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शुक्रवार, 22 मई 2020

सायकल और आदमी



उस दिन फेसबुक की एक पोस्ट पर अनुज भवेश ने टिप्पणी करते हुए कहा की भैया इस बार जब हम सब गांव चलेंगे तो सब लोग सायकल पर ही सारी जगह घूमने जायेंगे।  ऐसा कहते ही सायकल चलाने के प्रति मेरे भीतर छुपी ललक और स्नेह जैसे एक मीठी सी टीस जगा गया।  मुझे जानने समझने वाले तमाम दोस्त रिश्तेदार जानते हैं कि सायकल के प्रति मेरी दीवानगी कैसी है और मैं सायकल चलने का कोई भी मौक़ा कहीं भी मिलता है उसे मैं नहीं छोड़ता।  

सायकल से मेरी यादें बचपन के उस ,सायकल के टायर चलने वाले खेल से शुरू होती है जिसमें हम बच्चे पुराने बेकार हो चुके टायरों को लकड़ी या बेंत के सहारे मार मार कर लुढ़काते हुए बहुत दूर दूर तक ले जाया करते थे और कई बार तो उन टायरों की हालत इतनी ख़राब होती थी कि वे लचकते हुए टेढ़े मेढ़े चलते थे मगर मजाल है कि हम बच्चों का जोश ज़रा सा भी कम हो।  


इससे थोड़ा बड़े हुए तो सायकल चलाना सीखने का यत्न शुरू हुआ और उन दिनों ये बच्चों वाली साइकिलों  का दौर नहीं था यदि किसी के पास थी भी तो मध्यम वर्गीय परिवार से ऊपर की बात थी।  हम अपने पिताजी की सायकलों की सीट पर अपने कंधे टिका कर कैंची सायकल चलाना सीखा करते थे और तब तक उसी अंदाज़ में चलाते थे जब तक बड़े होकर सीट पर तशरीफ़ टिका कर पैर जमीन पर टिकाने लायक नहीं हो जाते थे।  

ये वो दौर था जब गेंहूं पिसाई से लेकर , गैस के सिलेंडर की ढुलाई , सब्जी सामन आदि लाना तक , का सारा काम हमारे जैसे बच्चे अपने घरों के लिए इन्हीं सायकलों पर वो भी कैंची चलाते हुए ही किया करते थे।  यहां ये भी ज़िक्र करना रोमांचक लग रहा है कि हमारा पूरा बचपन पिताजी के साथ सायकल के पीछे लगे कैरियर , आगे लगने वाली सीट और उससे भी आगे लगने वाली छोटी सी टोकरी में बैठ कर ही घूमने फिरने की यादों से जुड़ा हुआ है।  

मुझे अच्छी तरह याद है कि सीट पर बैठ कर सायकल चलाने लायक होते होते और सायकल सीखते हुए जाने कितने ही बार कुहनियों और घुटनों को छिलवा तुड़वा चुके थे।  मगर कॉलेज जाने से पहले पहले सायकल की सीट पर बैठ कर उसे चलने लायक हो चुके थे।  स्कूल के दिनों में हुई सायकल रेस में प्रथम आना उसी सायकल प्रेम का नतीज़ा था।  

पूरा कॉलेज जीवन सायकल भी किताबों की तरह साथ साथ रहा।  गांव से कॉलेज 14 किलोमीटर दूर गृह जिला मधुबनी में था और कॉलेज की कक्षाओं के लिए रोज़ कम से कम 30 किलोमीटर सायकल चलाना हमारी आदत में शुमार हो गया था। इतना ही नहीं आपसास के सभी गाँव में रह रहे बंधु बांधवों के यहां रिश्तेदारों के यहां भी आना जाना उसी सायकल पर ही होता था।  जरा सी छुट्टी पाते ही सायकल को धो पांच के चमकाना तेल ग्रीस आदि से उसकी पूरी मालिश मसाज [ओवर ऑयलिंग ] करना भी हमारे प्रिय कामों में से एक हुआ करता था।  

नौकरी वो भी दिल्ली जैसे महानगर में लगी तो सब छूट सा गया और बिलकुल छूटता चला गया।  लेकिन अब भी जब गांव जाना होता है तो सबसे पहला काम होता है सायकल हाथ में आते ही निकल पड़ना उसे लेकर कहीं भी। हालाँकि गांव देहात में भी अब चमचमाती सुंदर सड़कों ने सायकल को वहां भी आउट डेटेड कर दिया है और अब सायकल सिर्फ गाँव मोहल्ले में ही ज्यादा चलाई जाती हैं किन्तु फिर भी बहुत से लोगों को मोटर सायकिल स्कूटर और स्कूटी आदि नहीं चलाना आने के कारण अभी भी सायकल पूरी तरह से ग्राम्य जीवन से गायब नहीं हुए हैं।  


जहाँ तक  मेरा सवाल है तो मैं तो सायकल को लेकर जुनूनी सा हूँ इसलिए अब भी सारे विकल्पों के रहते हुए जहाँ भी सायकल  की सवारी का विकल्प दिखता मिलता है मैं उसे सहसा नहीं छोड़ पाता हूँ।  अभी कुछ वर्षों पूर्व ऐसे ही एक ग्राम प्रवास के दौरान मैं किसी को भी बिना बताए सायकल से अपने गाँव से तीस पैंतीस किलोमीटर दूर की सैर कर आया था। अभी दो वर्ष पूर्व ही छोटी बहन के यहां उदयपुर में अचानक ही भांजे  की सायकल लेकर पूरे उदयपुर की सैर कर आया और वहां जितने भी दिन रहा सायकल से ही अकेले खूब घूमता रहा।  


गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

उदयपुर : हिन्दुस्तान का सबसे खूबसूरत शहर




उदयपुर राजस्थान के पश्चिमी छोर पर और गुजरात से बिलकुल सटा हुए न सिर्फ देश का सबसे खूबसूरत बल्कि विश्व का तीसरा सबसे स्वच्छ शहर है।  मेरी बहन का निवास स्थान होने के कारण मुझे न सिर्फ उस शहर को एक पर्यटक बल्कि एक नागरिक के रूप में भी समझने का अवसर मिला।  एक ही वर्ष में कार ,रेल ,बस द्वारा मैंने सपरिवार अनेक यात्राएं की और हर बार नए अनुभव नए स्थान जान देख कर चित्त प्रसन्न हो जाता है।  इस शहर की सामाजिक और भौगोलिक खूबसूरती के अतिरिक्त यहां के पावन धार्मिक स्थलों का अनुपम अद्वितीय सौंदर्य किसी को भी मोहित कर सकता है और मुझ जैसी प्रकृति प्रेमी को तो ये इतना भा गया है कि मैंने निश्चय किया है कि सेवा अवकाश के पश्चात इसी शहर को अपना स्थाई निवास स्थान बनाऊंगा। अब से लेकर आगे कई पोस्टों तक मैं आपको वो दिखाऊंगा और समझाऊंगा जो मैंने इस शहर के बारे में अनुभव किया।  इसकी शुरुआत इन खूबसूरत तस्वीरों से करते हैं। 
















बुधवार, 11 मार्च 2020

सनसेट प्वाइंट देख कर न निकलें माउण्ट आबू से





यात्रा के पिछले भागों को आप यहां यहां और यहॉँ पढ़ सकते हैं

          ये तो मैं आप सबको पिछली पोस्टों में बता ही चुका हूँ कि बहन और बहनोई जिनका निवास पिछले दो दशकों से उदयपुर में ही है और उन्होंने जैसे निर्देश हमें दिए उसने हमें बहुत ही सहूलियत दी कैसे हम कम समय में अपनी इस पहली ट्रिप में ज्यादा से ज्यादा स्थान घूम सकें | ऐसे ही माउंट आबू के लिए  निकलते समय हमसे उन्होंने कहा था की माउंट आबू से अपनी वापसी आप लोग शाम होने से पहले पहले की ही रखियेगा यानि आबू जाने के पहले दिन ही वहां का एक मुख्य आकर्षण "सनसेट पॉइंट " देख लें ताकि फिर उस रात्रि वहां विश्राम करने के बाद अगले दिन माउंट आबू के अन्य स्थल देख कर हम शाम ढलने से पहले ही आबू पर्वत के रास्ते की हद से बाहर निकल जाएँ | आबू जाते हुए और वापस आते हुए दोनों ओर घने जंगल और उनमें विचरते जंगली जीवों को देख कर समझ आया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था | 





