सोमवार, 31 दिसंबर 2007

नए साल के लिए कुछ संकल्प

यूं तो मैं ऐसी योजना बना कर कभी नहीं चलता हूँ कि भैव्हिश्य में एक्साक्ट्ली क्या करना है क्योंकि काफी हद तक प्लान की हुई बातें ठीक वैसे नहीं पूरी हो पाती हैं। मगर फिर भी ब्लोग्गिंग से संबधित कुछ बातें और योनायें तो सोची ही हैं।

सबसे पहला तो ये कि ब्लोग नहीं लिखूंगा , अरे अरे नहीं नहीं आप गलत समझे । मेरा कहने का मतलब ये है कि अब कैफे में बैठ कर नहीं करूंगा बल्कि जल्दी ही अपना कंप्युटर ले कर बाकायदा धमाल मचाने कि तैयाती है.

एक नया ब्लोग :- सोचता हूँ कि अदालत से संबधित एक नया ब्लोग "कोर्ट-कचहरी " बनाऊँगा। हालांकि अभी ठीक ठीक फैसला नहीं कर पाया हूँ पर कुछ अलग सा होगा ये ब्लोग। इसमें अदालत से संबधित आम जानकारियाँ , नई तब्दीलियाँ, विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता, गिरफ्तारी, जमानत, जमानती, आरोप। गवाही, फैसला, अपील, आदि के बारे में सिलसिलेवार जानकारी देने की कोशिश करूंगा॥

मौजूदा ब्लोग्स को लेखन की विधाओं के अनुसार बात्नें की कोशिस करूंगा- जैसे, हास्य, काव्य, लेख, कहानी आदि। मगर फिर सोचता हूँ कि क्या ये उनके लिए थोडा अनुचित नहीं हो जाएगा जो सिर्फ एक ब्लोग पड़ना चाहेंगे। देखता हूँ कि क्या होता है।

मंदाकिनी - एक ऐसी लडकी की कहानी जिसके पूरे जीवन का एक एक पल आज की हरेक औरत, हरेक युवती के जिन्दगी के किसी ना किसी पहलू और अनुभव को कहीं ना कहीं जरूर चूएगा। मंदाकिनी की कहानी कब शुरू होगी ये भी जल्द ही पता चल जाएगा।


किसे एक ब्लोग पर लघुकथाओं की शूरूआत भी करने की कोशिश करूंगा ।

फिलहाल तक तो ये सब सोच चुका हूँ बाकी आगे आगे तो मुझे भी देखना है कि होता क्या सब है.

नए साल के लिए कुछ संकल्प

यूं तो मैं ऐसी योजना बना कर कभी नहीं चलता हूँ कि भैव्हिश्य में एक्साक्ट्ली क्या करना है क्योंकि काफी हद तक प्लान की हुई बातें ठीक वैसे नहीं पूरी हो पाती हैं। मगर फिर भी ब्लोग्गिंग से संबधित कुछ बातें और योनायें तो सोची ही हैं।

सबसे पहला तो ये कि ब्लोग नहीं लिखूंगा , अरे अरे नहीं नहीं आप गलत समझे । मेरा कहने का मतलब ये है कि अब कैफे में बैठ कर नहीं करूंगा बल्कि जल्दी ही अपना कंप्युटर ले कर बाकायदा धमाल मचाने कि तैयाती है.

एक नया ब्लोग :- सोचता हूँ कि अदालत से संबधित एक नया ब्लोग "कोर्ट-कचहरी " बनाऊँगा। हालांकि अभी ठीक ठीक फैसला नहीं कर पाया हूँ पर कुछ अलग सा होगा ये ब्लोग। इसमें अदालत से संबधित आम जानकारियाँ , नई तब्दीलियाँ, विवाह, तलाक, गुजारा भत्ता, गिरफ्तारी, जमानत, जमानती, आरोप। गवाही, फैसला, अपील, आदि के बारे में सिलसिलेवार जानकारी देने की कोशिश करूंगा॥

मौजूदा ब्लोग्स को लेखन की विधाओं के अनुसार बात्नें की कोशिस करूंगा- जैसे, हास्य, काव्य, लेख, कहानी आदि। मगर फिर सोचता हूँ कि क्या ये उनके लिए थोडा अनुचित नहीं हो जाएगा जो सिर्फ एक ब्लोग पड़ना चाहेंगे। देखता हूँ कि क्या होता है।

मंदाकिनी - एक ऐसी लडकी की कहानी जिसके पूरे जीवन का एक एक पल आज की हरेक औरत, हरेक युवती के जिन्दगी के किसी ना किसी पहलू और अनुभव को कहीं ना कहीं जरूर चूएगा। मंदाकिनी की कहानी कब शुरू होगी ये भी जल्द ही पता चल जाएगा।


किसे एक ब्लोग पर लघुकथाओं की शूरूआत भी करने की कोशिश करूंगा ।

फिलहाल तक तो ये सब सोच चुका हूँ बाकी आगे आगे तो मुझे भी देखना है कि होता क्या सब है.

रविवार, 30 दिसंबर 2007

अरिंदम को मोहल्ला पर नया फ्लैट मिलने की बधाई.

अरिंदम-- छोटा सा ब्लॉगर, कक्षा च्छ में पढ़ने वाला, पहला चिटठा बच्चों पर बनी फिल्म तारे ज़मीन पर पर की। और क्या धमाकेदार चर्चा की। सचमुच कमाल का लेखन और प्रतिभा है। बिल्कुल फिल्म के बाल कलाकार दर्शील की तरह चर्चित हो रहा है अरिंदम भी। कहते हैं होनहार के पूत के पाँव पालने में दिख जाते हैं। सो दिख ही रहे हैं॥ चलिए अच्छा है, इस से लगता है कि ब्लोग्गिंग का भविष्य बहुत उज्ज्व्वल होने वाला है।


लेकिन इससे अलग जिस एक बात पर मेरा ध्यान ज्यादा गया वो था कि अरिंदम को अविनाश जी के मोहल्ले में , ब्लोग जगत में कदम रखते ही , एक नया फ्लैट मिल गया और ये उसके लिए सोने पर सुहागा वाली बात हो गयी ॥ बधाई हो अरिंदम।

एक हम हैं नसीब के मारे , खानाबदोश के खानाबदोश ही हैं अब तक, मोहल्ला तो दूर कोइ गली तक में घुसने नहीं देता.

अरिंदम को मोहल्ला पर नया फ्लैट मिलने की बधाई.

अरिंदम-- छोटा सा ब्लॉगर, कक्षा च्छ में पढ़ने वाला, पहला चिटठा बच्चों पर बनी फिल्म तारे ज़मीन पर पर की। और क्या धमाकेदार चर्चा की। सचमुच कमाल का लेखन और प्रतिभा है। बिल्कुल फिल्म के बाल कलाकार दर्शील की तरह चर्चित हो रहा है अरिंदम भी। कहते हैं होनहार के पूत के पाँव पालने में दिख जाते हैं। सो दिख ही रहे हैं॥ चलिए अच्छा है, इस से लगता है कि ब्लोग्गिंग का भविष्य बहुत उज्ज्व्वल होने वाला है।


लेकिन इससे अलग जिस एक बात पर मेरा ध्यान ज्यादा गया वो था कि अरिंदम को अविनाश जी के मोहल्ले में , ब्लोग जगत में कदम रखते ही , एक नया फ्लैट मिल गया और ये उसके लिए सोने पर सुहागा वाली बात हो गयी ॥ बधाई हो अरिंदम।

एक हम हैं नसीब के मारे , खानाबदोश के खानाबदोश ही हैं अब तक, मोहल्ला तो दूर कोइ गली तक में घुसने नहीं देता.

शनिवार, 29 दिसंबर 2007

नये साल पर एक और शुभकामना कविता

इश्वर करे इस ,नये साल में,
कुछ ऐसा जो हो हो जाये,
नारी बने विश्व शक्ति,
सब उस पर केन्द्रित हो जाये॥


जो आपका हमारा साथ रहे,
हर सपना जीवित हो जाये,
नर-नारी चलें कदम-कदम,
सब इतने विकसित हो जाएं॥

ना आये कोई आपदा,
ना ही कहीं आशान्ति हो,
प्रकृति रहे शीतल-शांत ,
जन-जीवन में क्रांति हो॥

मानवता हो दृढ, और सबल,
इन्सानियत सहक्ति बन जाये,
कर्म बने कर्तव्य सभी का,
क्षुधा ही तृप्ति बन जाये।


एक बार फिर सभी ब्लॉगर/ चिट्ठाकार दोस्तों को हमारी तरफ से नव वर्ष के शुभ आगमन पर हार्दिक बधाई और शुभकामना।

आपका अपना,

अजय कुमार झा
फोन ९८७१२०५७६७.

टैलेंट शोव्स : प्रतिभाओं को निखार रहे हैं या कुंठित कर रहे हैं?

पिछले कुछ सालों से टेलीवीजन पर बहुत सारे टैलेंट शोव्स कि मनो एक बाढ़ सी आ गयी है। कभी इंडियन आइडल से शुरू हुआ ये सिलसिला ऐसा चल निकला है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इन टैलेंट शोव्स ने जहाँ एक तरफ मनोरंजन के क्षेत्र में एक विविधता सी भर दी है वहीं दुसरी तरफ गीत संगीत अभिनय के क्षेत्र में युवाओं का झुकाव और जबरदस्त संभावनाओं को पैदा कर दिया है । इससे अलग एक और बात जो अब पुरी तरह साबित हो गयी है वो ये कि इस देश में प्रतिभाओं की भरमार है बस यदि कमी है तो उन्हें तलाशने और तराशने की।





इन टैलेंट शोव्स की सफलता और बढ़ती लोकप्रियता तथा सार्थकता के साथ ही एक और सवाल जो इन दिनों चर्चा में है वो है इनके चुनाव कि प्रक्रिया और उनका परिणाम। अब तो जैसे ये भी एक प्रथा से बन गयी है कि कोई भी प्रतियोगिता बिना विवाद , बिना आलोंचना के पूरा ही नहीं होता। हालांकि इसके पीछे दो मुख्य कारण तो हैं ही एक तो जान बूझ कर किसी भी विवाद को पैदा करना ताकि उसको लोकप्रिया और चर्चित बनाया जा सके दूसरा है व्यापारिक दबाव में मोबाईल द्वारा वोटों से किसी का चुनाव। इस वोटिंग प्रणाली की हकीकत क्या है ये तो इश्वर ही जाने मगर इतना सच है की इससे कभी भी किसी प्रतियोगिता का भला होते हुए मैंने नहीं देखा। उलटा जो प्रबल प्रतिद्वंदी होता है जो वाकई जी का हक़दार लगता है वो बेचारा जरूर बाहर हो जाता है । दुःख और चिंता कि बात ये है कि अब ये टैलेंट शोव्स बच्चों के लिए भी आयोजित किये जाने लगे हैं और अपनी आदत के अनुरूप वहाँ भी यही सब कुछ चल रहा है ।



इसलिए अब तो ये सोचना पडेगा कि ये टैलेंट शोव्स वाके बच्चों का भला कर रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित करने में मददगार साबित होंगे या फिर ये उनमें असफलता कि एक ऐसी कुंठा को जन्म दे देंगे जो ता उम्र उन्हें बेहद दुःख देती रहेगी।

टैलेंट शोव्स : प्रतिभाओं को निखार रहे हैं या कुंठित कर रहे हैं?

पिछले कुछ सालों से टेलीवीजन पर बहुत सारे टैलेंट शोव्स कि मनो एक बाढ़ सी आ गयी है। कभी इंडियन आइडल से शुरू हुआ ये सिलसिला ऐसा चल निकला है कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इन टैलेंट शोव्स ने जहाँ एक तरफ मनोरंजन के क्षेत्र में एक विविधता सी भर दी है वहीं दुसरी तरफ गीत संगीत अभिनय के क्षेत्र में युवाओं का झुकाव और जबरदस्त संभावनाओं को पैदा कर दिया है । इससे अलग एक और बात जो अब पुरी तरह साबित हो गयी है वो ये कि इस देश में प्रतिभाओं की भरमार है बस यदि कमी है तो उन्हें तलाशने और तराशने की।





इन टैलेंट शोव्स की सफलता और बढ़ती लोकप्रियता तथा सार्थकता के साथ ही एक और सवाल जो इन दिनों चर्चा में है वो है इनके चुनाव कि प्रक्रिया और उनका परिणाम। अब तो जैसे ये भी एक प्रथा से बन गयी है कि कोई भी प्रतियोगिता बिना विवाद , बिना आलोंचना के पूरा ही नहीं होता। हालांकि इसके पीछे दो मुख्य कारण तो हैं ही एक तो जान बूझ कर किसी भी विवाद को पैदा करना ताकि उसको लोकप्रिया और चर्चित बनाया जा सके दूसरा है व्यापारिक दबाव में मोबाईल द्वारा वोटों से किसी का चुनाव। इस वोटिंग प्रणाली की हकीकत क्या है ये तो इश्वर ही जाने मगर इतना सच है की इससे कभी भी किसी प्रतियोगिता का भला होते हुए मैंने नहीं देखा। उलटा जो प्रबल प्रतिद्वंदी होता है जो वाकई जी का हक़दार लगता है वो बेचारा जरूर बाहर हो जाता है । दुःख और चिंता कि बात ये है कि अब ये टैलेंट शोव्स बच्चों के लिए भी आयोजित किये जाने लगे हैं और अपनी आदत के अनुरूप वहाँ भी यही सब कुछ चल रहा है ।



इसलिए अब तो ये सोचना पडेगा कि ये टैलेंट शोव्स वाके बच्चों का भला कर रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित करने में मददगार साबित होंगे या फिर ये उनमें असफलता कि एक ऐसी कुंठा को जन्म दे देंगे जो ता उम्र उन्हें बेहद दुःख देती रहेगी।

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007

नए साल पर एक और कविता

जीवन चक्र फिर घूम गया,
इक नया साल फिर आया है,
नई है खुशियाँ,नए हैं सपने,
नई चुनौतियां लाया है॥

इस साल पूरे हो जाएँ,
देखे जो सारे सपने हैं।
बस याद रहे वो सब,
काम जो सारे करने हैं॥


इश्वर की कृपा बनी रहे ,और,
मात-पिता का आशीष मिले,
जिसने दुःख दिए है जो भी,
उसको ही ये दुःख हरने हैं।



आप सबको नव वर्ष के आगमन पर अग्रिम बधाई और शुभकामना

कठिन और दुखदाई रहा २७ देसmber २००७

कल से जो दोनो दुख्दाए खबरें सूनी उसके बाद किसी और चीज़ सुनने पढ़ने देखने का मन ही नहीं किया। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जितनी जल्दी हो ये साल बीत जाये तो अच्छा।


पहली खबर थी भारत की पहली महिला पुलिस ओफ्फिसर किरण बेदी का वी आर अस लेकर पुलिस फोर्स से सेवा निव्रत्ती ले लेना। इससे बड़ी बदकिस्मती और इस देश कि क्या हो सकती है कि किरण बेदी जैसी महिला अधिकारी के साथ इस हद तक नांशाफी हो सकती है । कमाल कि बात है न कि कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है , वो भी तब जब राष्ट्रपति महिला है , प्रधानमंत्री से शक्तिशाली भी एक महिला है । ये तो तभी पता चल गया था कि किरण बेदी को अब जबरन ही रास्ते से हटा दिया जाएगा जब दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद पर उमको नहीं बैठने दिया गया। यही तो फर्क है और हमेशा रहेगा हममें और पच्शिमी देशों में । अव्वल तो वहाँ कि सरकार और प्रशाशन इतनी हिम्मत ही नहीं कर पाते और यदि गलती से कर भी लेते तो वहाँ की जनता उन्हें चैन नहीं लेने देती। कहिर किरण बेदी ने जो करना है वो तो करेंगी ही और ऐसे लोग कभी किसी बात के मोहताज नहीं होते।


दूसरी खबर इतनी अप्र्तायाषित और झकझोर देने वाली थी कि समझ ही नहीं पाए कि आकहिर ये क्या सुन रहे
हैं । बेनजीर कि असमय हत्या ने इंदिरा गांधी और राजीव जी की हत्या की बात याद दिला दी। लेकिन सबसे मुश्किल बात तो ये है कि आने वाले समय में पाकिस्तान कि हालत और भी बदतर होने वाली है । और ये बहुत बड़ी चिंता कि बात है कि हमारे पड़ोस में एक ऐसा देश पनप रह तो बहुत जल्दी जलने वाला है । देर सबेर उसकी लपटें हम तक भी पहुचने वाली हैं ही। मेरी मानें तो भारत सरकार और भारतीया सेना को अभी से पूरी तरह सतर्क हो जाना चाहिए । खैर हमें उस देश के लोगों से गहरी संवेदना है जो बेचारे ये सब झेलने को ना जाने कब से अभिशप्त हैं।

आज इससे अलग कुछ लखन को मन नहीं कर रहा है

कठिन और दुखदाई रहा २७ देसmber २००७

कल से जो दोनो दुख्दाए खबरें सूनी उसके बाद किसी और चीज़ सुनने पढ़ने देखने का मन ही नहीं किया। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जितनी जल्दी हो ये साल बीत जाये तो अच्छा।


पहली खबर थी भारत की पहली महिला पुलिस ओफ्फिसर किरण बेदी का वी आर अस लेकर पुलिस फोर्स से सेवा निव्रत्ती ले लेना। इससे बड़ी बदकिस्मती और इस देश कि क्या हो सकती है कि किरण बेदी जैसी महिला अधिकारी के साथ इस हद तक नांशाफी हो सकती है । कमाल कि बात है न कि कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है , वो भी तब जब राष्ट्रपति महिला है , प्रधानमंत्री से शक्तिशाली भी एक महिला है । ये तो तभी पता चल गया था कि किरण बेदी को अब जबरन ही रास्ते से हटा दिया जाएगा जब दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद पर उमको नहीं बैठने दिया गया। यही तो फर्क है और हमेशा रहेगा हममें और पच्शिमी देशों में । अव्वल तो वहाँ कि सरकार और प्रशाशन इतनी हिम्मत ही नहीं कर पाते और यदि गलती से कर भी लेते तो वहाँ की जनता उन्हें चैन नहीं लेने देती। कहिर किरण बेदी ने जो करना है वो तो करेंगी ही और ऐसे लोग कभी किसी बात के मोहताज नहीं होते।


दूसरी खबर इतनी अप्र्तायाषित और झकझोर देने वाली थी कि समझ ही नहीं पाए कि आकहिर ये क्या सुन रहे
हैं । बेनजीर कि असमय हत्या ने इंदिरा गांधी और राजीव जी की हत्या की बात याद दिला दी। लेकिन सबसे मुश्किल बात तो ये है कि आने वाले समय में पाकिस्तान कि हालत और भी बदतर होने वाली है । और ये बहुत बड़ी चिंता कि बात है कि हमारे पड़ोस में एक ऐसा देश पनप रह तो बहुत जल्दी जलने वाला है । देर सबेर उसकी लपटें हम तक भी पहुचने वाली हैं ही। मेरी मानें तो भारत सरकार और भारतीया सेना को अभी से पूरी तरह सतर्क हो जाना चाहिए । खैर हमें उस देश के लोगों से गहरी संवेदना है जो बेचारे ये सब झेलने को ना जाने कब से अभिशप्त हैं।

आज इससे अलग कुछ लखन को मन नहीं कर रहा है

गुरुवार, 27 दिसंबर 2007

कल bbc सूना tha क्या?

