शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

लो जी , मैं जीत गया फैंसी ड्रेस कम्पटीशन





jee haan bilkul sau pratishat सच कह रहा हूँ मैं. आप सोच रहे होंगे की अम कौन सा फंसी ड्रेस कम्पटीशन और मुझ जैसा भरा पूरा आदमी उसमें क्या करने चला गया । लेकिन माजरा वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं, मगर कुछ तो है ही।


दरअसल जब में छोटा था तो हमारे स्कूल कोलेज में भी कई तरह के कम्पटीशन हुआ करते थे जिनमें में हम सिर्फ़ उनमें ही भाग ले पाते थे जिनमें आम तौर पर उन दिनों एक मध्यम परिवार के बच्चे ले पाते थे और यही कारण था की हम कभी फैंसी ड्रेस कम्पटीशन... नाटक ... या ऐसे ही किसी भी अन्य प्रतियोगिता में हिसा नहीं ले पाते थे। शायद हममें एक स्वाभाविक समझ थी जो हमें ये बता देती थी की हमें अपने अभिभाकों को इन प्रतियोगिताओं या आयोजनों में भाग लेने में आने वाले खर्च के लिए कुछ नहीं कहना चाहिए। उस वक्त तो अपने प्रोजेक्ट को बेहतर बनने की काबिलियत रखने के बावजूद हमें अपने को सिर्फ़ इसलिए रोकना पड़ता था या कहूँ की समझौता करना पड़ता था क्यूंकि हमें पता था की इससे ज्यादा अपने माता पिता से कहना ज्यादती होगी। मगर यकीनन इसका अफ़सोस कभी नहीं हुआ क्यूंकि उनके दिए संस्कार और परवरिश का थोडा सा भी हम अपने बच्चों को दे सकें हमारा जीवन भी सार्थक हो जायेगा।

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मगर के बात जो तब से लेकः समझ आने तक नहीं भूली वो ये थी की मैंने तय कर लिया था की जो भी मैं नहीं कर पाया , .......जो कुछ मैं नन्हीं जी पाया....अपना वो बचपन मैं अपने बच्चों में जीऊँगा। और देखिये उसकी शुरुआत भी हो च्युकी है। हलाँकि अभी तो पुत्र ने स्कूल जीवन की शुरुआत की है मगर मैं उसके स्कूल में होने वाले हर ख़ास कार्यक्रम और प्रतियोगिताओं के लिए ख़ुद म्हणत करके तैयार करता हूँ। अच्छी बात ये है की स्वाभाविक रूप से पुत्र इसे सहजता से सीकी और मेरा काम ज्यादा आसान हो जाता है। चाहे पन्द्रह अगस्त पर नेताजी बनाना हो , या जन्माष्टमी पर कृष्ण राधा, या फ़िर रामलीला में कोई भूमिका निभानी हो मैंने सबके लिए पुत्र को तैयार किया

इसी लिए जब मुझे पता चला की पुत्र के स्कूल में फैंसी ड्रेस kअम्प्तीशन होने वाला है तो आप शायद यकीन न करें मगर अपने दफ्तर से छूती लेकर मैं उसके लिए खरीददारी करता रहा और फ़िर देर रात तक जाग कर उसकी तैयारी करता रहा। ये मेरा बचपन का ख्वाब था या मेरी कोई छुपी हुई चाहत पता नहीं मगर जितनी व्यग्रता मेरे पुत्र को थी उतनी ही मुझे भी हो रही थी.इसलिए शाम को जब पुत्र ने आकर बताया की उसे पहला स्थान मिला है तो मुझे लगा की मैनी ही वो प्रतियोगिता जीता हूँ, क्या आपके साथ ऐसा होता है.........

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

गर यूं मनाते तो सार्थक होता पृथ्वी दिवस



पिछले कई वर्षों की तरह जैसी उम्मीद थी बिल्कुल वैसा ही मनाया गया ये पृथ्वी दिवस, और पिछले कई वर्षों या कहूँ की दशकों की तरह इस बार से अगली बार तक कुछ भी वैसा नहीं बदलेगा की जिसके बाद हम कह सकें की देखो ये है पृथिवी दिवस को मनाने की सफलता । हाँ इस बार शायद फर्क ये रहा की मुझे सहित कुछ लोगों ने थोड़ी देर के लिए अपने घर या दफ्तर की बत्तियां बुझा दी होंगी , मगर क्या सचमुच इतना काफी है पृथ्वी को बचाने के लिए, लोग कहेंगे की लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता और मेरे.

लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता, और मेरे ख्याल से इससे बेहतर तरीके हैं जिनसे हम इस पृथ्वी दिवस को ज्यादा सार्थक कर सकते हैं। अरे भाड़ में गया पृथ्वी सम्मलेन, भाड़ में गया टोकियो समझौता, ;और भाड़ में जाएयीं इसी तरह के अन्य समझौते और बड़े बड़े वाडे, क्यूंकि उनसे न तो आज तक किसी का भला हुआ है ना ही आगे होने वाला है। एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं , आज विद्यालयों में क्या हुआ होगा, कहीं पर कोई चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित की गयी होगी, या कोई भाषण प्रतियोगिता हुई होगी, क्या इससे बेहतर ये नहीं होता की सभी विद्यार्थियों से कहा जाता की वे विद्यालय प्रांगन में एक एक पौधा लगायें। इसी तरह, आम लोगों से भी आग्रह किया जाता की अपने आसपास जहाँ भी उन्हें जगह मिलती है एक एक पौधा लगायें, फ़िर अगले वर्ष इसी पृथ्वी दिवस पर जब उन पौधों को देखते तो यकीन मानिए ऐसी अनुभूति होती जैसी अपने संतान की किसी भी उपलब्धि पर होती है। ये बात वो अच्छे तरह समझ सकता है जिसने मेरी तरह अपने हाथों से बहुत से पौधे लगाये हों। हालाँकि मुझे ये भी पता है की दिल्ली जैसे महानगर में ये पौधे लगना भी कोई आसान काम नहीं है क्यूंकि यहाँ की सारी जमीनें तो ये पत्थर के जंगल खा गए। ये खुशी की बात है की अभी पेड़ पौधे के मामले में हम अन्य बहुत से देशों के मुकाबले बेहतर स्थिति में हैं, मगर यदि इन diwason का कोई उपयोग हो सकता है तो फ़िर ऐसे ही रास्ते क्यूँ न चुने जाएँ।

दरअसल आज हम जिस जगह पर पहुँच गए हैं उसमें सच तो यही है की हमें अपने आसपास की vआतावरण से, मिटटी से, हवा से, पानी से कोई प्यार नहीं है, लगाव नन्हीं है, हम इंसान रहे कहाँ हैं जो इनसे प्यार बरकरार रह सके, हम तो मशीन हो गए हैं और जाहिर है की मशीनों की तो हमेशा से ही प्रकृति से दुश्मनी रही है । लेकिन काश ये बात सब समझ पाते की आज लगाया एक पौधा ही कल जाकर हमारी पृथ्वी को, हमारी धरती, को और हमारे बच्चों, हमारे भैविष्य को बचाए रखेगा, तो ही हम ये पृथ्वी दिवस मनाने के लायक भी रहेंगे। अन्यथा न पृथ्वी बचेगी, न दिवस,ना ही रात्री ............