उदयपुर से निकलते हुए हमें सुबह के आठ से ज्यादा हो चुके थे ,गुनगुनी धूप ,साफ़ सुथरे रास्ते और दोनों तरफ पहाड़ियों का सिलसिला ,बीच में ढाबे पर रुक कर पराठा और चाय का नाश्ता करते निपटते हम लगभग 11 बजे के आसपास माउंट आबू में दाखिल हो गए | अपने होटल "बंजारा" (जो कि बिलकुल अपने नाम के अनुरूप बंजारा आवारा सा ही निकला ) में हाथ मुँह धोकर तरोताज़ा होकर हमारा पहला ठिकाना बना नक्की झील |

नक्की  झील माउंटआबू के सबसे खूबसूरत और लोकप्रिय दर्शनीय स्थल में से एक है | कहते हैं कि एक तरफ मैदान और एक तरफ पहाड़ी से घिरे इस खूबसूरत झील का निर्माण "नाखूनों से खोद या खुदवा कर हुआ था " इसलिए भी इसका नक्की झील पड़ा | झील के दूसरी तारफ भारत माता का एक छोटा सा खूबसूरत सा मंदिर भी बना हुआ है | नक्की झील अपनी बोटिंग सुविधाओं और राइड्स के लिए तो मशहूर है इसके साथ ही यहां माउंट आबू के पचास से अधिक दक्ष फोटोग्राफर भी पर्यटकों को झील के किनारे ,बोटिंग करते हुए ,राजस्थानी परिधान में और पास ही स्थित हनीमून पॉइन्ट पर विभिन्न्न भाव भंगिमाओं में फोटो खींचते देखे जा सकते हैं | सर्दियों के दिनों में भी धूप काफी तीखी और गर्म थी सो बोटिंग करते करते ही सबको तेज़ भूख लगने लगी | झील क्षेत्र में ही बने छोटे बाजार में किसी रेस्त्रां में दोपहर का भोजन किया गया जो कुल मिला कर संतोषजनक था |




नक्की झील में मनोरम बोटिंग 

तेज़ धूप में गरमी लगने लगी थी 


भोजन और भ्रमण के तुरंत बाद हम वहां से पास में ही स्थित सनसेट प्वाइंट के लिए निकल पड़े जो नक्की झील से बमुश्किल दो किलोमीटर की दूरी पर एक निर्जन और बियाबान सा स्थल है | वहां बने अलग अलग चबूतरेनुमा प्लेटफॉर्म पर शाम चार बजे के बाद से ही पर्यटक पहुँचने   लगते हैं और देर शाम तक सूरज को पहाड़ों के बीच धीरे धीरे गुम होते  देखना कैसी नैसर्गिक करिश्मे को महसूस करने जैसा है | 

आजकल मोबाइल ने हमारे जीवन सहित ऐसी तमाम जगहों पर  अपने उपयोग की सबसे अधिक गुंजाइश बना ली है | नतीजतन ,यहाँ भी हमारे अलावा भी लगभग सब आसपास के नज़ारों को ,और उनके बीच खुद को कैद करना चाह रहे थे | इन शब्दों को लिखते समय भी मैं पहाड़ों के बीच की वो उष्मा स्पष्ट महसूस कर पा रहा हूँ | शाम के गहराने से पहले ही हम वापसी का रुख कर चुके थे | चूँकि बियाबान जंगल होने के कारण वहाँ तेंदुए भालू आदि जैसे जानवरों के आ जाने की चेतावनी भी जगह जगह लगी हुई थी जिसे नज़रअंदाज़ करना उचित नहीं लगा | 



अपने हिस्से की धूप समेटते  हुए 



 अगला दिन हमारा माउंट आबू में आखरी दिन था सो एक सिरे से सब कुछ देखने का कार्यक्रम पहले से ही तय था , हम तड़के नाश्ता करके माउंट आबू और संभवतः राजस्थान की सबसे ऊँची पर्वत चोटी "गुरु शिखर " की और निकल पड़े। ..

