद तो जैसे ......हो गई अपनी बल्ले बल्ले......हो गई रे बल्ले बल्ले..। प्रतियोगिता के अंतिम परिणाम में शायद सांतवां स्थान दिया गया मुझे ....और वही ग्यारह नोट पक्के हो गए । तो बताईये ...कहानी की हैप्पी एंडिंग ..किसे नहीं अच्छी लगती भला ?
अब सुना है कि जागरण जंक्शन पर ये प्रतियोगिता दोबारा भी और शायद उसके बाद भी आयोजित होती रहेगी । फ़िलहाल उसमें , सप्ताह के सर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर जैसा नया फ़ीचर भी जोडा गया है ...........तो देर किस बात की है ....शुरू हो जाईये .......और हां अब ये मत कहना कि हिंदी ब्लॉगिंग में पैसे नहीं मिलते .........मैं नहीं मानूंगा .....

रविवार, 1 अगस्त 2010

दोस्ती ..उम्र भर की ....कुछ सालों की ...आभासी दुनिया की ... ...(झा जी रिपोर्टिंग ऑन ड्यूटी )



मुझे तो पता भी नहीं था कि आज मित्र दिवस है ......क्योंकि आजकल तो सबकुछ , मतलब अपने घर के दिन दिवस के अलावा ..सब कुछ वाया ...इस अंतर्जाल की दुनिया के ही पता चलता है ..। और पिछले दिनों की भारी ब्लॉगिंग ( जैसे भारी गोलीबारी होते है वैसी ही ) के परिणामस्वरूप उसके कुछ साईड इफ़्फ़ेक्ट ...भी पडे ....अरे यार पडते कैसे नहीं ......जब ब्लॉगवाणी (एग्रीगेटर) पर भी पड गया तो ..हम तो ठहरे एक ब्लॉगर । तो हुआ ये कि मुई इस गर्दन पर कुछ ऐसा असर पडा कि शतुर्मुग हो लिए भई अपन तो । ऊपर से रही सही कसर इस हमारे लैपटॉप ने पूरी कर दी । कमबख्त ने अंदर ही अंदर लगता है कि हमारी शतुर्मुर्गी गर्दन से कुछ डील कर ली थी .....तो कुल मिला कर कुछ दिनों में हाल ये हुआ कि ........या तो हमारी गर्दन अकडी रहती थी ..और जैसे ही उसकी अकडन कम होती ....ये कंप्यूटर अकड बैठता ..चलिए छोडिए । अब धीरे धीरे गाडी पटरी पर दोबारा आने लगी है । बस ऐसा समझिए कि ...........झाजी रिपोर्टिंग ऑन ड्यूटी सर ......।

तो मैं दोस्ती की बात कर रहा था ......। कहां से याद करूं ........तबसे शुरू करता हूं जब शायद ये दोस्ती का ज़हाज़ ......अरे फ़्रैंडशिप यार ...चलना शुरू भी नहीं हुआ था । वो दो भाई थे ..शायद जुडवां ही थे ..अनिल विनोद .....और दोनों ही अनुज संजय के सहपाठी थे ....हम दोनों भाईयों के साझा दोस्त थे । शायद लूडो , कैरम , बैडमिंटन और इन जैसे सभी खेलों के स्वाभाविक और अनिवार्य पार्टनर की उपयोगिता भी पूरी कर देती थी .....हमारी ये जोडी । पापा के ट्रांसफ़र के साथ ही ये जोडी टूट गई मगर आश्चर्यजनक रूप से हमें हमारी ये मित्र जोडी ......पिताजी की अगली पोस्टिंग पूना में भी मिली ...मगर वो बस एक सुखद संयोग था क्योंकि स्कूल में वे हमारे साथ नहीं थे । इसके बाद यदि सहपाठी के रूप में देखूं तो जो न भूल सकने वाले दोस्त मिले ...वो थे पटना के पास के शहर ....दानापुर में , जहां हम शायद पांच वर्षों तक रहे । अपने स्कूल के दिनों के सभी दोस्तों की सूची में से यदि सिर्फ़ चंद दोस्तों को अपने करीबी सूची में रखूं तो उनमें सबसे पहला नाम है सीमांत अरूण का ..। ये दोस्त भी ..बस स्कूल तक ही साथ रहा ...उसके बाद वो भी कहां और मैं भी कहां । मगर शायद ही कोई यकीन करे कि पूरे सत्रह साल के बाद ..मुझे वो दोस्त फ़िर मिला ....। जब ऑर्कुट की चर्चा पहली बार सुनी थी तो ..यही सुना था कि ..इसके सहारे लोग अपने बरसों पुराने दोस्त मिल चुके हैं .........बस यही सुनकर हमने भी हाथ पांव मारे .......। और हाथ मारना सफ़ल रहा ....अंदाजे से बढाया दोस्ती का हाथ ..........जब उधर से मिला तो वही पुराना सा ...अपना सा एक हाथ निकला । फ़िर तो उस दिन घंटो बतियाया उससे .....। आज भी उसे एक प्यारा सा संदेश भेजा है ............कमबख्त काम में इतना व्यस्त कि .........क्या कहूं ।