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

लो जी ,खुल गयी नेता सप्लाई कंपनी

जिस प्रकार अलग नाम रखने के चक्कर में आजकल माँ- बाप ऐसे-वैसे बेमतलब के ऊलजुलूल नाम रख रहे हैं उसी प्रकार मैंने भी निश्चय कर लिया था की मार्केट में मौजूद तमाम व्यवसायों से अलग कुछ अनोखा बिजनेस शुरू करूंगा। इसलिए मैंने अपने सनातनी मित्र मौझीराम से सलाह लेना ठीक समझा। हालांकि मुझे पता था की मौजी राम नाम के अनुरूप दूसरे का राम नाम सत्य करके ख़ुद मौज लेते थे। किंतु मेरी मजबूरी ये थी की यदि कोई अनोखा बिजनेस का आईडीया आया तो कहीं वही न शुरू कर दे जो आईडीया दे। इसलिए मौजी को ही बुलाया गया। मेरी समस्या सुन कर वह इस प्रकार गंभीर चिंतन में डूब गया जैसे बाबा रामदेव की कोई नयी योग क्रिया कर रहा हो।
मौजी की आन्केहीं खुली तो मुझे यूँ लगा की गौतम बुद्ध के बाद ये दूसरी आत्मा है जिसे दिव्या ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है और अब सीधा मुझे प्राप्त होने वाली है। "मुझे रास्ता मिल गया है , हम एक नयी कंपनी खोलेंगे- नेता सप्लाई "उसने बड़ी गंभीरता से कहा जो मुझे दिव्य आदेश आदेश सा लगा। हैं, अबे पगला गया है, ये कौन सा बिजनेस हुआ बे। नेता सप्लाई करेंगे, किसे करेंगे , और फ़िर नेता लायेंगे काहें से। यार इस देश में नागरिक कम हैं नेता ज्यादा हैं तो फ़िर......? बस बस ज्यादा परेशान न हो मेरे मष्तिष्क में सारी योहन बिल्कुल तैयार है । तू बस ध्यान से सुनता जा और काम की बातें नोट करता जा। जैसा मैंने सोचा है यदि सबकुछ wasaa ही हुआ तो देश तो देश हमारा प्रोडक्ट विदेशों तक पहुँच जायेगा।

देख ये तो तुझे पता है की हमारा प्रजातंत्र जिंटा पुराना होता जा रहा है प्रजा और तंत्र भी उतने ही मजबूत होते जा रहे हैं। देख प्रजा को भी चुनावों में , राजनीति में ,मजा आने लगा है। उन्हें पता है की यही एक अकेला खेल है जिसमें सब के सब एकसाथ खेल सकते हैं। यदि नहीं खेलना चाहें तो आपके बदले कोई और खेल लेगा। रही तंत्र की बात तो आज भी इस देश की आधे से अधिक आबादी अपनी किस्म्नत, अपनी मोहब्बत , अपने व्यापार अपनी तकरार, सबके लिए सिर्फ़ तंत्र या मंत्र पर ही निर्भर है। एक से एक कारनामें कर रही है, क्या अपने कए पराये , कमबख्त बलि ऐ दे कर न जाने किसे खुश कर रहे हैं । चल छ्होद अपने बिजनेस की बात करें॥

अब हमारे यहाँ न सिर्फ़ ऍम एल ई और ऍम पी के चुनावों पर सबका ध्यान , सबका प;ऐसा, ग्लामेर और ताकत लगती है बल्कि ऍम सी दी इलेक्शन, उनीवेर्सिती इलेक्शन यहाँ तक की गली मोहल्ले और झुग्गियों तक के इलेक्शन की बड़ी प्रधानता हो गयी है। पब्लिक के अन्स्वेतन मूड को देखते आज के राजनेता अपना फुचर सुरक्षित रखने की गरज से प्रधानमंत्री से लेकर वैफेयर असोसीयेशन के महामंत्री तक का इलेक्शन समान भाव और उसी रोमांच से लड़ते हैं। यही कारण है की घर घर में नेताओं के मौजूद रहने के बावजूद अन्य क्षेत्र के महारथियों को भी नेता बन्ने के लिए ख़ास तौर पर बुलाया जाता है.जैसे फिल्मजगत ऐ, खेल जगत से, और विशेषकर अपराध जगत से दिगाज्जों को तो विशेष तरजीह दी जाती हैफिर उनका एक्स्पीरींस आगे नेता बन्ने के बाद भी काम आता है।

हम अपनी नेता सप्लाई कंपनी के लिए पहले एक सर्वे करेंगे। पहले पता करेंगे की कहाँ किस क्षेत्र में किस धर्म कौन सी जाती के नाम पर कहाँ किस चीज का प्रलोभन देकर या कहाँ किस बात से डरा कर \चुनाव जीता जाताहै फ़िर उस हिसाब से वहां के लिए स्पेशलिस्ट नेता तैयार करेंगे। मसलन कहें से कोई हीरों इलेक्शन लड़ती और जीतती आ रही है तो हम कवाहन के लिए आईटम गर्ल्स को तैयार कर देंगे। इससे चुनाव प्रचार के दौरान ही वे आराम आईटम सोंग्स से सबका दिल जीत लेगी, और चुनाव भी । मनो कहीं पर कोइजातिवाला समीकरण बन रहा हो तो वहां के लिए हमारी विशेषज्ञ टीम शोशल ईंगीनीयारिंग, सोशल aarkitekcharing, शोशल अक्युज्पंचारिंग शोशल पामिस्ट्री जैसे नए फार्मूले पर काम करेगी। यूँ तो मौजी की इस अनोखी थीसिस से मैं पहले ही हैरान था मगर इस चमत्कारी शब्दावली ने तो मुझे मौजी के राजनीति ज्ञान की विद्वता का कायल कर दिया।