शेष। .............इस यात्रा  का आखरी पड़ाव और आखिरी पोस्ट पढ़ेंगे आप अगले भाग में | 

दूर चोटियों पर दिखता गुरु शिखर 


शनिवार, 24 अगस्त 2019

दिल्ली से जयपुर ,उदयपुर ,माउंटआबू ....वाया रोड (तृतीय भाग )





इस यात्रा के किस्से आप यहां और यहां पढ़ सकते हैं

  जीपीएस होने के बावजूद भी हम थोड़ी देर के लिए अजमेर से आगे जाने के रास्ते में अपना अनियमित मार्ग भूलकर दूसरे रास्ते की ओर बढ़ गए मगर जल्दी ही हमें एहसास हो गया कि शायद हम एक गलत टर्न ले चुके हैं ऐसे में बेहतर यह होता है कि आप रास्ते में पड़ने वाले हैं हर छोटी दुकान कोई बीच में पढ़ने वाला कस्बा हो वहां किसी से भी पूछताछ करते चलें और हां सिर्फ एक  व्यक्ति  या इंसान या इंसान से पूछ कर ही ना निश्चिंत न  हो जाएं आपको आगे और भी व्यक्तियों से पूछते हुए आगे जाना चाहिए ताकि क्रॉस चेकिंग भी हो जाए और आप ठीक-ठाक रास्ते पर चलते रहें |

 इस दौरान बच्चों को भूख लगने लगी थी और प्यास भी | साथ रखा पानी भी अब खत्म हो रहा था | हम धीरे-धीरे उदयपुर की और बढ़ते  जा रहे थे मगर कोई कायदे  का ढाबा या छोटा दुकान देखने में नहीं आ रहा था ऐसे में यह सोचा गया कि किसी भी छोटे कस्बे से जो भी फल खीरा ककड़ी आदि मिलेगा उसे ले लिया जाए और कार में ही खाते हुए  चला जाए और हमने  किया भी यही | अब हमें धीरे धीरे उदयपुर से नजदीकी का एहसास होने लगा था | उदयपुर से बहुत पहले से ही आपको संगमरमर ,ग्रेनाइट आदि पत्थरों टाइलों की दुकानें गोदाम और कारखाने दिखाई देने लगते हैं |

इस बीच मेरे फेसबुक स्टेटस से मेरी छोटी बहन जो वहां उदयपुर में सपरिवार पिछले कई वर्षों से रह रही थी  उसे अंदाजा लग गया था कि हम जयपुर के रास्ते उदयपुर पहुंच रहे हैं और उसने हमारे वहां पहुंचने से पहले ही मुझसे यह वादा ले लिया कि मैं वहां पहुंचते ही सीधा उसके घर चला लूंगा |  किंतु क्योंकि मेरा कार्यक्रम पहले से तय था और अन्य सहकर्मियों के साथ मेरी बुकिंग भी वहां के स्थानीय होटल ट्रीबो  पार्क क्लासिक में हो चुकी थी इसलिए हमने पहले वहां रुकने का निर्णय किया हम आसानी से होटल में पहुंच गए |



यहां एक बात मैं बताता चलूं कि राजस्थान मैं अपने बहुत सारे सफर के दौरान जो बात एक ख़ास बात मैंने गौर की वो ये  कि यहां राजस्थान की स्थानीय गाड़ियों के अलावा जो वाहन सबसे अधिक संख्या में देखे पाए जा रहे थे वो  गुजरात नंबर वाले थे जाहिर था कि पड़ोसी राज्य होने के कारण हुआ गुजरात के जैन समाज व हिंदू धर्मावलंबियों से संबंधित बहुत सारे स्थानों के उदयपुर व  माउंट आबू में उपलब्ध होने के कारण ही यह होता है |

शाम होते होते हम  होटल पहुंच गए , हाथ मुंह धोकर तरोताजा हो ही रहे थे कि इतने में बहनोई साहब व बहन भी आ पहुंचे  |  हम सब सीधा छोटी बहन के यहां पहुंच गए वहीं  चाय पीते हुए हमने अपने आगे के कार्यक्रम के बारे में बताया तो ये  तय हुआ कि अगले दिन सुबह हम उदयपुर घूमेंगे (उस वक्त मुझे नहीं पता था की ये उदयपुर में हमारे पदार्पण  जैसा होगा और ये शहर इस तरह से दिल के करीब बैठ जाएगा कि एक वर्ष में ही चार बार आना जाना होगा और आखिरकार वहाँ पर स्थाई निवास बनाने के लिए भी मन उद्धत हो जाएगा )  और एक सिर्फ एक दिन उदयपुर घूमने के बाद हम उससे अगले दिन माउंट आबू के लिए निकल जाएंगे|

