बुधवार, 28 अप्रैल 2010

उत्तर भारत और दक्षिण भारत ........कुछ भी कभी भी .....


आज अचानक एक दोस्त जो बहुत वर्षों पहले सुदूर दक्षिण प्रांत में जाकर बस गया । बस गया से मतलब वहां पहले नौकरी करने पहुंचा फ़िर धीरे धीरे सारी घर गृहस्थी भी जमा ली । मजे से कट रही है , हम दो हमारे दो की तर्ज पर । पिता माता जी रिटायरमेंट के बाद भी पटना में ही बस गए , अपना पुश्तैनी मकान है , बच्चे एक राज्य से बाहर तो दूसरा देश से बाहर सैटल हो चुका है इसलिए अब सारे काम करके निश्चिंत होकर आराम का जीवन बिता रहे हैं । एक फ़ोन काल से इतना कुछ मिनटों में ही पता चल गया । बात बात में उसने बताया कि अभी भी साल में एक बार तो घर का प्रोग्राम बन ही जाता है । मैंने कहां हां यार ये तो होना भी चाहिए , वैसे अब उत्तर भारत कौन सा दूर और अलग रहा है दक्षिण भारत से । सब कुछ तो एक जैसा ही हो गया है । बस चंद घंटों का रेल का और उससे भी कम दूरी का हवाई सफ़र ही तो है बीच में । उसने कहा नहीं यार अभी भी बहुत फ़र्क है , बहुत बडा अंतर है । तुझे साफ़ पता चल जाएगा कि तू उत्तर भारत से अलग है ।

उससे बात करने के बाद मन में उसकी कही हुई बातें ही बहुत देर तक उमड घुमड करती रहीं ।इतिहास में पढा था कि दक्षिण भारत भौगोलिक , सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से उत्तर भारत से सर्वथा भिन्न रहा है ।विंध्याचल की पहाडियों और सतपुडा के जंगलों ने प्राकृतिक रूप से उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच एक अघोषित सीमा रेखा का काम किया । और उस पार पनपती रही सभ्यता द्रविड सभ्यता के रूप में जानी गई । इस बात का अंदाज़ा सहज़ ही इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इतिहास में सिर्फ़ गिनेचुने शासक ही रहे जो दक्षिण भारतीय राज्यों में अपनी विजय पताका फ़हरा सके । उस समय शायद विश्व में बहुत कम ऐसी शासन प्रणालियां थीं जिनमें मातृसत्तात्मक शासन व्यवस्था की प्रथा थी । दक्षिण भारत इस मामले में भी उत्तर भारत से बहुत अलग था । न सिर्फ़ बोलचाल , पहनावे, त्यौहार , बल्कि रंगरूप में दक्षिण भारत उत्तर भारतीय सभ्यता से कई मायनों में अलग चलता रहा । दक्षिण भारत के प्राचीन धार्मिक संस्थान , संगम सभ्यता के अवशेष , अद्भुत शिल्प और कला के बेजोड नमूने के रूप में बनाए गए सैकडों मंदिर , और सबसे अधिक दक्षिण भारत के मसालों ने न सिर्फ़ उत्तर भारतीय शासकों बल्कि विश्व को भी बरबस ही अपनी ओर खींचा ॥दक्षिण भारत में बन रही फ़िल्मों का बाजार आज विश्व के सबसे बडे फ़िल्म बाजारों में से एक है । लेकिन इन सबके बावजूद अब भी दक्षिण भारत दक्षिण भारत से थोडा दूर ही दिखता है ॥

