अब तनहाइयों को ,
सुनता हूँ,
और कभी खामोशियों से,
बतियाता हूँ मैं॥
जो लगता है असंभव,
खुली आंखों से,
बंद कर आँखें , उन्हें सच,
बनाता हूँ मैं॥
छाँव में छलनी,
होता है मन,
अक्सर धूप में,
सुस्ताता हूँ मैं॥
बारिश की मीठी बूँदें,
मुझे तृप्त नहीं करतीं,
इसलिए समुन्दर से ही,
प्यास बुझाता हूँ मैं॥
उसको जिताने की ख़ुशी,
बहुत भाती है मुझे,
इसलिए हमेशा उससे,
हार जाता हूँ मैं॥
दर्द से बन गया है,
इक करीबी रिश्ता,
जब भी मिलता है सुकून,
बहुत घबराता हूँ मैं॥
मैं जानता हूँ कि,
मेरे शब्द कुछ नहीं बदल सकते,
फिर भी जाने क्यों ,
इतना चिचयाता हूँ मैं॥
अजय कुमार झा
9871205767.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला