शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

विधिक , येडिक , लोगलिक और किताबिक ...


ग्राम यात्रा के दौरान रेल की खिडकी से खींची गई एक फ़ोटो



अब इस देश को मिलने वाली रोज़ाना की खबरों में न्यायिक क्षेत्र से जुडी हुआ कोई समाचार , कोई फ़ैसला , कोई रोक न हो ऐसा संभव नहीं लगता । फ़िर इन दिनों तो मामला जीवन और मौत के बीच उठी बहस का है । मामला हत्या के बाद फ़ांसी ,माफ़ी और उम्रकैद और फ़िर माफ़ी के बीच इतना ट्रैंडिक हो गया कि सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी के सबसे नए नए अनाडी युवराज़ को ये तक कहना पडा कि इस देश में प्रधानमंत्री तक को न्याय नहीं मिल पाता है । 


उनका आशय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश में दोषी ठहराए और फ़ांसी की सज़ा पाए उन तीन मुजरिमों की दया याचिका के चौदर वर्षों तक लंबित रहने के कारण उनकी सज़ा में कमी करके उम्रकैद में बदलने से अपनी नाखुशी ज़ाहिर करने का था । हालांकि अगले ही दिन न्यायालय ने तमिलनाडु की प्रदेश सरकार द्वारा उन तीनों कैदियों की सज़ा उम्रकैद में परिवर्तित करते ही राज्य सरकार द्वारा उनकी रिहाई के लिए केंद्र की स्वीकृति पाने के प्रयास पर रोक भी लगा दिया है ।

किसी भी बहस से पहले यहां इस बात का उल्लेख करना ठीक होगा कि जिस तथाकथित विलंब के कारण न्यायालय को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए ऐसा निर्णय लेने पर विवश होना पडा वो विलंब तब हुआ जब केंद्र में लगातार खुद कांग्रेस व समर्थक पार्टियों की ही सरकार रही है । कहा जा रहा है कि ये फ़ाईल पूरे पांच वर्ष तक एक अधिकारी की दराज़ में ही पडी रही । इसी कडी में आज के समाचारों पर यकीन किया जाए तो बिहार में आज से बारह वर्ष पूर्व फ़ांसी की सज़ा पाने  चार अपराधियों की दया याचिका आज तक राष्ट्रपति भवन पहुंची ही नहीं । 

क्या किसी सार्वजनिक/सरकारी अधिकारी (खुद महामहिम ही क्यों न हों )के दफ़्तर से जुडे उच्चाधिकारियों से अपने दायित्वों के पालन में ऐसी गंभीर गलतियों की अपेक्षा की जा सकती है । आखिरकार क्यों नहीं इस व्यवस्था को अब बदलने की जरूरत है और यदि सक्षम सरकारें और देश की सबसे शक्ति़शाली महिला अपने पुत्र को उसके पिता के हत्यारों को उनके अंज़ाम तक नहीं पहुंचा कर न्याय नहीं दिलवा पाई ..........तो यकीनन ही हवन करेंगे , हवन करेंगे , हवन करेंगे वाली स्थिति है ।

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येडिक परिदृश्य माने येडा मुख्यमंत्री के जाने बाद देश प्रदेश के राजनीतिक हलकों में जारी उठापटक । आज कोर्ट ने भी थोडा जा झटका क्या दिया कि सबने बालटी भर भर के कोसा है पार्टी को ,जबकि बिजली व्यवस्था पर सरकार द्वारा सब्सिडी दिए जाने के निर्णय पर स्थगनादेश पर मेरी प्रतिक्रिया ये रही कि ,यदि आप मुझसे इस खबर पर कुछ व्यक्त करने को कहें तो मेरी दो हैं ...

पहली ये कि बिल्कुल ठीक किहिस कोर्ट । ई फ़िलासफ़ी हमरे गले भी नहीं उतर रही थी कि खाली आंदोलन का हिस्सा बनने से आप शोंगड लगा के बिजली फ़ूंकने के अधिकारी हो जाते हैं जी , इहां हमारे जैसों का साला भविष्य निधि खाता तक करेंट खा रहा है बिल के मारे , नीचे इहे आपका माफ़ी वाला आज भी बिना मीटर के ही दौडाए उडाए रहता है अपना डीजे ...

