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मंगलवार, 23 जुलाई 2024

पीली मिटटी और पवन चक्कियों वाला प्रदेश : दिल्ली इंदौर दिल्ली _ सड़क मार्ग यात्रा -भाग दो

 







पिछले भाग में आपने पढ़ा कि , हम देर रात दिल्ली से निकल कर शिवा ढाबे पर चाय वाय के लिए रुके थे , अब इसके आगे 

चाय पीने के बाद थोड़ा सा तरोताजा होकर हम आगे की और बढ़ चले , बेटे लाल को पीछे आराम से सोने के लिए कह दिया था लेकिन वो भी हमारे साथ ही जगा हुआ था तो फिर गानों का दूसरा दौर चल पड़ा। मैं अक्सर सफर के दौरान आदतन भी कम ही सोता हूँ लेकिन साथ में गाडी चला रहे हमारे सारथि अजय पर वो तड़के भोर वाली तेज़ वाली भयंकर नींद हावी होते देख मैंने अजय से कहा कि अब जहाँ भी सही जगह दिखे गाडी रोक कर पहले इस नींद के झोंके को पूरा किया जाए , समय तकरीबन सुबह पौने चार के आसपास का था। 






टोल नाका पार करते ही चाय की छोटी टपरी के पास कार रोक दी गई और अजय और हमारे सुपुत्र दोनों थोड़ी देर में ही नींद की झपकी मारने लगे।  मेरी नींद तो यूँ भी गायब ही थी सो मैं कार से उतर कर चाय की टपरी पर बैठ गया , पहले मन हुआ कि चाय के लिए पूछ लूँ लेकिन फिर सुबह चार बजे वो भी एक अकेले के लिए , लेकिन दुविधा उस समय ख़त्म हो गई जब उसने खुद ही पूछा चाय पीयेंगे क्या , मैंने भी हाँ कह दिया। 


 

 चाय आराम से पीते हुए देखा तो पौ फटने लगी थी और आसमान का रंग बता रहा था कि यहाँ भोर बहुत ही ज्यादा खूबसूरत लगाने दिखने वाली है।  मैंने चाय पी और एक नज़र गाडी पर डाली देखा तो अजय और आयुष दोनों अभी सो रहे थे , मैं पास ही किसी गाँव की और जाते हुए रास्ते की ओर निकल गया जहां से मैं इस खूबसूरत सुबह को और देर तक निहार सकूं।  सुबह होने तक का नज़ारा वाकई अद्भुत था।  


जब तक मैं वापस आया अच्छी खासी रौशनी निकल आई थी और अजय भी उठ कर साथ ही बने प्रसाधन में अपने नित्य कर्म से निवृत्त होने चले गए थे , आयुष भी उठ चुका था।  अजय के साथ मैंने एक चाय और पी उस टपरी पर और फिर हम आगे चल दिए ग्वालियर की तरफ।  

मैंने गौर किया तो पाया कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुत कुछ साम्य सा दिख रहा था , वही पीली पीली उसर धूसर मिटटी और तेज़ धूप वाली गर्मी।  मगर मेरा अनुमान बहुत जल्दी ही गलत साबित हुआ जब मैंने देखा कि मध्यप्रदेश के खेतों में शायद ही कोई फसल ऐसी हो सामयिक जो मुझे रास्ते में उगाते लगाते नहीं दिखी।  ट्रकों की लम्बी लम्बी कतारें अक्सर हमारे साथ मिल जाती थीं या शायद हम ही उनके काफिले के बीच में आ जाते थे।  
















सुबह के पौने नौ के करीब हमारी गाडी फिर रुकी एक ढाबे पर जहां हमने नाश्ता करने का मन बनाया था , अजय थोड़ी देर और आराम करना चाहते थे इसलिए हमने उन्हें खाट पर आराम से सोने को कह दिया और हम दोनों पिता पुत्र वहीँ नित्य क्रिया से निवृत्त होकर ,दांत मांजने आदि के बाद नाश्ते का विचार करने लगे।  और हमने आलू के पराठे के लिए बोल दिया। सुबह का समय था जब तक आलू उबले और तैयारी हुई अजय भी उठ कर हमारे साथ ही नाश्ते के लिए आ गए।  मिर्च काफी तेज़ होने के कारण मेरे से पराठा पूरा नहीं खाया गया और मैंने लस्सी पर ही ज्यादा ध्यान दे दिया।  





