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शुक्रवार, 22 मई 2020

सायकल और आदमी



उस दिन फेसबुक की एक पोस्ट पर अनुज भवेश ने टिप्पणी करते हुए कहा की भैया इस बार जब हम सब गांव चलेंगे तो सब लोग सायकल पर ही सारी जगह घूमने जायेंगे।  ऐसा कहते ही सायकल चलाने के प्रति मेरे भीतर छुपी ललक और स्नेह जैसे एक मीठी सी टीस जगा गया।  मुझे जानने समझने वाले तमाम दोस्त रिश्तेदार जानते हैं कि सायकल के प्रति मेरी दीवानगी कैसी है और मैं सायकल चलने का कोई भी मौक़ा कहीं भी मिलता है उसे मैं नहीं छोड़ता।  

सायकल से मेरी यादें बचपन के उस ,सायकल के टायर चलने वाले खेल से शुरू होती है जिसमें हम बच्चे पुराने बेकार हो चुके टायरों को लकड़ी या बेंत के सहारे मार मार कर लुढ़काते हुए बहुत दूर दूर तक ले जाया करते थे और कई बार तो उन टायरों की हालत इतनी ख़राब होती थी कि वे लचकते हुए टेढ़े मेढ़े चलते थे मगर मजाल है कि हम बच्चों का जोश ज़रा सा भी कम हो।  


इससे थोड़ा बड़े हुए तो सायकल चलाना सीखने का यत्न शुरू हुआ और उन दिनों ये बच्चों वाली साइकिलों  का दौर नहीं था यदि किसी के पास थी भी तो मध्यम वर्गीय परिवार से ऊपर की बात थी।  हम अपने पिताजी की सायकलों की सीट पर अपने कंधे टिका कर कैंची सायकल चलाना सीखा करते थे और तब तक उसी अंदाज़ में चलाते थे जब तक बड़े होकर सीट पर तशरीफ़ टिका कर पैर जमीन पर टिकाने लायक नहीं हो जाते थे।  

ये वो दौर था जब गेंहूं पिसाई से लेकर , गैस के सिलेंडर की ढुलाई , सब्जी सामन आदि लाना तक , का सारा काम हमारे जैसे बच्चे अपने घरों के लिए इन्हीं सायकलों पर वो भी कैंची चलाते हुए ही किया करते थे।  यहां ये भी ज़िक्र करना रोमांचक लग रहा है कि हमारा पूरा बचपन पिताजी के साथ सायकल के पीछे लगे कैरियर , आगे लगने वाली सीट और उससे भी आगे लगने वाली छोटी सी टोकरी में बैठ कर ही घूमने फिरने की यादों से जुड़ा हुआ है।  

मुझे अच्छी तरह याद है कि सीट पर बैठ कर सायकल चलाने लायक होते होते और सायकल सीखते हुए जाने कितने ही बार कुहनियों और घुटनों को छिलवा तुड़वा चुके थे।  मगर कॉलेज जाने से पहले पहले सायकल की सीट पर बैठ कर उसे चलने लायक हो चुके थे।  स्कूल के दिनों में हुई सायकल रेस में प्रथम आना उसी सायकल प्रेम का नतीज़ा था।  

पूरा कॉलेज जीवन सायकल भी किताबों की तरह साथ साथ रहा।  गांव से कॉलेज 14 किलोमीटर दूर गृह जिला मधुबनी में था और कॉलेज की कक्षाओं के लिए रोज़ कम से कम 30 किलोमीटर सायकल चलाना हमारी आदत में शुमार हो गया था। इतना ही नहीं आपसास के सभी गाँव में रह रहे बंधु बांधवों के यहां रिश्तेदारों के यहां भी आना जाना उसी सायकल पर ही होता था।  जरा सी छुट्टी पाते ही सायकल को धो पांच के चमकाना तेल ग्रीस आदि से उसकी पूरी मालिश मसाज [ओवर ऑयलिंग ] करना भी हमारे प्रिय कामों में से एक हुआ करता था।  

नौकरी वो भी दिल्ली जैसे महानगर में लगी तो सब छूट सा गया और बिलकुल छूटता चला गया।  लेकिन अब भी जब गांव जाना होता है तो सबसे पहला काम होता है सायकल हाथ में आते ही निकल पड़ना उसे लेकर कहीं भी। हालाँकि गांव देहात में भी अब चमचमाती सुंदर सड़कों ने सायकल को वहां भी आउट डेटेड कर दिया है और अब सायकल सिर्फ गाँव मोहल्ले में ही ज्यादा चलाई जाती हैं किन्तु फिर भी बहुत से लोगों को मोटर सायकिल स्कूटर और स्कूटी आदि नहीं चलाना आने के कारण अभी भी सायकल पूरी तरह से ग्राम्य जीवन से गायब नहीं हुए हैं।  


जहाँ तक  मेरा सवाल है तो मैं तो सायकल को लेकर जुनूनी सा हूँ इसलिए अब भी सारे विकल्पों के रहते हुए जहाँ भी सायकल  की सवारी का विकल्प दिखता मिलता है मैं उसे सहसा नहीं छोड़ पाता हूँ।  अभी कुछ वर्षों पूर्व ऐसे ही एक ग्राम प्रवास के दौरान मैं किसी को भी बिना बताए सायकल से अपने गाँव से तीस पैंतीस किलोमीटर दूर की सैर कर आया था। अभी दो वर्ष पूर्व ही छोटी बहन के यहां उदयपुर में अचानक ही भांजे  की सायकल लेकर पूरे उदयपुर की सैर कर आया और वहां जितने भी दिन रहा सायकल से ही अकेले खूब घूमता रहा।  


शनिवार, 9 मई 2020

ये उन दिनों की बात थी



स्कूल के दिन थे वो और मैं शायद आठवीं कक्षा में , दानापुर पटना के केन्द्रीय विद्यालय में पड़ता था | उन दिनों स्कूल की प्रार्थना के बाद बच्चों को सुन्दर वचन , समाचार शीर्षक , कविता ,बोधकथा कहने सुनाने का अवसर मिलता था | अवसर क्या था बहुत के लिए तो ये सज़ा की तरह होता था क्यूंकि चार लोगों के सामने खड़े होकर कुछ सार्थक बोलना यही सोच कर बहुत के पसीने छूट जाया करते थे |

किन्तु उन्हीं दिनों कमज़ोर और अंतर्मुखी बच्चों को प्रोत्साहित करने की नई योजना पर काम करते हुए अध्यापकों ने नए नए बच्चों को ये जिम्मेदारी सौंपनी शुरू की | मुझे याद है की ऐसे ही एक सहपाठी का जब बोलने सुनने का अवसर आया तो सब कुछ अचानक भूल जाने के बाद उसने खुद ही ये कहने के बाद कि कोई बात नहीं आप यही सुन लें कह आकर कोई संस्कृत का श्लोक सुना दिया | बाद में कक्षा में उसे संस्कृत के अध्यापक महोदय से डांट और स्नेह दोनों मिला | स्नेह इसलिए कि उसने संस्कृत का श्लोक सुनाया और डांट इसलिए कि सुनाने से पहले ये क्यूँ कहा कि कोई बात नहीं और कुछ न सही तो यही सुनिए |

मुझे अन्दाजा था कि देर सवेर मेरा नंबर भी आने वाला है | एक दिन तुकबंदी करते करते मैंने एक छोटी सी कविता लिख डाली जिसका शीर्षक था " बिल्लू का सपना " | इसे मैं बार बार पढ़ कर खुश होता और कुछ ही दिनों में मुझे ये याद हो गई | थोड़े दिनों बाद ही मेरी बारी आ गयी | पूरे स्कूल के सामने स्टेज पर खड़े होने की वो झिझक वो डर इस कदर हावी थी कि उसे शब्दों में बयान कर पाना मुश्किल था | जैसे ही मैंने कहा मैं अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ आपको सुनाना चाहता हूँ अब पूरे विद्यालय सहित चौंकने की बारी मेरे शिक्षकों की थी |

खैर काँपती हुई टाँगे और बुरी तरह लडखडाते हुए स्वर से जब मैंने वो कविता समाप्त की पूरा स्कूल और अध्यापकों सहित तालियों की तड़तडाहट से गूंज रहा था | उसके बाद मेरा डर छू मंतर हो चुका था अगले चार सालों तक मैं स्कूल की किसी भी कविता , रचनात्मक प्रस्तुति प्रतियोगिता का निर्विवाद विजेता और लोकप्रिय विद्यार्थी हो चुका था |

बहुत से साथी मज़ाक में मुझे कवि जी कवि जी कह कर चुहल करते थे | ऐसी ही एक प्रतियोगिता में एक बार मैंने अति उत्साह में बिना हाथ में कविता अंश लिए ही उसका पाठ करने पहुँच गया और बिलकुल शून्य हो गया | मेरे से ज्यादा सब निराश हुए और प्रतियोगिता से बाहर होने के बावजूद भी सबने दोबारा मुझे स्टेज पर बुला कर मुझसे वो कविता सुनी | वो भी मेरे लिए एक बड़ा सबक था |

कविता पाठ का ये सिलसिला फिर शुरू हुआ मेरे सेवा में आने के बाद जहाँ अनेक कार्यक्रमों का संचालन करते हुए अधिकारियों को ये भान हो गया था कि मैं कविता ,शेर , ग़ज़लें आदि कह पढ़ लेता हूँ | आवाज़ भारी होने के कारण (बकौल उनके ) सुनने में भी अच्छी लगती है |

इसके बाद होने वाले तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों में न सिर्फ मेरी उपस्थिति अपेक्षित और अनिवार्य सी हो गई बल्कि अक्सर शुरुआत ही मेरी बैटिंग से होती है , और बहुत सी राजनीतिक सभाओं , शाखा के बौद्धिक में , रेडियो टीवी में , सैकड़ों हज़ारों की भीड़ को भी मैं बहुत ही सहजता के साथ संबोधित और सम्मोहित कर पाता हूँ |

कविता पाठ ,भाषण कला के अतिरिक्त नाटक में अभिनय का अवसर भी मुझे जब जहां मिला मैंने उसे भरपूर जिया | स्कूल कालेज के दिनों में बहुत कम शिरकत करने के बावजूद गाँव में काली पूजा के दौरान खेले गए एक नाटक के इकलौते नारी किरदार "वनजा" को मैंने इस तरह निभाया था कि मुझे स्नेह स्वरूप गाँव के बहुत से सम्मानित व्यक्तियों से नकद राशि दी |

विधि की पढाई के दौरान लगने वाले विधिक साक्षरता शिविरों में खेले गए नुक्कड़ नाटकों की तो धुरी ही मैं होता था और इनमे ऐसा डूब जाता था कि साथी सहपाठी भी उफ्फ्फ उफ्फ्फ कर उठते थे | सेवा में आने के बहुत दिनों बाद एक भोजपुरी धारावाहिक में अभिनय के लिए आए प्रस्ताव को भी मुस्कुरा कर ठुकराना पडा था मुझे |

लेकिन आज भी वो स्टेज पर पहली बार कविता पाठ के दौरान अपनी टांगों का कांपना और आवाज़ की थरथराहट मैं बिलकुल नहीं भूला हूँ |

तो  उन दिनों की बात थी

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

ये उन दिनों की बात थी







#येउनदिनोंकीबातथी 

जैसा की मैं पहले भी बहुत बार कह चुका हूँ कि  हम और हमारी उम्र के तमाम लोग कई मायने में बहुत ही अलहदा रहे हैं ।  ये वो दौर था शायद 83 -84 का साल था , टीवी फ्रिज के बाद प्रेशर कुकर लोगों के घर में पहुँचने लगा था।  पिताजी की पोस्टिंग उन दिनों पूना के cardiac theoretic center में थी। और हम सब वहीँ थोड़ी दूर स्थित फ़ौजी क्वार्टस में रहा करते थे। तो प्रेशर कुकर के आने से पहले ही किचन में उसका इंतज़ार किसी नई बहू के आने की तरह किया जा रहा था।  फ़ौजी कैंटीन में जिस दिन कुकर उपलब्ध हुआ उसी दिन एक साथ हमारी उस फ़ौजी कॉलोनी में बीस बाईस प्रेशर कुकर बहूरानी पधारी थीं।  

हॉकिन्स का वो प्रेशर कुकर उन दिनों हर किचन का शो स्टॉपर हुआ करता था। लेकिन पहले दिन और सबसे पहली बार उसका उपयोग करने के ऐसे ऐसे किस्से अगले कई दिनों तक मम्मियों आंटियो की शाम की गेट सभा [जिसमे सभी अपने अपने गेट पर खड़े होकर दुनिया भर की सारी बातें कर लिया करती थीं ] में सुने सुनाए गए जिन्होंने इतिहास रच दिया।  

मुझे याद है कि उन दिनों केरोसिन स्टोव का प्रयोग होता था जो बर्तन की पेंदी को काला कर दिया जाता था जो बाद में बर्तन साफ करने के दौरान खासी मुसीबत पैदा करता था और जिससे बचने के लिए पेंदी में मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था तो हमारी माँ ने उस कुकर बहुरानी को नीचे से मिटटी का बॉटम पैक लगा कर पहली बार उसमें खीर बनाने की कोशिश की जो सीटी लग कर बाइज्जत फट फटा गया फिर बिना ढक्कन लगाए ही खीर बना कर बहुरानी की बोहनी की गयी।  

अब पड़ोस की सुनिए , एक आँटी रात के लगभग आठ बजे कूकर लिए हुए घर पहुंची और बताया की बहू का ढक्कन ही बहार आने को तैयार नहीं है [कुक्कर  का ढक्कन एक विशेष स्थान पर ही पहुँच कर खुल पाता है ] सो उन्हें वहीँ क्रैश कोर्स करवाया गया।  मेरी दीदी जिन्होंने हॉन्किंस का वो निर्देश और उसमें दी गयी रेसिपी वाली पुस्तिका को पूरा पढ़ डाला था सो उन्हें पता चल गया था कि इसे संचालित कैसे करना है।  

अगले दिन कोई बिना रबर चढ़ाए खाना बनाने की असफल कोशिश तो कोई अचानक से तेज़ सीटी की आवाज़ से चीत्कार मार उठने के किस्से सुनाने आता जाता रहा।  बहुत समय बाद अनुज भी अपने साथियों के साथ ऐसे ही ढक्कन निकालने की अथक कोशिश करने के बाद पड़ोस से कसी को बुला कर लाया और उन्होंने उसे दिखा कर समझाया की कैसे खोला जाता है कुकर का ढक्कन।  



इसके कुछ बरसों बाद गैस चूल्हे का भी अपना स्वैग आया और ये वो समय था जब चेतक स्कूटर और गैस कनेक्शन के लिए सालों पहले नंबर लगाया जाता था और जब वो डिलीवर होता था तो आसपास से अलग विशेष स्टेटस वाली फील अपने आप आ जाती थी।  हम गैस का उपयोग करते आ रहे थे , लेकिन हमारे यहां पड़ोस में रह रहे एक अंकल जी के यहॉं गैस चूल्हा पहली बार आया।  मैं तब मैट्रिक में था ,उन्होंने मुझे   उसे संस्थापित करने में मदद करने के लिए बुलाया जो मैंने बड़ी आसानी से कर लिया।  

बस फिर क्या था ,मुझे याद है की उसके बाद उन अंकल की मित्र मंडली में आए कम से कम दर्जन भर से अधिक गैस चूल्हों को एसेम्बल करने के लिए वे मुझे अपने स्कूटर पर पीछे बिठा कर ले जाते और उधर बर्नर नीला होता और इधर घरवाले हमें रसगुल्ले की मिठास से गीला कर रहे होते।  शुरू शुरू में मुझे थोड़ी शर्म और झिझक भी होती थी मगर चूल्हे जलने के बाद पूरे घर के लोगों के चहरे पर आई वो ख़ुशी की चमक धीरे धीरे मेरी सारी झिझक ख़त्म करती चली गयी।  



हाय रे , वो दिन और उन दिनों की बात , तो जैसा कि मैं कहता हूँ #येउनदिनोंकीबातथी 


मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

ये उन दिनों की बात थी





#येउनदिनोंकीबातथी 

​वो वर्ष शायद 96 -97 के आसपास का रहा होगा।  मुझे ये तो याद नहीं कि अपनी किस प्रतियोगी परीक्षा को देने के दौरान मैं कोलकाता अपने चचेरे भैया चुन्नू भईया के यहां पर ठहरा हुआ था।  उन दिनों जैसा कि अक्सर सफर में ​आते जाते रुकते चलते हो जाया करता था हम टूथ ब्रश ,शेविंग किट आदि भूल जाया करते थे और फिर हर नई जगह पर पहुँच कर उन्हें खरीद कर फिर वहीं भूल कर आगे निकल जाते थे।  

अब तो लगातार सफर करने के अनुभव ने जाने क्या क्या सिखा समझा दिया तो सफर के सामना में टॉर्च ,रस्सी ,दवाई के साथ साथ सब कुछ वाईन्ड अप करने के बाद सामानों को क्रॉस चैक करने की आदत बाय डिफ़ॉल्ट सी हो गयी है। 

तो उन दिनों कोलकता में परीक्षा देने के बाद कोलकाता से मेरी वापसी हो गयी। थोड़े दिनों बाद भाभी का फोन आया तो उन्होंने इस बीच वहां घटा बड़ा ही मजेदार वाकया सुनाया। हुआ ये की चुन्नू भईया के बड़े साले साहब किशुन जी भी उन्हीं दिनों किसी काम से कोलकाता गए हुए थे। उन्होंने एक दिन अचानक जल्दबाजी में या बिना देखे हुए भूलवश जब ब्रश करके बाहर निकले तो हमारे भाभी यानी अपनी बहन श्री से कहा ये भोला अपना जो टूथपेस्ट भूल गया था उसमे झाग तो बहुत बढ़िया आता है मगर स्वाद एकदम बकवास है इसका। भाभी ने जोरदार ठहाका लगा कर उन्हें कहा कि अपने ध्यान से नहीं देखा वो शेविंग पेस्ट था टूथ पेस्ट नहीं।  जब वो ये बात मुझे फोन पर बता रहीं थीं तो मैं ये दृश्य कल्पना करके ही पेट पकड़ कर हँसते हँसते लोट पोट हो गया था। 

ऐसे ही एक बार ,नौकरी लगने के कुछ दिनों बाद मेरा गाँव जाना हुआ ,वो शायद काली पूजा का समय था और गाँव में बहुत सारे मेहमान रिश्तेदार आदि भी हमेशा की तरह आए हुए थे।  मैं स्नान के लिए लिरिल साबुन का प्रयोग किया करता था जिसकी नीम्बू युक्त मादक गंध बहुत समय तक न सिर्फ देह को बल्कि चापाकल के आसपास के स्थान को भी गमकाए रखती थी।  मेरे एक काकाजी अक्सर नहाने के बाद पूछते थे भोला ये तेरा साबुन बहुत खुशबू मारता है। मैं मुस्कुरा कर रह जाता था। 


  एक दिन मेरे स्नान करने के तुरंत बाद वे स्नान करने उसी चापाकल पर आए।  थोड़ी देर बाद स्नान करके मुझे साबुन दानी पकड़ाते हुए कहा कि भोला आज तेरे साबुन से मैं भी नया लिया। खुशबू  तो अलग थी मगर झाग से पूरा बदन भर गया। स्नान का तो आनंद आ गया। 

अब हैरान होने की बारी मेरी थी क्यूंकि मुझे याद था कि स्नान वाला साबुन तो मैं अपने तौलिये और लोटे के साथ ही उठा लाया था अपने कमरे में। मैंने साबुन दानी खोल कर देखी। उसमें उन दिनों नया नया चला वो खुशबू और झाग से कपड़ों को भर देने वाला एरियल या रिन जैसा कोई नीला साबुन था।  अब मैं समझ गया था कि उसमें से झाग और खुशबू इतनी भरपूर क्यों आई।  मगर मैंने काका जी की चेहरे की ख़ुशी और मासूमियत के कारण बिना उन्हें कुछ कहे बस मुस्कुरा कर रह गया।  

आह वो दिन ,और उन दिनों के वो मासूम किस्से 

रविवार, 15 मार्च 2020

उदयपुर ,माउंट आबू वाया रोड -आखिरी भाग








इस पूरी यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए आप  प्रथम ,द्वितीय ,तृतीय और चतुर्थ भाग को भी पढ़ देख सकते हैं | 

तो जैसा कि पिछली पोस्ट में मैं आपको बता चुका का था कि उदयपुर में बरसों से रह रहे अपने बहन और बहनोई के बताए अनुसार ही माउंट आबू के अगले दोनों दिनों का कार्यक्रम हमने तय किया था और जिसके अनुसार पहले दिन करीब बारह बजे घूमने का शुरू हुआ हमारा दिन सिर्फ नक्की झील ,हनीमून प्वाइंट और सनसेट प्वाइंट देख कर ख़त्म हुआ था और अब अगले दिन सुबह माउंट आबू के आखरी और सबसे ऊँचे छोर ,गुरु शिखर से शुरू करते हुए हमें वापसी में सारे दर्शनीय स्थल देखते हुए वापसी करनी थी | 

होटल बंजारा ,काफी पुराना बना हुआ एक औसत दर्ज़े का होटल था ,अच्छी बात सिर्फ इतनी थी कि ,होटल का खाना अच्छा था और पास के नक्की झील के बिलकुल करीब था | दिन भर की थकान के बावजूद और दिल्ली से माउंट आबू पहुँचने के बावजूद भी नराधम टेलीविजन ने वहाँ भी घुसपैठ मचा रखी थी और परिवार में टीवी के प्रति बिल्कुल परहेज़ रखने वाले मुझ एक अकेले प्राणी के लिए वहाँ ऐसे समय का प्रिय काम होता है दिन में खींची तस्वीरों को कई बार देखना। ....




सुबह आठ बजे तक हम सब नहा धो कर नाश्ते के उपरान्त सीधे गुरु शिखर के लिए निकल पड़े | मुख्य आबू कस्बे से पूर्व की ओर लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है गुरु शिखर | गुरु शिखर ,अरावली पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी है और माता अनुसूया एवं ऋषि अत्रि के पुत्र मुनि दत्तात्रेय के तपोस्थल के रूप में विख्यात है | माता अनुसूया की कथा अपने आप में जितनी रोचक है उससे ज़रा सी भी कम रोमांचक नहीं है ये गुरु शिखर | कहते हैं कि चाहे पूरे राजस्थान में लू चल रही हो मगर गुरु शिखर पर शीतल हवा चलती है जो हमें खुद भी महसूस हुआ | 







दूर चोटियों पर दिखता गुरु शिखर 


शिखर के शीर्ष पर स्थित विशाल घंटी 

गुरु शिखर से आसपास का विहंगम दृश्य 



ऊपर से नीचे तक का दृश्य 




वहीं बिकती स्थानीय मूल कंद की दूकान 


मुनि दत्तात्रेय की पवित्र गुफा 




गुरु शिखर के शीर्ष पर 
वहां से नीचे उतरते हुए सीढ़ियों पर स्थित विविध सामग्रियों , सुन्दर पेंटिंग्स ,मेहंदी ,चूड़ी ,रेशमी परिधान ,की ढेर सारी दुकानों में खरीददारी करते हुए हम वापसी के लिए निकल पड़े | नीचे आते हुए सबसे पहले सामने मिला प्रजापति ब्रह्माकुमारी का अंतर्राष्ट्रीय शान्ति केंद्र व ठीक उसके सामने ही स्थित और क़यामत जैसा खूबसूरत शांति उपवन |


भवन के अंदर स्थित राधा कृष्ण की सुन्दर मूर्ति 





अंतर्राष्ट्रीय शान्ति भवन का मुख्यद्वार

मुझे दर्शन कोई सा भी हो अक्सर प्रभावित तो करता ही है और मैं भी उसे समझने का भरसक प्रयास करता हूँ | ॐ शांति के रूप में पुष्पित इस संस्थान के कार्य ,उद्देश्य ,और व्यवहार में मुझे इनके नाम के अनुरूप ही शांति की अनुभूति हुई फिर मेरे प्रिय भगवान शंकर के आराध्य सत्य सनातन शाश्वत शिव के ओज की बात हो रही थी | मुझे बहुत ही शान्ति की अनुभूति हुई | शान्ति उपवन बहुत ही श्रम से सजाया संवारा हुआ और बहुत विस्तार से बना हुआ खूबसूरत स्थल है |



अर्बुदा माँ का मंदिर 




माँ अर्बुदा 



भीतर की मूर्ति 






अष्टधातु के नंदी

समय तेज़ी से बीत रहा था ,और बहनोई जी के निर्देश के अनुरूप हमें शाम होने से पहले ही वापसी करनी थी | हमारा आखरी पड़ाव था दिलवाड़ा जैन मंदिर जो जैन सम्प्रदाय का विश्व में सबसे बड़ा पूजनीय स्थल है | जैन मंदिरों में प्रवेश आराधना और व्यवहार के अपने  होते हैं जिनमे से एक था फोटोग्राफी पर प्रतिबन्ध | बेहद खूबसूरत नक्काशीदार मंदिर और प्रांगण |

दोपहर के लगभग 4 बजे हम आबू पर्वत के घुमावदार रास्ते से निकल कर उसी खूबसूरत हाइवे पर थे | 









रास्ते में पड़ने वाला खूबसूरत टनल 






बहन के घर के आसपास की गली

हालांकि ये उयदयपुर का पहला सफर रहा कर इसके बाद के सारे सफर इससे कहीं अधिक यादगार और रोचक रहे और बहुत सारे नए जगहों को देखने के बायस भी | उदयपुर ने मन को मोहपाश में बाँध लिया था जैसे 

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

जयपुर ,उदयपुर , माऊंटआबू वाया रोड- (यात्रा संस्मरण-भाग 2)






इस यात्रा को सड़क मार्ग से ही तय करने का कार्यक्रम जब बनाया था तब मुझे ठीक ठीक अंदाजा नहीं था कि, जयपुर से उदयपुर का मार्ग ,बीच में पड़ने वाले शहर आदि की जानकारी ठीक ठीक नहीं थी | न ही अब तक मैं कभी जयपुर से आगे कभी बढ़ा था | किन्तु राजस्थान की सादगी सरलता और अपेक्षाकृत बहुत शांत होने के कारण और लोगों की सहृदयता मैं बरसों से देखता आ रहा था सो निश्चिंत था कि ,सफ़र में हमें कोई कठिनाई नहीं आएगी |

मौसम राजस्थान का बेहद खूबसूरत होता है इन दिनों , खूब बड़ा सा सूरज जब साफ़ आसमान में चमकता है तो दिल्ली मुंबई जैसे शहरों से कहीं अधिक चमकीला और खूबसूरत दिखता है और सुबह तड़के से लेकर शाम तक आपके साथ साथ चलता है |


पिछले कुछ समय में राष्ट्रीय राजमार्गों पर बहुत तेज़ी से और बहुत बेहतरीन काम हुआ है | इस बात का अंदाजा तब बखूबी होता है जब आप इन सडकों पर गाड़ी  से भी बहुत आरामदायक रूप से पुराने हिन्दी गीतों को सुनते और सबसे सुन्दर बात कि आसपास के जो मनोरम नज़ारे आपकी आँखों  के सामने से फिसलते जाते हैं उन्हें मानों नज़रों के सहारे आप अपने भीतर सब कुछ समेट लेना चाहते हों | 

जयपुर से उदयपुर के बीच कुछ देखने घूमने वाले शहर हैं जैसे अजमेर ,पुष्कर ,किशनगढ़ आदि , किंतु हमारा इंतज़ार तो उदयपुर की वादियां कर रही थी | धूप धीरे धीरे और गर्म होती जा रही थी | सफर पूरे दिन का था और मंज़िल रास्ते जैसी ही खूबसूरत थी || 


अगली पोस्ट में हम घूमेंगे उदयपुर की वादियों में और फिर माउंटआबू के रोचक किस्सों कहानी में , तब तक आप ये सुन्दर फोटो देखिये 
















रविवार, 23 जुलाई 2017

ज़रा बता कितने दिनों से मिट्टी को नहीं छुआ




रे मिटटी के मानुस आखिर ये तुझे क्या हुआ ,
ज़रा बता कितने दिनों से मिट्टी को नहीं छुआ ...