दूसरी ये कि , यदि सपाट राय जानना चाहें तो , ये सरकार द्वारा बिजली बिल की माफ़ी क लिए सब्सिडी को एक तात्कालिक उपाय बनाने के निर्णय को इस वाद के पूर्ण फ़ैसले के आने तक रोक यानि स्टे लगा दी गई है , तो ये बिल्कुल स्वाभाविक न्यायिक प्रक्रिया है , अंतरिम फ़ैसलों को पूर्ण निर्णय मानने बताने की जल्दबाज़ी से बचा जाना चाहिए , लगता है चुनाव बहुत ही नज़दीक हैं .....

चलिए ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि ये येडा राजनीति का बदलता हुआ नया पेडा साबित होता है या  येडा येडा कह कर अपनों द्वारा ही खदेडा जाने वाला है । जो भी बदलाव की इस कोशिश की विफ़लता और परिवर्तन के इस प्रयास का टूट कर बिखरना अंतत: राजनीति , समाज और व्यवस्था के लिए हानिकारक ही साबित होगा , ऐसा मुझे लगता है ।

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लोगलिक यानि सामाजिक परिदृश्य में ये है कि आज शाम को दफ़्तर से लौटते हुए एक साथ खडी दो रेहडियों के पास रुका । एक पर कन्हैया लाल साग बेच रहे थे और दूसरे पर देवीलाल टमाटर । हमें दोनों ही लेने थे सो वहां रुकना पडा । साग को काट छांट कर देने में जितना वक्त लगा उतने में उन दोनों से हुई बातचीत का लब्बलुआब कुछ यूं था ।

पुलिस से ज्यादा नगर निगम वाले उन्हें परेशान करते हैं , वे तो पूरी रेहडी ही उठा ले जाते हैं ,जबकि वे हर मौसम में यूं ही जीतोड मेहनत करके पेट पाल रहे हैं । पुरानी सरकार , नई वाली आकर गई सरकार के अलावा किसी ने भी कभी उनसे उनकी कठिनाइयों के लिए नहीं पूछा । यदि सरकार छोटे छोटे व्यावसायिक बिक्री केंद्रों /हाटों/स्टालों को बना कर उन्हें किराए पर रेहडी वालों को दे दे तो इससे स्थानीय लोगों को भी फ़ायदा होगा और रेहडी वालों को भी सरकार को तो होगा ही , क्यों नहीं कोई रेहडी वाला आप सब मिलकर तैयार करते जो आप सबकी दिक्कत सीधे सरकार तक पहुंचाए , राहुल गांधी कुलियों से मिले हैं सुना है ....................हां सुना था , लेकिन इसके बाद कुछ बदल जाएगा इसका विश्वास नहीं है ।

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किताबिक माहौल का तो पूछिए मत । राजधानी फ़िर किताब मेले से रौनकदार सी हो गई है और उतना ही रौनकदार हो गया है फ़ेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स , हर तरह किताबें ही किताबें , दोस्तों की किताबें , लेखकों की किताबें , कवियों की किताबें , ब्लॉगरों की किताबें , पाठकों की किताबें , और हम सब शब्दों , कथ्यों , अर्थों के दीवानों के लिए इससे सुखद और कुछ नहीं हो सकता कि हम अपने आस पास , शब्दों की जो दुनिया बुन रहे हैं वो किताबों की शक्लों में उनके पास भी पहुंच रही है जो इसे किताबों की शक्ल में ही पढना समझना चाह रहे हैं । उन सभी दोस्तों ,मित्रों , लेखकों , प्रकाशकों को असीम बधाई और शुभकामनाएं ....

परीक्षाओं का समय नज़दीक है , इंटरवेल लंबा भी हो सकता है , मगर मैं आता रहूंगा

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

आस्था का अर्थतंत्र







इस देश में आस्था का अर्थतंत्र यूं तो काफ़ी पुराना रहा है किंतु धर्म से आबद्ध होने की परंपरा से विलग स्वयंभू पूजनीयों के आडंबरों के ईर्द गिर्द जमा होने लगी । धर्म गुरूओं और इन अवतारनुमा लोगों ने न सिर्फ़ ढकोसलों और आडंबरों का बहुत बडा साम्राज्य खडा किया बल्कि समाज को बदले में लगभग कुछ भी दिए बगैर समाज के अर्थतंत्र का बहुत बडा हिसा अपने पास दबाए रखा । नैतिक मूल्यों के पतन का इससे अधिक प्रमाण और भला क्या हो सकता है कि धर्मक्षेत्र सेवा और समर्पण से कदाचार की ओर बढ चला है । 
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हालिया प्रकरण तथाकथिक आशुतोष महाराज़्म की समाधिस्थ मृत्यु के बाद उनसे जुडी लगभग 1000 करोड की अथाह संपत्ति के अधिकार की रस्साकशी सा दिख रहा है । पुत्र अनशन पर बैठकर पिता के देह को अंतिम संस्कार के लिए मांग रहा है साथ ही पिता से आबद्ध संपत्ति में हिस्सेदारी भी , बिना ये तय किए कि अर्जित संपत्ति क्या सचमुच ही व्यक्तिगत थी या किसी न्यास उद्देश्य से संरक्षित थी । 
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इससे इतर ये मसला सरकार व प्रशासन के सामने इस यक्ष प्रश्न की तरह भी खडा होता है कि आखिर क्यों नहीं किसी भी नियम कानून द्वारा इन धार्मिक निकायों , संस्थाओं को एक निश्चित सुरक्षित राशि के बाद बाकी सारी राशि को जनकल्याण हेतु व्यय करने के लिए बाध्य किया जाता । यूं तो ये व्यवस्था वर्तमान सामाजिक हालातों को देखते हुए स्वयं इन सभी धार्मिक संस्थानों को करनी चाहिए । शिक्षा, चिकित्सा, जनकल्याण , आश्रय स्थलों आदि के लिए यदि इन संपत्तियों व संसाधनों का उपयोग किया जाए तो इससे सार्थक और भला क्या हो सकता है । 
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कहते हैं  कि प्रकृति ईश्वर के ज्यादा निकट हैत ओ फ़िर धर्मस्थानों व धार्मिक क्रियाकलापों को प्रकृति व समाज के सृजन के लिए अग्रसर होना चाहिए , न कि अर्थ संचय में सतत प्रयत्नशील । स्मरण रहना चाहिए कि आचरण और व्यवहार में जरा सी भी निम्नता सीधे एक बहुत बडे समूह की आस्था पर आघार जैसा होता है । य़ूं भी गरीब समाज के भगवानों को भी जरूरत से ज्यादा अमीर होते जाने की छूट नहीं दी जानी चाहिए । 
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आशुतोष महाराज के परिवार ने इससे पूर्व पिता को पाने की कोई गंभीर कोशिश की हो दिखाई सुनाई नहीं दिया किंतु एक पुत्र के लिए पिता की देह का सम्मानजनक विसर्जन उसका निर्विवाद प्राकृतिक अधिकार है और इसे किसी भी आडंबरी भावना से दरकिनार नहीं किया जा सकता है । हैरानी होती है जब इस तरह के आडंबरी विवादों को आस्था से जोड कर राष्ट्रीय समाचारों की सुर्खियाम बनाने दिया जाता है । 
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अब वक्त आ गया है जब आस्था को भी मानवीय कसौटियों पर कसने की पहले कर देनी चाहिए अन्यथा हाल ही में माता वैष्णो देवी ट्रस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में भक्तजनों द्वारा चढाए जा रहे दान में नकली द्रव्य चढाने का ज़िक्र करके स्थिति स्पष्ट कर ही दी है । 