टंकी फुल्ल करने के बाद हमारा सफर फिर आगे की और बढ़ चला।  ,कसबे , गाँव , खेत खलिहानों को पार करते हुए हम पहुंच गए ऐसे क्षेत्र में जहां चारों तरफ बड़ी विशाल पवन चक्कियां लगी हुई थीं और चलते हुए इतनी खूबसूरत लग रही थीं मानों हम किसी दुसरे देश की किसी दूसरी दुनिया में घूम रहे हों।  खुले खाली रास्तों के साथ साथ चलते हरे भरे खेत और दूर गोल गोल घूमती पवन  चक्कियां , लग रहा था कोई सिनेमा जैसा दृश्य आ गया हो सामने।  



दोपहर से आगे वक्त खिसक कर शाम की आगोश में जाने को तैयार था और हम भी धीरे धीरे अपने मंजिल इंदौर शहर के आखरी छोर की ओर पहुँच रहे थे जहां पुत्र को अपनी प्रतियोगिता में शामिल होना था , ...

अभी के लिए इतना ही , अगली पोस्ट में 


इंदौर , ओंकारेश्वर , शीतला माता जल प्रपात और महेश्वर के साथ ही बाबा माहाकाल की नगरी उज्जैन भी लिए चलेंगे आपको।  

सोमवार, 15 जुलाई 2024

दिल्ली इंदौर दिल्ली -सड़क मार्ग यात्रा -प्रथम भाग

 





जब ये तय हुआ था कि पुत्र की एक प्रतियोगिता में उसे सहभागिता करने के लिए उसे इंदौर जाना होगा और वहां काम से कम तीन दिन रहना रुकना होगा तभी से ये खूबसूरत संयोग भी बन गया था या कहिये की जबरन बना लिया गया था कि साथ में और कोई जाए न जाए हम तो अपने राजा बेटा को लेकर वो भी बाकायदा कार में बैठा कर ले जाना है और इसके पीछे हमारी इंदौर , उज्जैन , ओम्कारेश्वर , महेश्वर , गुना जैसे सुन्दर शहरों नगरों को देखने घूमने की तमन्ना का जोर जोर से हिलोरें मारना असली कारण था , और बहुत सारी इधर उधर की गुंजाइश संभावनाओं के बाद ये तय हुआ कि बिटिया कर उसकी मम्मी साथ में नहीं जा पाएंगी , नहीं नहीं इसमें खुश होने वाली कौन सी बात जी 

इस यात्रा की पूरी योजना के अनुसार हमें सुबह चार से पांच बजे के बीच दिल्ली छोड़ देना था और हम रुकते चलते देर शाम रात तक इंदौर पहुँच कर अगले दिन यानि रविवार को आराम विश्राम के बाद सोमवार से पुत्र अपनी प्रतियोगिता में व्यस्त होने वाले थे और हम और हमारे सारथी साथी हमनाम अजय दोनों अगले तीन दिनों तक आसपास का सब कुछ देख लेने के विचार में थे।  अब पहला चक्कर तो ये हुआ कि सुबह पांच तो दूर शाम के पांच बजे भी हम दिल्ली में ही थे और जाने को तैयार बैठे थे , बच्चों की मम्मी की डाँट के साथ ही हम दो टाइम का खाना घर पर ही खा चुके थे और रात्रि भोजन के भी आसार यहीं के थे , कारण कुछ अपरिहार्य थे जो सो दस बजे रात को हम दिल्ली से विदा हुए। 

रात को सफर करने से मैं अधिकांशतः बचता हूँ और इसके बहुत से कारण हैं जो गिनाए जा सकते हैं लेकिन ये भी है कि चाहे अनचाहे दर्जनों बार रात और पूरी पूरी रात सफर किया है , तो जब रात का सफर हो तो फिर हाइवे पर जाते ही जो गाना सबसे पसंदीदा होता है वो अक्सर यही होता है , सो गया ये जहां सो गया आसमां , रात के हमसफ़र , ओ रात के मुसाफिर चंदा जरा बता दे , और जाने कितने ही गाने गजलें हमारे साथ हाइवे पर बहती चलती रहती हैं।  पहला पड़ाव रहा चाय का ठिकाना शिवा  ढाबा , ढाबे पर भीड़ देख कर मैंने बेटे से पूछा ये रात के ही एक बज रहे हैं न।  बेटे ने हां में सर हिलाया तो साथी अनुज अजय ने बताया कि यहाँ ये सामान्य बात है 