मगर गांव में बिताए कुछ सालों में जो दोस्त मिले .......वो अनमोल रहे ....अमिट रहे .....और अब तक साथ हैं .....खूब जम के कूट कुटौव्वल होती है .......लानत मलामत भी ...। शहर से गांव जब पहली बार पहुंचा तो ...पढाई लिखाई में यदि वो मुझ से दूर थे तो .क्या ...आम अमरूद और जामुन के पेड पर चढने की फ़ुल्लम फ़ुल ट्रेनिंग , तालाब पोखर ,नदी नाले में तैरने , पानी के अंदर गोते लगाने की ट्रेनिंग, कीर्तन मंडली में ढोल मंजीरे बजाने की ट्रेनिंग , भांग की ठंडई के बाद जोगीरा गाने की ट्रेनिंग , मछली , केकडे पकडने की ट्रेनिंग , भुट्टे भूनने , गन्ना चूसने से लेकर लिट्टी बनाने जैसे सभी दुर्लब कार्यों की ट्रेनिंग में वे मेरे द्रोण समान गुरू रहे । और ऐसे ही उनका घर रहा हमारा चौबिसिया घंटे वाला आश्रम ........बस पहुंच जाओ और काकी को जो भी मन हो कह दो ....चावल की मोटी रोटी .., हरी मिर्च के साथ , या फ़िर हरे छिलके वाले मूंग की चटनी , या तिलकोड का तरुआ ...या वो होंठ से जीभ चिपकने वाली चाय ...। सब के सब छोटे थे उम्र में मुझसे .....बिपिन , आमोद , संजीव , जयप्रकाश, गुलाब , । इनमें सबसे प्रिय ...बिपिन था मुझे और अब भी है । शादी बच्चे में ..सबमें मुझ से आगे ...शायद जिंदगी की दौड में भी । आज तीन तीन पुत्रियों का पिता है । जब काकी की आंखों में उस दिन चिंता देखी पोतियों की शादी की तो मेरे मुंह से निकल पडा कि , आप चिंता क्यों करती हो काकी , बेटियां इस गधे की अकेली थोडी हैं , मेरी भी हैं । बिपिन ने लाख छुपाया ..मगर उसकी आंखों के भीगे हुए कोर मुझे भी रुला गए थे । अभी कल ही तो फ़ोन आया था कि ," मैंने अपनी टैक्सी ले ली है यहां कलकत्ते में " । सोच ही रहा हूं कि अब कलकत्ता हो कर आऊं कभी अचानक उसे चौंका दूं


इन दोस्तों के बीच सबसे प्यारा , सबसे अच्छा और सबसे अज़ीज़ एक और शख्श रहा , हमेशा ही मेरे साथ रहा ,,,,,,,,,,,मेरा छोटा भाई संजय । पापी पेट की मजबूरियों ने , उसे जयपुर में और मुझे यहां दिल्ली में पटक दिया है । कुछ मतांतर के बावजूद , कुछ दुनियादारी के बावजूद ,वो मेरा मेरा दोस्त है .....मेरा प्यारा दोस्त ........मेरा अनुज ,,,,संजय ।

और अब जबकि पिछले सालों से अपना बहुत सारा वक्त यहां इस अंतर्जाल पर गुजार रहा हूं ....तो ऐसे में यदि उन दोस्तों का जिक्र न करूं ..जो अंतर्जाल से निकल कर ..मेरे अंतसमन तक समा चुके हैं ..तो फ़िर ये पोस्ट कुछ अधूरी सी ही रहेगी । मेरे बारे में मेरी श्रीमती जी अक्सर एक बात ताने के रूप में बार बार सुनाती हैं ..वो ये कि आप तो किसी से भी एक बार मिलो ..वो आपका दोस्त भी बन जाता है ........." ।अब मेरा फ़ंडा ये है कि ...जब रिश्ता कायम करने के लिए यदि दुश्मनी और दोस्ती ...दो ही विकल्प हैं तो फ़िर ...........दोस्ती ही सही । इस आभासी दुनिया में ......एक तो यार मुझे ये नहीं पता चलता कि ..ये आभासी दुनिया कैसे है भाई .........चलिए छोडिए इस बहस को ...........तो इस दुनिया में ...बी एस पाबला जी , अविनाश वाचस्पति जी ,राजीव तनेजा जी , अरविंद मिश्र जी , ताऊ जी , उडन जी , सतीश सक्सेना जी , ललित शर्मा जी , अनिल पुसदकर जी , प्रशांत ,काजल कुमार जी ,अभिषेक , स्तुति पांडे, संगीता स्वरूप , संगीता पुरी जी ,शिवम मिश्रा जी , महफ़ूज भाई , शिखा जी , अदा जी , खुशदीप भाई , दिनेश राय द्विवेदी जी , राज भाई , वंदना जी , निर्मला जी, अजित गुप्ता जी ,शरद कोकास जी , संजीव तिवारी जी ,भाई महेंद्र मिश्रा जी , मीनाक्षी जी ,अवधिया जी , गिरिजेश जी , सतीश पंचम जी , अनीता कुमार जी , इरफ़ान जी ,अनामिका जी , अभिषेक जी , आकांक्षा जी , रश्मि रविजा जी , और तमाम मित्र सभी तो हैं ही ...............
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