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

जनलोकपाल : अस्तित्व में आने को संघर्ष करता कानून






अब से लगभग तीन वर्षों पहले भारतीय लोकतंत्र की पूरी तरह बर्बाद हो चुकी परिपाटी से त्रस्त लोगों को यदि कोई बात अपने घरों से बाहर निकल आने के लिए कारण बनी थी तो वो थी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार से सख्ती से निपटने के लिए लोकपाल के रूप में ऐसी संस्था/व्यक्ति को लाने की तैयारी के लिए प्रस्ताविक कानून में फ़िर से मौजूद झोलझाल । सरकार को यूं तो इस नए कानून को लाने से पहले ऐसे पूर्व कानूनों/प्रयासों संस्थाओं की असफ़लता पर न सिर्फ़ गौर करना चाहिए था बल्कि लोगों को बताना भी चाहिए था । 
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ऐसी ही एक संस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग रहा , जिसके खुद के प्रमुख तक की नियुक्ति का ही मामला कोर्ट द्वारा बेदखली के फ़रमान तक पहुंच गया । जबकि ठीक इसके उलट पूर्व के महालेख नियंत्रक श्री विनोद राय के तेवर और कार्यों ने लोगों की इस संस्था के प्रति आस्था और बढा दी । यह संस्था इतनी मुस्तैद और प्रखर रही कि विश्व के बेहतरीन अर्थशास्त्रियों में गिने जाने वाले अर्थशास्त्री के हाथों में देश की बागडोर होने के बावजूद भी कैग ने लगभग हर गबन पर अपनी नज़र बनाए रखी। 
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बीते दिनों एक एक करके जिस तरह से प्रशासनिक अधिकारी राजनीति और राजनैतिक दबावों के खिलाफ़ मुखर हो रहे हैं वो कहीं न कहीं ये ईशारा तो कर ही रहा है कि सबसे ज्यादा यदि किसी की नीयत पर सवाल उठ रहे हैं तो वो विधायिका ही है । आखिर क्या वज़ह है कि आज़ादी के बाद से देश की विधायिका को लगातार कानून बनाने की जरूरत पड रही है और नए कानूनों को लाने का दबाव इतना ज्यादा है कि पिछले कानूनों के अनुपालन की सुनिश्चितता तय करने की फ़ुर्सत ही नहीं है । आरक्षण की वैकल्पिक व्यवस्था को पिछले साठ सालों से लगातार विस्तारित किए जाने के बावजूद हर बार नई गुंजाईश बनी रहती है एक भी विषय स्थाई तौर पर कहां हल किया जा सका है अब तक । 
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तथाकथित सिविल सोसायटी के धरने, अनशन और प्रदर्शन ने इस कानून को बहस में ला दिया , इतना कि सरकार उस पर गंभीर दिखने के प्रयास को लेकर उद्धत हुई । इस बीच सिविल सोसायटी का एक धडा खुद राजनीति में आ कूदा और राजधानी प्रदेश की बागडोर थाम ली । नौकरशाहों को खूब पता होता है कि सरकार द्वारा बनाए गए नियम कायदों को लागू होने करने में कितने ढके छिपे विकल्प मौजूद रखे जाते हैं । 
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नई सरकार ने सारे छिद्रों पर ढक्कन लगाने की तैयारी करके ऐसा कानून छाती पर ला पटका कि न सिर्फ़ खुद के गले को भी जांच के लिए आगे कर दिया बल्कि "न राधा के पास नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी" वाले फ़ार्मूले पर कानून रखा कि जो भी अपने श्रम और आय से ज्यादा का टीम टाम किए हुए , जांच की जाए और गडबड पाए जाने पर सीधा जब्ती कुर्की सब कुछ । मलाईदारों के रिश्तेदारों तक की निगेहबानी तक की गुंजाईश रखी जा रही है । अब इतने तेज़ाबी कानून को लाने की हिमाकत का परिणाम ये निकला है कि आम लोग बाग से लेकर खुद पुलिस और प्रशासन तक इसे दुश्मन मान बैठे हैं । 
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ताज़ा हालातों के मुताबिक कहा जा रहा है कि वर्ष 2002 में लाए गए एक आदेश के अनुसार बिना केंद्र सरकार की अनुमति के दिल्ली की प्रदेश सरकार द्वारा कोई विधेयक सदन पटल पर प्रस्तावित नहीं किया जा सकता अन्यथा इसे असंवैधानिक माना जाएगा । यकायक ही असंवैधानिक न होने के प्रति इतने संज़ीदा हो उठे हैं कि लगने लगा है मानो अब लोकतंत्र ठीक हो उठेगा । मगर ठीक ऐसे में सूचना ये मिलती है कि पूर्व सरकारें 11 बार ऐसा कर चुकी हैं । 
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अब ये स्पष्ट होता जा रहा है कि हम सब कहीं न कहीं अपने आपसे लडने को तैयार हो रहे हैं । जनलोकपाल हो या लोकपाल , देखना सिर्फ़ ये है कि इन ताकतों का इस्तेमाल करने वाले समाज और व्यवस्था को मुकम्मल करने की हिमायत करने वाले लोग हैं या इन संस्थाओं को शक्तिहीनता की ओर अग्रसर करने वाले । 