फिर मुझे याद आया कि इस शिवा ढाबे पर हम जनवरी में मथुरा वृन्दावन जाते हुए भी रुके थे और तब भी यही हाल था जबकि उस समय शायद वक्त तड़के सात बजे का था , यहाँ ब्रेड पकौड़े और चाय तो लगभग सभी को लेते और खाते पीते देखा ,हमने पकौड़े के बदले चाय ही डबल कर दी , चाय दिल्ली में नहीं पीते हुए काफी वक्त हो गया था मगर इस बार सोच के ही गया था की इस सफर में चाय का साथ तो जरूर निभाया जाएगा यूँ भी सालों पहले जबलपुर के स्टेशन पर पी गई चाय का स्वाद अब तक जेहन में वैसा ही था और ये साबित भी हो गया जब इस दौरान मैंने इंदौर उज्जैन और तमाम शहरों में छोटे छोटे कप में बहुत ही स्वादिष्ट चाय पी।  

चलिए रुकते हैं अभी इस शिवा ढाबे पर ही फिर आगे चलेंगे 

अगली पोस्ट में बढ़ेंगे इस सफर में ढाबे से आगे और देखेंगे कि आगे हमें क्या कैसा मिला ?? 


रविवार, 15 मार्च 2020

उदयपुर ,माउंट आबू वाया रोड -आखिरी भाग








इस पूरी यात्रा को शुरू से पढ़ने के लिए आप  प्रथम ,द्वितीय ,तृतीय और चतुर्थ भाग को भी पढ़ देख सकते हैं | 

तो जैसा कि पिछली पोस्ट में मैं आपको बता चुका का था कि उदयपुर में बरसों से रह रहे अपने बहन और बहनोई के बताए अनुसार ही माउंट आबू के अगले दोनों दिनों का कार्यक्रम हमने तय किया था और जिसके अनुसार पहले दिन करीब बारह बजे घूमने का शुरू हुआ हमारा दिन सिर्फ नक्की झील ,हनीमून प्वाइंट और सनसेट प्वाइंट देख कर ख़त्म हुआ था और अब अगले दिन सुबह माउंट आबू के आखरी और सबसे ऊँचे छोर ,गुरु शिखर से शुरू करते हुए हमें वापसी में सारे दर्शनीय स्थल देखते हुए वापसी करनी थी | 

होटल बंजारा ,काफी पुराना बना हुआ एक औसत दर्ज़े का होटल था ,अच्छी बात सिर्फ इतनी थी कि ,होटल का खाना अच्छा था और पास के नक्की झील के बिलकुल करीब था | दिन भर की थकान के बावजूद और दिल्ली से माउंट आबू पहुँचने के बावजूद भी नराधम टेलीविजन ने वहाँ भी घुसपैठ मचा रखी थी और परिवार में टीवी के प्रति बिल्कुल परहेज़ रखने वाले मुझ एक अकेले प्राणी के लिए वहाँ ऐसे समय का प्रिय काम होता है दिन में खींची तस्वीरों को कई बार देखना। ....




सुबह आठ बजे तक हम सब नहा धो कर नाश्ते के उपरान्त सीधे गुरु शिखर के लिए निकल पड़े | मुख्य आबू कस्बे से पूर्व की ओर लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है गुरु शिखर | गुरु शिखर ,अरावली पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी है और माता अनुसूया एवं ऋषि अत्रि के पुत्र मुनि दत्तात्रेय के तपोस्थल के रूप में विख्यात है | माता अनुसूया की कथा अपने आप में जितनी रोचक है उससे ज़रा सी भी कम रोमांचक नहीं है ये गुरु शिखर | कहते हैं कि चाहे पूरे राजस्थान में लू चल रही हो मगर गुरु शिखर पर शीतल हवा चलती है जो हमें खुद भी महसूस हुआ | 







