स्कूल के दिन थे वो और मैं शायद आठवीं कक्षा में , दानापुर पटना के केन्द्रीय विद्यालय में पड़ता था | उन दिनों स्कूल की प्रार्थना के बाद बच्चों को सुन्दर वचन , समाचार शीर्षक , कविता ,बोधकथा कहने सुनाने का अवसर मिलता था | अवसर क्या था बहुत के लिए तो ये सज़ा की तरह होता था क्यूंकि चार लोगों के सामने खड़े होकर कुछ सार्थक बोलना यही सोच कर बहुत के पसीने छूट जाया करते थे |
किन्तु उन्हीं दिनों कमज़ोर और अंतर्मुखी बच्चों को प्रोत्साहित करने की नई योजना पर काम करते हुए अध्यापकों ने नए नए बच्चों को ये जिम्मेदारी सौंपनी शुरू की | मुझे याद है की ऐसे ही एक सहपाठी का जब बोलने सुनने का अवसर आया तो सब कुछ अचानक भूल जाने के बाद उसने खुद ही ये कहने के बाद कि कोई बात नहीं आप यही सुन लें कह आकर कोई संस्कृत का श्लोक सुना दिया | बाद में कक्षा में उसे संस्कृत के अध्यापक महोदय से डांट और स्नेह दोनों मिला | स्नेह इसलिए कि उसने संस्कृत का श्लोक सुनाया और डांट इसलिए कि सुनाने से पहले ये क्यूँ कहा कि कोई बात नहीं और कुछ न सही तो यही सुनिए |

मुझे अन्दाजा था कि देर सवेर मेरा नंबर भी आने वाला है | एक दिन तुकबंदी करते करते मैंने एक छोटी सी कविता लिख डाली जिसका शीर्षक था " बिल्लू का सपना " | इसे मैं बार बार पढ़ कर खुश होता और कुछ ही दिनों में मुझे ये याद हो गई | थोड़े दिनों बाद ही मेरी बारी आ गयी | पूरे स्कूल के सामने स्टेज पर खड़े होने की वो झिझक वो डर इस कदर हावी थी कि उसे शब्दों में बयान कर पाना मुश्किल था | जैसे ही मैंने कहा मैं अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ आपको सुनाना चाहता हूँ अब पूरे विद्यालय सहित चौंकने की बारी मेरे शिक्षकों की थी |
खैर काँपती हुई टाँगे और बुरी तरह लडखडाते हुए स्वर से जब मैंने वो कविता समाप्त की पूरा स्कूल और अध्यापकों सहित तालियों की तड़तडाहट से गूंज रहा था | उसके बाद मेरा डर छू मंतर हो चुका था अगले चार सालों तक मैं स्कूल की किसी भी कविता , रचनात्मक प्रस्तुति प्रतियोगिता का निर्विवाद विजेता और लोकप्रिय विद्यार्थी हो चुका था |
बहुत से साथी मज़ाक में मुझे कवि जी कवि जी कह कर चुहल करते थे | ऐसी ही एक प्रतियोगिता में एक बार मैंने अति उत्साह में बिना हाथ में कविता अंश लिए ही उसका पाठ करने पहुँच गया और बिलकुल शून्य हो गया | मेरे से ज्यादा सब निराश हुए और प्रतियोगिता से बाहर होने के बावजूद भी सबने दोबारा मुझे स्टेज पर बुला कर मुझसे वो कविता सुनी | वो भी मेरे लिए एक बड़ा सबक था |
कविता पाठ का ये सिलसिला फिर शुरू हुआ मेरे सेवा में आने के बाद जहाँ अनेक कार्यक्रमों का संचालन करते हुए अधिकारियों को ये भान हो गया था कि मैं कविता ,शेर , ग़ज़लें आदि कह पढ़ लेता हूँ | आवाज़ भारी होने के कारण (बकौल उनके ) सुनने में भी अच्छी लगती है |
इसके बाद होने वाले तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों में न सिर्फ मेरी उपस्थिति अपेक्षित और अनिवार्य सी हो गई बल्कि अक्सर शुरुआत ही मेरी बैटिंग से होती है , और बहुत सी राजनीतिक सभाओं , शाखा के बौद्धिक में , रेडियो टीवी में , सैकड़ों हज़ारों की भीड़ को भी मैं बहुत ही सहजता के साथ संबोधित और सम्मोहित कर पाता हूँ |
कविता पाठ ,भाषण कला के अतिरिक्त नाटक में अभिनय का अवसर भी मुझे जब जहां मिला मैंने उसे भरपूर जिया | स्कूल कालेज के दिनों में बहुत कम शिरकत करने के बावजूद गाँव में काली पूजा के दौरान खेले गए एक नाटक के इकलौते नारी किरदार "वनजा" को मैंने इस तरह निभाया था कि मुझे स्नेह स्वरूप गाँव के बहुत से सम्मानित व्यक्तियों से नकद राशि दी |
विधि की पढाई के दौरान लगने वाले विधिक साक्षरता शिविरों में खेले गए नुक्कड़ नाटकों की तो धुरी ही मैं होता था और इनमे ऐसा डूब जाता था कि साथी सहपाठी भी उफ्फ्फ उफ्फ्फ कर उठते थे | सेवा में आने के बहुत दिनों बाद एक भोजपुरी धारावाहिक में अभिनय के लिए आए प्रस्ताव को भी मुस्कुरा कर ठुकराना पडा था मुझे |
लेकिन आज भी वो स्टेज पर पहली बार कविता पाठ के दौरान अपनी टांगों का कांपना और आवाज़ की थरथराहट मैं बिलकुल नहीं भूला हूँ |
तो उन दिनों की बात थी