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

बसंत पंचमी , सरोसत्ती पूजा और रंग अबीर


ये मूर्तियां , मां शारदे की जय के नारे से गुण्जायमान हो रही होंगी


आज का ही दिन , बहुत बरसों पहले , बहुत बरसों पहले इसलिए कहा है क्योंकि दिल्ली में खानाबदोशी के जीवन से पहले जब एक स्थाई और बहुत ही खूबसूरत जिंदगी जिया करते थे उन दिनों , आज का दिन , यानि वसंत पंचमीं के दिन का मतलब था , सज़ा हुआ दालान , प्रसाद की खुशबू से गमकता -महकता हुआ आंगन और ऊपर रंग बिरंगी पताकाओं की लंबी लंबी लडियों से दूर दूर तक की सज़ावट , खूब जोर जोर से बजता हुआ भौंपू जिसमें हम अपने अपने स्वाद के हिसाब से गला फ़ाड साउंड में गाने चला के सुना करते थे । मगर रुकिए किस्सा यहां से नहीं शुरू होता था ।

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जैसा कि मैंने अनुभव किया है कि चाहे जो भी कहिए अपने देश का एक गज़ब का रिवाज़ है और वो है हमारे त्यौहारों पर्वों की अधिकता और विशिष्ट होने के कारण कमाल की रोचकता । अब देखिए न इत्ता खुशकिस्मत देश भी और कौन सा होगा या कितने होंगे जिन्हें शीत ऋतु , ग्रीष्म ऋतु , शरद और वसंत तक प्रकृति का हर रंग देखने को मिलता है , हम वसंत में रंगों से सराबोर हो उठते हैं , तो शीत ऋतु में रौशनियों की चकमकाहट , यानि कि हमारे पास जितने ज्यादा बदलते हुए मौसम हैं , उससे भी ज्यादा उन्हें सैलिब्रेट करने की वज़हें ।
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मुझे याद है कि सरस्वती पूजा , जिसे उन दिनों बच्चे फ़्लो में सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती पूजा कहते थे , की तैयारी तो संभवत: वर्ष के शुरूआती दिनों से ही हो जाती थी और उसमें सबसे पहले काम होता था प्रतिमा बनाने वाले कुम्हार को इसके लिए बेना(बयाना) देना । हम उन्हें जाकर बता देते थे कि हमें कितनी बडी ,छोटी और कैसी मूर्ति चाहिए । सरस्वती पूजा हम अपने ही दालान पर किया करते थे , वो भी जब देखा कि हमारे बहुत सारे मित्र अपने अपने दालानों घरों पर सरस्वती पूजा बडे ही मनोयोग से कर रहे हैं तब हम जो अपने टोले के कुछ मित्रों ने भी यही सोचा कि हमें भी मां शारदे की पूजा अर्चना के इस दिन को उत्साह पूर्वक मनाना ही चाहिए । हम सब मित्र इसके लिए साल भर में जमा किए हुए पैसों का उपयोग करते थे और जो कमती बढती होती थी उसके लिए अभिभावकों को पटाया जाता था ।
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स्थान और प्रतिमा का निर्धारण होने के बाद तैयारियां शुरू हो जाती थी , बाजा वाले को साटा देना (यानि उस दिन के लिए उसे बुक करना ) , दरी , सजावट का सामान , प्रसाद का सामान , पूजा सामग्री , आदि तमाम कार्य सबके जिम्मे लगाए जाते । असली तैयारी शुरू होती थी दो दिन पहले जब हम मेहराब ( बांस की बाति{हरे कच्चे बांस को चीर के बनाई गई लंबी छोटी खपच्चियां ) ,अशोक के पत्ते , रंगीन कागज़ों को तिकोनी कटाई और फ़िर उन्हें लंबी सुतरियों पे बांध के दूर दूर तक लगाई जाने वाली पताकाएं । और यहां से जो हमारी जीत तोड मेहनत और भाग दौड का सिलसिला शुरू होता था तो फ़िर वो प्रतिमा विसर्जन तक यूं ही चलता रहता था ।