मगर यार ये जो तुमने बताया है या है कए, मैंने जानना चाहा.औजी ने थोडा सोचते हुए बताया यार ये तो पता नहीं मगर मैंने सुना है कीकिसी मैडम ने सीई फार्मूले से बड़ी जीत हासिल की है। जब हम एक्सपर्ट नेता सप्ल्यार हो जायेंगे तब विदेशी क्षेत्रों के लिए ख़ास नेता तैयार करेंगे.मगर उसके लिए क्या करना होगा , मैंने जिज्ञासा से पूछा । कुछ नहीं यार बस हाई सोसईटी के ऐसे सलीकेदार इज्जत से और पूरी काबिलियत से बड़े आर्थिक आपराध कर सकें, नाजायज सम्बन्ध रख सकें और वहां के लोगों को वैसे ही बेवकूफ बना सकें जैसे वहां की मल्टीनेशनल कंपनियाँ हमें बना रही हैं।

लेकिन यार महेंगाई, गरीबी, असिख्सा , बेरोजगारी जैसे मुद्दों के लिए हमारे नेता क्या तैयार करेंगे। मैंने जानना चाहा। अरे यार इन फालतू के पचडों में हमने पाना बिजनेस नहीं ख़राब करना और फ़िर पिछले पचास सालों में कौन से नेता ने कब कौन सा इलेक्शन इन मुद्दों पर लड़ा है। बस अब छोड़ तू उदघाटन की तैयारी कर। अपनी कंपनी" थे आल परपस न्यू नेता सप्लाई कंपनी ।

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

लीजिये विरासत दिवस पर ब्लॉगजगत की विरासतों की घोषणा हुई

ऐसा कैसे हो सकता है कि विरासत दिवस पर हमारे ब्लॉगजगत में कुछ विशेष न हो,भाई मुझे सहित कुछ लोग तो इसी ताक में रहते हैं कि कब कोई दिवस आए और हो गयी अपनी एक पोस्ट पक्की । खैर यहाँ मुद्दे से नहीं भटकना नहीं है। जल्दी से मुद्दे पर वापस आते हैं। दरअसल विरासत दिवस पर बहुत से वरिस्थ ब्लोग्गरों ने ( नहीं ये बिल्कुल मत पूछना कि वरिस्थ कौन और ब्लोग्गेर्स कौन, आप आम खाइए न , गुठलियों ....) तय किया कि यही सही वक्त है जब हमें भी यहाँ विरासत बन चुके ब्लोग्गेर्स की घोषणा कर देनी चाहिह्ये । सो कोशिश की गयी परिणाम सूची आपके सामने है, हाँ जो खम्भे , स्तम्भ, मीनार, छूट जाएँ वो अन्यथा न लें आख़िर इस परिवार में विरासतों की गन्ना कोई आसान काम थोड़ी है।

१ उड़नतश्तरी जी :- जैसे ही इनके नाम की घोसना हुई, सब हल्ला करने लगे कि यार एलियन जी को कैसे शामिल किया जा सकता है, मगर जांच के बाद पता चला कि ये मोस्ट आदेंतिफाईद ओब्जेक्त तो सबके ब्लॉग पर पधारते हैं और इनके यहाँ भी सब पहुँच जाते हैं, सो विरासत नंबर एक यही हैं।

२। आशीष भाई:- अजी विरासतों में मोहल्ला न होगा तो कहे की विरासत ।

प्रमोद जी :- जी हाँ अपने अजदक जी , नाम के अनुरूप अपनी विशिष्ट शैली के कारण विरासत तो हैं ही॥

रविश जी :- जब मोहल्ला आयेगा तो कस्बा कैसे छूट सकता है , फ़िर इन्होने तो पूरे हिन्दुस्तान में ही ब्लोग्गर्स को फमोउस कर दिया है जी सो विरासत तो ये भी हैं॥

दिनेश जी :- विरासत की बात होगी तो खम्बा भी जरूर गाड़ना पडेगा, और ब्लॉगजगत पर इनसे majboot खम्बा किसका है भाई ।

यशवंत जी :- सारी भडास बाहर निकालने के ओलिए इन्हीं बी विरासत के रूप में याद रखना पडेगा।

भाई ज्ञान्दुत्त :- ई पान की दूकान वाले महाराज जी तो विरासत के ख़ास स्तम्भ हैं। सब पोस्टवे पान की गुक्म्ती से ले अआते हैं भाई।

रवि रतलामी जी :- रतलाम के इस रवि के कारण ही तो ब्लॉगजगत में साहित्य का प्रकाश फैला हुआ है।

शास्त्री जी :- इस अंतरजाल पर सबसे बड़े जाल के कारण शास्त्री जी भी विरासत में आ गए है।

आशीष भाई : जी पूरे होटल में यही तो एक हैं जो हम बैरे लोगों को टिप दे के जाते हैं तो हैं न विरासत।

महेंदर भाई :- निरंतरता के कारण ये भी विरासत हैं और अब तो चिटठा चर्चा में हाथ आजमा रहे हैं

दीपक भारदीप जी :- साहित्य की विरासत हैं ये तो यहाँ तो और ज्यादा महत्वपूर्ण हैं...

अपने युनुस भाई :- अजी एक ही रेडियो चैनेल है यहाँ जो ऍफ़ एफम की तरह बकबक नहीं करता सिर्फ़ मधुर संगीत सुनाता है इस संगीतमय विरासत को सलाम ।

अपने विवेक भाई :- स्वप्नलोक की सैर कराने वाले विवेक भाई न जाने कहाँ रूठ कर चल दिया, बहरहाल विरासत तो हैं हे वे भी
अलोक जी :- अपने अगड़म बगड़म की गड़बड़झाला के लिए ये इन्हें भी ...