आज शाम अचानक पैर की एक उंगली हल्की से चोटिल हो गयी , पास पड़े गमले में से मेरे डाक्टर साहब को निकाल कर मैंने वहां लगा लिया ,सो बरबस ही मुझे ये किससे याद आ गए | वैसे मेरा बहुत सारा समय मिट्टी के साथ ही गुजरता है , मैं मिट्टी मिट्टी होता रहता हूँ और पूरी तरह मिट्टी ही हो जाना चाहता हूँ ......


यकीन जानिये मैं गंभीर होकर पूछ रहा हूँ और खासकर हमारे जैसे उन तमाम दोस्तों से जो अपनी जड़ो से दूर , खानाबदोश बंजारे हो कर , इस पत्थर , सीमेंट की धरती वाले जड़(बंज़र) में कहीं आकर आ बसे , सच बताइये आपको कितने दिन हुए , कितने महीने या शायद बरस भी , मिट्टी को छुए महसूसे , मिट्टी में खेले कूदे और मिट्टी की सौंधी सुगंध को अपने भीतर समेटे हुए ......


चलिए जितनी देर आप सोचते हैं उतनी देर तक कुछ पुरानी बातें हों जाएँ , जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूँ कि , बचपन से ही बहुत सारे दूसरे बच्चों की तरह हम भी पूरे दिन घर से बाहर ही उधम मचाते थे और हर वो शरारत और खेल में शामिल पाए जाते थे जो उन दिनों खेले जाते थे और ज़ाहिर था कि खूब चोट भी खाते थे , बचपन में ही एक नहीं दो दो बार बायें कोहनी में हुआ फ्रेक्चर भी , खेल खेलते ही हुआ था |


मगर मैदान में खेलते हुए जितनी भी बार गिरे , चोटी चोट खाई , छिलन हुई ...उसका तुरंत वाला फर्स्टएड ईलाज और बेहद कारगर था ......धरती की मिट्टी | कोइ बैंडएड कोइ पट्टी कोइ मरहम जब तक आता तब तक तो मिट्टी लगा के मिट्टी के बच्चे फिर मिट्टी में लोट रहे थे | आज के बच्चों के तो कपड़ों पर भी मिट्टी लग जाए तो न सिर्फ बच्चा बल्कि उसके अभिभावक भी एकदम से चिंतित हो जाते हैं , जबकि वैज्ञानिक तथ्य ये कहते हैं कि मिट्टी में कम से कम बयालीस से अधिक तत्व पाए जाते हैं जो मिट्टी के बने इस मनुष्य के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होते हैं |



यहाँ देखता हूँ तो पाता हूँ कि शहरों में मानो होड़ सी लगी है ज़मीन को छोड़ कर आसमान की ओर लपकने की , हमारा फैलाव ज़मीन से जुड़ कर नहीं , जमीं से ऊपर उठ कर हो रहा है , गगन चुम्बी अपार्टमेंट अब एक आम बात हो गयी है , यहाँ हम ये भयंकर भूल कर रहे हैं कि जिन पश्चिमी देशों से ये ऊंची ऊंची इमारतों में निवास बनाने की परिकल्पना आयातित की गयी है वे इस देश और इस देश की धरती से सर्वथा भिन्न हैं | इन्सान बार बार ये भूल जाता है कि बेशक जितना ऊपर उड़ ले , आखिर उसे आना इसी मिट्टी में ही और उसे क्या उसके पहले के सभी कुछ को सदियों और युगों या शायद उससे भी पहले से भी यही और सिर्फ यही होता आया है |




बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

बसंत पंचमी , सरोसत्ती पूजा और रंग अबीर


ये मूर्तियां , मां शारदे की जय के नारे से गुण्जायमान हो रही होंगी


आज का ही दिन , बहुत बरसों पहले , बहुत बरसों पहले इसलिए कहा है क्योंकि दिल्ली में खानाबदोशी के जीवन से पहले जब एक स्थाई और बहुत ही खूबसूरत जिंदगी जिया करते थे उन दिनों , आज का दिन , यानि वसंत पंचमीं के दिन का मतलब था , सज़ा हुआ दालान , प्रसाद की खुशबू से गमकता -महकता हुआ आंगन और ऊपर रंग बिरंगी पताकाओं की लंबी लंबी लडियों से दूर दूर तक की सज़ावट , खूब जोर जोर से बजता हुआ भौंपू जिसमें हम अपने अपने स्वाद के हिसाब से गला फ़ाड साउंड में गाने चला के सुना करते थे । मगर रुकिए किस्सा यहां से नहीं शुरू होता था ।