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पूजा से एक दिन पहले हम बैलगाडी पर बैठ कर मूर्ति लाने के लिए निकलते थे , जहां से ये मूर्ति लाई जाती थी वो गांव लगभग सात आठ किलोमीटर था , कच्चे पक्के रास्ते और हिचकोले खाती हमारी बैलगाडी । मूर्ति को किसी भी झटके से बचाने के लिए बैलगाडी में खूब सारा पुआल बिछा कर उसे गद्देनुमा बना दिया जाता था और फ़िर कुछ ज्यादा सक्षम मित्र प्रतिमा को उस गांव से लेकर अपने दालान तक लाने के लिए विशेष जिम्मा उठाते थे । प्रतिमा को साडी या बडी चुनरी से अच्छी तरह ढांप कर खूब जोर जोर से गला फ़ाड नारे , सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती माता की जय ..मां सरस्वती को दालान पे बनाए गए चौकी प्लेटफ़ार्म पे स्थापित किया जाता था ।
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पूजा की सुबह से पहले की वो रात अब भी यूं की यूं याद है कि जब मां के जिम्मे प्रसाद , पूजा , आदि की तैयारी , के अलावा हम सबको रात भर दूध/चाय भिजवाते रहना ताकि दोस्तों की मंडली उर्ज़ा के साथ काम करती रहे । मूर्ति, पांडाल , पताकाएं , सब कुछ सजाते सजाते भोर हो जाती थी । अधिकांशत: पूजा पर भी मैं ही बैठता था और उसकी वज़ह थी , मुझे रंगीन धोती पहनने का बहुत ही शौक था , अब भी है , और संस्कृत के मंत्रोंच्चारण से प्यार । उन दिनों मुझे स्त्रोतरत्नावली से तांडव स्त्रोत सहित जाने कितने ही स्त्रोत यूं ही कंठस्थ हो चुके थे मैं नियमित रूप से सुबह पूजा भी किया करता था , ये बदस्तूर अब भी जारी है ।
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नियत समय पर पूजा अर्चना और प्रसाद वितरण के बाद होता था गला फ़ाड बाजा बजाने का सर्वप्रिय कार्यक्रम , हालत ये हो जाती थी कि जब तक आंगन से मां और चाचियां हमें दौडा कर पीटने को उतारू न हो जाती थीं तब तक उसका वोल्यूम यूं ही बढा रहता था । पूजा के बाद सभी दोस्तों की मंडली निकलती थी अन्य दोस्तों द्वारा की जा रही पूजा में शामिल होने के लिए , प्रसाद लेने के लिए और सज़ी धज़ी मां शारदे को देखने के लिए । एक दिलवस्प बात बताना ठीक होगा कि जैसा कि उन दिनों हम मानते थे कि मां शारदे के चरणों में सारी पुस्तकें रख देने से हमें जरूर अच्छे नंबर आएंगे और मैं तो सबसे ऊपर गणित की पुस्तक ही रखता था :) :) :) :) ।
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दोपहर को भजन कीर्तन का दौर चलता था , ढोल मंजीरे और तालियां मार मार के सारे सुरों की ऐसी तैसी करते हुए हम सरस्वती माता को प्रसन्न करने का फ़ुल टू जोर लगाते थे । शाम की पूजा के बाद गैस वाली पैट्रोमैक्स लाइट से रौशनी की जाती थी । और कार्यक्रम के नाम पर उन दिनों का एकमात्र और सबसे पसंदीदा आयोजन होता था , वीसीआर के साथ तीन पिक्चरों का दौर (वीसीआर और वो तीन पिक्चरें ---एक पोस्ट पढवाउंगा आपको इनसे जुडी यादों से भी ) ,सुबह तक हमें ये याद नहीं होता था कि कौन से पिक्चर का कौन सा संवाद था ।
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अगले दिन दोपहर के समय मूर्ति विसर्जन का समय होता था । बाद में तो प्रतिमा को दो तीन या जितने भी दिन मन हो रखा जाने लगा था , मगर उस समय हम यही करते थे । मां शारदे की विदाई का समय ठीक वैसा ही होता था जैसे कोई घर की बेटी गौना कराके ससुराल जाने की तैयारी में हो । बैलगाडी को खूब सज़ाया जाता था , और हम सब , जितने उस बैलगाडी पर लद सकते थे उतने सब , ढोल मंज़ीरों से लैस होकर बैठ जाया करते थे । उस दिन पहली बार फ़िज़ा में गुलाल की खुशबू और रंग जम कर उडाए जाते थे , और यूं लगता था मानो हमने वसंतोत्सव और फ़ागुन का आगाज़ कर दिया हो ।
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खूब गाते बजाते पूरे गांव घूमते हुए , बीचोबीच बने सरोवर में हम प्रतिमा को पूरी श्रद्धा के साथ विसर्जित करते थे । जनवरी फ़रवरी के गांव के बेहद सर्द दिनों में , सरोवर के जमा देने वाले पानी में जब हम दोस्त मां सरस्वती की प्रतिमा को हाथों में उठाए ज्यादा से ज्यादा आगे ले जाने की धुन में उतरते थे तो वो आनंद ही कुछ और होता था । थके हारे हुए वापस आने पर सबको ठंडाई मिलती थी वो भंग तरंग वाली , और शाम को जो रंग जमता था ,उसके क्या कहने .............। गांव से शहर आने के बाद भी ये सिलसिला चलता रहा शायद बहुत सालों तक , हमारी जगह अगली फ़ौज़ आई , उसके बाद उससे भी अगली , और अब भी ये चल रहा है .. अभी हाल ही में जब गांव गया था तो पोस्ट के ऊपर खींची हुई फ़ोटो इसका प्रमाण है । चलते चलते ..हमारे पवन भाई का कार्टून भी देखें आप







शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

नाम उसका मुहब्बत था शायद


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किसी मुझ जैसे की डायरी का एक पन्ना ..............

"नाम उसका मुहब्बत था शायद ,जिंदगी के हर मोड पे मुझसे टकराई थी वो ,
मैं चलता रहा और इश्क भी ,जाने खुद को और मुझको कहां ले आई थी वो "


"हम एक बार जीते हैं , एक ही बार मरते हैं और हमें प्यार भी एक ही बार होता है " फ़िल्म कुछ कुछ होता है का ये डायलॉग जब मैंने सुना तो मुझे वहीं पर शाहरूख खान से कहने का मन हुआ कि हां तुम्हारी तीन घंटे की इस रीलजिंदगी में ये एक बार से ज्यादा मुनासिब और मुफ़ीद है भी नहीं , मगर भईये ये जिंदगी उस तीन घंटे से बहुत बडीऔर उससे कई गुना ज्यादा अलग होती है ,और बेशक ये बात जरूर लागू होती होगी बहुत सारे लोगों की जिंदगी में ये सब एक बार ही होता होगा , मगर अपना क्या करें कि हम तो इस एक जिंदगी में जिए ही कई बार हैं और मरे  भी जाने कितनी ही बार हैं । एक जिंदगी ...मुझे तो लगता है कि हम एक ही दिन में कई बार जीते और मरते हैं,मगर मैं यहां जिंदगी और मौत के बीच जीने और मरने के बहीखाते का हिसाब मिलाने नहीं बैठा हूं , कम से कम ,अभी तो नहीं । आज प्यार मुहब्बत इश्क और जितने भी नाम इस अनुभूति , इस अनुभव , इस एहसास के हैं ,उसकी बात करेंगे ।
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मैं जब सिर्फ़ ग्यारह बारह वर्ष का था तब मुझे पहला प्यार हुआ था , मुझे नहीं पता कि वो प्यार था या कुछ और था,क्योंकि मैं आज तक प्यार को समझ नहीं पाया हूं , परिभाषित नहीं कर पाया हूं , उसके पैमाने तय नहीं कर पाया हूं,मगर इतना जरूर है कि उन दिनों बहुत अच्छा अच्छा सा लगता था और दुनिया की कोई भी ताकत कोई भी मजबूरी कोई भी परंपरा कोई भी नियम कानून विधि मुझे वो अच्छा अच्छा सा महसूस कराने से नहीं रोक सकती थी । सिर्फ़ एक साल
का साथ रहा मेरा और मेरे उस मुझसे भी नादान दोस्त का । मगर आज तक भी मुझे उसकी सूरत याद है और ताउम्र रहेगी,हां ये अलग बात है कि अब सामने आने पर मैं उसे पहचान भी न सकूं ,लेकिन प्यार तो बिना चेहरे ,बिना सूरत के भी होता है ....रहता है ।