डाक्टर अनुराग जी :- अमा पता नहीं कैसे डाक्टर हैं हम तो पक्के मरीज बन गए हैं इनके , ये भी विरासत है


अब बात करते हैं अपनी महिला विरासतों की , भाई इनके बिना कुछ भी अधूरा है ;-

ममता टी वी :- जिस तरह युनुस भाई इकलौते रेडियो स्टेशन है उसी तरह ममता टी वी ब्लॉगजगत का इकलौता टी वी चैनेल है , सो जाहिर है कि विरासत है।

सुज्जता जी :- इन चोखेर बालियों ने तो महिला ब्लॉग्गिंग को एक नयी दिशा दे दी है

नीलिमा जी :- ब्लॉगजगत की पहली शोध क्षात्रा सो ये भी विरासत हैं॥

डाक्टर पूजा ;- यदि अनुराग बाबू यहाँ दिल के दर्द का इलाज करते हैं तो पूजा जी अपने शोध से ब्लॉग्गिंग की बिमारियों का

मीनाक्षी जी :- अपने हायकू और त्रिपद्माओं के खासियत के कारण ये भी विरासत है

बेजी जी :- बेजी का क्या कहें इनकी कठपुतलियों ने तो पूरे ब्लॉगजगत को कथ्प्पुत्ली बना रखा है सो ये तो विरासत हैं ही।

प्रत्यक्षाजी :- प्रत्यक्ष को प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं होती, ये इनकी ब्लॉग पर जाने के बाद ख़ुद पता चल जाता है ये तो विरासत हैं

संगीता जी :-ज्योतिष और कम्प्यूटर का अनोखा संगम , विज्ञान की विरासत हैं ॥

विरासत दिवस ख़त्म होने वाला है जो घोषित न हो पाये वो भी बुलंद इमारत तो हैं ही, इसलिए सबको शुभकामनायें........

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

आप लिखते रहे , क्रांति अपने आप आयेगी......

ये बात मैं उन दिनों की कर रहा हूँ जब लड़कपन से निकल कर थोडा आगे की तरफ़ बढ़ा था, मुझे ये तो याद नहीं की लिखने का शौक ठीक ठीक कब शुरू हुआ था मगर शायद ये बीज मुझ में पनपने बहुत पहले ही जन्म ले चुके थे। शुरुआत बिल्कुल वैसे ही हुई थी जैसे आम तौर पर हम में से सभी की हुई होगी, स्कूल कॉलेज के दिनों में जो भी दिल सोचता था , और यदि वो कलम के अनुरूप होता था तो कुछ न कुछ कागजों पर निकल ही आता था। मगर जहाँ तक मुझे याद है, जब बहुत दिनों के बाद मेरा गाँव जाना हुआ तो मुझे ये जानकर बहुत आश्चर्य हुआ की वहां कभी बिजली नहीं आती जबकि खंभे सालों से लगे हुए थे, मुझे तब पता नहीं था की इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए। वापस लौटा तो मन में एक कसमसाहट सी थी, अपने पड़ोस में रहने वाले वकील अंकल ने सुझाव दिया की क्यूँ न मैं एक पत्र सम्पादक के नाम लिखूं, मुझे तब ये नहीं पता था की ये सम्पादक के नाम पत्र क्या होता है.और वो शायद मेरा पहला आधिकारिक कुछ ऐसा था समाचार पत्र में छपा था । हालाँकि उसका असर सिर्फ़ ये हुआ की वहां के स्थानीय बिजली ऑफिस से कुछ लोग मेरे बारे में पूछते हुए घर (गाँव वाले) पर पहुंचे , किंतु ये बात भी मुझे रोमांचित कर गयी।
इसके बाद तो एक ऐसा अनथक सिलसिला शुरू हुआ की क्या कहूँ, समाचार पत्रों में, विभिन्न रेडियो प्रसारणों में, परिचितों, सम्बन्धियों को और यहाँ तक की बहुत से अपरिचितों को भी ढेरों पत्र लिखे मैंने। जो बीबीसी सुनते होंगे उन्होंने अक्सर एक नाम सुना होगा, अजय कुमार झा, दिलशाद गार्डेन से , वो मैं ही था। एक दिन एक मित्र की सलाह पर मैंने मदर टेरेसा को उनके , थोड़े दिनों बाद उनके आश्रम से धन्यवाद संदेश आया, इसने मेरे लिए एक और रास्ता खोल दिया। इसके बाद तो मैंने वोया हिन्दी सेवा के बंद होने पर अक्रीकी राष्ट्रपति से लेकर किरायेदार वेरीफिकेशन मुहीम के लिए दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को , ढेरों पत्र विभिन्न मंत्रालयों को, भारतीय राष्ट्रपति को, और पता नहीं किन्हें किन्हें लिखता रहा हूँ या कहूँ की अब भी लिख ही रहा हूँ। ।
मुझसे मेरे शुरुआती दिनों में किस ने पूछा था की भाई आप जो इतना लिखते हैं उसका असर भी होता है कुछ, मुझे तो नहीं लगता की ऐसे लिखने से कोई क्रांति आयेगी। मगर उन सज्जन को मैंने यकीन दिलाया और मुझे बा भी पूरा विश्वास है की क्रांति जरूर आयेगी और उसमें हमारी लेखनी का भी बड़ा महत्वपूर्ण योगदान होगा। जहाँ तक मुझे प्राप्त सफलताओं की बात है तो वो भी बहुत लम्बी है, अभी सिर्फ़ इतना भर की आज जो भी मैं सोच पाता लिख पाता हूँ सब उन्हें दिनों की बदौलत है और हाँ इतना यकीन तो सबको दिला सकता हूँ की लेखनी से काम हो सकता है की धीरे धीरे हो मगर जब होता है न तो बस दुनिया देखती है, तो आप भी तैयार हैं मेरे साथ दुनिया को दिखाने के लिए की कलम से ही क्रांति आती है .............

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

एक प्याली चाय

एक प्याली चाय,
अक्सर मेरे,
भोर के सपनों को तोड़,
मेरी अर्धांगिनी,
के स्नेहिल यथार्थ की,
अनुभूति कराती है॥

एक प्याली चाय,
अक्सर,
बचाती है,
मेरा मान, जब,
असमय और अचानक,
आ जाता है,
घर कोई॥

एक प्याली चाय,
अक्सर,
बन जाती है,
बहाना,
हम कुछ ,
दोस्तों के,
मिल बैठ,
गप्पें हांकने का..

एक प्याली चाय,
अक्सर ,
देती है,
साथ मेरा,
रेलगाडी के,
बर्थ पर भी..

एक प्याली चाय,
अक्सर मुझे,
खींच ले जाती है,
राधे की,
छोटी दूकान पर,
जहाँ मिल जाता है,
एक अखबार भी पढने को॥

एक प्याली चाय,
कितना अलग अलग,
स्वाद देती है,
सर्दी में, गरमी में,
और रिमझिम ,
बरसात में भी॥

एक प्याली चाय,
को थामा हुआ,
है मैंने,या की,
उसने ही ,
थाम रखी है,
मेरी जिंदगी,
मैं अक्सर सोचता हूँ ......