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जैसा कि मैंने अनुभव किया है कि चाहे जो भी कहिए अपने देश का एक गज़ब का रिवाज़ है और वो है हमारे त्यौहारों पर्वों की अधिकता और विशिष्ट होने के कारण कमाल की रोचकता । अब देखिए न इत्ता खुशकिस्मत देश भी और कौन सा होगा या कितने होंगे जिन्हें शीत ऋतु , ग्रीष्म ऋतु , शरद और वसंत तक प्रकृति का हर रंग देखने को मिलता है , हम वसंत में रंगों से सराबोर हो उठते हैं , तो शीत ऋतु में रौशनियों की चकमकाहट , यानि कि हमारे पास जितने ज्यादा बदलते हुए मौसम हैं , उससे भी ज्यादा उन्हें सैलिब्रेट करने की वज़हें ।
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मुझे याद है कि सरस्वती पूजा , जिसे उन दिनों बच्चे फ़्लो में सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती पूजा कहते थे , की तैयारी तो संभवत: वर्ष के शुरूआती दिनों से ही हो जाती थी और उसमें सबसे पहले काम होता था प्रतिमा बनाने वाले कुम्हार को इसके लिए बेना(बयाना) देना । हम उन्हें जाकर बता देते थे कि हमें कितनी बडी ,छोटी और कैसी मूर्ति चाहिए । सरस्वती पूजा हम अपने ही दालान पर किया करते थे , वो भी जब देखा कि हमारे बहुत सारे मित्र अपने अपने दालानों घरों पर सरस्वती पूजा बडे ही मनोयोग से कर रहे हैं तब हम जो अपने टोले के कुछ मित्रों ने भी यही सोचा कि हमें भी मां शारदे की पूजा अर्चना के इस दिन को उत्साह पूर्वक मनाना ही चाहिए । हम सब मित्र इसके लिए साल भर में जमा किए हुए पैसों का उपयोग करते थे और जो कमती बढती होती थी उसके लिए अभिभावकों को पटाया जाता था ।
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स्थान और प्रतिमा का निर्धारण होने के बाद तैयारियां शुरू हो जाती थी , बाजा वाले को साटा देना (यानि उस दिन के लिए उसे बुक करना ) , दरी , सजावट का सामान , प्रसाद का सामान , पूजा सामग्री , आदि तमाम कार्य सबके जिम्मे लगाए जाते । असली तैयारी शुरू होती थी दो दिन पहले जब हम मेहराब ( बांस की बाति{हरे कच्चे बांस को चीर के बनाई गई लंबी छोटी खपच्चियां ) ,अशोक के पत्ते , रंगीन कागज़ों को तिकोनी कटाई और फ़िर उन्हें लंबी सुतरियों पे बांध के दूर दूर तक लगाई जाने वाली पताकाएं । और यहां से जो हमारी जीत तोड मेहनत और भाग दौड का सिलसिला शुरू होता था तो फ़िर वो प्रतिमा विसर्जन तक यूं ही चलता रहता था ।

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पूजा से एक दिन पहले हम बैलगाडी पर बैठ कर मूर्ति लाने के लिए निकलते थे , जहां से ये मूर्ति लाई जाती थी वो गांव लगभग सात आठ किलोमीटर था , कच्चे पक्के रास्ते और हिचकोले खाती हमारी बैलगाडी । मूर्ति को किसी भी झटके से बचाने के लिए बैलगाडी में खूब सारा पुआल बिछा कर उसे गद्देनुमा बना दिया जाता था और फ़िर कुछ ज्यादा सक्षम मित्र प्रतिमा को उस गांव से लेकर अपने दालान तक लाने के लिए विशेष जिम्मा उठाते थे । प्रतिमा को साडी या बडी चुनरी से अच्छी तरह ढांप कर खूब जोर जोर से गला फ़ाड नारे , सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती माता की जय ..मां सरस्वती को दालान पे बनाए गए चौकी प्लेटफ़ार्म पे स्थापित किया जाता था ।
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पूजा की सुबह से पहले की वो रात अब भी यूं की यूं याद है कि जब मां के जिम्मे प्रसाद , पूजा , आदि की तैयारी , के अलावा हम सबको रात भर दूध/चाय भिजवाते रहना ताकि दोस्तों की मंडली उर्ज़ा के साथ काम करती रहे । मूर्ति, पांडाल , पताकाएं , सब कुछ सजाते सजाते भोर हो जाती थी । अधिकांशत: पूजा पर भी मैं ही बैठता था और उसकी वज़ह थी , मुझे रंगीन धोती पहनने का बहुत ही शौक था , अब भी है , और संस्कृत के मंत्रोंच्चारण से प्यार । उन दिनों मुझे स्त्रोतरत्नावली से तांडव स्त्रोत सहित जाने कितने ही स्त्रोत यूं ही कंठस्थ हो चुके थे मैं नियमित रूप से सुबह पूजा भी किया करता था , ये बदस्तूर अब भी जारी है ।
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नियत समय पर पूजा अर्चना और प्रसाद वितरण के बाद होता था गला फ़ाड बाजा बजाने का सर्वप्रिय कार्यक्रम , हालत ये हो जाती थी कि जब तक आंगन से मां और चाचियां हमें दौडा कर पीटने को उतारू न हो जाती थीं तब तक उसका वोल्यूम यूं ही बढा रहता था । पूजा के बाद सभी दोस्तों की मंडली निकलती थी अन्य दोस्तों द्वारा की जा रही पूजा में शामिल होने के लिए , प्रसाद लेने के लिए और सज़ी धज़ी मां शारदे को देखने के लिए । एक दिलवस्प बात बताना ठीक होगा कि जैसा कि उन दिनों हम मानते थे कि मां शारदे के चरणों में सारी पुस्तकें रख देने से हमें जरूर अच्छे नंबर आएंगे और मैं तो सबसे ऊपर गणित की पुस्तक ही रखता था :) :) :) :) ।
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दोपहर को भजन कीर्तन का दौर चलता था , ढोल मंजीरे और तालियां मार मार के सारे सुरों की ऐसी तैसी करते हुए हम सरस्वती माता को प्रसन्न करने का फ़ुल टू जोर लगाते थे । शाम की पूजा के बाद गैस वाली पैट्रोमैक्स लाइट से रौशनी की जाती थी । और कार्यक्रम के नाम पर उन दिनों का एकमात्र और सबसे पसंदीदा आयोजन होता था , वीसीआर के साथ तीन पिक्चरों का दौर (वीसीआर और वो तीन पिक्चरें ---एक पोस्ट पढवाउंगा आपको इनसे जुडी यादों से भी ) ,सुबह तक हमें ये याद नहीं होता था कि कौन से पिक्चर का कौन सा संवाद था ।
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अगले दिन दोपहर के समय मूर्ति विसर्जन का समय होता था । बाद में तो प्रतिमा को दो तीन या जितने भी दिन मन हो रखा जाने लगा था , मगर उस समय हम यही करते थे । मां शारदे की विदाई का समय ठीक वैसा ही होता था जैसे कोई घर की बेटी गौना कराके ससुराल जाने की तैयारी में हो । बैलगाडी को खूब सज़ाया जाता था , और हम सब , जितने उस बैलगाडी पर लद सकते थे उतने सब , ढोल मंज़ीरों से लैस होकर बैठ जाया करते थे । उस दिन पहली बार फ़िज़ा में गुलाल की खुशबू और रंग जम कर उडाए जाते थे , और यूं लगता था मानो हमने वसंतोत्सव और फ़ागुन का आगाज़ कर दिया हो ।
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खूब गाते बजाते पूरे गांव घूमते हुए , बीचोबीच बने सरोवर में हम प्रतिमा को पूरी श्रद्धा के साथ विसर्जित करते थे । जनवरी फ़रवरी के गांव के बेहद सर्द दिनों में , सरोवर के जमा देने वाले पानी में जब हम दोस्त मां सरस्वती की प्रतिमा को हाथों में उठाए ज्यादा से ज्यादा आगे ले जाने की धुन में उतरते थे तो वो आनंद ही कुछ और होता था । थके हारे हुए वापस आने पर सबको ठंडाई मिलती थी वो भंग तरंग वाली , और शाम को जो रंग जमता था ,उसके क्या कहने .............। गांव से शहर आने के बाद भी ये सिलसिला चलता रहा शायद बहुत सालों तक , हमारी जगह अगली फ़ौज़ आई , उसके बाद उससे भी अगली , और अब भी ये चल रहा है .. अभी हाल ही में जब गांव गया था तो पोस्ट के ऊपर खींची हुई फ़ोटो इसका प्रमाण है । चलते चलते ..हमारे पवन भाई का कार्टून भी देखें आप