      आज उत्तर भारतीय शहरों में दक्षिण भारतीय लोगों की मौजूदगी बहुत अधिक नहीं है , यदि राजधानी और कुछ चुनिंदा शहरों की बात करें तो ऐसा ही दिखता है । न सिर्फ़ उनकी मौजूदगी बल्कि उनकी परंपराएं , उनका पहनावे का फ़ैशन , उनके मनोरंजन साधन , फ़िल्म आदि का चलन उत्तर भारत में अभी भी उस कदर नहीं जुड सका है । हां दक्षिण भारतीय भोजन और व्यंजन इडली डोसा , उत्पम , पायसम, केले चिप्स , आदि बहुत सारी खाद्य वस्तुएं आज उत्तर भारतीय प्रांतों में और उत्तर भारतीय लोगों में खासी लोकप्रिय हैं । बेशक आज भी हिंदी टीवी और सिनेमा में दक्षिण भारतीय झलक बहुत कम दिख रही है , मगर पिछले कुछ समय में दक्षिण भारत की प्रसिद्ध फ़िल्मों का रिमेक और उनका हिंदी डब किया हुआ वर्जन लोगों द्वारा पसंद किया जा रहा है । किंतु दक्षिण भारतीय अभिनेता और अभिनेत्रियों को बौलीवुड में अभी वो पहचान बनाने में अभी काफ़ी समय लगेगा । जहां तक दक्षिण भारतीय पर्व त्यौहारों की बात है तो शायद ही कभी ये पाया हो कि कोई दक्षिण भारतीय त्यौहार बडे छोटे पैमाने पर उत्तर भारत में मनाया गया हो ।

भारत शुरू से ही विविधताओं से परिपूर्ण देश रहा है और इस देश की वैविध्यपूर्ण इतिहास जितना अधिक कौतुहल भरा रहा है उससे अधिक ये बात सबको आश्चर्य में डालती रही है कि इस विविधता के बावजूद एक सूत्र में कैसे सब कुछ पिरोया हुआ है । अब जबकि पूरा विश्व ही एक वैश्विक ग्राम के रूप में परिवर्तित हो गया है तो आने वाले समय में ये देखना भी दिलचस्प होगा कि दक्षिण भारत के किसी शहर में होली का कोई जोगीरा खूब जोर शोर से गाया जा रहा हो और ऐसे ही गुजरात के किसी शहर में पोंगल का उत्सव खूब उत्साह के साथ मनाया जा रहा हो । 

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

ब्लोग्गिंग के स्वरूप को लेकर मेरी दुविधा


पिछली पोस्ट के समय मन की स्थिति कैसी थी , शायद बताने की जरूरत नहीं है, इसलिए तब जो भी पहली बात मन में आई वो जस की तस सामने रख दी । बिना किसी बात की परवाह किए । पिछली पोस्ट में आई प्रवीण शाह जी की टिप्पणी ,"
ब्लॉगिंग एक ऐसा माध्यम है जिसमें हर वो बात देर-सबेर लिखी जायेगी... जो आदमी के दिमाग में चलती है...यही ब्लॉगिंग की ताकत भी है... इन सब बातो से इतना परेशान या ऑफेंडेड होने की आवश्यकता नहीं... आभिजात्य सौन्दर्यबोध रखने वालों के लिये तो नहीं ही है ब्लॉगिंग "

ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया , और मैं बार बार यही सोच रहा था कि , आखिर क्यों , ये अपेक्षा क्यों । क्या इसलिए कि मैं खुद हिंदी ब्लोग्गिंग से जुडा हुआ हूं । क्या इसलिए कि जब मैं दूसरे लोगों को सीना फ़ुला कर ये कहता हूं कि हां मैं भी ब्लोग्गिंग करता हूं हिंदी में तो उस वक्त मुझे ये अपेक्षा रहती है कि सामने वाला कहेगा वाह । और जब पाता हूं यहां की स्थिति तो खुद ही अपने मुंह से निकलता है आह ।

अपनी खुद की टिप्पणी में मैंने लिखा ,"कल मन विक्षुब्ध था और उत्तेजित भी , इसलिए जो दिल ने सोचा कहा वो जस का तस आपके सामने रख दिया , और उस पर आपने जो सोचा जाना वो मेरे साथ और पूरी ब्लोगजगत के साथ बांटा । अक्सर बिना मोडरेशन वाले मेरे जैसे ब्लोग्स उन ब्लोग्गर्स के लिए अखाडे की तरह बन जाते हैं , और वो खुल कर अपने जौहर दिखाते हैं , खैर ये तो .....और यही तो ब्लोग्गिंग है । संकंलकों का अपनी नीति है अपना फ़ैसला है , मेरे मन में जो था वो मैंने कह दिया , और भविष्य में भी ऐसा नहीं करूंगा इस बात की कोई गारंटी भी खुद को नहीं दे सकता हूं । बस इतना चाहता था और आगे भी चाहता रहूंगा कि , सिर्फ़ चंद लोग मिलकर पूरे ब्लोग जगत का माहौल बिगाड सकने की क्षमता रखते हैं तो ऐसे में किंकर्तव्यविमूढ होकर चुप बैठे रहना ऐसे लगता है जैसे अचानक फ़ालिज़ का दौरा पडने पर तन मन सब शिथिल हो गया हो हो । आज इससे ज्यादा कुछ कहने का मन नहीं है"