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

मुद्दा ये नहीं है , मुद्दा तो ये है कि..............

ये तो बिल्कुल स्वाभाविकर ही था कि अभी भी हम लोकतंत्र के उस परिपक्व ओहदे पर नहीं पहुँच पाएं जहाँ अमरीका या ऐसे ही किसी अन्य देश के समान कोई अनोखा चमत्कार कर दिखायें या विश्व को दिखा दें कि देखो ये हैं भारतीय लोकतंत्र की उपलब्धि सो इस बार भी वही सब दोहराया जायेगा जो दशकों से चला आ रहा है। हाँ ये अंदाजा भी नहीं था कि स्थिति दिनों दिन ऐसी होती चली जायेगी, हालाँकि मौजूदा परिस्थितियों में इससे बेहतर कुछ की अपेक्षा भी बेमानी ही होगी। अब तो देखना सिर्फ़ ये है कि आख़िर वो कौन सी हद है जहाँ जाकर ये सब थम जायेगा।
इन सबके बीच जो एक बात मुझे बहुत अखरती है वो ये कि चाहे हम लाख कहें, चाहे लाख योजनायें बनाएं म्मागर घोम फ़िर कर ये हमारे नेता वही पहुँच जाते हैं, क्या ये सचमुच एक मुद्दा है कि कौन सा व्यक्ति प्रधानमंत्री पद के लिए कमजोर या मजबूत साबित होगा , मुद्दा तो ये भी नहीं है कि कौन सी पार्टी कितनी बूढी है और कौन सी जवान , मुद्दा ये भी नहीं है कि कौन कितनी असभ्य भाषा का प्रयोग कर रहा है, मुद्दा ये भी नहीं है कि कौन सी पार्टी ऐसी है जो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं कर रही है। आज एक आम आदमी के दिमाग में जो बातें घूम रही हैं वो तो शायद ये हैं कि आख़िर कौन सा ऐसा राजनितिक दल है जो अपने दम पर सबका विश्वास जीत कर बहुमत से सरकार बना सकेगा, ताकि फ़िर पाँच वर्षों तक रूठने और मानाने की कहानी न चलती रहे । मुज्दा तो ये है कि कौन सी पार्टी ऐसी है जो लोगों के बीच जाकर कह सके कि अच्छा जी हम आपके ऐ अपेक्षा पर खरे नहीं उतरे तो लीजिये छोड़ देते हैं ये राज पात। कौन सी पार्टी है जो कहती है कि हाँ हम देंगे अफजल और अन्य देशद्रोहियों को फांसी , हाँ हम लायेंगे महिला आरक्षण विधेयक और हम हैं जो ख़त्म कर देंगे ये आरक्षण की लाईलाज बीमार, हमारे पास योजनायें हैं कि कैसे हम सुदूर गाँव में बैठे व्यक्ति की जिंदगी का एक एक पहलू यहाँ बैठे तमाम नौकरशाहों को दिखला सकें ।
सबसे बड़ा मुद्दा तो ये है कि आख़िर क्यूँ आज कोई भी आम आदमी राजनेता नहीं बन सकता, आख़िर क्या है ऐसा कि अब भी देश में सिर्फ़ ४० प्रतिशत लोग मतदान करने जाते हैं बांकी के ६०न प्रतिशत इसलिए नहीं जाना चाहते क्यूंकि उन्हें लगता है कि कोई भी ऐसा नहीं है जो उनकी अप्केशा पर खरा उतर सके । आख़िर क्या वजह है लोगों, डॉक्टर्स इंजीनीयर्स, बड़े उद्योग पतियों को जगह नहीं मिल रही है । हाँ चारों तरफ़ एक अजीब सी उत्तेजना पैदा की जा रही है ताकि लोगों का ध्यान उन बातों की तरफ़ न जाए जो वास्तव में असली मुदा हैं, नहीं तो किस्में है हिम्मत कि इन सवालों का जवाब दे, और शोर मचाना तो सबसे आसान काम है। वक्त आ रहा है जब ये सब कुछ यदि एकाएक नहीं तो धीरी धीरे ही सही बदल जरूर जायेगा और उस वक्त का
सबको इन्तजार है ....................

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

बैसाखी, हॉकी और राखी

आज बैसाखी है , हर त्यौहार की तरह इस त्यौहार में भी अब वो बात नहीं रही है। दरअसल मैंने जो महसूस किया है वो ये की ग्रामीण त्योहारों में भी वक्त के साथ बहुत सी औपचारिक तब्दीलियाँ आयी हैं। एक वक्त हुआ करता था जब ग्रामीण त्य्हारों में , वसंत पंचमी, होली, मकर संक्रांति, तीज, बैसाखी, आदि जो भी थे, एक तो वे सब स्वाभाविक रूप से कृषि से किसी न किसीजुड़े हुए थे और उनके मानाने के तरीके में जो मासूमियत और सुलभता दिखाए देती थी अब वो नहीं दिखती। रही बात शहरों की तो यहाँ तो त्यौहार सिर्फ़ एस ऍम एस तक सिमित होकर रह गए हैं या कोई ज्यादा ख़ास हुआ तो फ़िर उपहार देने के एक और औपचारिता निभा दी जाती है। मगर अभी तो चुनावों का मौसम है सो जाहिर है की खूब भुनाया जायेगा इस मौके को भी अपने चुनाव्वी हथकंडो के लिए। अब देखना ये है की क्या क्या करते हैं सब ।

पूरे चौदह वर्षों बाद हमारी हॉकी टीम ने कोई ऐतिहासिक प्रतियोगिता जीती है तो ऐसे में जब राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी को दरकिनार करके क्रिकेट को तरजीह देने की कोशिशें की जा रही तो ये जीत हॉकी प्रेमियों का जवाब बन कर आया है। मैं ये तो नहीं जानता की इस जीत से हॉकी के वर्तमान और भैविश्य पर क्या असर पडेगा या की ये जीत ख़ुद खिलाड़ियों का कितना मनोबल बढाएगा मगर इतना तो तय है की कुछ समय तक ही सही ये जीत भारीतय हॉकी के लिए संजेवानी का काम करेगी। हां मगर इस बात का मुझे बेहद अफ़सोस रहेगा की हमेशा की तरह मीडिया ने इस मौके को भी इस तरहनहीं पेश किया की आम लोगों की मानसिकता थोड़ी ही सही बदल सके।
और मुझे इस जीत की खुशी का अनुभव तब होगा जब सही में क्रिकेट की तरह ना सही मगर कुछ तो दीवाने हों हॉकी के। और काश की किसी दिन ऐसा हो पाये।