दूर चोटियों पर दिखता गुरु शिखर 


शिखर के शीर्ष पर स्थित विशाल घंटी 

गुरु शिखर से आसपास का विहंगम दृश्य 



ऊपर से नीचे तक का दृश्य 




वहीं बिकती स्थानीय मूल कंद की दूकान 


मुनि दत्तात्रेय की पवित्र गुफा 




गुरु शिखर के शीर्ष पर 
वहां से नीचे उतरते हुए सीढ़ियों पर स्थित विविध सामग्रियों , सुन्दर पेंटिंग्स ,मेहंदी ,चूड़ी ,रेशमी परिधान ,की ढेर सारी दुकानों में खरीददारी करते हुए हम वापसी के लिए निकल पड़े | नीचे आते हुए सबसे पहले सामने मिला प्रजापति ब्रह्माकुमारी का अंतर्राष्ट्रीय शान्ति केंद्र व ठीक उसके सामने ही स्थित और क़यामत जैसा खूबसूरत शांति उपवन |


भवन के अंदर स्थित राधा कृष्ण की सुन्दर मूर्ति 





अंतर्राष्ट्रीय शान्ति भवन का मुख्यद्वार

मुझे दर्शन कोई सा भी हो अक्सर प्रभावित तो करता ही है और मैं भी उसे समझने का भरसक प्रयास करता हूँ | ॐ शांति के रूप में पुष्पित इस संस्थान के कार्य ,उद्देश्य ,और व्यवहार में मुझे इनके नाम के अनुरूप ही शांति की अनुभूति हुई फिर मेरे प्रिय भगवान शंकर के आराध्य सत्य सनातन शाश्वत शिव के ओज की बात हो रही थी | मुझे बहुत ही शान्ति की अनुभूति हुई | शान्ति उपवन बहुत ही श्रम से सजाया संवारा हुआ और बहुत विस्तार से बना हुआ खूबसूरत स्थल है |



अर्बुदा माँ का मंदिर 




माँ अर्बुदा 



भीतर की मूर्ति 






अष्टधातु के नंदी

समय तेज़ी से बीत रहा था ,और बहनोई जी के निर्देश के अनुरूप हमें शाम होने से पहले ही वापसी करनी थी | हमारा आखरी पड़ाव था दिलवाड़ा जैन मंदिर जो जैन सम्प्रदाय का विश्व में सबसे बड़ा पूजनीय स्थल है | जैन मंदिरों में प्रवेश आराधना और व्यवहार के अपने  होते हैं जिनमे से एक था फोटोग्राफी पर प्रतिबन्ध | बेहद खूबसूरत नक्काशीदार मंदिर और प्रांगण |

दोपहर के लगभग 4 बजे हम आबू पर्वत के घुमावदार रास्ते से निकल कर उसी खूबसूरत हाइवे पर थे | 









रास्ते में पड़ने वाला खूबसूरत टनल 






बहन के घर के आसपास की गली

हालांकि ये उयदयपुर का पहला सफर रहा कर इसके बाद के सारे सफर इससे कहीं अधिक यादगार और रोचक रहे और बहुत सारे नए जगहों को देखने के बायस भी | उदयपुर ने मन को मोहपाश में बाँध लिया था जैसे 

बुधवार, 11 मार्च 2020

सनसेट प्वाइंट देख कर न निकलें माउण्ट आबू से





यात्रा के पिछले भागों को आप यहां यहां और यहॉँ पढ़ सकते हैं

          ये तो मैं आप सबको पिछली पोस्टों में बता ही चुका हूँ कि बहन और बहनोई जिनका निवास पिछले दो दशकों से उदयपुर में ही है और उन्होंने जैसे निर्देश हमें दिए उसने हमें बहुत ही सहूलियत दी कैसे हम कम समय में अपनी इस पहली ट्रिप में ज्यादा से ज्यादा स्थान घूम सकें | ऐसे ही माउंट आबू के लिए  निकलते समय हमसे उन्होंने कहा था की माउंट आबू से अपनी वापसी आप लोग शाम होने से पहले पहले की ही रखियेगा यानि आबू जाने के पहले दिन ही वहां का एक मुख्य आकर्षण "सनसेट पॉइंट " देख लें ताकि फिर उस रात्रि वहां विश्राम करने के बाद अगले दिन माउंट आबू के अन्य स्थल देख कर हम शाम ढलने से पहले ही आबू पर्वत के रास्ते की हद से बाहर निकल जाएँ | आबू जाते हुए और वापस आते हुए दोनों ओर घने जंगल और उनमें विचरते जंगली जीवों को देख कर समझ आया कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा था | 