आपने कल बीबीसी रेडियो कि हिन्दी सेवा सुनी थी क्या? अरे अरे, ये क्या पूछ बैठा मैं , खासकर शहर में रहने वाले अपने मित्रों से । हाँ शहर में अव्वल तो कोई रेडियो सुनता नहीं यदि सुनता भी है तो सिर्फ अफ ऍम रेडियो पर गाने ही सुनता। शहर में तो मुझ जैसे एक आध मूढ़ ही शोर्ट वाव रेडियो पर बीबीसी हिन्दी सेवा सुनते होंगे। खैर मुझे तो ये आदत बरसों पुरानी है । लेकिन यहाँ ये बात मैंने इसलिए पूछी है क्योंकि ये उनके लिए बेहद यादगार शाम साबित हो सकती थी जो कविता हिन्दी काव्य के प्रेमी लोग हैं।


बीबीसी हिन्दी ने प्रत्येक वर्ष कि भांति इस बार भी वर्षांत पर अपनी विश्सेश प्रस्तुतियों कि श्रंखला जारी राखी है । कल बीबीसी के वरिष्ट संपादक शिवकांत जी ने एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया था। जी नहीं ये कोई मामूली काव्य गोष्ठी नहीं थी । इसमें सुमित्रा नंदन पन्त, दिनकर, बच्हन, त्रिलोचन, अगेयेया, फैज़ अहमद, जयशंकर प्रसाद, और बेकल उत्साही कि प्रमुख रचनाओं का पाठ किया गया। और ये भी तो सुनिए कि काव्य पाठ खुद इन महान कवियों ने ही किया । आप खुद ही सोच सकते हैं कि इन महान काव्य विभूतियों को खुद उनकी आवाज़ में सुनना किसी सुखद अनुभव से कम नहीं। ऐसा संभव हो सका बीबीसी की अनमोल औडियो लिब्ररी के कारण। इनमें से कोई आवाज़ २८ साल पहले तो कोई आवाज़ १७ साल पहले अलग अलग महफिलों में रेकोर्ड की गयी थी।

आप निराश ना हों यदि आप अब भी उन्हें सुनना चाहते हैं तो बीबीसी हिन्दी .कॉम पर जाकर उन्हें सुन सकते हैं। यकीन मानिए आपको निराशा नहीं होगी।


और जब कविता कि बात चली है तो सोचा मैं भी कुछ लिखता चलूँ:-

जाने तेरी इन काली,मोटी,गहरी, आखों में,
कभी क्यों मेरे सपने नहीं आते,

तू तो ग़ैर है फिर क्यों करूं तुझसे शिक़ायत,
जब पास मेरे, मेरे अपने नहीं आते।

उन्हें maalom है कि हर बार में ही माँग loongaa maafi,
इसलिए वो कभी मुझसे लड़ने नहीं आते।

जो shammaaon को पद जाये पता,कि उनकी roshnee से,
parwaane lipat के देते हैं जान, वे कभी jalne नहीं आते।

jabse पता चला है कि यूं जान देने वालों को sukun नहीं मिलता,
hum कोशिश तो करते हैं पर कभी मरने नहीं पाते।

जो कभी किसी ने पूछ लिया होता, मुझसे इस कलाम्जोरी का राज़,
खुदा कसम हम कभी यूं लिखने नहीं पाते।


पर किसी ने कभी पूछा नहीं इसलिए लिखी चले जा रहे हैं .

कल bbc सूना tha क्या?

आपने कल बीबीसी रेडियो कि हिन्दी सेवा सुनी थी क्या? अरे अरे, ये क्या पूछ बैठा मैं , खासकर शहर में रहने वाले अपने मित्रों से । हाँ शहर में अव्वल तो कोई रेडियो सुनता नहीं यदि सुनता भी है तो सिर्फ अफ ऍम रेडियो पर गाने ही सुनता। शहर में तो मुझ जैसे एक आध मूढ़ ही शोर्ट वाव रेडियो पर बीबीसी हिन्दी सेवा सुनते होंगे। खैर मुझे तो ये आदत बरसों पुरानी है । लेकिन यहाँ ये बात मैंने इसलिए पूछी है क्योंकि ये उनके लिए बेहद यादगार शाम साबित हो सकती थी जो कविता हिन्दी काव्य के प्रेमी लोग हैं।


बीबीसी हिन्दी ने प्रत्येक वर्ष कि भांति इस बार भी वर्षांत पर अपनी विश्सेश प्रस्तुतियों कि श्रंखला जारी राखी है । कल बीबीसी के वरिष्ट संपादक शिवकांत जी ने एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया था। जी नहीं ये कोई मामूली काव्य गोष्ठी नहीं थी । इसमें सुमित्रा नंदन पन्त, दिनकर, बच्हन, त्रिलोचन, अगेयेया, फैज़ अहमद, जयशंकर प्रसाद, और बेकल उत्साही कि प्रमुख रचनाओं का पाठ किया गया। और ये भी तो सुनिए कि काव्य पाठ खुद इन महान कवियों ने ही किया । आप खुद ही सोच सकते हैं कि इन महान काव्य विभूतियों को खुद उनकी आवाज़ में सुनना किसी सुखद अनुभव से कम नहीं। ऐसा संभव हो सका बीबीसी की अनमोल औडियो लिब्ररी के कारण। इनमें से कोई आवाज़ २८ साल पहले तो कोई आवाज़ १७ साल पहले अलग अलग महफिलों में रेकोर्ड की गयी थी।

आप निराश ना हों यदि आप अब भी उन्हें सुनना चाहते हैं तो बीबीसी हिन्दी .कॉम पर जाकर उन्हें सुन सकते हैं। यकीन मानिए आपको निराशा नहीं होगी।


और जब कविता कि बात चली है तो सोचा मैं भी कुछ लिखता चलूँ:-

जाने तेरी इन काली,मोटी,गहरी, आखों में,
कभी क्यों मेरे सपने नहीं आते,

तू तो ग़ैर है फिर क्यों करूं तुझसे शिक़ायत,
जब पास मेरे, मेरे अपने नहीं आते।

उन्हें maalom है कि हर बार में ही माँग loongaa maafi,
इसलिए वो कभी मुझसे लड़ने नहीं आते।

जो shammaaon को पद जाये पता,कि उनकी roshnee से,
parwaane lipat के देते हैं जान, वे कभी jalne नहीं आते।

jabse पता चला है कि यूं जान देने वालों को sukun नहीं मिलता,
hum कोशिश तो करते हैं पर कभी मरने नहीं पाते।

जो कभी किसी ने पूछ लिया होता, मुझसे इस कलाम्जोरी का राज़,
खुदा कसम हम कभी यूं लिखने नहीं पाते।


पर किसी ने कभी पूछा नहीं इसलिए लिखी चले जा रहे हैं .

मंगलवार, 25 दिसंबर 2007

चिट्ठाकारी के कुछ खास नुस्खे

अपने कुछ दिनों कि ब्लोग्गिंग के अनुभव के बाद जो चंद बातें मैंने महसूस कि सोचा कि वे आपको बताता चलूँ, लेकिन कुछ भी लिखने से पहले से पहले मैं ये स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ये सारे नुस्खे कोई बडे तगडे या कि बहुत प्रामाणिक हैं । हाँ मगर इतना जरूर है कि मेरी तरह आनेवाले नए और नौशिकिये चिट्ठाकारों के लिए शायद ये जरूर फायदेमंद साबित हो सकते हैं।:-


अपना चिटठा आप यथासंभव सुबह छपने का प्रयास करें। ( ये बात मैं उन के लिए कह रहा हूँ जो भारत में रह कर ब्लोग्गिंग कर रहे हैं। ) इसकी वज़ह ये है कि मैंने महसूस किया है कि चिट्ठों को लोग तभी पढ़ते हैं जब वे अग्ग्रेगातोर्स के पास दिखाए देते हैं। यदि आपने देर रात कुछ लिख कर पोस्ट कर दिया है तो बहुत अधिक संभावना है कि सुबह तक उसकी जगह कोई और पोस्ट ले ले और इस तरह आपकी पोस्ट बिना पढे ही साइड लग जायेगी। ऐसा तब तक करना जरूरी है जब तक आप इतने पाठक ना बना लें जो आपको पढ़ने के लिए तत्पर रहे।


जरूरी नहीं कि हमेशा गंभीर बातें ही लिखी जाएँ , या कि सिर्फ गंभीर विषयों पर ही कुछ लिखा जाये । कभी कभी थोडे बदलाव के लिए कुछ हल्का फुल्का भी लिखते रहना चाहिए। या फिर ऐसा भी कर सकते हैं कि उन्ही बातों को कुछ हलके फुल्के तरीके से कहा जाये।

ज्यादा फिलासफी ना झाडें तो अच्छा , क्योंकि शायद आज के जमाने में किसी के पास इतना वक़्त नहीं होता कि वो आपके आदर्शों को झेलने के लिए समय निकाल सके।

यदि कविता -ग़ज़ल आदि लिखते है तो ऐसी लिखने कि कोशिश करें उसका मजमून कुछ ऐसा हो कि एक आम पाठक भी आराम से पढ़ कर उसे समझ सके। कहीं ऐसा ना हो कि उसे समझाने के लिए खुद आपको ही सामने आना पड़े या फिर कि खुद मिर्ज़ा घलिब साहब को कोई नया ब्लोग लिख कर उनके मतलब बतानें पडें।

एक जरूरी बात यदि आप चाहते हैं कि लोग आपको पढ़ कर टिप्पणी करें तो आप ये जान लें कि दुसरे भी यही चाहते हैं इसलिए पहले आप खुद टिप्पणी करने की आदत डालें । अब जाहिर है कि कम से कम अपने ब्लोग पर अपनी टिप्पणी डालने का काम तो आप नहीं करेंगे।

एक आख़िरी बात ,यदि एक ही स्टाइल आपको थोडा बोर करने लगे तो ब्लोग के रंग-रुप,टेम्पलेट, फॉण्ट आदि में कभी कभी थोडा बहुत परिवर्तन आपको और आपके ब्लोग को ताजगी का एहसास कराएगा।

तो हे, चिट्ठाकार मित्रों आप मेरे इन अनुभवों से कितना इत्फाक रखते हैं ये तो नहीं जानता, ना ही ये जानता हूँ कि इससे सचमुच नए आगंतुकों को कोई लाभ होने वाला है मगर इतना तो सच है ही कि इस naacheez ने जो जाना समझा वो बता दिया।

एक आख़िरी से भी आख़िरी बात यदि आपकी पोस्ट पर कोई टिप्पणी नहीं आ रही है तो भी उदास होने कि कोई बात नहीं यार आफ्टर आल आप कोई आमिर खान तो हो नहीं सो डोंट वोर्री बे हैप्पी

चिट्ठाकारी के कुछ खास नुस्खे

अपने कुछ दिनों कि ब्लोग्गिंग के अनुभव के बाद जो चंद बातें मैंने महसूस कि सोचा कि वे आपको बताता चलूँ, लेकिन कुछ भी लिखने से पहले से पहले मैं ये स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि ये सारे नुस्खे कोई बडे तगडे या कि बहुत प्रामाणिक हैं । हाँ मगर इतना जरूर है कि मेरी तरह आनेवाले नए और नौशिकिये चिट्ठाकारों के लिए शायद ये जरूर फायदेमंद साबित हो सकते हैं।:-


अपना चिटठा आप यथासंभव सुबह छपने का प्रयास करें। ( ये बात मैं उन के लिए कह रहा हूँ जो भारत में रह कर ब्लोग्गिंग कर रहे हैं। ) इसकी वज़ह ये है कि मैंने महसूस किया है कि चिट्ठों को लोग तभी पढ़ते हैं जब वे अग्ग्रेगातोर्स के पास दिखाए देते हैं। यदि आपने देर रात कुछ लिख कर पोस्ट कर दिया है तो बहुत अधिक संभावना है कि सुबह तक उसकी जगह कोई और पोस्ट ले ले और इस तरह आपकी पोस्ट बिना पढे ही साइड लग जायेगी। ऐसा तब तक करना जरूरी है जब तक आप इतने पाठक ना बना लें जो आपको पढ़ने के लिए तत्पर रहे।


जरूरी नहीं कि हमेशा गंभीर बातें ही लिखी जाएँ , या कि सिर्फ गंभीर विषयों पर ही कुछ लिखा जाये । कभी कभी थोडे बदलाव के लिए कुछ हल्का फुल्का भी लिखते रहना चाहिए। या फिर ऐसा भी कर सकते हैं कि उन्ही बातों को कुछ हलके फुल्के तरीके से कहा जाये।

ज्यादा फिलासफी ना झाडें तो अच्छा , क्योंकि शायद आज के जमाने में किसी के पास इतना वक़्त नहीं होता कि वो आपके आदर्शों को झेलने के लिए समय निकाल सके।

यदि कविता -ग़ज़ल आदि लिखते है तो ऐसी लिखने कि कोशिश करें उसका मजमून कुछ ऐसा हो कि एक आम पाठक भी आराम से पढ़ कर उसे समझ सके। कहीं ऐसा ना हो कि उसे समझाने के लिए खुद आपको ही सामने आना पड़े या फिर कि खुद मिर्ज़ा घलिब साहब को कोई नया ब्लोग लिख कर उनके मतलब बतानें पडें।

एक जरूरी बात यदि आप चाहते हैं कि लोग आपको पढ़ कर टिप्पणी करें तो आप ये जान लें कि दुसरे भी यही चाहते हैं इसलिए पहले आप खुद टिप्पणी करने की आदत डालें । अब जाहिर है कि कम से कम अपने ब्लोग पर अपनी टिप्पणी डालने का काम तो आप नहीं करेंगे।

एक आख़िरी बात ,यदि एक ही स्टाइल आपको थोडा बोर करने लगे तो ब्लोग के रंग-रुप,टेम्पलेट, फॉण्ट आदि में कभी कभी थोडा बहुत परिवर्तन आपको और आपके ब्लोग को ताजगी का एहसास कराएगा।

तो हे, चिट्ठाकार मित्रों आप मेरे इन अनुभवों से कितना इत्फाक रखते हैं ये तो नहीं जानता, ना ही ये जानता हूँ कि इससे सचमुच नए आगंतुकों को कोई लाभ होने वाला है मगर इतना तो सच है ही कि इस naacheez ने जो जाना समझा वो बता दिया।

एक आख़िरी से भी आख़िरी बात यदि आपकी पोस्ट पर कोई टिप्पणी नहीं आ रही है तो भी उदास होने कि कोई बात नहीं यार आफ्टर आल आप कोई आमिर खान तो हो नहीं सो डोंट वोर्री बे हैप्पी

इस नये saal में

इस नये साल में आप सभी को,
कहिये और क्या सौगात दें।
दिन हो होली ,रंगों में डूबी,
और दिवाली सी रात दें॥


खुशिआं ही खुशियाँ हो आसपास,
इस्वर सपनों की बरात दें।
स्नेह मिले और सुकून भी,
ऐसे सुंदर जज्बात दें॥

नई सोच हो, नई हो शक्ति,
नव्कल्पना और नई बात दें।
अपनों से बढ़ जाये अपनापन,
वे हरपल, हर क्षण साथ दें॥

सुखद समय हो ,भविष्य हो सुन्दर,
स्वर्णिम सारा ये साल रहे।
यादों की एलबम बन जाये,
ऐसी मीठी मुलाक़ात दें॥


सभी चिट्ठाकार दोस्तों को नव वर्ष कि अग्रिम सुभ्कामना।

अजय कुमार झा urf jholtanma

सोमवार, 24 दिसंबर 2007

किताबों से दोस्ती

क्या आपको वे दिन याद हैं , अपने बचपन के जब हम सब शायद आप भी चंदामामा, चंपक , बालभारती, चीतु-नीतू ,और पता नहीं कौन कौन से सबके कितने दीवाने हुआ करते थे । उसके बाद दौर आया कॉमिक्स का वेताल, मेंद्रक, लंबू छोटू, नागराज , और भी ढेर सारे हाँ चाचा चौधरी भी, इस कॉमिक्स के दौर ने तो जैसे सभी बच्चों को बाँध कर रख दिया था। स्कूल की लिब्ररी तक में ये पुस्तकें और कॉमिक्स मंगाये जाती थी।
सोचता हूँ कि काश आज के बच्चों को भी वही सब मिल पाटा , लेकिन क्या ये आज कल के बच्चे जो मोबाईल और इंटरनेट से चिपके रहते हैं उन्हें कॉमिक्स बाँध सकते थे अपने मोह में मगर ये भी तो एक कड़वा सच है कि आज बाल साहित्य के बारे में किसी को कोई चिंता नहीं है , कौन आज सोच रहा है कि बच्चों को क्या मिलना चाहिए और क्या नहीं मिलना चाहिए । हाँ हाल ही में स्कूल शूट आउट वाले हादसे के बाद थोडे दिनों तक ये शोर जारूर मचेगा और फिर सब शांत ।


खैर , मैं इससे अलग एक बात और ये करने आया हूँ कि आज आप हम में से कितने लोग ऐसे हैं जो किताबें पढ़ने का शौक रखते हैं। मैंने शौक सह्ब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि किताबें पढ़ने का जूनून या आदत तो अब सिर्फ उन लोगों में ही बची है जो या कि जिनका लगाव साहित्य जगत के साथ है। हालांकि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ये सारे शौक या आदतें खुद बा खुद आती हैं इन्हें पैदा नहीं किया जा सकता लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता । मैं जब कोल्लेज में था तो जानते हैं मेरी पसंद की किताबें कौन सी होती थी, जी हाँ वही २० -२० रूपये में मिलने वाली वेदप्रकाश शर्मा जी, कर्नल रणजीत के उपन्यास, यदि आप खरीद कर नहीं पढ़ना चाहते तो उन दिनों ये किताबें १ रूपये प्रतिदिन के किराए पर मिल जाया करती थी। नहीं ऐसा नहीं है कि ये किताबें कोई गलत किताबें थी या कि मुझे उन्हें पढ़ने का कोई अफ़सोस है। मगर कालांतर में जब मेरा दायरा बढ़ा तो मेरा परिचय हिन्दी साहित्य ,जिसे विशुद्ध हिन्दी साहित्य ,अंगरेजी साहित्य ,से हुआ। संयोग ऐसा था कि जो पहली किताब मुझे पढ़ने को मिली वो थी धर्मं वीर भारती कि "गुनाहों का देवता" , मेरे ख्याल से यदि किसी को हिन्दी साहित्य के प्रति शुरुआत करवाने हो तो इस से बेहतर किताब दूसरी कोई और नहीं हो सकती । इसके बाद तो जैसे ये एक अनथक सिलसिला शुरू हो गया। राजधानी में रहने के कारण एक ये फायदा और भी हुआ कि शुरू से अब तक सभी दिल्ली पुस्तक मेलों में मैं शामिल हो सका। आज मेरी अपनी लाईब्ररी में लगभग ४०० हिन्दी अंग्रेजी कि पुस्तकें हैं । शिवानी ,प्रेमचंद , हरिवंस्रै बच्हन,नागार्जुन, खुस्वंत सिंह और भी बहुत सारे लेखकों की किताबें हैं।



मैंने ये भी अनुभव किया है कि आपकी कताब पढ़ने की आदत का प्रभाव आपके चरित्र ,आपकी भाषा, आपकी लेखनी, आपके माहौल सब पर पड़ ही जाता है । किसी यात्रा पर निकलूं या कभी घर पर अकेला रहूँ तो किताबें मेरा अच्छा साथ निभाती हैं। हालांकि मैंने हमेशा यही कोशिश की है कि मेरे आसपास जो लोग हैं उन्हें भी पढ़ने का शौक हो मगर कभी कभी तब तकलीफ होती है जब लोग किताबें माँग कर ले तो जाते हैं मगर वापस ही नहीं करते। कुछ एक किताबें तो मुझे दोबारा कह्रीद्नी पडी हैं।

तो आप क्या करते हैं, क्या आप भी किताबें पढ़ते हैं.

किताबों से दोस्ती

क्या आपको वे दिन याद हैं , अपने बचपन के जब हम सब शायद आप भी चंदामामा, चंपक , बालभारती, चीतु-नीतू ,और पता नहीं कौन कौन से सबके कितने दीवाने हुआ करते थे । उसके बाद दौर आया कॉमिक्स का वेताल, मेंद्रक, लंबू छोटू, नागराज , और भी ढेर सारे हाँ चाचा चौधरी भी, इस कॉमिक्स के दौर ने तो जैसे सभी बच्चों को बाँध कर रख दिया था। स्कूल की लिब्ररी तक में ये पुस्तकें और कॉमिक्स मंगाये जाती थी।
सोचता हूँ कि काश आज के बच्चों को भी वही सब मिल पाटा , लेकिन क्या ये आज कल के बच्चे जो मोबाईल और इंटरनेट से चिपके रहते हैं उन्हें कॉमिक्स बाँध सकते थे अपने मोह में मगर ये भी तो एक कड़वा सच है कि आज बाल साहित्य के बारे में किसी को कोई चिंता नहीं है , कौन आज सोच रहा है कि बच्चों को क्या मिलना चाहिए और क्या नहीं मिलना चाहिए । हाँ हाल ही में स्कूल शूट आउट वाले हादसे के बाद थोडे दिनों तक ये शोर जारूर मचेगा और फिर सब शांत ।


खैर , मैं इससे अलग एक बात और ये करने आया हूँ कि आज आप हम में से कितने लोग ऐसे हैं जो किताबें पढ़ने का शौक रखते हैं। मैंने शौक सह्ब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि किताबें पढ़ने का जूनून या आदत तो अब सिर्फ उन लोगों में ही बची है जो या कि जिनका लगाव साहित्य जगत के साथ है। हालांकि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ये सारे शौक या आदतें खुद बा खुद आती हैं इन्हें पैदा नहीं किया जा सकता लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता । मैं जब कोल्लेज में था तो जानते हैं मेरी पसंद की किताबें कौन सी होती थी, जी हाँ वही २० -२० रूपये में मिलने वाली वेदप्रकाश शर्मा जी, कर्नल रणजीत के उपन्यास, यदि आप खरीद कर नहीं पढ़ना चाहते तो उन दिनों ये किताबें १ रूपये प्रतिदिन के किराए पर मिल जाया करती थी। नहीं ऐसा नहीं है कि ये किताबें कोई गलत किताबें थी या कि मुझे उन्हें पढ़ने का कोई अफ़सोस है। मगर कालांतर में जब मेरा दायरा बढ़ा तो मेरा परिचय हिन्दी साहित्य ,जिसे विशुद्ध हिन्दी साहित्य ,अंगरेजी साहित्य ,से हुआ। संयोग ऐसा था कि जो पहली किताब मुझे पढ़ने को मिली वो थी धर्मं वीर भारती कि "गुनाहों का देवता" , मेरे ख्याल से यदि किसी को हिन्दी साहित्य के प्रति शुरुआत करवाने हो तो इस से बेहतर किताब दूसरी कोई और नहीं हो सकती । इसके बाद तो जैसे ये एक अनथक सिलसिला शुरू हो गया। राजधानी में रहने के कारण एक ये फायदा और भी हुआ कि शुरू से अब तक सभी दिल्ली पुस्तक मेलों में मैं शामिल हो सका। आज मेरी अपनी लाईब्ररी में लगभग ४०० हिन्दी अंग्रेजी कि पुस्तकें हैं । शिवानी ,प्रेमचंद , हरिवंस्रै बच्हन,नागार्जुन, खुस्वंत सिंह और भी बहुत सारे लेखकों की किताबें हैं।



मैंने ये भी अनुभव किया है कि आपकी कताब पढ़ने की आदत का प्रभाव आपके चरित्र ,आपकी भाषा, आपकी लेखनी, आपके माहौल सब पर पड़ ही जाता है । किसी यात्रा पर निकलूं या कभी घर पर अकेला रहूँ तो किताबें मेरा अच्छा साथ निभाती हैं। हालांकि मैंने हमेशा यही कोशिश की है कि मेरे आसपास जो लोग हैं उन्हें भी पढ़ने का शौक हो मगर कभी कभी तब तकलीफ होती है जब लोग किताबें माँग कर ले तो जाते हैं मगर वापस ही नहीं करते। कुछ एक किताबें तो मुझे दोबारा कह्रीद्नी पडी हैं।

तो आप क्या करते हैं, क्या आप भी किताबें पढ़ते हैं.

रविवार, 23 दिसंबर 2007

एक और saal ख़त्म होने को है

जब से पढाई लिखाई के बाद होश सम्भाला और इस नौकरी चाकरी के चक्कर में पड़े ,उसके बाद जैसा कि हेमेशा होता आया है शादी फिर बच्चे और सब कुछ वैसा ही, तभी से ना जाने ये समय कम्भाक्त जैसे पंख लगा के उड़ता चला जा रहा है । या फिर मुन्हे ऐसा इसलिए लग रहा है क्योंकि मेरी जिन्दगी में एक निश्चिन्तता तो आ ही गयी है , और ऐसा उन्हें ना लगता हो जो अभी भी जीवन के संघर्ष में लगे हों । उन्हें तो शायद इस समय को बिताना ही कठिन लग रहा होगा। जो भी हो इतना तो तय है कि समय तो खिसक खिसक कर नयी नयी तारीखों की तरफ बढ़ता चला जाता है हमेशा।

सोचता हूँ कि साल के अंत आते आते हम क्या सोचने लगते हैं यही ना कि यार देखते देखते ये साल भी बीत गया इस साल में ये नहीं हो पाया या फिर कि चलो इस साल ये काम तो निपट गया। अब अगले साल ये काम भी हो जाएगा या फिर कि अगले साल से ये काम बिल्कुल नहीं करना है , या ये भी चाहे कुछ भी हो जाये इस आने वाले साल में कम से कम ये काम तो करना ही है। सब के मन में यही सब तो चलता रहता है और ये तो हमेशा से चलता आ रहा है।


इस बार मैं सोच रहा था कि हम में से कितने लोग सोचते हैं कि यार इस बार कुछ ऐसा कर पाए जिससे हमारे समाज को हमारे अपनों जो हमारे अपने नहीं थे उन्हें भी कुछ ऐसे मिल पाया जिसके लिए वे हमें याद रख सकते हैं। दरअसल अब हम सबकी जिन्दगी उस जगह पर पहुंच गयी है जहाँ शायद इन सब बातों के लिए किसी के पास फुरसत ही नहीं है, या फिर ये कि ये साड़ी बातें सिर्फ बातों में ही अच्छी लगती हैं। चलिए मान लिया यदि ऐसा भी है तो क्या हम इतना भी नहीं कर सकते कि वे बातें वे काम करने से खुद को बचा सकें जो या जिससे किसी को दुःख या चोट पहुंचे । हाँ ये थोडा मुश्किल जरूर है मगर कोशिश करने से शायद संभव तो है ही।

मुझे ये तो नहीं पता कि अगले साल मैं क्या सब करने वाल हूँ या कि कि मेरे साथ क्या सब होने वाला है मगर इतना तय है कि अपना काम पूरी इमानदारी से करता रहूंगा जैसा करता आ रहा हूँ। घर पर और बाहर भी जो जितना कर सकूंगा वो सब भी करता रहूंगा । हाँ कुछ पुराने रिश्तों कुछ पुराने दोस्तों को दूंध्ने कि कोशिश करूंगा क्योंकि ये ज़िंदगी जितनी दिखाई देती है उससे भी छोटी होती है।


कहिये आप लोग क्या सब करने वाले हैं?

एक और saal ख़त्म होने को है

जब से पढाई लिखाई के बाद होश सम्भाला और इस नौकरी चाकरी के चक्कर में पड़े ,उसके बाद जैसा कि हेमेशा होता आया है शादी फिर बच्चे और सब कुछ वैसा ही, तभी से ना जाने ये समय कम्भाक्त जैसे पंख लगा के उड़ता चला जा रहा है । या फिर मुन्हे ऐसा इसलिए लग रहा है क्योंकि मेरी जिन्दगी में एक निश्चिन्तता तो आ ही गयी है , और ऐसा उन्हें ना लगता हो जो अभी भी जीवन के संघर्ष में लगे हों । उन्हें तो शायद इस समय को बिताना ही कठिन लग रहा होगा। जो भी हो इतना तो तय है कि समय तो खिसक खिसक कर नयी नयी तारीखों की तरफ बढ़ता चला जाता है हमेशा।

सोचता हूँ कि साल के अंत आते आते हम क्या सोचने लगते हैं यही ना कि यार देखते देखते ये साल भी बीत गया इस साल में ये नहीं हो पाया या फिर कि चलो इस साल ये काम तो निपट गया। अब अगले साल ये काम भी हो जाएगा या फिर कि अगले साल से ये काम बिल्कुल नहीं करना है , या ये भी चाहे कुछ भी हो जाये इस आने वाले साल में कम से कम ये काम तो करना ही है। सब के मन में यही सब तो चलता रहता है और ये तो हमेशा से चलता आ रहा है।


इस बार मैं सोच रहा था कि हम में से कितने लोग सोचते हैं कि यार इस बार कुछ ऐसा कर पाए जिससे हमारे समाज को हमारे अपनों जो हमारे अपने नहीं थे उन्हें भी कुछ ऐसे मिल पाया जिसके लिए वे हमें याद रख सकते हैं। दरअसल अब हम सबकी जिन्दगी उस जगह पर पहुंच गयी है जहाँ शायद इन सब बातों के लिए किसी के पास फुरसत ही नहीं है, या फिर ये कि ये साड़ी बातें सिर्फ बातों में ही अच्छी लगती हैं। चलिए मान लिया यदि ऐसा भी है तो क्या हम इतना भी नहीं कर सकते कि वे बातें वे काम करने से खुद को बचा सकें जो या जिससे किसी को दुःख या चोट पहुंचे । हाँ ये थोडा मुश्किल जरूर है मगर कोशिश करने से शायद संभव तो है ही।

मुझे ये तो नहीं पता कि अगले साल मैं क्या सब करने वाल हूँ या कि कि मेरे साथ क्या सब होने वाला है मगर इतना तय है कि अपना काम पूरी इमानदारी से करता रहूंगा जैसा करता आ रहा हूँ। घर पर और बाहर भी जो जितना कर सकूंगा वो सब भी करता रहूंगा । हाँ कुछ पुराने रिश्तों कुछ पुराने दोस्तों को दूंध्ने कि कोशिश करूंगा क्योंकि ये ज़िंदगी जितनी दिखाई देती है उससे भी छोटी होती है।


कहिये आप लोग क्या सब करने वाले हैं?

सोमवार, 17 दिसंबर 2007

भाड़ mein जाये धर्म और जाति

मैं सोचता हूँ कि अब वो समय आ ही गया है जब धर्म और जाति जैसी चीजों को हमें अपने बीच से ख़त्म कर देना चाहिए। देखिए ना चारों तरफ आज उसकी वज़ह से सारी मुश्किलें आ रहे हैं। वैसे भी सोचता हूँ कि यार इस धर्म और जाति ने आख़िर क्या ऐसा अनोखा दे दिया आज तक जो यदि मैं इस धर्म और जाति का नहीं होता तो मुझे नहीं मिल पाता।

आज दुनिया में नज़र दौडा कर देखिए जितने भी लफड़े झगडे चल रहे हैं उनमें से ८० प्रतिशत का कारण या तो ये धर्म होगा या जाति होगी। अपने यहाँ गुजरात के चुनाव की बात हो या फिर बार बार आरक्षण के नाम पर होने वाली राजनीती और दंगा फसाद। इस्रैल-फिलिस्तीन का झगडा हो या हाल फिलहाल में चल रह मलासिया में हिन्दू लोगों के साथ होने वाला प्रकरण।

अपने यहाँ तो इस जाति और धर्म को सदियों से पीस पीस कर ऐसा लेप तैयार किया जाता रहा है कि जिसका लेप लगा कर हर कोई अपना मतलब निकालने में लगा हुआ है । चाहे किसी क्स्षेत्र कि राजनीति हो या पूरे देश की बात घुमा-फिरा कर वही धर्म जाति पर आ जाती है। मरा विषय ऐसा है कि आप जब भी इस पर बात करने कि कोशिश करेंगे इतने सारे हिमायती और दुश्मन एक साथ आपके आगे पीछे खडे नज़र आएंगे कि आपको लगेगा कि आपने जरूर इस युग कोई महत्वपूर्ण बात उठा दी है।

हाँ मगर सबसे बड़ी मुसीबत तो ये है कमबख्त इसकी शूरुआत कैसे और कहाँ से की जाये । कहने को मैं ए भी कह दिया है मगर अपने बेटे का सुर्नामे भी तो वही का वही रखा हुआ है । लेकिन सोचता हूँ कि चलो उनके समय तक जब वे भी ऐसा ही सोचेंगे तो कम से कम उन्हें ये दर तो नहीं रहेगा कि पिताश्री क्या सोचेंगे?

वैसे आप क्या सोचते हैं इस बारे में?

भाड़ mein जाये धर्म और जाति

मैं सोचता हूँ कि अब वो समय आ ही गया है जब धर्म और जाति जैसी चीजों को हमें अपने बीच से ख़त्म कर देना चाहिए। देखिए ना चारों तरफ आज उसकी वज़ह से सारी मुश्किलें आ रहे हैं। वैसे भी सोचता हूँ कि यार इस धर्म और जाति ने आख़िर क्या ऐसा अनोखा दे दिया आज तक जो यदि मैं इस धर्म और जाति का नहीं होता तो मुझे नहीं मिल पाता।

आज दुनिया में नज़र दौडा कर देखिए जितने भी लफड़े झगडे चल रहे हैं उनमें से ८० प्रतिशत का कारण या तो ये धर्म होगा या जाति होगी। अपने यहाँ गुजरात के चुनाव की बात हो या फिर बार बार आरक्षण के नाम पर होने वाली राजनीती और दंगा फसाद। इस्रैल-फिलिस्तीन का झगडा हो या हाल फिलहाल में चल रह मलासिया में हिन्दू लोगों के साथ होने वाला प्रकरण।

अपने यहाँ तो इस जाति और धर्म को सदियों से पीस पीस कर ऐसा लेप तैयार किया जाता रहा है कि जिसका लेप लगा कर हर कोई अपना मतलब निकालने में लगा हुआ है । चाहे किसी क्स्षेत्र कि राजनीति हो या पूरे देश की बात घुमा-फिरा कर वही धर्म जाति पर आ जाती है। मरा विषय ऐसा है कि आप जब भी इस पर बात करने कि कोशिश करेंगे इतने सारे हिमायती और दुश्मन एक साथ आपके आगे पीछे खडे नज़र आएंगे कि आपको लगेगा कि आपने जरूर इस युग कोई महत्वपूर्ण बात उठा दी है।

हाँ मगर सबसे बड़ी मुसीबत तो ये है कमबख्त इसकी शूरुआत कैसे और कहाँ से की जाये । कहने को मैं ए भी कह दिया है मगर अपने बेटे का सुर्नामे भी तो वही का वही रखा हुआ है । लेकिन सोचता हूँ कि चलो उनके समय तक जब वे भी ऐसा ही सोचेंगे तो कम से कम उन्हें ये दर तो नहीं रहेगा कि पिताश्री क्या सोचेंगे?

वैसे आप क्या सोचते हैं इस बारे में?

रविवार, 16 दिसंबर 2007

टिप्पणियों में कंजूसी क्यों ?

जब से ब्लोग लिखना शुरू किया है एक बात समझ आती है की शायद सब मेरी तरह सबसे पहले यही देखते हैं की जो लिखा था उस पर कोई टिप्पणी आयी या नहीं । और यकीन मानिए जब कोई भी टिप्पणी नहीं आती है तो थोडी सी मायूसी तो सबको होती ही होगी। फिर मैंने सोचा की आख़िर इसकी वजह क्या होती है ।

जहाँ तक मुझे लगता है की इकी कुछ खास वजह तो जरूर होती हैं। पहली ये की जो ब्लॉगर मेरे जैसे कैफे में बैठ कर ब्लोग लिखता होगा उसका पहला काम होता होगा कि जल्द se जल्द अपना चिटठा लिख कर उसे पोस्ट कर दे । उसके बाद यदि समय बचे तो फिर दुसरे का ब्लोग पढ़ कर उसमें टिप्पणी करे। मगर जैसा कि मैं भी पहले टिप्पणी कर ही नहीं पाता था । मगर अब उसका हल निकाल लिया इसलिए अब ब्लोग्गिंग से मैं उतना समय जरूर बचा लेता हूँ कि टिप्पणी कर सकूं।

दूसरी बात लगती है कि इतने सरे ब्लोग में से किसे पढा जाये किस पर टिप्पणी की जाये , किसी किसी का ब्लोग तो खुलने में ही बहुत समय ले लेता है। और फिर चिट्ठे भी थाभी तक दिखाई देते हैं जब तक आपके छिट्ठे को रेप्लास करने के लिए नया चिट्ठा ना आ जाये। इसके लिए अग्ग्रेगातोर्स को कोई ऐसे व्यवस्था करनी चाहिए की एक समय की बाद वही सारे ,या उनमें से कुछ खास अलग से दिखाई दें।

एक सबसे जरूरी बात ये भी की हम सबको ये कोशिश करनी चाहिए की जब भी ब्लोग्गिंग करने आयें कुछ ना कुछ टिप्पणियाँ भी जरूर करें । जरूरी नहीं कि टिप्पणी बहुत लम्बी हो .फिर चाहे वो मात्र एक शब्द ही क्यों ना हो ।

मैं तो कम से कम यही करने वाला हूँ

टिप्पणियों में कंजूसी क्यों ?