अब सवाल ये कुरेद रहा था मन को कि प्रवीण जी की बात तो सही है सौ आने खरी भी , आखिर ब्लोग्गर तो मैं तब भी था न जब टिप्पणी तो टिप्पणी पोस्ट भी रोमन में ही लिख डाली थी , शुरुआत की पोस्टें गवाह हैं । उसे आज कोई पढ ले तो यही कहेगा , लो ये हैं हिंदी के ब्लोग्गर । और आज भी जब कोई कहता है कि हिंदी ब्लोग्गिंग में जाने कितना कचरा भरा पडा हुआ है , तो क्या जाने उसका आशय , पोस्टों से होता है , उसका आशय बेतरतीब ढंग से एक ही ब्लोग में कविता, कहानी, कार्टून, समीक्षा , सब कुछ परोसे जाने को लेकर होता है , या शायद उस सबसे बढकर कभी धर्मवादियों के लगातार चल रही रेस को लेकर तो कभी बात बेबात दो नियमित लेखकों के बीच होने वाले वैचारिक मतभेद से शुरू होकर मनभेद और कभी कभी अपमानजनक स्थिति तक पहुंचने वाले हालातों को लेकर होता है ।ये सच है कि इन सबके बावजूद भी अब भी जब कोई हिंदी ब्लोग्गिंग को अपने निशाने पर रखता है तो मुझे कष्ट होता है , शायद नहीं होना चाहिए , मगर होता है , और ये सच है । और ये कष्ट तब और बढ जाता है या कहूं कि क्रोध में बदल जाता है , जब कोई बाहर का ये सारी बातें करता है ।

मैं कभी कभी दुविधा में पड जाता हूं ब्लोग्गिंग के स्वरूप को लेकर । ये जो भी होता दिखता है , मतभेद , मनभेद , एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड ( फ़िर चाहे वो शब्दों की कलाकारी के सहारे हो या सीधे सीधे अपमानित करने के अंदाज़ में ), बेनामी बनकर /रहकर मन की भडास निकालने की बढती प्रवृत्ति आदि तमाम तरह की बातें तो लगता है कि चाहे कितनी भी रफ़ू की जाए मगर ब्लोग्गिंग का ये कच्चा रूप ही सबसे शुद्ध रूप है blogging is pure ,only when it is raw ,  हम इसे किसी भी तरह से सजाते संवारते हैं , सुधारते हैं तो उसमें ब्लोग्गिंग का जो मौलिक चरित्र है उसमें कमी लाने की कोशिश की तरह होता है । हिंदी ब्लोग्गिंग में ये और भी ज्यादा हो पाता है क्योंकि जाने अनजाने सब एक दूसरे को पाठक के तौर पर लेखक के तौर पर जानने के अलावा भी जानने समझने लगते हैं ।सामुदायिक ब्लोग्स में सहयोग देने वाले ब्लोग्गर्स किस तरह कितने दिनों तक अपरिचित बने रह सकते हैं ये देखना दिलचस्प होता है ।