उदयपुर से निकलते हुए हमें सुबह के आठ से ज्यादा हो चुके थे ,गुनगुनी धूप ,साफ़ सुथरे रास्ते और दोनों तरफ पहाड़ियों का सिलसिला ,बीच में ढाबे पर रुक कर पराठा और चाय का नाश्ता करते निपटते हम लगभग 11 बजे के आसपास माउंट आबू में दाखिल हो गए | अपने होटल "बंजारा" (जो कि बिलकुल अपने नाम के अनुरूप बंजारा आवारा सा ही निकला ) में हाथ मुँह धोकर तरोताज़ा होकर हमारा पहला ठिकाना बना नक्की झील |

नक्की  झील माउंटआबू के सबसे खूबसूरत और लोकप्रिय दर्शनीय स्थल में से एक है | कहते हैं कि एक तरफ मैदान और एक तरफ पहाड़ी से घिरे इस खूबसूरत झील का निर्माण "नाखूनों से खोद या खुदवा कर हुआ था " इसलिए भी इसका नक्की झील पड़ा | झील के दूसरी तारफ भारत माता का एक छोटा सा खूबसूरत सा मंदिर भी बना हुआ है | नक्की झील अपनी बोटिंग सुविधाओं और राइड्स के लिए तो मशहूर है इसके साथ ही यहां माउंट आबू के पचास से अधिक दक्ष फोटोग्राफर भी पर्यटकों को झील के किनारे ,बोटिंग करते हुए ,राजस्थानी परिधान में और पास ही स्थित हनीमून पॉइन्ट पर विभिन्न्न भाव भंगिमाओं में फोटो खींचते देखे जा सकते हैं | सर्दियों के दिनों में भी धूप काफी तीखी और गर्म थी सो बोटिंग करते करते ही सबको तेज़ भूख लगने लगी | झील क्षेत्र में ही बने छोटे बाजार में किसी रेस्त्रां में दोपहर का भोजन किया गया जो कुल मिला कर संतोषजनक था |




नक्की झील में मनोरम बोटिंग 

तेज़ धूप में गरमी लगने लगी थी 


भोजन और भ्रमण के तुरंत बाद हम वहां से पास में ही स्थित सनसेट प्वाइंट के लिए निकल पड़े जो नक्की झील से बमुश्किल दो किलोमीटर की दूरी पर एक निर्जन और बियाबान सा स्थल है | वहां बने अलग अलग चबूतरेनुमा प्लेटफॉर्म पर शाम चार बजे के बाद से ही पर्यटक पहुँचने   लगते हैं और देर शाम तक सूरज को पहाड़ों के बीच धीरे धीरे गुम होते  देखना कैसी नैसर्गिक करिश्मे को महसूस करने जैसा है | 

आजकल मोबाइल ने हमारे जीवन सहित ऐसी तमाम जगहों पर  अपने उपयोग की सबसे अधिक गुंजाइश बना ली है | नतीजतन ,यहाँ भी हमारे अलावा भी लगभग सब आसपास के नज़ारों को ,और उनके बीच खुद को कैद करना चाह रहे थे | इन शब्दों को लिखते समय भी मैं पहाड़ों के बीच की वो उष्मा स्पष्ट महसूस कर पा रहा हूँ | शाम के गहराने से पहले ही हम वापसी का रुख कर चुके थे | चूँकि बियाबान जंगल होने के कारण वहाँ तेंदुए भालू आदि जैसे जानवरों के आ जाने की चेतावनी भी जगह जगह लगी हुई थी जिसे नज़रअंदाज़ करना उचित नहीं लगा | 



अपने हिस्से की धूप समेटते  हुए 



 अगला दिन हमारा माउंट आबू में आखरी दिन था सो एक सिरे से सब कुछ देखने का कार्यक्रम पहले से ही तय था , हम तड़के नाश्ता करके माउंट आबू और संभवतः राजस्थान की सबसे ऊँची पर्वत चोटी "गुरु शिखर " की और निकल पड़े। ..