अब बात करें राखी की, आप सोच रहे होंगे की अभी तो बैसाखी की बात चल रही थी और अभी रखीए की बात होने लगी,मगर नहीं महाराज में राखी या रक्षा बंधन की बात नहीं कर रहा हूँ। दरास्सल यहाँ जिक्र कर रहा हूँ मशहूर (किसी भी कारण से )राखी सावंत की , पता चला है की राखी सावंत ने अपना स्वयाम्बर रच्वाने की घोषणा कर दी है वो भी टेलीविजन पर और खुले आम सबसे अपील की जा रही है की अपनी किस्मत आजमायें। राखी के कारनामों को देखते हुए ये कोई अनोखी बात लगती भी नहीं है , मैं तो सिर्फ़ इतना सोच रहा हूँ की यदि अपने मीका भाई भी स्वयाम्बर में पहुँचते हैं तो फ़िर निश्चित ही मछली की आँख या जो भी निशाना होगा उस पर वही निशाना लगा पायेंगे, आखित उन्होंने पहले भी तो ये कर दिखाया है, बांकी सब को तो राखी यही कह देंगी, "देखता है तू क्या, डिंग डिंग डिंग डिंग डिंग......

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

डायरी का एक पन्ना

आज सुबह सुबह ही पुराणी डायरी के कुछ पन्ने पलटे, कुछ शेर, गजलें या पता नहीं की क्या है जो भी है उसे वैसा ही आपके सामने रख रहा हूँ , जिन्होंने भी ये लिखी हैं उन्हें नमन :-

तकदीर पर जब शाने जफा आती है,
हर खैर के परदे में खता आती है,
जिस वक्त बिगड़ता है ज़माने का मिजाज,
पंखे से भी फ़िर गर्म हवा आती है....

वो सर बुलंद रहा और ख़ुद पसंद रहा,
मैं सर झुकाए रहा और खुसामदों में रहा,
मेरे अजीजों यही दस्तूर है मकानों का,
बनने वाला हमेशा बरामदों में रहा ॥

मेरे मालिक तू मशहूर है सत्तारी में ,
मैं भी यक्ताये ज़माना हूँ, गुनहगारी में,
मैं जो चाहूँ तो गुनाहों से आज कर लूँ तौबा,
दाग लग जायेगा मालिक तेरी गफ्फारी में..

रविवार, 12 अप्रैल 2009

च ज ई याद है न , अब झेलिये च ज ऊ

मेरा अंदाजा है की अभी पिछले वर्ष ही ब्लॉग जगत में के प्रतियोगिता हुई थी जिसका नाम च जा ई , और सबसे कहा गया था की च जा ई का क्या मतलब होता है ये बताएं , ये तो खैर मुझे बहुत बाद तक नहीं पता चल पाया की च जा ई का क्या मतलब होता है किंतु इन दिनों जैसी परिस्थितियाँ चल रही हैं , उसे देख कर निश्चित रूप से यही कहा जा सकता है की इन दिनों च ज ऊ , का दौर चल रहा है , च ज ऊ यानि चलो जूता उठाएं , हाँ ज के आज कल जय सारे मतलब निकले जा रहे हैं जो इस तरह हैं।

ज का पहला मतलब जूता :- कभी ये पैरों की शान हुआ करता था मगर कहते हैं न की सब दिन होत न एक समाना, इसलिए आज जूता माथे या कहें की चेहरे की शान बना हुआ है और खुसी की बात ये है की काफी बड़े बड़े लोगों की ताजपोशी की जा रही है इससे. यहाँ जूते पर याद आ रहा एक छोटा वाक़या सुनाता चलूँ. एक व्यक्ति एक बार फोटो खिंचवाने पहुंचा और फोटोग्राफर से कहा की आप मेरी पासपोर्ट साईज की फोटो खींच दें, मगर शर्त ये होगी की उसमें मेरे जूते भी नजर आने चाहिए. फोटोग्राफर ने जब सारा दिमाग लगा दिया तो उसको यही एक आखिरी रास्ता सूझा , उसने कहा आप जूता अपने सर के ऊपर रख लें जूता भी आयेगा पासपोर्ट तस्वीर भी.

ज का दूसरा मतलब जैदी ;- जी हाँ इराकी पत्राकार जिनके कारनामें ने ऊपर वर्णित यन्त्र को इतनी ख्याति दिलवाई की जितनी वो भी न दिलवा पाये होंगे जिन्होंने जूते का निर्माण किया होगा. बस एक बात ये की दो दो बार निशाना चूक गए, फिलिअल कारागार में हैं.

ज का मतलब जरनैल सिंग ;- ये जैदी साहब के भारीतय संस्करण हैं , समानता ये की ये भी पत्रकार हैं और बिल्कुल उतने ही आक्रामक जितने की जैदी हैं, इनका निशाना भी बहुत गंदा है , या ज्यादा अफ़सोस की बात है की राज्यवर्धन सिंग और अभिनव बिंद्रा के देश में ऐसे गंदे निशाने बाज रहते हैं, यही वजह है की इन्होने दूसरी बार कोशिश ही नहीं की.

ज का मतलब जागरण ;- ये ऊपर वर्णित कलम के सिपाही से चप्पल के शिकारी के रूप में परिवर्तित होने वाले जरनैल सिंग इसी संस्था से जुड़े हुए थे. इनका जन जागरण अभियान अभी कितना रंग लाएगा ये देखने वाली बात होगी.

ज का मतलब जनता का जनाक्रोश :- आजकल जनता सिक्खों पर हुए अत्याचार और उसमें सरकार की भागीदारी को लेकर बेहद बुरी तरह आक्रोशित है , किंतु समझ नहीं आ रहा की आख़िर ये जनाक्रोश उनके प्रति क्यूँ नहीं है जो सरकार के अगुवा हैं और खुश्मती या बदकिस्मती से स्वयं हे इक सिख्ह हैं.

ज का आखिरी मतलब जय राम जी की, अजी जय श्री राम वाले राम नहीं , राम सेना वाले भी, जय राम जी की मतलब हम चले …………………….

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

लवली जी अब लैपटॉप ले लिया है, आपका धन्यवाद और मुझे मुबारकबाद.