जब से ब्लोग लिखना शुरू किया है एक बात समझ आती है की शायद सब मेरी तरह सबसे पहले यही देखते हैं की जो लिखा था उस पर कोई टिप्पणी आयी या नहीं । और यकीन मानिए जब कोई भी टिप्पणी नहीं आती है तो थोडी सी मायूसी तो सबको होती ही होगी। फिर मैंने सोचा की आख़िर इसकी वजह क्या होती है ।

जहाँ तक मुझे लगता है की इकी कुछ खास वजह तो जरूर होती हैं। पहली ये की जो ब्लॉगर मेरे जैसे कैफे में बैठ कर ब्लोग लिखता होगा उसका पहला काम होता होगा कि जल्द se जल्द अपना चिटठा लिख कर उसे पोस्ट कर दे । उसके बाद यदि समय बचे तो फिर दुसरे का ब्लोग पढ़ कर उसमें टिप्पणी करे। मगर जैसा कि मैं भी पहले टिप्पणी कर ही नहीं पाता था । मगर अब उसका हल निकाल लिया इसलिए अब ब्लोग्गिंग से मैं उतना समय जरूर बचा लेता हूँ कि टिप्पणी कर सकूं।

दूसरी बात लगती है कि इतने सरे ब्लोग में से किसे पढा जाये किस पर टिप्पणी की जाये , किसी किसी का ब्लोग तो खुलने में ही बहुत समय ले लेता है। और फिर चिट्ठे भी थाभी तक दिखाई देते हैं जब तक आपके छिट्ठे को रेप्लास करने के लिए नया चिट्ठा ना आ जाये। इसके लिए अग्ग्रेगातोर्स को कोई ऐसे व्यवस्था करनी चाहिए की एक समय की बाद वही सारे ,या उनमें से कुछ खास अलग से दिखाई दें।

एक सबसे जरूरी बात ये भी की हम सबको ये कोशिश करनी चाहिए की जब भी ब्लोग्गिंग करने आयें कुछ ना कुछ टिप्पणियाँ भी जरूर करें । जरूरी नहीं कि टिप्पणी बहुत लम्बी हो .फिर चाहे वो मात्र एक शब्द ही क्यों ना हो ।

मैं तो कम से कम यही करने वाला हूँ

शहीद होना सबसे बड़ी बेवकूफी है

कुछ भी लिखने से पहले मैं यहाँ कुछ बातें स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। मेरा पूरा परिवार फौजी रहा है। आज भी बहुत से भाई ,भतीजे , चाह्चा मामा और भी अन्य लोग फौज और परा मिलिटरी फोर्सेस में कार्यरत हैं। उनका अनुभव उनकी जिन्दगी और उनकी उपलब्धी पर मैं कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाऊंगा, हालांकि उन्होने भी एक बात तो स्पष्ट कर ही दी थी कि फौज भी जैसी दिखती या कि जैसी खुद को दिखाती है वैसी अब नहीं रही। मगर ये बात तो आज हर किसी विभाग के लिए कही जा सकती है और फिर थोडी बहुत कठिनाई तो सब जगह पर है ही।


मैं इनसे अलग उन लोगों की बात कर रहा हूँ जो मंत्रियों,राजनीतिज्ञों आदि कि सुरक्षा में बरसों से लगे हुए हैं ना सिर्फ लगे हुए हैं बल्कि अक्सर जब भी उन नेताओं की जान पर कोई मुसीबत आती है वो हमेशा ही उसे अपनी जान देकर ताल देते हैं। और बात जब भारत के संसद पर हमले की थी तो फिर भला वे कैसे चुप रह सकते थे। इसका परिणाम सबके सामने था । उन जवानों ने बिना अपनी जान की परवाह किये आतंकवादियों की एक एक गोली के आगे अपनी छाती लगा दी और संसद के अन्दर चूहे कि तरह छुपे हमारे कर्णधार राम राम जपते रहे। खैर ये तो सदियों से होता आया है और जो इसके बाद हुआ है वो भी।

हाल ही में संसद पर हमले की बरसी पर सरकार और उसके कुछ मंत्रियों ने हमेशा की तरह औपचारिकता पूरी करने के लिए एक सभा का आयोजन किया था, ताकि वे वही पुराना राग फिर से थोडा सा सुर बदल कर गा सकें । मगर उस वक़्त वे सब सकते में पड़ गए जब एक बूढी माँ ने उठकर वहाँ सरकार को उसका असली चेहरा दिखाते हुए खूब खरी खरी सुनाई । उन्होने बताया कि सरकार उन्हें पेंशन और पेट्रोल पम्प तो दूर आज तक कोई उनकी खैर खबर भी नहीं लेने आया। और ना ही उन्हें अब किसी सम्मान या सहायता की जरूरत है वे तो बस ये चाहती हैं कि इस काण्ड के मुलजिम अफ़ज़ल को अविलम्ब फांसी पर चढाया जाये । मगर ना जाने सरकार के पास वो कौन सी मजबूरी है कि आज भी अफ़ज़ल एक अजगर की भांति जेल में खा खा कर मोटा हो रहा है।

तो क्या अच्छा नहीं होता यदि उस दिन किसे नेता को मरने दिया जाता या फिर कि कम से कम संसद की या उन महान नेताओं की जान सिर्फ तब तक बचानी चाहिए थी जब तक उनकी अपनी जान सुरक्षित रहती। तो क्यो नहीं आज के बच्चे यही समझेंगे की इस देश में शाही होना कम से कम इम्न्न राजनीतिज्ञों के लिए तो सरासर बेवकूफी है। यदि मेरे इन विचारों से किसी को कोई तकलीफ होती है तो अग्रिम क्षमा चाहूँगा मगर मुझे लगता है कि अन्तिम सत्य यही है.

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

में aur meri ईमानदारी

में ऊस जगह पर काम करता हूँ जहाँ के लिए कहा जाता है कि वहाँ की तो दीवारें भी पैसे मांगती हैं, जी हाँ सही समझे आप -अदालत। आसपास पाटा हूँ देखता हूँ जिससे भी पूछता हूँ तो वही कहता है सच तो है अदालत में कोई काम बिना पैसे के होता है। में पिछले दस वर्षों से वहीं तो काम कर रहा हूँ। और यकीन मानिए मेरा अनुभव तो कुछ और ही कहता है ।

मेरी ईमानदारी पैसे ना लेने की तो सभी को पसंद है ,उससे किसी को कोई दिक्कत भी नहीं है ,हाँ जहाँ ये ईमानदारी किसी के लिए गलत काम करने से मना करती है वहीं से लोगों को परेशानी शुरू हो जाती है। लोग गुस्स्से में कभी मुझे nakchada ,जिद्दी ,अखाद्द, तो कोई दूसरा गाँधी कहता है। लोगों की खीज सिर्फ इस बात को लेकर रहती है कि में उनके गलत काम को करने से मना क्यों कर देता हूँ विशेषकर तब जब सभी ये मज़े से कर रहे हैं।

लेकिन सबसे जरूरी बात तो ये है कि ईमानदारी के जज्बे से दिल के अन्दर जो उर्जा होती है, आत्मा के भीतर जो प्रकाश होता haiहै, वो आपको खुद पर फक्र करने का एहसास दिलाता है। यदि आप सब जैसे हैं तो सभी में शामिल हैं यानी सब में से एक हैं किन्तु यदि आप सिर्फ खुद जैसे हैं और खुद्दार भी तो यकीन जानिए सबको लगता है कि आप कुछ खास हैं। मेरे दोस्तों,साथ काम करने वालों, मेरे अधिकारियों और मेरे मातहतों को भी पता है मेरे प्रकृति। तिस पर यदि कोई अपना काम भी विशेषज्ञता से पूर्ण करे तो सोने पे सुहागा है। में तो अपनी ईमानदारी से खुश हूँ।

में aur meri ईमानदारी

में ऊस जगह पर काम करता हूँ जहाँ के लिए कहा जाता है कि वहाँ की तो दीवारें भी पैसे मांगती हैं, जी हाँ सही समझे आप -अदालत। आसपास पाटा हूँ देखता हूँ जिससे भी पूछता हूँ तो वही कहता है सच तो है अदालत में कोई काम बिना पैसे के होता है। में पिछले दस वर्षों से वहीं तो काम कर रहा हूँ। और यकीन मानिए मेरा अनुभव तो कुछ और ही कहता है ।

मेरी ईमानदारी पैसे ना लेने की तो सभी को पसंद है ,उससे किसी को कोई दिक्कत भी नहीं है ,हाँ जहाँ ये ईमानदारी किसी के लिए गलत काम करने से मना करती है वहीं से लोगों को परेशानी शुरू हो जाती है। लोग गुस्स्से में कभी मुझे nakchada ,जिद्दी ,अखाद्द, तो कोई दूसरा गाँधी कहता है। लोगों की खीज सिर्फ इस बात को लेकर रहती है कि में उनके गलत काम को करने से मना क्यों कर देता हूँ विशेषकर तब जब सभी ये मज़े से कर रहे हैं।

लेकिन सबसे जरूरी बात तो ये है कि ईमानदारी के जज्बे से दिल के अन्दर जो उर्जा होती है, आत्मा के भीतर जो प्रकाश होता haiहै, वो आपको खुद पर फक्र करने का एहसास दिलाता है। यदि आप सब जैसे हैं तो सभी में शामिल हैं यानी सब में से एक हैं किन्तु यदि आप सिर्फ खुद जैसे हैं और खुद्दार भी तो यकीन जानिए सबको लगता है कि आप कुछ खास हैं। मेरे दोस्तों,साथ काम करने वालों, मेरे अधिकारियों और मेरे मातहतों को भी पता है मेरे प्रकृति। तिस पर यदि कोई अपना काम भी विशेषज्ञता से पूर्ण करे तो सोने पे सुहागा है। में तो अपनी ईमानदारी से खुश हूँ।

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

कुछ बातें ब्लोग पर

इन दिनों ब्लोग लेखन पर काफी कुछ पढ़ने सुनने को मिल रहा है। ज़ाहिर है कि हर नई चीज़ पर आने वाली प्रतिक्रियाओं की तरह ब्लोग लेखन पर भी सबकी मिश्रित राय आ रही है। इसे जानने समझने वाले लोग इसकी ताक़त और प्रभाव को अभिव्यक्ती के क्षेत्र में एक नई क्रांति के रुप में देख व परख रहे हैं। उन्हें भरोसा है कि आने वाले समय में ब्लोग जगत , संचार, अभिव्यक्ति , साहित्य, व स्राज्नात्मक्ता का एक ऐसा संगम बन चुका होगा जिसकी उपेक्षा करना असंभव होगा। और तब शायद ब्लोग लिखने वालों को ये अफ़सोस भी नहीं होगा कि ब्लोगियों को कोई गंभीरता से नहीं लेटा और ना ही उन्हें अपने ब्लोग पर टिप्पिनियोंके आने का इंतज़ार तथा टिप्पणियों के ना मिलने पर दुःख होगा।



वहीं दुसरी तरफ ब्लोग को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखने वालों के पास भी बहुत से कारण हैं। पहली शिक़ायत ये कि बहुत से लोगों विशेषकर बड़ी हस्तियों पर ये आरोप लगता है कि वे ब्लोग का इस्तेमाल किसी अन्य हितों या पुब्लिसिटी स्टंट के लिए कर रहे हैं , ऊपर से ये भी कि ब्लोग पर नाम सिर्फ उनका होता है ,विचार और लेखनी किसी और की। छित्थाकारी की दूसरी आलोचना ये की जाती है कि प्रसार और पाठक के लिहाज़ से इसकी पहुंच बहुत सीमित है। तीसरा ये कि ब्लोग पर आने वाली सामग्री बिखरी हुई, अनियंत्रित एवं निरर्थक होती है।

किन्तु इन आलोचनाओं के बावजूद कुछ बातें तो निश्चित हो चुकी हैं। ब्लोग और ब्लोग जगत की लोकप्रियता और दिनानुदिन बढ़ता जा रहा है। इसका प्रमाण ये है कि मीडिया के विभिन्न माध्यमों में इसकी निरंतर चर्चा होने लगी है। यदि बड़ी और नामी शाख्शियातें किसी भी रुप में और किसी भी उद्देश्य से ब्लोग्गिंग से जुड़ती हैं तो इससे अंततः ब्लोग जगत को यदि फायदा न हो तो नुकसान भी नहीं ही होगा। रही बात इस पर आने वाली सामग्री की तो ये तय कौन करेगा की कौन सी सामग्री स्तरीय है कौन सी बेकार स्वयम ब्लोगिए ही न। तो फिर जब उन्हें ही ये सब तय करना है तो व्यर्थ में इसके अन्यत्र चर्चा क्यों?

जो भी हो अन्तिम सत्य यही है कि छित्थाकारी एक विधा के रुप में स्थापित हो रही है और भविष्य में शासक्त संचार माध्यम के रुप में मान्यता पा ही लेगी.

कुछ बातें ब्लोग पर

इन दिनों ब्लोग लेखन पर काफी कुछ पढ़ने सुनने को मिल रहा है। ज़ाहिर है कि हर नई चीज़ पर आने वाली प्रतिक्रियाओं की तरह ब्लोग लेखन पर भी सबकी मिश्रित राय आ रही है। इसे जानने समझने वाले लोग इसकी ताक़त और प्रभाव को अभिव्यक्ती के क्षेत्र में एक नई क्रांति के रुप में देख व परख रहे हैं। उन्हें भरोसा है कि आने वाले समय में ब्लोग जगत , संचार, अभिव्यक्ति , साहित्य, व स्राज्नात्मक्ता का एक ऐसा संगम बन चुका होगा जिसकी उपेक्षा करना असंभव होगा। और तब शायद ब्लोग लिखने वालों को ये अफ़सोस भी नहीं होगा कि ब्लोगियों को कोई गंभीरता से नहीं लेटा और ना ही उन्हें अपने ब्लोग पर टिप्पिनियोंके आने का इंतज़ार तथा टिप्पणियों के ना मिलने पर दुःख होगा।



वहीं दुसरी तरफ ब्लोग को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखने वालों के पास भी बहुत से कारण हैं। पहली शिक़ायत ये कि बहुत से लोगों विशेषकर बड़ी हस्तियों पर ये आरोप लगता है कि वे ब्लोग का इस्तेमाल किसी अन्य हितों या पुब्लिसिटी स्टंट के लिए कर रहे हैं , ऊपर से ये भी कि ब्लोग पर नाम सिर्फ उनका होता है ,विचार और लेखनी किसी और की। छित्थाकारी की दूसरी आलोचना ये की जाती है कि प्रसार और पाठक के लिहाज़ से इसकी पहुंच बहुत सीमित है। तीसरा ये कि ब्लोग पर आने वाली सामग्री बिखरी हुई, अनियंत्रित एवं निरर्थक होती है।

किन्तु इन आलोचनाओं के बावजूद कुछ बातें तो निश्चित हो चुकी हैं। ब्लोग और ब्लोग जगत की लोकप्रियता और दिनानुदिन बढ़ता जा रहा है। इसका प्रमाण ये है कि मीडिया के विभिन्न माध्यमों में इसकी निरंतर चर्चा होने लगी है। यदि बड़ी और नामी शाख्शियातें किसी भी रुप में और किसी भी उद्देश्य से ब्लोग्गिंग से जुड़ती हैं तो इससे अंततः ब्लोग जगत को यदि फायदा न हो तो नुकसान भी नहीं ही होगा। रही बात इस पर आने वाली सामग्री की तो ये तय कौन करेगा की कौन सी सामग्री स्तरीय है कौन सी बेकार स्वयम ब्लोगिए ही न। तो फिर जब उन्हें ही ये सब तय करना है तो व्यर्थ में इसके अन्यत्र चर्चा क्यों?

जो भी हो अन्तिम सत्य यही है कि छित्थाकारी एक विधा के रुप में स्थापित हो रही है और भविष्य में शासक्त संचार माध्यम के रुप में मान्यता पा ही लेगी.

रविवार, 9 दिसंबर 2007

उफ़ ये क्रिकेट कथा

इस देश में कुछ न कुछ ऐसा चलता रहता है कि मन करता है कि अब तो साल के ३६५ दिन, २४ जानते कमेंट्री करने वाला संजय (महाभारत के लाईव कमेंटेटर ) टाईप कमेंटेटर चाहिए होगा। यार खेल तो खेल ये बोर्ड और इसे चलाने वाले ब्लैक बोर्ड महारथी भी गुलातियाँ मार-मार कर क्रिकेट को ख़बरों में रखते हैं। कभी कोच, कभी कैप्टेन कभी खिलाडियों के एड पर नाराजगी तो कभी सेलेक्टर के कोलौमं लिखने पर पाबंदी।


अभी पवार साहब , वेंग्सर्कार साहब पर बिगड़ गए। उनका कहना था कि भाई आप सेलेक्टर हैं तो कोलौमं नहीं लिख सकते , ये आपका मुख्य काम नहीं है।

इस संबंध में मुझे सिर्फ दो बातें कहनी हैं पहली वेंगसरकर साहब से- अजी कर्नल साहब ,छोडिये कोलौमं-शोलौमं का झंझट, अजी आप भी हमारी तरह ब्लोग लिखिए। दूसरी बात पवार साहब के लिए- " सर जी , कर्नल साहब का मुख्य काम क्रिकेट है कोलौमं लिखना नहीं , बिल्कुल सही फरमाया आपने। मगर हुज़ूर फिर आपका भी मुख्य काम तो पोलिटिक्स में गंद फैलाने का है। तो महाशय , वहीं पर ये फैलाये ना, क्रिकेट जगत से आपका क्या लेना-देना। तो जब आप यहाँ घुसे हुए हैं तो कर्नल से कोलौमं के कनेक्शन पर ये कोम्प्लैंत क्यों?

उफ़ ये क्रिकेट कथा

इस देश में कुछ न कुछ ऐसा चलता रहता है कि मन करता है कि अब तो साल के ३६५ दिन, २४ जानते कमेंट्री करने वाला संजय (महाभारत के लाईव कमेंटेटर ) टाईप कमेंटेटर चाहिए होगा। यार खेल तो खेल ये बोर्ड और इसे चलाने वाले ब्लैक बोर्ड महारथी भी गुलातियाँ मार-मार कर क्रिकेट को ख़बरों में रखते हैं। कभी कोच, कभी कैप्टेन कभी खिलाडियों के एड पर नाराजगी तो कभी सेलेक्टर के कोलौमं लिखने पर पाबंदी।


अभी पवार साहब , वेंग्सर्कार साहब पर बिगड़ गए। उनका कहना था कि भाई आप सेलेक्टर हैं तो कोलौमं नहीं लिख सकते , ये आपका मुख्य काम नहीं है।

इस संबंध में मुझे सिर्फ दो बातें कहनी हैं पहली वेंगसरकर साहब से- अजी कर्नल साहब ,छोडिये कोलौमं-शोलौमं का झंझट, अजी आप भी हमारी तरह ब्लोग लिखिए। दूसरी बात पवार साहब के लिए- " सर जी , कर्नल साहब का मुख्य काम क्रिकेट है कोलौमं लिखना नहीं , बिल्कुल सही फरमाया आपने। मगर हुज़ूर फिर आपका भी मुख्य काम तो पोलिटिक्स में गंद फैलाने का है। तो महाशय , वहीं पर ये फैलाये ना, क्रिकेट जगत से आपका क्या लेना-देना। तो जब आप यहाँ घुसे हुए हैं तो कर्नल से कोलौमं के कनेक्शन पर ये कोम्प्लैंत क्यों?