शेष। .............इस यात्रा  का आखरी पड़ाव और आखिरी पोस्ट पढ़ेंगे आप अगले भाग में | 

दूर चोटियों पर दिखता गुरु शिखर 


शनिवार, 24 अगस्त 2019

दिल्ली से जयपुर ,उदयपुर ,माउंटआबू ....वाया रोड (तृतीय भाग )





इस यात्रा के किस्से आप यहां और यहां पढ़ सकते हैं

  जीपीएस होने के बावजूद भी हम थोड़ी देर के लिए अजमेर से आगे जाने के रास्ते में अपना अनियमित मार्ग भूलकर दूसरे रास्ते की ओर बढ़ गए मगर जल्दी ही हमें एहसास हो गया कि शायद हम एक गलत टर्न ले चुके हैं ऐसे में बेहतर यह होता है कि आप रास्ते में पड़ने वाले हैं हर छोटी दुकान कोई बीच में पढ़ने वाला कस्बा हो वहां किसी से भी पूछताछ करते चलें और हां सिर्फ एक  व्यक्ति  या इंसान या इंसान से पूछ कर ही ना निश्चिंत न  हो जाएं आपको आगे और भी व्यक्तियों से पूछते हुए आगे जाना चाहिए ताकि क्रॉस चेकिंग भी हो जाए और आप ठीक-ठाक रास्ते पर चलते रहें |

 इस दौरान बच्चों को भूख लगने लगी थी और प्यास भी | साथ रखा पानी भी अब खत्म हो रहा था | हम धीरे-धीरे उदयपुर की और बढ़ते  जा रहे थे मगर कोई कायदे  का ढाबा या छोटा दुकान देखने में नहीं आ रहा था ऐसे में यह सोचा गया कि किसी भी छोटे कस्बे से जो भी फल खीरा ककड़ी आदि मिलेगा उसे ले लिया जाए और कार में ही खाते हुए  चला जाए और हमने  किया भी यही | अब हमें धीरे धीरे उदयपुर से नजदीकी का एहसास होने लगा था | उदयपुर से बहुत पहले से ही आपको संगमरमर ,ग्रेनाइट आदि पत्थरों टाइलों की दुकानें गोदाम और कारखाने दिखाई देने लगते हैं |

इस बीच मेरे फेसबुक स्टेटस से मेरी छोटी बहन जो वहां उदयपुर में सपरिवार पिछले कई वर्षों से रह रही थी  उसे अंदाजा लग गया था कि हम जयपुर के रास्ते उदयपुर पहुंच रहे हैं और उसने हमारे वहां पहुंचने से पहले ही मुझसे यह वादा ले लिया कि मैं वहां पहुंचते ही सीधा उसके घर चला लूंगा |  किंतु क्योंकि मेरा कार्यक्रम पहले से तय था और अन्य सहकर्मियों के साथ मेरी बुकिंग भी वहां के स्थानीय होटल ट्रीबो  पार्क क्लासिक में हो चुकी थी इसलिए हमने पहले वहां रुकने का निर्णय किया हम आसानी से होटल में पहुंच गए |



यहां एक बात मैं बताता चलूं कि राजस्थान मैं अपने बहुत सारे सफर के दौरान जो बात एक ख़ास बात मैंने गौर की वो ये  कि यहां राजस्थान की स्थानीय गाड़ियों के अलावा जो वाहन सबसे अधिक संख्या में देखे पाए जा रहे थे वो  गुजरात नंबर वाले थे जाहिर था कि पड़ोसी राज्य होने के कारण हुआ गुजरात के जैन समाज व हिंदू धर्मावलंबियों से संबंधित बहुत सारे स्थानों के उदयपुर व  माउंट आबू में उपलब्ध होने के कारण ही यह होता है |

शाम होते होते हम  होटल पहुंच गए , हाथ मुंह धोकर तरोताजा हो ही रहे थे कि इतने में बहनोई साहब व बहन भी आ पहुंचे  |  हम सब सीधा छोटी बहन के यहां पहुंच गए वहीं  चाय पीते हुए हमने अपने आगे के कार्यक्रम के बारे में बताया तो ये  तय हुआ कि अगले दिन सुबह हम उदयपुर घूमेंगे (उस वक्त मुझे नहीं पता था की ये उदयपुर में हमारे पदार्पण  जैसा होगा और ये शहर इस तरह से दिल के करीब बैठ जाएगा कि एक वर्ष में ही चार बार आना जाना होगा और आखिरकार वहाँ पर स्थाई निवास बनाने के लिए भी मन उद्धत हो जाएगा )  और एक सिर्फ एक दिन उदयपुर घूमने के बाद हम उससे अगले दिन माउंट आबू के लिए निकल जाएंगे|