अभी कुछ दिनों पूर्व ही मैंने जब आप सबसे पूछा था की आप नए ब्लोग्गेर्स का स्वागत करते हैं या नहीं तो मैंने साथ ही ये भी कहा था की मैं जल्दी ही कम्पूटर लेने की योजना बना रहा हूँ ताकि अपनी योजनाओं को और भी बेहतर रूप दे सकूँ । प्रतिक्रियाओं में संचिका वाली लवली जी ने सुझाव दिया कि आप लैपटॉप ले लें तो और भी ज्यादा बढिया तरीके से अपना काम कर पाएंगी। मुझे सुझाव पसंद आया और मैं उस पर अमल करते हुए नया लैपटॉप ले लिया। यकीन मानिए जितनी आसानी से मैंने लैपटॉप लिया उतनी ही मुश्किल से नेट का कनेक्शन । दरअसल मेरी मुश्किल ये थी कि मुझे नेट के कनेक्शन के बारे में कोई तकनीकी जानकारी नहीं थी , मित्रों से पूछा तो सबने अपने अनुभवों के आधार पर अलग अलग राय दी। सारी कंपनिया भी घुमा फिरा कर वही बात कहती सी लगी, थक हार कर एक कनेक्शन ले ही लिया।

अब आगे की योजना ये है कि बहुत जल्दी ही अपने उड़न तश्तरी के साथ ये देहाती बाबू भी अपनी रद्दी की टोकरी लिए हुए आप सबके ब्लॉग पर पहुँच कर कभी भी कुछ भी कहेगा, हाँ वादा सिर्फ़ इतना कि पहुंचूंगा अब सबके पास । मेरा इन्तजार करें..............................

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

स्वास्थय दिवस पर स्वास्थय जगत को पिलाई जानी चाहिए थी पोलियो द्रोप्स

(एक विज्ञापन से साभार )
एक तो इन दिवसों से अब एक कोफ्त सी होने लगी है, किंतु चलो इसी बहने से इन विषयों पर कुछ न कुछ चर्चा तो हो ही जाती है , सो इस लिहाज से ठीक है।
आज ही के दिन विश्व स्वास्थय संगठन की स्थापना की गयी थी इसलिए तभी से ७ अप्रैल तो विश्व स्वास्थय दिवस मानाने की परम्परा सी बन गयी है। इसमें कोई शक नहीं की आज देश का स्वास्थय जगत में जो भी स्थान है और जो भी उपलब्धियां हासिल की हैं वो किसी भी लिहाज से बहुत ही महत्वपूर्ण और काबिले तारीफ़ है, किंतु इनके साथ ही निम्न लिखित कुछ तथ्यों को जब देखता हूँ तो फ़िर सोच कुछ अलग दिशा में बढ़ जाती है।

देश के सबसे बड़े चिकित्सा संस्थान , एम्स मं पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह की खींच तान चल रही है उसने तो पूरे देश के चिकित्सा जगत में एक नयी बहस को जन्म दे दिया है। और कमाल की बात ये है की सरकार वादा कर चुकी है ऐसे ही छ संस्तान जल्दी ही पूरे देश में खोले जायेंगे। मेरा ध्यान इस बात पर गया की ऐसे ही संस्थान ।

अभी हाल ही में ऐसी कई घटनाएं हुई है, जिनमें कईयों में कुछ नवजात बच्चे अस्पताल की लापरवाही के कारण जल कर मर गए, कुछ अस्पतालों ने अस्पताल का खर्चा न चुकाने के कारण कहीं किसी का नवजात बच्चा नहीं दिया तो किसी के रिश्तेदारों को उनके मरीजों की लाश तक नहीं सौंपी।

गरीबों को मुफ्त इलाज के नाम पर सरकारी जमीनों को सस्ते डर पर हासिल करके मजे से बहुत से बड़े बड़े अस्पताल अंधाधुन्द कमाई करने में लगे हैं और अदालत के आदेशों के बावजूद भी वहां अब भी सब कुछ वैसा ही जारी है ।

हमारे चिकितिसक जिन्हें कभी इश्वर का दूसरा रूप मन समझा जाता था, आज इस बात के लिए भी तैयार नहीं हैं की अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें गाँव में जाकर गरीब दुखी लोगों की सेवा करनी पड़ेगी।

हमारे पास विश्व में सबसे ज्यादा झोला छाप , नकली डॉक्टर्स और नीम हकीमों की फौज है।

नकली दवाइयों में तो हमारा अपना एक अलग ही विश्व रिकोर्ड है।


मुझे नहीं लगता की इन तमाम उपलब्धियों के रहते हुए हमें किसी भी स्वास्थय दिवस को मानाने की जरूरत है।अच्छा होता की ऐसे दिवसों का कुछ सार्थक उपयोग हो सकता ................

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

क्या आप करते हैं नए ब्लोग्गेर्स का स्वागत ?

शुरू शुरू में जब यहाँ इस अंतरजाल से नाता जुडा था तो सब कुछ नया था, ऐसे में जाहिर था कि मैंने भी वही सुरक्षित रास्ता अपना रखा था। यानि चुपचाप आओ , अपना काम करो और निकल लो। उन दिनों से ,( ये सिलसिला अभी भी जारी है), जब भी अपना ई मेल अकाउंट खोलता तो दो नियमित मेले जरूर हुआ करती थी। एक वो सूचना जिसमें कि अपनी पोस्ट छपने की जानकारी दी होती थी दूसरी वो जिसमें लिखा होता था, अमुक तारीख को अंतरजाल से जुड़ने वाले इतने नए चिट्ठों का टिप्प्न्नी द्वारा स्वागत कीजिये। मैं भी ठीक वैसे ही करता था जैसे हम में से बहुत से लोग करते हैं या अब भी कर रहे होंगे। बिना पढ़े ही डीलीट कर दिया।

किंतु पिछले दिनों न जाने अचानक मुझे क्या हुआ कि मैं उन चिट्ठों को खोल खोल कर पढने लगा। सच कहूँ तो अपने आप को ही धन्यवाद कहता रहता हूँ कि अचानक वो ख्याल मेरे मन में आ गया। तब से तो मानिये जैसे ये एक आदत सी बन गयी और मैं पहला काम यही करता हूँ। यकीन मानें दिल को इतना सुकून मिलता है जब मैं किसी को पहली टिप्प्न्नी करता हूँ, या उसे फोलो करने वाला पहला व्यक्ति बँटा हूँ। न जाने कितने सारे दोस्त बना लिए हैं अब तक। कई सारी छोटी छोटी बातें जब देखने पढने को मिलती हैं तो अपने पुराने दिन भी याद आ जाते हैं, मसलन कई ब्लोग्गेर्स अनजाने में ख़ुद के ब्लोग्स को ही फोलो करने लगते हैं। किसी को ये नहीं पता होता कि अब जब उसे कोई टिप्प्न्नी कर रहा है तो वह उसे कैसे धन्यवाद कर सकता, आदि आदि। कहने का मतलब ये कि अब हमारा परिवार, हिन्दी ब्लॉग जगत का परिवार इतना बड़ा तो हो ही चुका है कि हम में से कुछ ब्लोग्गेर्स नियमित रूप से नए ब्लोग्गेर्स का स्वागत करें और उन्हें प्रोत्साहित करें। मुझे खूब पता है जब कोई नयी नयी पोस्ट लिखता है और काफी दिन बीतने के बाद भी कोई प्रतिक्रया नहीं आती तो उसे कैसा महसूस होता है।