सोमवार, 3 दिसंबर 2007

काके भैया नहीं रहे

दोपहर ढाई बजे अचानक फ़ोन बजा, " हेलो , सुन रहे हो काके भैया नहीं रहे ।"

क्या बकवास कर रही हो , मैंने अपनी पत्नी से यही कहा। बात इतनी अप्र्ताषित थी कि मेरे मुँह से यही निकला।

काके भैया , नहीं कोई बहुत बड़ी हस्ती नहीं थे, ना ही सीधे तौर पर हमारा कोई संबंध था। दरअसल वो मेरे साडू साहब के छोटे भाए साहब थे । हमसे उनका वाकिफाना कुछ इस लिए था क्योंकि हमारे सभी विशेष पलों ,खास समारोहों को उन्होने ही सहेज कर हमें सौंप दिया था। उनका फोटोग्राफी /विदेओग्रफी का काम था।

मगर मेरी हैरानी का कारण कुछ और था, ये कैसे हो सकता था, अभी पिछले शनिवार को तो उनके पिताजी का निधन हुआ था। अभी तो उनकी कीरिया भी नहीं हो पायी थी और फिर अभी कल ही तो उनसे मुलाक़ात हुई थी , पैरों का प्लास्टर उतर गया था , और टांका भी काट दिया था डाक्टर ने और कहा था कि अब हलकी हलकी कसरत करवाते रहे पैरों कि। दरअसल पिताजी कि बीमारी के समय ही उनके लिए दवाई लाते समय उनका एक्सीडेंट हो गया था, मगर सब कुछ तो ठीक हो गया था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया।

घर पहुंचा तो पता चला कि हार्ट अटैक हुआ था , इससे पहले कि कोई कुछ समझ या कर पाटा सब कुछ ख़त्म हो चुका था। डॉक्टरों का कहना था कि हॉस्पिटल लाने से पहले ही वे जा चुके थे।

उफ़, मगर उन्हें मरने का अभी कोई हक नहीं था , घर की रीढ़ की हड्डी टूट गयी। किसी ने कहा कि पिताजी को अन्तिम समय में पाकर भी वे उनके लिए कुछ ना कर पाए यहाँ तक कि शमशान घात तक भी उन्हें बड़ी मुश्किल से गाडी में ले जाया जा सका था , इस बात को वे दिल से लगा बैठे थे । मगर के पिटा के प्रति इतनी आसक्ति ने उनको इतना परेशान कर दिया कि वे अपने जुद्वान बच्चों को अनाथ छोड़ चले गए।

उनकी मौत ने सचमुच हिला कर रख दिया। मैं इश्वर से सिर्फ यही कह रहा था कि हे इश्वर यदि यूं ही अकाल मौत देनी है तो कम से कम उसे आने वाली मौत का अहसास तो दे दिया कर और इतना वक़्त भी कि वो कम से कम वो काम कर ले जो उसके अपनों को थोडा सुकून दे सकें,
मगर इश्वर मेरी सुनता कहाँ है। किसी अपने का जाना वो भी इस तरह , बहुत दर्द देता है।

काके भैया नहीं रहे

दोपहर ढाई बजे अचानक फ़ोन बजा, " हेलो , सुन रहे हो काके भैया नहीं रहे ।"

क्या बकवास कर रही हो , मैंने अपनी पत्नी से यही कहा। बात इतनी अप्र्ताषित थी कि मेरे मुँह से यही निकला।

काके भैया , नहीं कोई बहुत बड़ी हस्ती नहीं थे, ना ही सीधे तौर पर हमारा कोई संबंध था। दरअसल वो मेरे साडू साहब के छोटे भाए साहब थे । हमसे उनका वाकिफाना कुछ इस लिए था क्योंकि हमारे सभी विशेष पलों ,खास समारोहों को उन्होने ही सहेज कर हमें सौंप दिया था। उनका फोटोग्राफी /विदेओग्रफी का काम था।

मगर मेरी हैरानी का कारण कुछ और था, ये कैसे हो सकता था, अभी पिछले शनिवार को तो उनके पिताजी का निधन हुआ था। अभी तो उनकी कीरिया भी नहीं हो पायी थी और फिर अभी कल ही तो उनसे मुलाक़ात हुई थी , पैरों का प्लास्टर उतर गया था , और टांका भी काट दिया था डाक्टर ने और कहा था कि अब हलकी हलकी कसरत करवाते रहे पैरों कि। दरअसल पिताजी कि बीमारी के समय ही उनके लिए दवाई लाते समय उनका एक्सीडेंट हो गया था, मगर सब कुछ तो ठीक हो गया था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया।

घर पहुंचा तो पता चला कि हार्ट अटैक हुआ था , इससे पहले कि कोई कुछ समझ या कर पाटा सब कुछ ख़त्म हो चुका था। डॉक्टरों का कहना था कि हॉस्पिटल लाने से पहले ही वे जा चुके थे।

उफ़, मगर उन्हें मरने का अभी कोई हक नहीं था , घर की रीढ़ की हड्डी टूट गयी। किसी ने कहा कि पिताजी को अन्तिम समय में पाकर भी वे उनके लिए कुछ ना कर पाए यहाँ तक कि शमशान घात तक भी उन्हें बड़ी मुश्किल से गाडी में ले जाया जा सका था , इस बात को वे दिल से लगा बैठे थे । मगर के पिटा के प्रति इतनी आसक्ति ने उनको इतना परेशान कर दिया कि वे अपने जुद्वान बच्चों को अनाथ छोड़ चले गए।

उनकी मौत ने सचमुच हिला कर रख दिया। मैं इश्वर से सिर्फ यही कह रहा था कि हे इश्वर यदि यूं ही अकाल मौत देनी है तो कम से कम उसे आने वाली मौत का अहसास तो दे दिया कर और इतना वक़्त भी कि वो कम से कम वो काम कर ले जो उसके अपनों को थोडा सुकून दे सकें,
मगर इश्वर मेरी सुनता कहाँ है। किसी अपने का जाना वो भी इस तरह , बहुत दर्द देता है।

शनिवार, 1 दिसंबर 2007

दिल्ली : बेहतर या बदतर ?

इन दिनों चारों तरफ यही चर्चा है कि दिल्ली सुन्दर बन रही है, सज सवांर रही है और जल्दी ही दिल्ली-दिल्ली नहीं रहेगी । चाहे लंदन बन जाये या हो सकता है कि परिस जैसी लगे मगर यकीनी तौर पर दिल्ली नहीं रहेगी। यार, आख़िर ऐसा हो क्या रहा है ? ठीक है मेट्रो बन रही है, फ्लाई ओवोरों का जाल बिछाया जा रहा है। बडे बडे मुल्तिप्लेक्स और शोप्पिं मॉल्स बन रहे हैं। रिलायंस फ्रेश और एप्पल फ्रेश में फ्रेश लड़के-लड़कियां सबकुछ बेच रहे हैं। मोबाईल,कोम्पुटर से तरकारी-भाजी तक। हमारी दिल्ली में अब तो विदेशों तक से लड़कियां आ रही है सेक्स रैकेट चलाने। लोग सड़कों पर गाडियाँ भी इसी स्पीड से दौडा रहे है मानो पैरिस -लंदन हों।

हाँ मगर अब भी दिल्ली का कोई चौराहा ऐसा नहीं है जहाँ पर भिखारी ना मिलते हों। अब भी दिल्ली का कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ बिजली पानी कि किल्लत ना हो रही हो। अब भी कोई हफ्ता ऐसा नहीं बीतता जब किसी ना किसी सड़क पर घंटों जाम ना लगता हो । अब भी कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ पर गाडियाँ
चोरी ना हो रहीं हों , महिलायें बिल्कुल सुरक्षित महसूस करती हों, कोई ऐसी सड़क नहीं है जहाँ पर रोड एक्सीडेंट ना हो रहे हों। कोई ऐसा ऑफिस नहीं है जहाँ पर बिना सिफारिश या बिना पैसे के आपका काम हो जाये , कोई ऐसा हॉस्पिटल नहीं है जहाँ जाते ही आपका इलाज हो जाये ?

तो ऐसे में तो दो ही बातें हो सकती हैं कि या तो ये सारी बातें पैरिस -लंदन में भी होती होंगी , या फिर
सब झूठ कह रहे हैं और दिल्ली दिल्ली ही रहेगी। आपको क्या लगता है ?

दिल्ली : बेहतर या बदतर ?

इन दिनों चारों तरफ यही चर्चा है कि दिल्ली सुन्दर बन रही है, सज सवांर रही है और जल्दी ही दिल्ली-दिल्ली नहीं रहेगी । चाहे लंदन बन जाये या हो सकता है कि परिस जैसी लगे मगर यकीनी तौर पर दिल्ली नहीं रहेगी। यार, आख़िर ऐसा हो क्या रहा है ? ठीक है मेट्रो बन रही है, फ्लाई ओवोरों का जाल बिछाया जा रहा है। बडे बडे मुल्तिप्लेक्स और शोप्पिं मॉल्स बन रहे हैं। रिलायंस फ्रेश और एप्पल फ्रेश में फ्रेश लड़के-लड़कियां सबकुछ बेच रहे हैं। मोबाईल,कोम्पुटर से तरकारी-भाजी तक। हमारी दिल्ली में अब तो विदेशों तक से लड़कियां आ रही है सेक्स रैकेट चलाने। लोग सड़कों पर गाडियाँ भी इसी स्पीड से दौडा रहे है मानो पैरिस -लंदन हों।

हाँ मगर अब भी दिल्ली का कोई चौराहा ऐसा नहीं है जहाँ पर भिखारी ना मिलते हों। अब भी दिल्ली का कोई कोना ऐसा नहीं है जहाँ बिजली पानी कि किल्लत ना हो रही हो। अब भी कोई हफ्ता ऐसा नहीं बीतता जब किसी ना किसी सड़क पर घंटों जाम ना लगता हो । अब भी कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ पर गाडियाँ
चोरी ना हो रहीं हों , महिलायें बिल्कुल सुरक्षित महसूस करती हों, कोई ऐसी सड़क नहीं है जहाँ पर रोड एक्सीडेंट ना हो रहे हों। कोई ऐसा ऑफिस नहीं है जहाँ पर बिना सिफारिश या बिना पैसे के आपका काम हो जाये , कोई ऐसा हॉस्पिटल नहीं है जहाँ जाते ही आपका इलाज हो जाये ?

तो ऐसे में तो दो ही बातें हो सकती हैं कि या तो ये सारी बातें पैरिस -लंदन में भी होती होंगी , या फिर
सब झूठ कह रहे हैं और दिल्ली दिल्ली ही रहेगी। आपको क्या लगता है ?

गुरुवार, 29 नवंबर 2007

कहाँ हैं महिला शाशाक्तिक्करण वाले

पिछले कुछ दिनों से कुछ बहुत सारे घटनाएं बेशक अलग अलग हो रही हैं मगर लगभग एक ही चरित्र और परिणाम के कारण उन्होने बहुत ज्यादा व्यथित और क्रोधित तो किया ही है साथ ही बहुत सी बातें सोचने पर मजबूर कर दिया है।

हाल ही में गोहाटी में एक प्रदर्शन के दौरान एक आदिवासी महिला को कुछ लोगों ने सरेआम नग्न करके पीटा और दौड़ाया।

इस देश कि प्रथम महिला आ ई पी एस किरण बेदी ने आखिरकार प्रशाशन की उपेक्षा से क्शुब्द हो कर अपने ईस्तेफे की पेशकश कर दी।

एक महिला लेखिका अपनी जान माल की सुरक्षा की खातिर दर दर भटक रही है, और उसको लेकर राजनीती तो की जा रही है मगर उसके लिए कोई आगे नहीं आ रहा।


अब ज़रा इन बातों पर भी गौर फरमाइये,

इस देश में अभी राष्ट्रपति एक महिला ही है।

इस देश को चलाने वाली (चाहे परोक्ष रुप में ही सही ) भी एक महिला ही है।

इस देश के बहुत से राज्यों में मायावती, शेइला दिक्सित, विज्यराजे सिंधिया, जयललिता ,आदि जैसी कद्दावर
राज्नेत्रियाँ हैं।


तो क्या समझा जाये इससे? कहाँ हैं महिला अधिकारों की समानता का दावा करने वाले?
कहाँ हैं वो लोग जो कहते नहीं थकते कि नहीं अब वो बात नहीं रही आज कि महिला ताक़तवर है आगे है।

सच तो ये है कि अब भी बहुत कुछ या कहूँ लगभग सब कुछ वैसा का वैसा ही है।

आपको क्या लगता है ?

कहाँ हैं महिला शाशाक्तिक्करण वाले

पिछले कुछ दिनों से कुछ बहुत सारे घटनाएं बेशक अलग अलग हो रही हैं मगर लगभग एक ही चरित्र और परिणाम के कारण उन्होने बहुत ज्यादा व्यथित और क्रोधित तो किया ही है साथ ही बहुत सी बातें सोचने पर मजबूर कर दिया है।

हाल ही में गोहाटी में एक प्रदर्शन के दौरान एक आदिवासी महिला को कुछ लोगों ने सरेआम नग्न करके पीटा और दौड़ाया।

इस देश कि प्रथम महिला आ ई पी एस किरण बेदी ने आखिरकार प्रशाशन की उपेक्षा से क्शुब्द हो कर अपने ईस्तेफे की पेशकश कर दी।

एक महिला लेखिका अपनी जान माल की सुरक्षा की खातिर दर दर भटक रही है, और उसको लेकर राजनीती तो की जा रही है मगर उसके लिए कोई आगे नहीं आ रहा।


अब ज़रा इन बातों पर भी गौर फरमाइये,

इस देश में अभी राष्ट्रपति एक महिला ही है।

इस देश को चलाने वाली (चाहे परोक्ष रुप में ही सही ) भी एक महिला ही है।

इस देश के बहुत से राज्यों में मायावती, शेइला दिक्सित, विज्यराजे सिंधिया, जयललिता ,आदि जैसी कद्दावर
राज्नेत्रियाँ हैं।


तो क्या समझा जाये इससे? कहाँ हैं महिला अधिकारों की समानता का दावा करने वाले?
कहाँ हैं वो लोग जो कहते नहीं थकते कि नहीं अब वो बात नहीं रही आज कि महिला ताक़तवर है आगे है।

सच तो ये है कि अब भी बहुत कुछ या कहूँ लगभग सब कुछ वैसा का वैसा ही है।

आपको क्या लगता है ?

बुधवार, 28 नवंबर 2007

यूं बने हस्तरेखा विशेषज्ञ

आओ सोचेंगे ये क्या बात हुई, क्यों बन जाएँ हम, वो भी ज्योतिषी । अजी हमें क्या लेना ग्रह, नाख्स्त्रों से और हस्तरेखा से ।

अजी सुनिए तो कौन कहता है आप तोता पाल कर दुकान खोलिए या फिर कोम्पुटर के घिसे पिटे कुंडली बनाने वाले प्रोग्राम का ऑफिस खोलिए। आप कुछ मत करिये । सिर्फ युवतियों/महिलाओं (भाई अपनी उम्र के हिसाब से ये तो आपको खुद ही तय करना पडेगा) में ये बात फैला दीजिए कि आप हाथ देख कर उनके बारे में उन्हें कुछ विशेष बातें बता सकते हैं। यहाँ हस्तरेखा विशेषज्ञ बनने की सलाह देने के पीछे एक विशेष मकसद ये है कि इससे आपको कुछ देर के लिए ही सही उन महिला/ युवती का हाथ थमने का वो सुनहरा अवसर मिल जायेगा जिसके लिए आप ना जाने कब से मरे जा रहें हैं। तो हात थामिये और शुरू हो जायी:-

आप बहुत अछे और बडे दिल की मालकिन हैं (फिर चाहे वो टी वी सीरियल की सबसे खराब कारक्टर वाली लेडी से भी ज्यादा खराब क्यों ना हो)।

आपको कोई समझ ही नहीं पाय आज तक , जबकि आप हमेशा दूसरो को भलीभांति समझती आयी हैं।

आप आज तक दूसरो के लिए ही जीती ,करती रहीं मगर किसी ने भी आपका वैसा साथ नहीं दिया ना ही आपके कम की क़द्र की।

आप जिस नाम, ओहदे ,और प्रशंशा की हक़दार थी वो आपको नहीं मिल पाया ।

आख़िरी बात जल्दी ही आपकी स्थिति में बदलाव आयेगा,( लाख पूछने पर भी ये ना बताएं कि बदलाव अच्छा होगा या बुरा )



बस इतनी पंडिताई झाड़ दीजिए। इससे ज्यादा ना आप भविष्यवाणी कर सकते हैं न ही उनका हाथ पकडे रह सकते हैं। मगर यकीं मानिये इतने ही ज्ञान-बखान से आपका नाम हो जायेगा।


हाँ एक वैधानिक चेतावनी:- ये नुस्खा बारे-बारी से और अलग अलग अपनाएँ अन्यथा आपका खुद का भविष्यफल बिगड़ सकता है।


ऐसे ही दिव्या ज्ञान के लिए जुडे रहें.........