दूसरी तरफ़ जब पाता हूं कि हिंदी ब्लोग्गर्स एक दूसरे का सुख दुख बांट रहे हैं , बिना ये जाने कि वो किस शहर , किस कस्बे , किस धर्म , किस जाति का है । एक दूसरे की मुश्किलों में साथ आ जाते हैं , बेशक बहुत बार आभासी और बहुत बार वास्तविक भी , मौके बेमौके आपस में मिल बैठते हैं कभी मीट के बहाने ,तो कभी बैठक के बहाने , एक दूसरे को जानते हैं समझते हैं । एक दूसरे के मान अपमान को अपना समझते हैं , तो क्या इससे ब्लोग्गिंग का चरित्र बदल जाता है । क्या इससे गुट बन रहे हैं , या बन जाते हैं , क्या मैं भी उन गुटों का हिस्सा बन जाता हूं , अगर हां तो मुझे क्यों नहीं दिखता उस गुट का कोई भी । क्या इससे सचमुच ही कोई फ़र्क पड रहा है ब्लोग्स को पढने में , उन्हें समझने में , उन पर खुल कर टिप्पणी करने में ?? बहुत से प्रश्न उमड घुमड रहे हैं मन में , अगले कुछ समय तक उनके उत्तर तलाशूंगा ।और हां ये सच है कि हिंदी ब्लोग्गिंग पर लिखना मुझे पसंद है फ़िर चाहे इसके लिए मेरे ब्लोग को हिंदी ब्लोग्गिंग के नाम पर हमेशा रोने धोने वाले ब्लोग की श्रेणी में ही क्यों न रखा जाए ।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

ब्लोगवाणी और चिट्ठाजगत, से आग्रह कि वे मेरे ब्लोग्स को हटाने पर विचार करें


पिछली पोस्ट में मैंने लिखा था कि एक निश्चित समय के बाद मैं ब्लोगवाणी और चिट्ठाजगत , संकंलकों के संचालकों से आग्रह करूंगा कि , वे सही निर्णय लेते हुए ये फ़ैसला करें कि , हिंदी ब्लोग्गिंग में जो भी गंदगी धर्म , जाति आदि के नाम पर फ़ैलाने की कोशिश की जा रही है , फ़िर चाहे वो हिंदू धर्म के नाम पर हो रही हो या मुस्लिम धर्म के नाम पर , या किसी और ही धर्म के नाम पर ,यदि उसे रोकने के लिए सच में ही कुछ नहीं किया जा सकता है , या करना ठीक नहीं होगा तो फ़िर , हम जैसे ब्लोग्गर्स को अपने यहां स्थान न देने जैसे फ़ैसले पर विचार करना चाहिए ।

इसलिए ज्यादा नहीं लिखते हुए इस पोस्ट के माध्यम से सिर्फ़ ये आग्रह करना चाहता हूं कि नीचे मेरे ब्लोग्स की सूची है , उसे हटाने पर विचार करें । वैसे मैं अलग से मेल करके भी यही आग्रह कर रहा हूं ॥

कुछ भी कभी भी

झा जी कहिन

रद्दी की टोकरी

आज का मुद्दा,

खबरों की खबर

टिप्पी का टिप्पा टैण टैनेन


समय के साथ साथ इनमें से कुछ ब्लोग इतिहास के पन्नों में खो जाएंगे । इसी के साथ अभी से जिन ब्लोग्स में मेरी सहभागिता है उनसे मैं अपना नाम भी हटा रहा हूं । ये सब मेरा फ़ैसला है , और जाने क्यों लिया है , बस ले लिया है ।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

द जजमेंट डे, ...... एक फ़ैसला , ....एक आग्रह , .संकंलकों से ..और चंद बातें .....