मंगलवार, 14 जनवरी 2014

मकर संक्रांति वाया लाय चुडलाय एंड खिचडी

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सभी मित्रों को मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं








Photo: आप सभी को मकर संक्रांति की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !


 मकर संक्रांति के दिन से जुडी बचपन की जो बहुत सारी यादें हैं उनमें से सबसे पहली है जनवरी की सर्द कोहरे भी सुबह में ठंडे ठंडे पानी से नहाना । और नहाना इसलिए भी कंपल्सरी था या कहें कि बिना किसी दबाव के इस कंपल्सरी रूल को मान लिया जाता था क्योंकि नहाने के तुरंत बाद ही तो लाय चुडलाय तिलबा ( मुढही , चिवडे और तिल को भून कर गुड की चाशनी में लपेट कर बनाए गए छोटे बडे लड्डू ) मिलना होता था ।


इस सुबह का इंतज़ार असल में तो साल के शुरू से ही रहता था लेकिन जब एक दिन पहले मां को चूडा , मुढही तिल गुड आदि सामग्री लाते और फ़िर उन्हें भूनते देखते थे और उसकी महक रसोई से निकल कर घर के सारे कमरों में चली जाती थी तो होमवर्क करते करते भी मन और जीभ दोनों ही रोमांचित हो जाती थी । ठंडे पानी से नहाने में कोई खास उर्ज़ नहीं होता था क्योंकि वैसे भी उन दिनों कौन सा गीज़र हीटर का जमाना था मगर हम थे तो आखिर बच्चे ही ।

मुझे याद है कि नहाने के बाद सबसे पहला काम होता था मां द्वारा एक रस्म का निभाया जाना जिसे हमारे मिथिला समाज में आज भी बदस्तूर निभाया जाता है । मां एक कटोरे में भीगे और फ़ूले हुए चावल , सफ़ेद तिल और गुड को मिला कर तैयार की हुई सामग्री हम सब बच्चों को बारी बारी से अपने हाथों से मुंह में खिलाते हुए पूछती थीं " तिल चाउड बहबैं " हम कहते थे "हं" । पूछने पर मां बताती थी कि मैंने ये खिलाते हुए पूछा है कि इसका मतलब वृद्धावस्था में तुम सब संतान हमारा बोझ वहन करोगे न , और हम कहा करते थे हां । जाने वो हम कितना कर पाए या नहीं , और सच कहूं तो मेरे मां बाबूजी ने तो हमें मौका ही नहीं दिया ।

इसके बाद बारी आती थी दिन के खाने की । पूरे बिहार में इस दिवस को खिचडी दिवस के रूप में भी मनाया जाता है , कारण यही कि उस दिन लगभग हर घर में दिन का खाना यही होता था , खिचडी और उसके चार दोस्त , अरे नहीं समझे , मां के शब्दों में

"खिचडी के चार यार
घी, पापड , दही अचार "



उस दिन के खिचडी का स्वाद ही अनोखा जान पडता था । मुझे तो याद है कि न सिर्फ़ अपने घर के खाने में बल्कि यदि कहीं न्यौता दावत भी खाने जाते थे तो भी खाने में यही खिचडी और उसके चार यार ही होते थे । गांव बदल गए , समाज बदल गया और बहुत कुछ हम भी बदल गए नहीं बदला तो ये मकर संक्रांति और नहीं बदला तो खिचडी खाने का रिवाज़ । कहते हैं कि इस पर्व के बाद शीत ऋतु का प्रकोप कम होना शुरू हो जाता है । अब बदलते पर्यावरण के प्रभाव में ये अब कितना सच झूठ हो पाता है ये तो ईश्वर ही जाने मगर मगर संक्रांति का पर्व अब भी बहुत ही उल्लास और हर्ष के साथ पूरे उत्तर भारत में मनाया जाता है । चलते चलते आप सबको पुन: बधाई और शुभकामनाएं ।


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