विवादों पर जीने वाले परजीवी

बहुत पहले एक रेल यात्रा के दौरान एक चित्रकार महोदय से औपचारिक बातचीत में मैंने यही पूछा था कि एक कलाकार की कला किसके लिए होती है समाज के लिए या खुद उसके लिए? उन्होने जो भी जितने देर भी बहस की उसका निष्कर्ष यही था कि कला , कलाकार के लिए होती है। मकबूल जी की तूलिका यदि रामायण-महाभारत को चित्रित कर सकती है तो आख़िर वो कौन से कारण हैं कि उन्हे देवी को अपमानजनक रुप में चित्रित करने दो मजबूर होना पडा। तस्लीमा जे, हों या सलमान रश्दी जी, उन्होने जब भी जिस भी समस्या को उठाया है क्या बिना किसी धार्मिक आस्था पर चोट पहुँचाये या विवाद पैदा किये उसे सबके सामने लाना नामुमकिन था। और आजकल तो किताब हो या फिल्म, विज्ञापन हो या भाषण, विवाद -आलोचना के बिना बेकार है, स्वाद हीन।

हाँ, मगर विशेषताओं से युक्त इन तमाम प्रबुद्ध कलाकारों से एक प्र्दाष्ण पूछने का मन तो करता है कि यदि कला सिर्फ कलाकार के लिए है तो फिर समाज से प्द्रतिक्रिया ,सम्मान, आलोचना की अपेक्षा क्यों ?
क्या ये विवादों पर जीवित रहने वाले परजीवी लोग हैं ? आप ही बतायें ।

विवादों पर जीने वाले परजीवी

बहुत पहले एक रेल यात्रा के दौरान एक चित्रकार महोदय से औपचारिक बातचीत में मैंने यही पूछा था कि एक कलाकार की कला किसके लिए होती है समाज के लिए या खुद उसके लिए? उन्होने जो भी जितने देर भी बहस की उसका निष्कर्ष यही था कि कला , कलाकार के लिए होती है। मकबूल जी की तूलिका यदि रामायण-महाभारत को चित्रित कर सकती है तो आख़िर वो कौन से कारण हैं कि उन्हे देवी को अपमानजनक रुप में चित्रित करने दो मजबूर होना पडा। तस्लीमा जे, हों या सलमान रश्दी जी, उन्होने जब भी जिस भी समस्या को उठाया है क्या बिना किसी धार्मिक आस्था पर चोट पहुँचाये या विवाद पैदा किये उसे सबके सामने लाना नामुमकिन था। और आजकल तो किताब हो या फिल्म, विज्ञापन हो या भाषण, विवाद -आलोचना के बिना बेकार है, स्वाद हीन।

हाँ, मगर विशेषताओं से युक्त इन तमाम प्रबुद्ध कलाकारों से एक प्र्दाष्ण पूछने का मन तो करता है कि यदि कला सिर्फ कलाकार के लिए है तो फिर समाज से प्द्रतिक्रिया ,सम्मान, आलोचना की अपेक्षा क्यों ?
क्या ये विवादों पर जीवित रहने वाले परजीवी लोग हैं ? आप ही बतायें ।

बुधवार, 14 नवंबर 2007

मोबिलीताईतिस

उस दिन अचानक मित्र के साथ एक अनजान युवक को देखा तो थोडी हैरानी हुई । कारण था कि उसके गर्दन एक तरफ को झुकी हुई थी। मैंने सोचा कि बेचारा भरी जवानी में कैसी बीमारी झेल र्दहा है। उत्सुकतावश मित्र से पूछा तो उसने बताया कि उसे मोबालीताईतिस हो गया है।

मैं सकपकाया, ये कौन सी बीमारी है यार, क्या ये भी विदेशों से आयी है ?

अरे नहीं, नहीं, यार मोबलीताईतिस तो शुद्ध अपने देश के बच्चों की खोज है। देख आजकल तुने अक्सर बाईक पर,कारों में, यहाँ तक कि रिक्शों पर भी लोगों को गर्दन को एक तरफ जुकाए , कान से मोबाईल चिपकाए बातें करते देखा होगा। धीरे धीरे जब यही क्रिया आदत बन जाती है तो वह कहलाता है मोबालीताईतिस।

मजे कि बात तो ये है कि इसकी रोकथाम के लिए हँड्स फ्री कित नामक उपकरण उपलब्ध है , मगर चूँकि ये फैशानाब्ले रोग है इसलिए उसका इस्तेमाल कोई नहीं करता। अलबत्ता इस रोग का एक साइड एफ्फेक्ट रोड एक्सीडेंट के रुप में सामने आया है।

सबसे अहम बात ये कि हमारी इस खोज पर विश्व चिकित्सा जगत भी जल्भुन गया है क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद उनके यहाँ मोबईलीताईतिस का ये फैशोनाब्ले वाईरुस नहीं पहुंच पाया है।

" कमाल है यार "मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला.

मोबिलीताईतिस

उस दिन अचानक मित्र के साथ एक अनजान युवक को देखा तो थोडी हैरानी हुई । कारण था कि उसके गर्दन एक तरफ को झुकी हुई थी। मैंने सोचा कि बेचारा भरी जवानी में कैसी बीमारी झेल र्दहा है। उत्सुकतावश मित्र से पूछा तो उसने बताया कि उसे मोबालीताईतिस हो गया है।

मैं सकपकाया, ये कौन सी बीमारी है यार, क्या ये भी विदेशों से आयी है ?

अरे नहीं, नहीं, यार मोबलीताईतिस तो शुद्ध अपने देश के बच्चों की खोज है। देख आजकल तुने अक्सर बाईक पर,कारों में, यहाँ तक कि रिक्शों पर भी लोगों को गर्दन को एक तरफ जुकाए , कान से मोबाईल चिपकाए बातें करते देखा होगा। धीरे धीरे जब यही क्रिया आदत बन जाती है तो वह कहलाता है मोबालीताईतिस।

मजे कि बात तो ये है कि इसकी रोकथाम के लिए हँड्स फ्री कित नामक उपकरण उपलब्ध है , मगर चूँकि ये फैशानाब्ले रोग है इसलिए उसका इस्तेमाल कोई नहीं करता। अलबत्ता इस रोग का एक साइड एफ्फेक्ट रोड एक्सीडेंट के रुप में सामने आया है।

सबसे अहम बात ये कि हमारी इस खोज पर विश्व चिकित्सा जगत भी जल्भुन गया है क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद उनके यहाँ मोबईलीताईतिस का ये फैशोनाब्ले वाईरुस नहीं पहुंच पाया है।

" कमाल है यार "मेरे मुँह से सिर्फ इतना निकला.

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

दिल्ली में दुर्घटनाओं की दोषी क्या सिर्फ ब्लू line है ?

दिल्ली में सड़क दुर्घटनाएं बढ़ती जा रही हैं । रोज कहीं ना कहीं मासूम लोग अकाल मृत्यु को गले लगा रहे हैं। इसमे कोई शक नहीं कि बड़ी गाड़ियों , बसों, ब्लू लाइन और डी टी सी बसें भी घोर लापरवाही और ग़ैर जिम्मेदाराना तरीके से चला रहे हैं। और अधिकांश दुर्चात्नाएं सिर्फ इनके कारण ही हो रही हैं।



लेकिन ये भी उतना हे बड़ा और बेहद कड़वा सच है कि हम-आप ,हमारे बच्चे भी आज गाड़ियों को चलाने में बेहद लापरवाह हो गए हैं। किसी ने भारतीयों की ड्राइविंग के बारे में एक बहुत सच्ची बात कही है " यहाँ ड्राइविंग लाईसेन्स तो सबके पास है मगर ड्राइविंग सेंस किसी के पास भी नहीं है।" घर का ११-१२ साल का बच्चा स्कूटर ,बाएक ले के निकल जाता है । किसी को कोई चिंता नहीं कोई फिक्र नहीं। जरूरी नहीं कि जब तक अपने ऊपर ना बीते संभला न जाये । वैसे सबसे बडे अफ़सोस कि बात तो ये है कि घटनाएँ-दुर्घटनाएं भी सबक नहीं सीखा पाती।

तो बस ब्लू लाइन -ब्लू लाइन का ही राग क्यों लगा रखा है ? शायद हम कभी ये महसूस कर सकें।

कैफे में ब्लोग्गिंग की मजबूरी

मुझे ये नहीं पता कि ब्लोग्गिंग करने वाले सरे मित्रगन मेरी तरह ही समय बचाकर स्य्बेर कैफे में जाकर ब्लोग्गिंग करते हैं या फिर कि अपने कंप्यूटर पर लिखते हैं। क्य्बेर कैफे में जान मेरी मजबूरी है। न न ये नहीं है कि कंप्यूटर खरीद नहीं सकता बल्कि उसके बाद यदि किसी तरह कि कोइ तकनीकी खराबी आ गयी तो उससे डरता हूँ,
फिर सोचता हूँ कि यदि मेरे घर में कंप्यूटर होता तो शायद ब्लोग्गिंग जगत में पढ़ने वाले बहुत जल्दी यही सोचने लगते कि यात्र इस आदमी को लगता है कि कोइ काम नहीं है । पर मैं भी क्या करूं मन में इतनी साड़ी बातें एक साथ चलती रहती हैं कि लगता है जब तक आप लोगों से शेयर ना करूं मेरा मन नहीं भरेगा।

मगर पिछले कुछ दिनों से लगातार यही सोच रहा हूँ कि इस ब्लोग जगत पर हम जैसे कुछ लोगों के खूब लिखने या कुछ ना लिखने से क्या बहुत कुछ बदल जायेगा या कि उसकी सार्थकता कहाँ और कितनी होगी। हाँ मगर इतना तो जरूर है कि ये एक ऐसा मंच बन गया है जो शायद बहुत जल्दी ही एक शाशाक्त मुकाम हासिल कर लेगा। परन्तु फिर भी मन में बहुत सारी आशंकाएं हैं , क्या आप कुछ बता सकते हैं इस बारी में?

आपके अनुभवों का इंतज़ार है मुझे।

कैफे में ब्लोग्गिंग की मजबूरी

मुझे ये नहीं पता कि ब्लोग्गिंग करने वाले सरे मित्रगन मेरी तरह ही समय बचाकर स्य्बेर कैफे में जाकर ब्लोग्गिंग करते हैं या फिर कि अपने कंप्यूटर पर लिखते हैं। क्य्बेर कैफे में जान मेरी मजबूरी है। न न ये नहीं है कि कंप्यूटर खरीद नहीं सकता बल्कि उसके बाद यदि किसी तरह कि कोइ तकनीकी खराबी आ गयी तो उससे डरता हूँ,
फिर सोचता हूँ कि यदि मेरे घर में कंप्यूटर होता तो शायद ब्लोग्गिंग जगत में पढ़ने वाले बहुत जल्दी यही सोचने लगते कि यात्र इस आदमी को लगता है कि कोइ काम नहीं है । पर मैं भी क्या करूं मन में इतनी साड़ी बातें एक साथ चलती रहती हैं कि लगता है जब तक आप लोगों से शेयर ना करूं मेरा मन नहीं भरेगा।

मगर पिछले कुछ दिनों से लगातार यही सोच रहा हूँ कि इस ब्लोग जगत पर हम जैसे कुछ लोगों के खूब लिखने या कुछ ना लिखने से क्या बहुत कुछ बदल जायेगा या कि उसकी सार्थकता कहाँ और कितनी होगी। हाँ मगर इतना तो जरूर है कि ये एक ऐसा मंच बन गया है जो शायद बहुत जल्दी ही एक शाशाक्त मुकाम हासिल कर लेगा। परन्तु फिर भी मन में बहुत सारी आशंकाएं हैं , क्या आप कुछ बता सकते हैं इस बारी में?

आपके अनुभवों का इंतज़ार है मुझे।

रविवार, 11 नवंबर 2007

दिवाली की अगली सुबह

रात की जगमगाहट, धूम-धडाके, के बाद अगली सुबह काफी देर से उठना एक परम्परा से बन गयी है। छत पर आया तो देखा कि एक बडे दिए के अलावा सरे दिए भोर के उजाले के साथ, या शायद उससे कुछ पहले ऊँघ कर सो गए। और रात जले,अधजले पटाखों के तुद्के -चिथड़े और उनमे से आती बारूद कि गंद। उन्हें उठाते उठाते सोच रहा था कि वे क्या उन्होने कभी सोचा होगा कि वे बच जायेंगे। फिर सच तो ये है कि उनके बच जाने से ज्यादा सार्थकता तो उनके ख़त्म हो जाने में थी।


अगली चीज़ थी -अखबार। लिखने-पढ़ने वालों या फिर वैसे भी बहुतों को सुबह की चाय के साथ अखबार का भी स्वाद मुँह लग जाता है.मैं भी उनमें से एक हूँ। और लिखानतम -पधानतम वालों को तो अपने आलेखों के प्रकाशित होने का इंतज़ार रहता है। कुछ मिलाकर दोपहर तक ही सब सामान्य हो पाता है,


क्या आप के सात भी ऐसा होता है?

चित्थावालों क्या चिट्ठी भी लिखते हो ?

पिछले कुछ दिनों से लिख रह हूँ। चिटठा- कच्चा-पक्का जैसा भी है परोसे जा रह हूँ। क्यों लिख रह हूँ। पता नहीं। हाँ दो बातें तो तय हैं, पहली ये कि इसमें आनंद आ रहा है, दुसरी ये कि चिंता ये भी है कि इसकी सार्थकता कितनी और कहाँ तक है। खैर, इस पर तो बहस होती रहेगी।

एक नई बात करते हैं। आप चिट्ठा वाले , क्या चिट्ठी भी लिखते हैं। आप शायद हँसेंगे। आज मोबाइल,एस एम् एस ,ई-मेल ,के ज़माने में चिट्ठी, अजी छोडो छोडो ,गया ज़माना । और फिर चिट्ठी लिखी किसे जाये,। लिख भी दें तो जवाब कौन देता है?


केजिन नहीं यार, शायद ऐसा नहीं है , मैं लिखता हूँ, पोस्टकार्ड, अन्तेर्देशी ,लिफाफा, सब कुछ। कई ऐसों को भी जिन्हे आज तक देखा नहीं, कभी मिला नहीं, और हाँ उनका जवाब भी अता है। मगर यहाँ, शहर में ये बातें तो पुरानी और बेमानी हो चुकी हैं।

कभी पुराने पतों को एक बार अब पढ़कर देखना ,सुकून मिलेगा .

सबको होता है प्यार

हाँ, मैं जानता हूँ और मानता हूँ कि इस धरती पर ऐसा कोइ नहीं है, जिसे प्यार नहीं होता। नहीं, नहीं आप ये मत सोचना कि मैं किसी और प्यार की बात कर रह रह हूँ.हाँ पता है, पिता के प्रेम को स्नेह, माँ के प्रेम को वात्सल्य और बहन के प्रेम को ममता कहा जा सकता है मगर इससे अलग मैं ऊस प्रेम की बात कर रहा हूँ जिसे इश्क,प्यार,मोहब्बत और ना जाने किस किस नाम से जाना जाता है।

जिन्दगी में कभी ना कभी, कहीं ना कहीं किसी ना किसी से सबको ही ये प्यार होता है.मैं जब सातवीं कक्षा में था तो चौथी कक्षा में पढ़ने वाली और स्चूल बस में मेरे साथ जाने वाली स्वीटी, जब परेशान होती तो में भी चिंतित रहता था। वो हंस्टी थी तो में भी हंसता था .वो सब क्या था क्योंकि तब शायद हमें प्यार का मतलब भी नहीं पता था।

सबसे बड़ा सच तो ये है कि हमें अपने अंदर ,अपने आप ये एहसास हो जाता है कि प्यार हो गया है। चाहे इजहारे मोहब्बत हो या इनकार मिले मगर इश्क तो इश्क है। हाँ आजकल प्रेम का मतलब बदल रहा है, या कहूँ कि प्यार तो वही है, हम खुद बदल रहे हैं। क्या आपको भी ऐसा लगता है.

सबको होता है प्यार

हाँ, मैं जानता हूँ और मानता हूँ कि इस धरती पर ऐसा कोइ नहीं है, जिसे प्यार नहीं होता। नहीं, नहीं आप ये मत सोचना कि मैं किसी और प्यार की बात कर रह रह हूँ.हाँ पता है, पिता के प्रेम को स्नेह, माँ के प्रेम को वात्सल्य और बहन के प्रेम को ममता कहा जा सकता है मगर इससे अलग मैं ऊस प्रेम की बात कर रहा हूँ जिसे इश्क,प्यार,मोहब्बत और ना जाने किस किस नाम से जाना जाता है।

जिन्दगी में कभी ना कभी, कहीं ना कहीं किसी ना किसी से सबको ही ये प्यार होता है.मैं जब सातवीं कक्षा में था तो चौथी कक्षा में पढ़ने वाली और स्चूल बस में मेरे साथ जाने वाली स्वीटी, जब परेशान होती तो में भी चिंतित रहता था। वो हंस्टी थी तो में भी हंसता था .वो सब क्या था क्योंकि तब शायद हमें प्यार का मतलब भी नहीं पता था।

सबसे बड़ा सच तो ये है कि हमें अपने अंदर ,अपने आप ये एहसास हो जाता है कि प्यार हो गया है। चाहे इजहारे मोहब्बत हो या इनकार मिले मगर इश्क तो इश्क है। हाँ आजकल प्रेम का मतलब बदल रहा है, या कहूँ कि प्यार तो वही है, हम खुद बदल रहे हैं। क्या आपको भी ऐसा लगता है.

बुधवार, 7 नवंबर 2007

पहला कबाड़ - रिश्ते

हाँ सच ही है आज के युग में रिश्ते नाते जैसी बातें कबाड़ के अलावा कुछ नहीं है। रिश्ते खून के हों, मन के हों ,जाने-पहचाने हो , अनजाने हों कैसे भी हों। पहली बात तो ये कि बिना किसी उद्देश्य के ,या कहें कि स्वत के रिश्ते न तो बनते हैं न बने रहते हैं। दुसरी ये कि इनके टूट जाने या ना बने रहने का कोई कारण हो ये जरूरी नहीं । कभी कभी तो ये अकारण ही दम तोड़ देते हैं । कुछ रिश्तों को हम इतना तंगहाल कर देते हैं कि उनका दम खुद ही निकल जाये। हां जब खून के रिश्ते सिसकते हुए आख़िरी सांस लेते हैं उन सिस्कारियों की गूज्ज़ ता उम्र गूंज्ज़ती रहती है।

यूं भी आजकल लोगों के पास इन सबके लिए सोचने कि फुरसत कहाँ है।
कहते हैं दिवाली रिश्तों का त्यौहार है मगर क्या सिर्फ उन रिश्तों का जो उपहार लेने-देने और खुशियाँ बाटने तक सीमित रहता है। वही रोशनी की चकाचौंध ,वही पटाखों का धूम-धडाम , वही बाज़ार, वही खरीददारी तो फिर इस दिवाली में कुछ अलग कहाँ हैं । चलें क्यों न ढूँढे कुछ पुराने रिश्ते। कोई बिछड़ा, कोई रूठा मिल जाये कहीं.

पहला कबाड़ - रिश्ते

हाँ सच ही है आज के युग में रिश्ते नाते जैसी बातें कबाड़ के अलावा कुछ नहीं है। रिश्ते खून के हों, मन के हों ,जाने-पहचाने हो , अनजाने हों कैसे भी हों। पहली बात तो ये कि बिना किसी उद्देश्य के ,या कहें कि स्वत के रिश्ते न तो बनते हैं न बने रहते हैं। दुसरी ये कि इनके टूट जाने या ना बने रहने का कोई कारण हो ये जरूरी नहीं । कभी कभी तो ये अकारण ही दम तोड़ देते हैं । कुछ रिश्तों को हम इतना तंगहाल कर देते हैं कि उनका दम खुद ही निकल जाये। हां जब खून के रिश्ते सिसकते हुए आख़िरी सांस लेते हैं उन सिस्कारियों की गूज्ज़ ता उम्र गूंज्ज़ती रहती है।

यूं भी आजकल लोगों के पास इन सबके लिए सोचने कि फुरसत कहाँ है।
कहते हैं दिवाली रिश्तों का त्यौहार है मगर क्या सिर्फ उन रिश्तों का जो उपहार लेने-देने और खुशियाँ बाटने तक सीमित रहता है। वही रोशनी की चकाचौंध ,वही पटाखों का धूम-धडाम , वही बाज़ार, वही खरीददारी तो फिर इस दिवाली में कुछ अलग कहाँ हैं । चलें क्यों न ढूँढे कुछ पुराने रिश्ते। कोई बिछड़ा, कोई रूठा मिल जाये कहीं.