पिछले कुछ दिनों से हिंदी ब्लोगजगत में कुछ अजीब तरह का माहौल बनाया जा रहा था । अब ये किस उद्देश्य को लेकर किया जा रहा था क्यों या किनके द्वारा किया जा रहा था और अब भी बदस्तूर जारी है अब उन बातों का जिक्र करने का कोई औचित्य नहीं है , क्योंकि सब कुछ खुली किताब की तरह स्पष्ट है । हालांकि मैं पहले दिन से ही कह रहा हूं कि ये सब एक एजेंडे के तहत ही किया जा रहा है । ब्लोगजगत को इस अंधे भटकाव से बचाने का सबसे अच्छा उपाय तो यही था कि सबसे पहले तो ऐसे ब्लोग्स को संकंलकों द्वारा अपने यहां जगह ही नहीं देनी चाहिए थी , और शायद पहले था भी ऐसा ही, कम से कम ब्लोगवाणी पर तो था ही । मगर ब्लोगवाणी के दोबारा सक्रिय होने के बाद जिन किन बदली हुई नीतियों के तहत उन्हें प्रवेश मिला । शायद तब संकंलकों को ये अंदाज़ा ही नहीं था इस बात का । खैर , मगर अब जबकि वैसा कुछ नहीं हो पाया तो जिस दिन से ये सारा खेल शुरू हुआ उसी दिन से इस बात के उपाय करने चाहिए थे । मसलन कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए थी कि जो भी पोस्टें इस मंतव्य से लिखी जा रही थीं या उन पोस्टों की प्रतिक्रिया , स्वरूप भी लिखी जा रही थीं , उन्हें भी सीधा बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए था । मगर जाने ये भी संकंलकों के हाथ में है नहीं । मगर अब स्थिति विकट होती जा रही है । पूरा माहौल दूषित होता जा रहा है , और इसकी सडांध अब फ़ैल रही है । कहीं ऐसा न हो कि हिंदी ब्लोग्गिंग को जी भर के कोसने वालों को इस नायाब से भुनाने वाले मुद्दे का पता चल जाए और वे फ़िर इसी बहाने से अपनी राय जाहिर करें ।


आज मैं ब्लोगवाणी, और चिट्ठाजगत , (चूंकि ये दोनों ही आज हिंदी ब्लोग्गिंग के सबसे लोकप्रिय संकंलक हैं ) से इस पोस्ट के माध्यम से सिर्फ़ एक गुजारिश कर रहा हूं कि आप अब फ़ैसला लें कि आपको किस तरह के ब्लोग्गर्स चाहिए । जैसा आजकल खूब हंगामा मचाए हुए हैं वो या उनके अलावा जो बचे हुए ब्लोग्गर्स हैं वो । नहीं मैं ये दलील कतई मानने को तैयार नहीं हूं कि ऐसा संभव नहीं है । क्योंकि बहुत बार ये किया जा चुका है ।और उनके लिए भी जो ये कह रहे हैं कि इनकी उपेक्षा से इसका हल निकल सकता है , उनके लिए सिर्फ़ इतना कि ये उतना भी आसान नहीं है , जब बेवजह किसी का नाम लेले कर उसे गालियां दी जा रही हैं । किसी के मजहब , धर्म को निशाना बना बना कर उसे चोट पहुंचाने का काम किया जा रहा हो । इसलिए मैं संकंलकों से अभी आग्रह कर रहा हूं कि वे इस दिशा में अब कोई ठोस कदम उठाएं , अन्यथा एक निश्चित समय बाद मैं उनसे अपने ब्लोग्स को हटाने का आग्रह करूंगा । निर्णय जो भी होगा मुझे मान्य होगा ।और इस निर्णय के बाद जो करना होगा वो हम खुद ही कर लेंगे , जिसकी घोषणा मैं पहले भी कर चुका हूं और शायद अब समय आ गया है वो करने का ॥



दूसरा फ़ैसला ये कि अब आगे से "झा जी कहिन "ब्लोग पर या किसी और भी ब्लोग पर चर्चा वाली , लिंक्स वाली या कोई भी इस तरह की पोस्टें मेरे द्वारा नहीं आएगी । मन तो कर रहा है कि झा जी कहिन ब्लोग को सिरे से ही मिटा दूं । मगर ऐसा सिर्फ़ इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योंकि इसके साथ बहुत सारे लोगों की टिप्पणियां , उनका स्नेह जुडा हुआ है । हां जो चर्चा पोस्टों को ध्यान में रख कर उसके अनुसरणकर्ता बने हैं उनके लिए अग्रिम क्षमा चाहता हूं । ये फ़ैसला भी कई कारणों से लेना पडा है । सुना है कि चर्चा ही सारे फ़साद (जो कि ब्लोगजगत में धर्म विषयक पोस्टों के इतर चल रहे हैं ) की जड है । तो कम से कम मैं नहीं चाहता कि मेरी पोस्टें किसी भी तरह के मनमुटाव, पक्षपाती होने का कारण बनें । खुशी की बात है कि आजकल बहुत सी चर्चाएं हो रही हैं तो ऐसे में एकाध के नहीं होने से बहुत फ़र्क नहीं पडेगा ।उम्मीद है कि आप मुझे समझ सकेंगे ॥

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

अब सिर्फ़ चिट्ठा नहीं , अब चिट्ठी भी...................