इसलिए भाई मैंने तो ये सोच लिया है कि, बड़े भाई उड़नतश्तरी जी के पदचिन्हों पर चलते हुए नए ब्लॉगर को भरपूर समर्थन और प्रोत्साहन दूंगा, वैसे असली कारीगरी तो तब शुरू होगी, जब भगवान् की कृपा से जल्दी ही अपना कंप्युटर ले लूंगा। मेरी तो आप सबसे गुजारिश है कि नए मित्रों का स्वागत करें। यकीन मानें आपको जितनी खुशी मिलेगी उसका एहसास उन नए मित्रों को भी हो सकेगा। आशा है मेरी प्रार्थना आपको स्वीकार्य होगी.

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

क्या अपने यहाँ भी हो रही है ऐसी ब्लॉग्गिंग ?

अभी हाल ही में ब्लॉग्गिंग को लेकर पढ़े एक आलेख में कई सारी चौंकाने वाली बातें पढी। हठात तो यकीन ही नहीं हुआ , मगर जब पूरी ख़बर विस्तार से पढी तो उस पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था। ख़बर ये थी की दुनिया भर में जितने भी मीडियाकर्मी सलाखों के पीछे हैं उनमें से करीबन ४५ प्रतिशत लोग या तो ब्लॉगर हैं या वेब आधारित रिपोर्टर या सम्पादक हैं।
ख़बर में बताया गया है की मिश्रा में २००३ के बाद से अब तक करीब १४ हजार लोगों को सरकार के विरुद्ध ब्लॉग लिखने की वजह से गिरफ्तार किया जा चुका है। इरान में पिछले ५ सालों में ८ न्ब्लोग्गोरों को गिरफ्तार किया गया है तो चीन में २००३ के बाद से ११ ब्लोग्गरों को गिरफ्तार किया गया है। इनमें से अधिकतर या तो अब भी जेल में हैं या उन्हें देश निकाला दे दिया गया है। इन आंकडों ने मुझे कुछ बातें सोचने पर मजबूर कर दी।

पहली ये की , यदि सचमुच यही ब्लॉग्गिंग है तो फ़िर हम क्या कर रहे हैं। क्या इन ब्लोग्गेर्स के साथ इसलिए ऐसा हुआ है क्योंकि ऊपर लिखित सभी देश अभिव्यक्ति की स्वंत्रता को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते ऐसे में खुल्लम खुल्ला उन्की आलोचना को वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। सबसे अहम् बात ये की कौन कहता है की ब्लॉग्गिंग एक प्रभावहीन और औचित्यहीन अभिव्यक्ति माध्यम है जो दिशाहीन भी है। मुझे तो लगने लगा है की यदि सही मायनों में इसको दिशा मिल जाए तो बहुत सम्भव है की यहाँ इस देश में भी ये पत्रकारिता के हिलते डुलते आधार को न सिर्फ़ संभाल लेगा बल्कि उससे कहीं आगे निकल जायेगा।

इस आधार से तो लगता है की अभी तो हम महज शुरात ही कर रहे हैं। ये बेशक है की अब देश में और बाहर भी हिन्दी ब्लॉग्गिंग की , उनके लेखकों की, उनमें उठ रहे विषयों की और ब्लॉग्गिंग की दिशा और दशा की चर्चा हो रही है, और तमाम क्षेत्रों के दिग्गज देर सवेर इसका दामन थाम ही रहे हैं, किंतु अभी भी शायद वो धार वो पैनापन , वू कातिलाना अंदाज, वो बेबाकी , आ नहीं पा रही है। क्या ये सम्भव है की भैविश्य में हिन्दी ब्लॉग्गिंग का प्रहार और मिजाज भी सरकार और प्रशाशान को इतना तिलमिला दे के यहाँ भी एक आध को जेल जाना पड़े, मगर ये जनता के हित में होना चाहिए। महज अपने निजी विचारों और स्वार्थों से प्रेरित होकर लिखा जाने वाला सच भी फरेब जैसा ही लगता है।
जब मैं ख़ुद ही ब्लॉग्गिंग में आया था, तो ठीक ठीक नहीं समझ पाया था की आख़िर यहाँ मुझे करना क्या है, मगर देर से ही सही महसूस हुआ की अपने दिल की आवाज को सही शब्दों के सहारे सबके सामने रखना है। और अब तो मन करने लगा है की खुल्लम खुल्ला मैं भी शुरू हो ही जाऊं उस सत्य से परदा उठाने जिसकी हिम्मत अभी तक नहीं हो पायी है। दरअसल मेरा इशारा उस संस्थान (न्यायपालिका ) में छुपी गन्दगी को बाहर दिखाने की है जो पता नहीं किन कारणों से बहार नहीं आ पाती है। पता नहीं ये ठीक होगा या नहीं कम से कम खुल्लम खुल्ला अपनी पहचान कायम रखते हुए , देखिया क्या होता है.

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

उफ़ , प्रकृति तुम कभी कुछ कहती भी तो नहीं



तुम्हारा साथ

तुम्हारा नाम,

तुम्हारी सोच,

तुम्हारे सपने,

तुम्हारी कल्पना,

तुम्हारा यथार्थ,

तुम्हारी छवि,

तुम्हारा एहसास,

मन को हमेशा सुकून पहुंचाते हैं,

मगर जाने क्यूँ हम किस जूनून में पड़ कर,

तुम्हारा वजूद,

तुम्हारी कोमलता,

तुम्हारी मौलिकता,

तुम्हारी नश्वरता,

तुम्हारी निश्छलता,

तुम्हारा स्वरुप।

तुम्हारा सब कुछ,

मिटाने पर तुले हैं, उफ़ प्रकृति तुम कभी कुछ कहती भी तो नहीं.

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