रविवार, 4 नवंबर 2007

गरीबदास बनाम अमीरदास

पिछले दिनों जब अचानक ही सेंसेक्स ऊपर चढ़ गया तो अमीर बाबू दुनिया के सबसे बडे अमीर बन गए और हो गए अमीर दास । ये बात गरीबदास को चुभ गयी वो जा पहुंचा उन्हे ललकारने:-



हाँ हाँ, पता है ऊपर चढ़ गए हो मगर इतराओ मत झाड़ पर चदेय हो कभी भी नीचे आ जाओगे॥



तुम कौन हो भाई, कहाँ रहते हो , कहाँ से बस बस ?

बस ,बस इतना से ही घबडा गए , देखो मुझे गौर से में हूँ गरीब दास , यानी इस देश का सबसे गरीब आदमी, और तुम्हारा तो रेकोर्ड आज बना है मगर मैं ना जाने कब से इसी पोजीशन पर खडा हूँ । कितनी ही तुम्हारे जैसे धन्ना सेठ , कितनी ही सरकारें और कितनी ही गरीबी हटाओ योजनाएं आई और चली गयी । मगर मेरी जगह कोइ नहीं बदल सका।

लेकिन गरीब दास जी मैं जो ये कारोबार फैला रहा हूँ उससे इस देश को इस समाज को और सबको फायदा ही फायदा हो रह है । और फिर आपको भी तो इसका लाभ पचुन्चेगा ही।

abey छोड़ छोड़ सूना है कि तुने बड़ी बड़ी दुकाने लगा कर अब सब्जी भाजी बेचनी शुरू कर दी है। तुझे क्या लगता इस तरह गरीबों के पेट पे लात मार कर तू और अमीर बन जायेगा , सुन बे जिस दिन किसी गरीब का दिमाग फिर गया ना तो ये जो तो कर लो दुनिया मुट्ठी में करता रहता है ना वो ना तो तेरी मुट्ठी रहेगी ना ये अमीरी.

तितलियाँ नहीं मिलती.

बेटे को पढाते पढाते जब उसे किताब में तितली दिखाई तो वह जिद करने लगा कि पापा मुझे भी तितलियाँ दिखाओ। मैंने सोचा ये क्या मुश्किल काम है । बेटे को लेकर पार्क की तरफ चल पड़ा। रास्ते में मैं उसे बताने लगा कि कैसे स्कूल से वापस आते समय हम भी तितलियों और टिड्डियों से खेलते थे, कोयल की कूक से अपनी कूक मिलाते थे, तोतों के झुंड के पीछे दौड़ते थे और गिलहरियों को दौडा कर पेड़ पर छाती थे। बेटा रोमांच और ख़ुशी से भर गया फिर थोडे अचरज में बोला, पापा हमें क्यों नहीं मिलते ये सब।

मैं सोचने लगा, हाँ, सचमुच अब कहाँ मिलते हैं ये सब। धरती वही, अम्बर वही, पानी वही, धुप वही, तो फिर क्या बदल गया। नहीं शायद सब कुछ बदल गया है आज, धुप, हवा,पानी ,धरती, सब कुछ।

पार्क पहुँचा तो वही हुआ जिसका डर था। तितलियाँ नहीं मिली.

तितलियाँ नहीं मिलती.

बेटे को पढाते पढाते जब उसे किताब में तितली दिखाई तो वह जिद करने लगा कि पापा मुझे भी तितलियाँ दिखाओ। मैंने सोचा ये क्या मुश्किल काम है । बेटे को लेकर पार्क की तरफ चल पड़ा। रास्ते में मैं उसे बताने लगा कि कैसे स्कूल से वापस आते समय हम भी तितलियों और टिड्डियों से खेलते थे, कोयल की कूक से अपनी कूक मिलाते थे, तोतों के झुंड के पीछे दौड़ते थे और गिलहरियों को दौडा कर पेड़ पर छाती थे। बेटा रोमांच और ख़ुशी से भर गया फिर थोडे अचरज में बोला, पापा हमें क्यों नहीं मिलते ये सब।

मैं सोचने लगा, हाँ, सचमुच अब कहाँ मिलते हैं ये सब। धरती वही, अम्बर वही, पानी वही, धुप वही, तो फिर क्या बदल गया। नहीं शायद सब कुछ बदल गया है आज, धुप, हवा,पानी ,धरती, सब कुछ।

पार्क पहुँचा तो वही हुआ जिसका डर था। तितलियाँ नहीं मिली.

शनिवार, 3 नवंबर 2007

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

सीरियलों का सार संग्रह ( भाग दो )

कल से आगे,


कहानी घर घर की :-हाँ तो मैं बता रह था कि कैसे इतनी बडे घर में इतनी ज्यादा गडबडी होती है कि मारा हुआ ॐ भी जिंदा होकर आ जाता है और कमाल कि बात है कि उसी पत्नी को चाहने लगता है जिसे पहले चाहता है , ऐसा भी कहीं होता है,। और कहानी क्यों कहते हो भी पुरा पुरा का पूरा ग्रंथ है वो भी महाभारत जैसी,। मगर यार , ये बात समझ में नहीं आयी कि इतने बडे घर में रोशनी के लिए एक दिया जलातें हैं, अबे दिया है या पॉवर हौस।


सात फेरे : भैया, अभी तो दो तीन फेरों की कहानी ही दिखाई है, जिसमे दोनो मियां बीवी के दो तीन चक्कर दिखा दिए । हाँ , फेरे इतने रगड़ रगड़ कर लिए कि काली लडकी भी गोरी होती जा रही है । चाहे घंनी खम्मा कहो या उई अम्मा , इन फेरों के फेर से निकलना बहुत मुश्किल है भाई॥


तीन बहुरानियाँ :- बड़ी अनोखी कहानी है , बहू की है या रानियों की , ये तो पता नहीं । एक बूढी सास है, उसकी एक उससे थोडी कम बूढी बहू है, वो बूढी तीन लडाकी बहुरानियों की सास है, और इन तीन लडाकी सासों की अलग अलग अपनी अपनी बहू हैं। अब आप ही बताइये कि कुल कितनी सास हैं और कितनी बहुरानियाँ हैं । और हाँ इन सबके अपने पर्सनल पति भी हैं।


घर की लक्ष्मी बेटियाँ :- एक बात बताइये, यदि घर में लक्ष्मी होंगी तो बेटी हो या बेटियाँ क्या फर्क पड़ता है। अजी उनसे पूछो जिनके घर में बेटियाँ तो हैं पर लक्ष्मी नहीं है। वैसे हाल ही में दिल्ली सरकार ने बेटियों के जन्म पर एक लाख देने की घोषणा की है। अजी छोडो ,छोडो ,बेटा बेटी कर रहे हैं सारा चक्कर वही है।


यार, किस किस की बात करें बात सिर्फ इतनी सी है कि सीरियल चाहे क से हो या क से नहीं हो , हैं एकता कपूर फैक्ट्री के प्रोडक्ट जैसे ही लगते हैं।

झोलतन्मा

सड़क तुम क्यों नहीं चलती

उस दिन अचानक ,
चलते,चलते,
पूछ बैठा,
काली पक्की सड़क से,
तुम क्यों नहीं चलती,
या कि क्यों नहीं चली जाती,
कहीं और,

वो हमेशा कि तरह,
दृढ ,और सख्त , बोली,
जो मैं चली जाऊं ,
कहीं और, तो,
तुम भी चले जाओगे,
कहीं से कहीं,

और फिर ,
कौन देगा,
उन, कच्ची पगडंडियों को ,
सहारा,
और,


टूट जायेगी आस
उन लाल ईंटों से,
बनी सड़कों की , जो,
बनना चाहती हैं ,
मुझ सी,
सख्त और श्याम॥


झोलटनमाँ

सड़क तुम क्यों नहीं चलती

उस दिन अचानक ,
चलते,चलते,
पूछ बैठा,
काली पक्की सड़क से,
तुम क्यों नहीं चलती,
या कि क्यों नहीं चली जाती,
कहीं और,

वो हमेशा कि तरह,
दृढ ,और सख्त , बोली,
जो मैं चली जाऊं ,
कहीं और, तो,
तुम भी चले जाओगे,
कहीं से कहीं,

और फिर ,
कौन देगा,
उन, कच्ची पगडंडियों को ,
सहारा,
और,


टूट जायेगी आस
उन लाल ईंटों से,
बनी सड़कों की , जो,
बनना चाहती हैं ,
मुझ सी,
सख्त और श्याम॥


झोलटनमाँ

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

सीरियलों का सार संग्रह

ये उन तमाम सीरियलों का सार संग्रह है जो पिछले कई सालों से मैं अपनी पत्नी श्री के साथ देखने को अभिशप्त हूँ। आइये एक एक कर के देखते हैं :-


कसौटी जिन्दगी की : अबे किसकी जिन्दगी की और काहे की कसौटी । एक प्रेरणा से सबको इतनी प्रेरणा मिल गयी है कि हो चाहे मुँह उठाये उससे शादी किये जा रहा है , बस एक हम ही रह गए हैं। शादी वो भी दो दो तीन तीन बार। क्या करें कमबख्त बुड्ढी भी तो नहीं होती । हाँ इस चक्कर में बेचारी का अपना घर टूट गया । थाना कचहरी तक हो गया महाराज। तब भी बेचारी कसुती पर खरी उतर ही नहीं रही है।


सास भी कभी बहू थी :- अमां जब थी तब थी अब तो सास रही नहीं और बहू नई आ गयी है और तो और जब पहली वाली तुलसी मोटाते मोटाते पूरा बरगद बन गयी (पहले वाला एपिसोड और आख़िरी वाला देख कर खुद जान लीजीये ) तो फिर से पतली तुलसी लानी पडी । तो फिर चक्कर क्या है , ना सास रही , ना बहू रही,। अरे यार, इनका खानदान कोइ मुग़ल सल्तनत से कम है क्या, पता नहीं किस तख्ते ताज के लिए लड़ते रहते हैं। ये थी नहीं हमेशा रहेगी चाहे कोई रहे ना रहे।

कहानी घर घर की :- पहले ये बताओ इस सीरियल में कोई दूसरा घर है कोई । एक घर है उसी में पूरा मोहल्ला बसाया हुआ है। फिर तो ऐसा ही होगा के मरा हुआ बन्दा दो दो साल के बाद waapas आ जाता है ।



bankee अगले में जारी ......

किस्म किस्म के कबाड़.(ब्लोग kaa मकसद )

यूं तो ये काम सुबह सुबह घूमने वाले सैकड़ों कबाडियों का होता है मगर बदकिस्मती या खुस्किस्मती से , वे बेचारे तो यहाँ तक नहीं पहुंच सकते इसलिए उन्होने मुझे अधिकृत किया है कि यहाँ मैं उनका authorized बन्दा बनके किस्म किस्म के कबाड़ इकठ्ठा करूं । इसलिए मुझे ये कबाड़खाना ब्लोग बनाना पड़ा ।
वैसे जब ये बात मैने अपनी पत्नी को बताई तो उनका कहना था कि , ये क्यों नहीं कहते कि अपने लिए नया घर ढूँढने जा रहे हो । यहाँ घर पर तो पेपर, किताब , मैगज़ीन , सबसे दिन भर कबाड़ ढूँढते ही rahtey हो वहाँ भी जाकर कबाड़ ही फैलाओगे । सच है खानदानी कबाड़ी लगते हो।

अब क्या करें मेरी नज़र में उनके सारे सीरियल कबाड़ है वो भी ऐसे बदबूदार कि संदांध आते है उनसे तो मुझे, खैर,। वैसे तो हमारे आसपास ही किस्म किस्म का इतना कबाड़ फैला है कि हम नज़र डाले ना डाले पता चल ही जाता है । लेकिन यहाँ में आपको ऐसे ऐसे कबाड़ और कबाडियों से मिलवाने वाला हूँ कि आप कहेंगे कि यार ये कबाड़ तो reecylcle होने लायक है ।
तो बस देखते जाइये और पढ़ते जाईये।
झोल तन माँ

किस्म किस्म के कबाड़.(ब्लोग kaa मकसद )

यूं तो ये काम सुबह सुबह घूमने वाले सैकड़ों कबाडियों का होता है मगर बदकिस्मती या खुस्किस्मती से , वे बेचारे तो यहाँ तक नहीं पहुंच सकते इसलिए उन्होने मुझे अधिकृत किया है कि यहाँ मैं उनका authorized बन्दा बनके किस्म किस्म के कबाड़ इकठ्ठा करूं । इसलिए मुझे ये कबाड़खाना ब्लोग बनाना पड़ा ।
वैसे जब ये बात मैने अपनी पत्नी को बताई तो उनका कहना था कि , ये क्यों नहीं कहते कि अपने लिए नया घर ढूँढने जा रहे हो । यहाँ घर पर तो पेपर, किताब , मैगज़ीन , सबसे दिन भर कबाड़ ढूँढते ही rahtey हो वहाँ भी जाकर कबाड़ ही फैलाओगे । सच है खानदानी कबाड़ी लगते हो।

अब क्या करें मेरी नज़र में उनके सारे सीरियल कबाड़ है वो भी ऐसे बदबूदार कि संदांध आते है उनसे तो मुझे, खैर,। वैसे तो हमारे आसपास ही किस्म किस्म का इतना कबाड़ फैला है कि हम नज़र डाले ना डाले पता चल ही जाता है । लेकिन यहाँ में आपको ऐसे ऐसे कबाड़ और कबाडियों से मिलवाने वाला हूँ कि आप कहेंगे कि यार ये कबाड़ तो reecylcle होने लायक है ।
तो बस देखते जाइये और पढ़ते जाईये।
झोल तन माँ

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

अथ बन्दर नामा

राजधानी में बंदरों ने ऐसा उत्पात मचाया कि जैसा श्री हनुमान जी ने अशोक वाटिका में मचाया था तो एकबारगी संदेह हुआ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सचमुच ही कोई दुष्ट किसी सीता जी को हर के ले आया । फिर सोचा धत तेरे की , किसी भी ऐन्गेल से ये दिल्ली अशोक वाटिका नहीं हो सकती और फिर जब राम ही नहीं (जैसा कि हमारी सरकार भी मानती है ) तो फिर सीता कैसे हो सकती है। खैर,

समस्या बढ़ती ही जा रही थी सो निर्णय लिया गया कि किसी प्रतिनिधि को वार्तालाप के लिए वानर सेना के पास भेजा जाये । फिर तय हुआ कि दारा सिंह (चुंकि फिल्मों में हनुमान जी का रोल सबसे ज्यादा बार उन्होने ही किया था ) को दूत बनाकर भेजा जाये । दारा सिंह वानर समूह के पास पहुंच गए :


हे बन्द्रू गैंग , ये आप लोग वन-उपवन को त्याग कर कहाँ यहाँ दिल्ली में भटकने के लिए आ गए हैं ?


इतना सुनते ही बन्दर भड़क कर कहने लगे :- क्यों बे , जिंदगी भर हमारी शक्ल सूरत का मैक अप करके कमाया - खाया, अब आया है हमीं से पूछने। और तुममें हममें क्या फर्क है एक बस पूँछ का ही न , तो बस हम भी आ गए। वैसे भी तुमने कोई वन जंगल छोडा है हमारे लिए खाली , यहाँ भी जो गार्डेन वगिरेह बनाए हैं उनमे लफंगे लड़के और लड़कियां घूमते रहते हैं।
लेकिन सुनो इस बार हम थोडा सीरिअस हो कर बात करने आये हैं । ये क्या सुन रहे हैं तुम एह्सान्फरामोशों ने राजा राम को भुला दिया। और जो हमरे परेंट्स इतना बढिया पुल बनाकर गए थे उसे तोड़ने पर आमादा हो । तुम्हारे पिताजी भी आज की तारीख में ऐसा पुल बना सकते हैं । और कभी गलती से हमरे छोटे बंदर तुम्हारे कांच तोड़ दें या तुम्हारी पानी की टंकी में नहा लें तो तुम लोग कितना लड़ते हो।


सुन बी इंसानी बन्दर इस बार हम भी अटल जी की तरह आर-पार की लड़ाई लड़ने आये हैं बता देना सबको॥

अथ बन्दर नामा

राजधानी में बंदरों ने ऐसा उत्पात मचाया कि जैसा श्री हनुमान जी ने अशोक वाटिका में मचाया था तो एकबारगी संदेह हुआ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सचमुच ही कोई दुष्ट किसी सीता जी को हर के ले आया । फिर सोचा धत तेरे की , किसी भी ऐन्गेल से ये दिल्ली अशोक वाटिका नहीं हो सकती और फिर जब राम ही नहीं (जैसा कि हमारी सरकार भी मानती है ) तो फिर सीता कैसे हो सकती है। खैर,

समस्या बढ़ती ही जा रही थी सो निर्णय लिया गया कि किसी प्रतिनिधि को वार्तालाप के लिए वानर सेना के पास भेजा जाये । फिर तय हुआ कि दारा सिंह (चुंकि फिल्मों में हनुमान जी का रोल सबसे ज्यादा बार उन्होने ही किया था ) को दूत बनाकर भेजा जाये । दारा सिंह वानर समूह के पास पहुंच गए :


हे बन्द्रू गैंग , ये आप लोग वन-उपवन को त्याग कर कहाँ यहाँ दिल्ली में भटकने के लिए आ गए हैं ?


इतना सुनते ही बन्दर भड़क कर कहने लगे :- क्यों बे , जिंदगी भर हमारी शक्ल सूरत का मैक अप करके कमाया - खाया, अब आया है हमीं से पूछने। और तुममें हममें क्या फर्क है एक बस पूँछ का ही न , तो बस हम भी आ गए। वैसे भी तुमने कोई वन जंगल छोडा है हमारे लिए खाली , यहाँ भी जो गार्डेन वगिरेह बनाए हैं उनमे लफंगे लड़के और लड़कियां घूमते रहते हैं।
लेकिन सुनो इस बार हम थोडा सीरिअस हो कर बात करने आये हैं । ये क्या सुन रहे हैं तुम एह्सान्फरामोशों ने राजा राम को भुला दिया। और जो हमरे परेंट्स इतना बढिया पुल बनाकर गए थे उसे तोड़ने पर आमादा हो । तुम्हारे पिताजी भी आज की तारीख में ऐसा पुल बना सकते हैं । और कभी गलती से हमरे छोटे बंदर तुम्हारे कांच तोड़ दें या तुम्हारी पानी की टंकी में नहा लें तो तुम लोग कितना लड़ते हो।


सुन बी इंसानी बन्दर इस बार हम भी अटल जी की तरह आर-पार की लड़ाई लड़ने आये हैं बता देना सबको॥

बुधवार, 31 अक्तूबर 2007

चिकेन बनाम रोनान

नीचे लिखा गया साक्षात्कार उस महान घटना का परिणाम है जो पिछले दिनों भारतीय नेताओं की सच्ची तस्वीर के रुप में विश्व राजनीती में उभरी ॥


आप अपना परिचय और हैसीयत बताएं।

जी , मेरा नाम रो नैन सेन, है और मैं अमेरिका में भारत का राजदूत हूँ॥

ये क्या नाम हुआ भाई , रो नैन , आख़िर नैन (आंखें) ही तो रोयेंगी या कान रोयेंगे। और तुम्हे राजदूत क्यों बनाया गया है ?