आज जाने इस गर्मी में क्या सूझा कि खोल कर बैठ गए अपने एक पुराने संदूक को , बहाना तो था साफ़ सफ़ाई का । उस संदूक पर पडी हुई धूल की पर्त मुझे कई दिनों से चुभ रही थी ,मगर उससे ज्यादा लालच इस बात का था कि रोज के दर्जन भर अखबारों और बहुत सारी पत्र पत्रिकाओं को पढने हुए उनमें से काट काट कर जो कतरनें बेतरतीबी से उन जैसे संदूकों, लिफ़ाफ़ों, और फ़ाईलों में ठूंस देता हूं , वो फ़िर दोबारा की जाने वाली पडताल में और भी दिलचस्प और उपयोगी होकर मेरे हत्थे चढती हैं । क्योंकि इस बार मैं उन्हें उनके लायक ठिकाने पर पहुंचाने की जुगत भी साथ साथ ही करता चलता हूं । इसकी बानगी बहुत जल्द आपको ब्लोग औन प्रिंट पर देखने को मिलेगी जहां ब्लोग्गिंग से जुडी ऐसी ही कई पुरानी कतरनें आपको देखने पढने को मिलेंगी , जो आज तो दुर्लभ कैटेगरी में मानी ही जा सकती हैं । खैर इसे छोडता हूं । तो जैसा कि मैं कह रहा था कि आज "संदूक में संडे " मनाने का पूरा आयोजन बन चुका था हमारा । मगर जब खोला तो वो संदूक निकल आया ढेर सारे पत्रों से भरा हुआ संदूक । जो बरसों पहले लिखे, पाए गए थे ।


           जब भी कोई ऐसा अवसर आता है तो मुझे नहीं पता कि ये मानव मन की कौन सी क्रिया के तहत होता है और ये भी नहीं कि ऐसा सिर्फ़ हम जैसे कागजी कीडों (ये उपमा , हमारे जैसे लोगों को उनकी श्रीमती जी द्वारा अक्सर युनवर्सिली दिया जाता है )में ही होता है , मगर इतना है कि ऐसे अवसरों पर हम अक्सर पूरी बेशर्मी से अपने सारे नियमित अनियमित कामों को छोडछाड कर पूरी तरह रम जाते हैं उन कागजी चीथडों में , आखिर कागजी कीडे जो ठहरे । ओह ! एक एक पत्र ,जैसे यादों की वो पर्तें खोलता जा रहा था , जो मन के किसी कोने में ,कबकी दुबक कर चुपचाप गहरी नींद सो चुकी थीं । उन्हें भी पता था कि आज के इस बदलते दौर में जहां , संवाद शब्दों से निकल कर ध्वनि में रूपांतरित हो चुके हैं , और प्रतीक्षा के क्षणों,दिनों को मिटाते हुए त्वरित हो चुके हैं , उस दौर में अब कोई चिट्ठी पत्री लिखने पढने और उसकी बातें करता भी बेमानी सा ही दिखता है । आज चिट्ठीपत्री के रूप में अधिकांशत: सिर्फ़ व्यावसायिक पत्र व्यवहार ही सीमित रह गया है । अब तो कोई भी जगह इतनी दूर नहीं रही जहां मोबाईल के एसएमएस संदेश की पहुंच न हो या कि उसकी घंटी न सुनाई दे सके , कोई इतना गरीब नहीं है जो कि इन संदेशों को पढ सुन सके ।