 2 दिन माउंट आबू में बिताने  के बाद जो  आखरी के दो दिन होंगे वह फिर दोबारा बहन के परिवार के साथ गुजारा जाएगा |  शाम ढल चुकी थी और उदयपुर की बहुत सारी खासियत में से एक यह  भी है कि वहां देर रात तक जागने या बाजारों में दुकानें खुली रखने भीड़भाड़ का कोई चलन नहीं है  9 9:30 बजे तक शांति फैलने लगती थी हम पूरे दिन के सफर के बाद थके हुए थे सो होटल में लेटते ही गहरी नींद के आगोश में चले गए ।


 अगली सुबह जब तक हम नहा धोकर घूमने की तैयारी कर रहे थे तब तक बहन और बहनोई भी हमें हमारे होटल में ही ज्वाइन करने आ चुके थे बच्चे सब स्कूल चले गए थे इसलिए वह हमारे साथ नहीं आ पाए जिसकी भरपाई हमने वापस आने पर की | 

 पहला पड़ाव उदयपुर का सिटी पैलेस था जो वहां के सबसे मुख्य आकर्षण स्थलों व कहा जाए कि उदयपुर की दूरी माना जाता था राजा उदय सिंह द्वारा निर्मित यह महल जिसे  सिटी पैलेस के नाम से जाना जाता है | मुख्य रूप से इसे एक संग्रहालय का रूप दे दिया गया है | उस वक्त की जिंदगी को देखने समझने के लिए उस वक्त के संसाधनों व उनके उपयोग को जानने के लिए गौरवशाली इतिहास से परिचित होने वह अपने बच्चों को बनाने के लिए संग्रहालय सबसे खूबसूरत और सबसे सटीक होते हैं जयपुर की तरह ही उदयपुर में भी हमारे साथ हजारों देसी विदेशी पर्यटक घूम रहे थे कुछ कॉलेज स्कूल के छात्र-छात्राओं का समूह में हमारे साथ ही स्थिति में था यहां में एक चीज और बता दूं कि सिटी पैलेस में यदि आप अपनी गाड़ी के साथ जा रहे हैं या खुद भी पैदल जा रहे हैं तो अन्य पर्यटक स्थलों की अपेक्षा उदयपुर के इस पयर्टन स्थल का दर्शन और भ्रमण शुल्क बहुत लोगों को थोड़ा ज्यादा लग सकता है | किन्तु अंदर पहुंचने पर ये पैसा वसूल हो जाने जैसा है | 




सिटी पैलेस उदयपुर 

ये हरियाली पूरे उदयपुर क्षेत्र की पहचान है 

राजस्थान के फूल आपके मन पर बरसों तक छपे रहते हैं 







यहाँ बोटिंग का आनंद भी लिया जा सकता है 

ये उस समय की तोप 







सिटी पैलेस की नक्काशीदार खिड़की अद्भुत शिल्प का नमूना है 



महल की खिड़की से दिखता उदयपुर 









उस समय भंडारण के लिए बने बड़े बर्तन 



बहन एवं बहनोई जी के साथ ,फोटो पुत्र आयुष ले रहे हैं 


इसके बाद हम वहीं से नज़दीक करनी माता मंदिर के लिए निकले जहां पैदल और रोपवे द्वारा पहुंचा जा सकता है , हमने रोपवे का अनुभव कभी भी नहीं किया था इसलिए बच्चों का मन देखते हुए यही निर्णय किया गया कि रोपवे से ही चला जाए | 




मंदिर के प्रांगण से लिया हुआ चित्र 

ऊपर से पूरा शहर झील सब दिखाई देता है 


करनी माता 

इसके बाद वहीं साथ ही एक छोटे से पार्क में बहन व परिवार के साथ ,बहन द्वारा घर से बना कर लाए गए भोजन को दरी बिछाकर पिकनिक वाले अंदाज़ में निपटाया गया | बच्चे थोड़ी देर तक झूलों और हम उतनी देर तक फूलों के साथ आनंद लेते रहे |


 और इसके बाद हम चल पड़े महाराणा प्रताप स्मारक स्थल व पार्क | शहर की दूसरी छोर पर बना हुआ यह मनोरम स्थल बहुत शांत और चारों तरफ बहुत ही सुन्दर फूलों से सजा हुआ है | जैसे कि यहाँ के अधिकाँश पहाड़ी स्थल हैं





हमारा सफर अब आबू रोड की तरफ बढ़ चला था जहां हमने दो दिनों तक आबू की गजब चमत्कारिक धरती को जाना समझा।



 जारी है। ..........
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