जी, दरअसल मुझे इसलिए नियुक्त किया गया था की सबको ये यकीन था की अमर्त्य सेन के बाद मैं ही वो अगला सेन हूँ जो इस देश और आप सबका नाम रोशन करेगा,

हाँ,हाँ, सो तो कर ही दिया तुमने। अब ये बताओ कि तुमने हमारे बारें में ऐसी बात क्यों कही । मतलब हेड लेस चिकेन, पहले ये बताओ कि हेड लेस क्यों कहा।

श्रीमान, सारी बातों का गलत मतलब निकाला गया है। हेड लेस यानी बिना मुंडी सिर के, यानी सब एक समान,
यानी बराबर । आप खुद ही सोचो यदि आप सबकी मुंडी काट दी जाएँ तो क्या पता चलेगा कि कौन सरकार है कौन विपक्षी , कौन ऍम पी है और कौन पी ऍम , कौन लेफ्ट है कौन राईट , यानी सब एक समान॥


अछा चलो मान लिया , मगर चिकेन क्यों कहा ? तुम और कुछ भी कह सकते थे ,उल्लू ,कौवा, गधा, कुछ भी मगर तुमने विदेशी जीव का नाम क्यों लिया?


श्रीमान उसकी वजह सिर्फ इतनी है कि मैं नॉन वेजेतारियन हूँ और उसमें भी चिकेन कि रेसिपी मुझे खास पसंद है मगर अपने यहां तो चिकेन का मतलब लोग सीधा चिकेंगुनिया ही समझ लेते हैं॥

ठीक ठीक है मगर इस सब में हमारी इज्ज़त हमारी छवि नहीं खराब हुई।


अरे हुज़ूर जब विदेशों में सुरक्षा चेकिंग के नाम पर हमारे विदेश मंत्री हमारे रक्षा मंत्री तक की धोती गंजी तक उतरने से किसी कि इज्ज़त पर फर्क नहीं पडा तो इससे क्या पडेगा।


अच्छा चलो माफ़ किया , मगर आगे से सिर्फ देसी जीवों के सात ही तुलना करना , अब जाओ और दूत्गिरी करो।


झोल टन माँ

अपने बच्चे संभालो भैया

अपने बच्चे संभालो भैया,
बाद में ना शिकवा करना,
समय रहते ही जागो,देखो,
बडे बूढों का है कहना॥


बच्चे हो गए हैं तेज़,
काटे कान बाप के,
चाहे पडोसी के हों,
या हों खुद आप के॥

इनके प्रश्न बिल्कुल ,
बम जैसे फट जाते हैं,
पूछे जब ,पापा ,
बच्चे कहाँ से आते हैं।

हर पल इनका साथ निभाना,
होमवर्क में हाथ बटाना,
मोबाइल कंप्यूटर को इनके,
भूलकर भी ना हाथ लगाना॥

बेटे की girlfriend और बेटी का boyfriend,
कभी ना पूछना ,उनका नाम,
जो पूछा तो जवाब मिलेगा,
रखो अपने काम से काम॥

नस्ल आज की सुपर स्टार,
बनना चाहे सिने स्टार,
पढाई, लिखाई और नौकरी ,
छोडो बेकार की बातें यार॥


autocracy, और पॉलिटिक्स,
ये बेकार के tuntey हैं,
बाईक मोबाइल और मस्ती,
चलते चौबीस घंटे हैं॥

मगर क्या करें बच्चों का,
नहीं ये सारा दोष है,
स्टाइल और status में,
जब माँ बाप मदहोश हैं॥

जो करना है करो सभी,
बस एक बात का ख्याल रहे,
पैसा, शोहरत ,ऐश,हो ना हो,
इज्ज़त बची हर हाल रहे...



झोल टन माँ

अपने बच्चे संभालो भैया

अपने बच्चे संभालो भैया,
बाद में ना शिकवा करना,
समय रहते ही जागो,देखो,
बडे बूढों का है कहना॥


बच्चे हो गए हैं तेज़,
काटे कान बाप के,
चाहे पडोसी के हों,
या हों खुद आप के॥

इनके प्रश्न बिल्कुल ,
बम जैसे फट जाते हैं,
पूछे जब ,पापा ,
बच्चे कहाँ से आते हैं।

हर पल इनका साथ निभाना,
होमवर्क में हाथ बटाना,
मोबाइल कंप्यूटर को इनके,
भूलकर भी ना हाथ लगाना॥

बेटे की girlfriend और बेटी का boyfriend,
कभी ना पूछना ,उनका नाम,
जो पूछा तो जवाब मिलेगा,
रखो अपने काम से काम॥

नस्ल आज की सुपर स्टार,
बनना चाहे सिने स्टार,
पढाई, लिखाई और नौकरी ,
छोडो बेकार की बातें यार॥


autocracy, और पॉलिटिक्स,
ये बेकार के tuntey हैं,
बाईक मोबाइल और मस्ती,
चलते चौबीस घंटे हैं॥

मगर क्या करें बच्चों का,
नहीं ये सारा दोष है,
स्टाइल और status में,
जब माँ बाप मदहोश हैं॥

जो करना है करो सभी,
बस एक बात का ख्याल रहे,
पैसा, शोहरत ,ऐश,हो ना हो,
इज्ज़त बची हर हाल रहे...



झोल टन माँ

आरक्षण की लूट

आरक्षण की लूट मची है,
लपक लो अपना स्थान '
कहीं तो फिट हो ही जाओ,
यूं ना खडे रहो नादाँ।

पिछले पचास सालों से यही,
हो रहा है चमत्कार,
जितनी दो माँग बढ़ती जाये,
और कितना चाहिए यार॥

कुर्सी और वोटों के चक्कर में,
बेचारी बेबस है सरकार,
माँग विरोध में पब्लिक अब तो ,
फुकें है बस कार॥

कोई मांगे धर्म के नाम पर ,
किसी का है आधार जात,
जो इनमे है कहीं नहीं,
उसकी धेले की औकात॥

नौकरी ,शिक्षा , और प्रमोशन,
सबमें चल रहा आरक्षण,
मगर कहाँ कुछ बदला है,
गरीब आज भी है निर्धन॥

गरीब ,मजदूर,और पिछडों को,
पता है अपनी जात का,
उनके नाम पे दूकान लगी है,
उन्हे नहीं पता इस बात का।




झोल टन माँ

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2007

ब्लू लाइन सेना में शामिल

रक्षा के क्षेत्र में आज एक और नयी उपलब्धि जुड़ गयी है । आज सेना ने अपनी सबसे आधुनिक सैन्य टुकडी के लिए ब्लू लाइन बसों के काफिले को शामिल कर ही लिया। दरअसल पिछले कुछ समय में ब्लू लाइन बसों ने अपनी अचूक मारक क्षमता और शत प्रतिशत परिणाम के कारण सेना के आधुनिक मारक वाहनों में शामिल होने कि जबर्दस्त दावेदारी पेश के थी। जब भी वह सड़कों पर दौड़ी , खाली हाथ नहीं लौटी, कभी कभी तो १००-५० का सफाया कर दिया। स्वदेश निर्मित इस वाहन की खासियत ये है कि इसे चलाने के लिए पहले से ही दक्ष चालक हमारे पास मौजूद हैं। उनकी दक्षता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरी दिल्ली पुलिस भी मिलकर इन्हे काबू में नहीं कर पाई। एक अन्य खासियत ये है कि इंधन के रुप में चाहे डीज़ल का इस्तेमाल किया जाये या सी एन जी का इसकी मारक क्षमता उतनी ही रहती है । उम्मीद है कि जल्दी ही ये ब्लू लाइन टुकडी बोफोर्स तोपों का स्थान ले लेगी.

सोमवार, 29 अक्तूबर 2007

आई दिवाली रे (व्यंग्य कविता )

आलू प्याज और टमाटर,
खरीद खरीद कर,
जेब हुई है खाली रे,
ऊपर से बच्चे चिल्लाएं ,
लो आयी दिवाली रे,

शेयर मार्केट भी हुई बेवफा,
कौन समझे ये फलसफा,
कोई पीटे माथा अपना,
कोई बजाये ताली रे,
लो आयी दिवाली रे,

डी ऐ बढेगा बोनस बढेगा,
पे कमीशन में खूब मिलेगा,
ये होगा जब होगा, तब तक,
पकाओ पुलाव ख्याली रे,
लो आयी दिवाली रे,

एक खरीदो, दो लो फ्री,
कहीं सेल तो कहीं लॉटरी,
हर हाल में लुटोगे तुम्हीं,
है न बात निराली रे,
लो आयी दिवाली रे,

सब चलता है, चलने दो,
अबकी बार भी मनने दो,
खूब फोडो बम पटाखे,
खूब छलकाओ प्याली रे,
लो आयी दिवाली रे,

हम तो साधू हैं, संत किस्म के,
थोडे में तृप्ति हो जाती है,
बस इतनी ख़ुशी ही काफी है कि,
इस बार दिवाली पर बधाई देने
घर आयेगी साली रे,
लो आयी दिवाली रे,

दिवाली कि मुबारकबाद।

झोल्तानमा

मेहेंगाई का राग व्यंग्य दोहे

हो जाने दो सब्जी मेहेंगी,लग जाने दो दालों में आग;
गमलों में उगाओ भाजी, छोडो मेहेंगाई का राग॥

भाड़ में जाये परमाणु मुद्दा, चूल्हे में जाये तकरार,
वाम हो, आम हो, कांग्रेस का काम हो, कुर्सी का चक्कर है यार॥

शेयर मार्केट उछले कूदे, क्या फर्क पर जायेगा,
ज्यादे बने तो हर्षद मेहता, अम्बानी ना बन पायेगा॥

फिल्मों में कॉमेडी का दौर,टीवी पर तलेंट हंट,
ना कोई मुद्दा,ना कोई मकसद, बस देखो अंट शंट॥

कोई उडाये दावत पे दावत, कोई भूखा रह है जाग,
अमीरी का अजगर मोटा है, पर दस्ता है गरीबी का नाग॥

प्रेम प्यार के चक्कर में,पडे हैं अब तो बच्चे भी,
क्लिपिंग और केबल देख कर, हो गए गंदे अच्छे भी॥

नेता हों या अभिनेता दोनो, साथ जा रहे हैं जेल,
जेलें भी फेमस हो गयी, जबसे बढ़ी ये रेलेम पेल॥

बड़ा अजूबा बन गया , क्रिकेट का ये खेल,
कभी सुपेरफास्त तो कभी पटरी से ही उतर जाती है रेल॥

दिवाली के मौसम में , लगी हुई है सेल,
दाम बढ़ा कर दिस्कौंत देने का, बड़ा पुराना खेल॥

बस बहुत हो गया, अब तो , हम और नहीं लिखेंगे आगे ,
कसम उसे है जो पढ़के, कुछ लिखे बिना ही भागे॥

रविवार, 28 अक्तूबर 2007

करवा चौथ सचमुच कड़वा है भाई !

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

करवा चौथ कि धूम मची है ,बाजारों में जिधर देखो मेहँदी ही मेहँदी लग रही है, और सारे पतियों को ये याद दिलाया जा रहा है कि, देखो बच्चे ,ये जो अग्रीमेंट किया था ( वैसे तो ये पतियों के लिए एक एक्सीडेंट ही होता है) उसको फिर से एक्सटेंशन मिल रही है। जिन जिन पुरुशात्माओं कि पत्नियों ने पिछले दिनों नवरात्रि के सारे व्रत रख कर अपना वज़न बढ़ा लिया और उनकी जेब और ,स्वयम उनका वज़न (यहाँ ये बता दूं कि बहुत से प्राणियों का वज़न सिर्फ और सिर्फ उनके जेब के वज़न पर निर्भर करता है) घटा दिया वे बेचारे यही सोच कर परेशां हो रहे हैं कि यार ये सारे व्रत एक साथ ही क्यों आ जाते हैं कम कम एक महीने का गैप तो होना ही चाहिऐ ।
बाजारों में मेहँदी लगाने से संबंधित जो प्रथा स्थापित है उस पर हमारी फुरसत में रहने वाली टीम ने बड़ा ही गहरा शोध और अध्यन किया है, और कुछ बहुत ही गोपनीय बातें सामने आई हैं जिन्हें इसी अवसर पर यदि सामने ना रखा गया तो वो क्या करेंगे गोपनीय रह कर। यह जो बाज़ार में सारे मकबूल फ़िदा हुस्सैन बैठ कर सुंदर सुंदर महिलाओं और कन्याओं कि नरम नरम हथेलियों पर एक से एक चित्रकारी करते रहते हैं वे १०० प्रतिशत कुंवारे होते हैं । इसी लिए उन्हे उन शादी शुदा बेचारों के दर्द से कोई मतलब नहीं होता जो बेचारे इस एक्सटेंशन प्रमाणपत्र को अपना सामने ही इस तरह सजते हुए देखते हैं।
मेहँदी कि इस रस्म के दो तरह के तत्काल प्रभाव जरूर पड़ते हैं । पहला ये कि जो पति अपनी पत्निओं को स्वयम ही बाज़ार ले कर मेहँदी लगवाने को तत्पर होते हैं तो ये समझ जाना चाहिऐ कि वे अपनी पत्निओं से तंग आ चुके हैं और बाज़ार सिर्फ इसलिए जा रहे हैं ताकि जितनी देर में मेहँदी लगाने का पूरी प्रक्रिया पूर्ण हो कम से kam उतनी
देर तक वे किसी और कि खूबसूरत बीवी को निहार सके. दूसरा और सबसे खतरनाक प्रभाव ये कि उसके बाद पत्नी कम से कम अगले पांच घंटों तक कोई भी काम खुद नहीं करने वाली और बच्चा पकड़ने से लेकर पत्नी को पानी पिलाने का महान काम भी आपको खुद ही करना पड़ेगा।
करवा चौथ के समबन्ध में पिछले वर्षों में महान बिग बी साहब ने एक और नयी मुसीबत सबके लिए पैदा कर दी । बुढापे में खुद तो अपने दोस्त वीरू कि सुंदर बीवी के लिए बागबान में करवाचौथ का व्रत रख लिया, ( सबका मानना है कि इस तरह का व्रत तो उन्हे कभी ख़ुशी कभी गम में अपनी बीवी के लिए रखना चाहिऐ था) और बाकी पतियों को फंसा कर चले गए । पिछली बार ऐसी ही एक जिद पर मैने तो अपनी धरम पत्नी जी को स्पष्ट कह दिया था कि मैं यह व्रत तभी करूँगा जब तुम हेमा कि तरह मुझ से दूर चली जाओगी या नहीं तो कहो तो अपनी सबसे पक्के दोस्त फुग्गा सिंह कि पत्नी कचनार कौर के लिए ही रखूंगा। इसके बाद उन्होंने कभी मुझे व्रत रखने के लिए नहीं कहा।
तो भैया आप सबके लिए तो पता नहीं कि ये व्रत कैसा टेस्ट देगा मगर हमारे लिए तो सचमुच ही बहुत , बहुते , बहुत ज्यादे कड़वा है भाई। भगवान् आप लोगों का सुहाग बनाए रखे।
आपका
jholtanma

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

dusra panna agli baat

कहिये दोस्तों पहले पन्ने को लिखे इतने दिन तो बीत ही चुके हैं कि जिसने जो पढना है वो पढ़ चूका होगा और क्या पढ़ चूका होगा यह इतनी फुरसत किसे है कि नए नए मुझ जैसे ब्लॉगर को पढ़ कर इतनी जल्दी उसपर अपनी प्रतिक्रिया भेजना शुरू कर दे। चलो ये तो होना ही था क्योंकि कहते हैं कि शुरुआत तो धीमी ही हो तो अच्छा रहता है इससे घोडा लंबी रस में दौड़ता है।
आज सोच रह था कि आपको चिंता रेखा के बारे में बताऊ । नहीं नहीं परेशान मत होइए चिंता रेखा पर कोई गंभी टिप्पणी नहीं करने वाला हूँ । दरअसल मुझे पिछले दिनों ही अनुभव हुआ कि चिंता रेखा का कितना गहरा संबध है हमारे जीवन में और आप चाहें न चाहें ये ठीक आपके साथ साथ रहती हैं जैसे कि आपकी धर्मपत्नी। वैसे भी जिनकी शादी हो चुकी है वे भुक्तभोगी ही इस गहरे दर्शन को अधिक आसानी से समझ पाएंगे। चिंता , मेरे यानी मर्दों के लिए तो चिता समान ही होती है जैसा कि सबने पढ़ सुना होगा हाँ मगर हमी श्रीमातियों के लिए बिल्कुल "रेखा" कि तरह होती और दिखती है। आधा जीवन बीत जाने पर भी उतनी ही खूबसूरत और दिलकश । कहिये आप नहीं समझे , चलिए मैं समझाता हूँ।
मेरी चिंता होती है कि हे भवान सरकार सिर्फ घोषणा पर घोषणा किये जा रही है इतनी बडे बडे सपने दिखा रही है बोला अबकी बार बोनस खूब बढ़ा कर देंगे मगर चुपके से अकाउंट में वही पुराने २४२५ डलवा दिए। मेरी चिंता है कि पता नही ये कमबख्त पे कमीशन कि रिपोर्ट कब लागू होगी । इस बार नए स्केल में आने के बाद अपना घर खरीद पाऊंगा कि नहीं और बहुत सी ऐसी ही चिंताएँ जो सचमुच कुल मिलाकर इतनी बड़ी चिता बन जाती है कि अगले सात जन्मों तक मैं मर मर कर उनपर जलता रह सकता हूँ। अब मेरी पत्नी कि चिंता रेखा भी पढ़ कर देखिए । उन्हे चिंता रहती कि हे भगवान् आज भी कहीं उसी वक़्त केबल वाले कि लाइट ना चली जाये जब सात फेरे , सास भी बहु थी, बेटियाँ और इसी तरह कि नारी शक्ति को बढ़ने वाले शिक्षाप्रद सीरियल आते हैं। उन्हे चिंता रहती है कि इस बार भी करवा चौथ पर कहीं भाभी उनसे ज्यादा बढिया ड्रेस ना पहन ले।
ये तो मैंने थोडे थोडे उदाहरण दिए हैं आप चाहेंगे तो मैं और विस्तात से सप्रमाण आपको बताऊंगा कि ऐसा आपके साथ भी तो होता है । आप माने या न माने, मगर मैं तो कभी भी कुछ भी कहूँगा ।
आपका
झोल्तानमा
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