 2 दिन माउंट आबू में बिताने  के बाद जो  आखरी के दो दिन होंगे वह फिर दोबारा बहन के परिवार के साथ गुजारा जाएगा |  शाम ढल चुकी थी और उदयपुर की बहुत सारी खासियत में से एक यह  भी है कि वहां देर रात तक जागने या बाजारों में दुकानें खुली रखने भीड़भाड़ का कोई चलन नहीं है  9 9:30 बजे तक शांति फैलने लगती थी हम पूरे दिन के सफर के बाद थके हुए थे सो होटल में लेटते ही गहरी नींद के आगोश में चले गए ।


 अगली सुबह जब तक हम नहा धोकर घूमने की तैयारी कर रहे थे तब तक बहन और बहनोई भी हमें हमारे होटल में ही ज्वाइन करने आ चुके थे बच्चे सब स्कूल चले गए थे इसलिए वह हमारे साथ नहीं आ पाए जिसकी भरपाई हमने वापस आने पर की | 

 पहला पड़ाव उदयपुर का सिटी पैलेस था जो वहां के सबसे मुख्य आकर्षण स्थलों व कहा जाए कि उदयपुर की दूरी माना जाता था राजा उदय सिंह द्वारा निर्मित यह महल जिसे  सिटी पैलेस के नाम से जाना जाता है | मुख्य रूप से इसे एक संग्रहालय का रूप दे दिया गया है | उस वक्त की जिंदगी को देखने समझने के लिए उस वक्त के संसाधनों व उनके उपयोग को जानने के लिए गौरवशाली इतिहास से परिचित होने वह अपने बच्चों को बनाने के लिए संग्रहालय सबसे खूबसूरत और सबसे सटीक होते हैं जयपुर की तरह ही उदयपुर में भी हमारे साथ हजारों देसी विदेशी पर्यटक घूम रहे थे कुछ कॉलेज स्कूल के छात्र-छात्राओं का समूह में हमारे साथ ही स्थिति में था यहां में एक चीज और बता दूं कि सिटी पैलेस में यदि आप अपनी गाड़ी के साथ जा रहे हैं या खुद भी पैदल जा रहे हैं तो अन्य पर्यटक स्थलों की अपेक्षा उदयपुर के इस पयर्टन स्थल का दर्शन और भ्रमण शुल्क बहुत लोगों को थोड़ा ज्यादा लग सकता है | किन्तु अंदर पहुंचने पर ये पैसा वसूल हो जाने जैसा है | 




सिटी पैलेस उदयपुर 

ये हरियाली पूरे उदयपुर क्षेत्र की पहचान है 

राजस्थान के फूल आपके मन पर बरसों तक छपे रहते हैं 







यहाँ बोटिंग का आनंद भी लिया जा सकता है 

ये उस समय की तोप 







सिटी पैलेस की नक्काशीदार खिड़की अद्भुत शिल्प का नमूना है 



महल की खिड़की से दिखता उदयपुर 









उस समय भंडारण के लिए बने बड़े बर्तन 



बहन एवं बहनोई जी के साथ ,फोटो पुत्र आयुष ले रहे हैं 


इसके बाद हम वहीं से नज़दीक करनी माता मंदिर के लिए निकले जहां पैदल और रोपवे द्वारा पहुंचा जा सकता है , हमने रोपवे का अनुभव कभी भी नहीं किया था इसलिए बच्चों का मन देखते हुए यही निर्णय किया गया कि रोपवे से ही चला जाए | 




मंदिर के प्रांगण से लिया हुआ चित्र 

ऊपर से पूरा शहर झील सब दिखाई देता है 


करनी माता 

इसके बाद वहीं साथ ही एक छोटे से पार्क में बहन व परिवार के साथ ,बहन द्वारा घर से बना कर लाए गए भोजन को दरी बिछाकर पिकनिक वाले अंदाज़ में निपटाया गया | बच्चे थोड़ी देर तक झूलों और हम उतनी देर तक फूलों के साथ आनंद लेते रहे |


 और इसके बाद हम चल पड़े महाराणा प्रताप स्मारक स्थल व पार्क | शहर की दूसरी छोर पर बना हुआ यह मनोरम स्थल बहुत शांत और चारों तरफ बहुत ही सुन्दर फूलों से सजा हुआ है | जैसे कि यहाँ के अधिकाँश पहाड़ी स्थल हैं





हमारा सफर अब आबू रोड की तरफ बढ़ चला था जहां हमने दो दिनों तक आबू की गजब चमत्कारिक धरती को जाना समझा।



 जारी है। ..........
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