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उम्र बढी और एहसास भी बदले , फ़िर प्यार हुआ दोस्तों के इश्क , उनकी मुहब्बत से ....अरे नहीं नहीं जी , उनकीप्रेयसी और प्रेमिकाओं से नहीं बल्कि प्यार हुआ उनकी दोस्ती , उनकी शिद्दत , उनकी मुहब्बत की पहल से ,इज़हार की हिम्मत,इंकार-इकरारकी दुविधा से, और ये वो वक्त था जब सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दोस्तों की दोस्ती ,इश्क के लिए ,हम अपनी पूरी ताकत , पूरा समय और पूरा ध्यान भी दे दिया करते थे । शायद मैट्रिक की परीक्षा तक यही हाल रहा , हालांकि, बाद में मुझे ये भी पता चला कि कई दोस्तों में ये एहसास इतना ज्यादा तीव्र था कि बात तभी उनके अभिभावकों तक पहुंच गई थी ,और वे इस बात पर दृढ थे इतने कि बहुत सालों बाद पता चला कि कम से कम एक दोस्त और दोस्तनी को तो मैं जानता हूं जिन्होंने स्कूली दिनों की उस दोस्ती, इश्क को बाद में विवाह की मंज़िल तक पहुंचाया ।
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हालांकि प्रेम का मकसद सिर्फ़ विवाह ,या इश्क की मंज़िल सिर्फ़ सहमति से एक साथ रहने का कोई करार ही मात्र होता है,इस बात को मुझे मानने में बहुत ज्यादा दिक्कत होती है । और ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आजतक जितने भी शाश्वत प्रेम कहानियां सुनी हैं उन सबके किरदारों ने एक दूसरे के प्यार को पाने के लिए जिंदगी दांव पर लगा दी और जान जाने तक भी,
वे विवाह जैसा कुछ कर नही सके ..रांझे को तो सुना है कि हीर से विवाह करने के बाद भी उसका साथ नसीब नहीं हुआ । चलिए इस फ़िलासफ़ी को यहीं छोडा जाए ...........
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तो इसके बाद लडकपन से युवापने की ओर बढे ।और वाह क्या रुत और रुतबा होता है उस अल्हड तरूणाई के मौसम का ,वो गीत आपने सुना है न जवानी जिंदाबांद । सच में जवानी जिंदाबाद ही होती है और शायद इसीलिए यही वो समय भी होता है जब जवानी जिंदाबाद ही तय करती है कि आगे जीवन आबाद होने वाला है या बर्बाद । मगर कहते हैं न इश्क अंधा होता है ,उसे कहां दिखती हैं जिम्मेदारियां उसे कहां दिखती हैं बंदिशें , सामाजिक दीवारें ,मान्यताएं परंपराएं ,वो तो बस कहीं भी पनप जाता है बिल्कुल बरसात की काई की तरह और फ़िर तेज़ धूप में उधड कर गिर भी जाता है ।

चलिए आगे की कहानी फ़िर कहूंगा .........................
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