साकेत , मेरा स्कूल के दिनों का मित्र , कुल अट्ठाईस पेज (जो कि किसी स्कूल की कौपी से ही फ़ाडी थी उसने ) का वो अनोखा पत्र जिसमें उसके बहुत से जुनून का जिक्र था । कहता था यार अजय कुछ अलग करने के लिए कुछ अलग सोचना पडता है , मैं सोच रहा हूं कि दुनिया का सबसे लंबा पत्र लिख डालूं तेरे नाम से ही , और भी बहुत सी ऐसी ही योजनाएं । स्व. ईच्छावती दीदी का आखिरी पत्र जिसमें सिर्फ़ दो लाईने लिखीं थीं , अजय तबियत ठीक नहीं है , शायद ये आखिरी पत्र हो ( इच्छावती महापात्र दीदी जिनसे मेरी मुलाकात एक रेल यात्रा के दौरान हुई थी और वो हमारी पहली और आखिरी मुलाकात थी ) ,शशि और सरोज मिश्रा , दो जुडवा बहनें , जो मेरी क्लास में थीं , उनका पत्र , लखनऊ पहुंच चुके हैं अजय , अभी शहर नया नया है , जल्दी ही एक नए बसने वाले गोमती नगर में  शिफ़्ट होने वाले हैं , तुम तो रहे हुए हो न लखनऊ में , यहां घूमने वाली जगहों के बारे में बताना , और मैंने बताया भी था । सोचता हूं कि अब वो वो अपने बच्चों ओ घुमा रही होंगी , लखनऊ का बोटैनिकल गार्डन , या फ़िर वो कुकरैल वन , या प्रकाश कुल्फ़ी की वो बडी सी दुकान ।ओह ये किसका पत्र है , विमल भईया की कनिया का , बौआ , अब सुना है कि आपका दिल्ली में ही कोई चक्कर चल रहा है , इससे मुझे भान हो गया है कि आप मेरी बहन से विवाह नहीं करेंगे । दुख हुआ मुझे जानकर , मगर यदि फ़िर भी वहां बात न बने तो आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी मुझे ।और पूरा बक्सा , जैसे जीवन के कितने टुकडों को जीता चला गया मैं ।

मुझे याद है कि जब मेरे पत्र दूसरों को मिलते थे वो वो कहते थे , यार क्या चिट्ठी लिखते हो , सारे संभाल कर रख लिए हैं हमने । आज भी अपने हाथ से कार्ड बना कर नववर्ष पर भेजने की परंपरा को किसी तरह निभाता जा रहा हूं । जबकि अब तो जवाबी कार्ड की जगह जवाबी फ़ोन या जवाबी मैसेज आ जाता है जो शायद किसी और के द्वारा किए गए मैसेज को ही फ़ारवर्ड किया गया होता है । इस कंप्यूटर पर लिखने की आदत ने एक और जो नुकसान कराया है वो है लिखने की आदत । हाथों से कागज पर अपने अंदाज़ में कलम घसीटी का जो मजा है वो इस कंप्यूटर में कहां नसीब होती है । अब भी पहले कोई आलेख , व्यंग्य , कागज पर ही लिखता हूं फ़िर उसे टाईप करता हूं । हां ब्लोग लिखने के लिए वो पद्धति नहीं अपनाता । शाम तक जाने कितने दोस्तों को गले लगा चुका था , जाने कितनों की कल्पना कर चुका था उनके आज के जीवन के बारे में । तो अब सोचा ये गया है कि बस बहुत हुआ , चिट्ठा लिखना ही तो सब कुछ नहीं है , कल से चिट्ठी भी लिखना दोबारा शुरू करना है , बेशक शायद जवाब न मिले बहुत बहुत दिनों तक , मगर कभी न कभी वे भी शायद ऐसा ही कोई बक्सा खोल बैठें ...................

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

समाज सिर्फ़ महानगरों में ही नहीं है , जरा गांव में भी झांकिए न ......

आखिर किस शहर में है ये खूबसूरती और सकून


जब भी अपने आसपास की खबरों पर नज़र डालता हूं तो देखता और पाता हूं कि हमेशा ही जिस समाज की , उसमें हो रहे बदलावों की , वो अपनाए जा रहे चलनों की बात होती है तो वो सिर्फ़ और सिर्फ़ शहरी समाज तक ही सीमित होकर रह जाती है । सब कुछ जैसे शहरों में ही घट रहा हो , वहीं पर रह रहे लोगों मात्र का ही अस्तित्व हो जैसे इस देश में , इस समाज में इससे परे कहीं कुछ भी नहीं हो रहा है । और शहरों में भी त सब कुछ जैसे एक मशीनी ढर्रे पर ही चलता है ।वो चाहे किसी परिवार की दिनचर्या हो या किसी अपराध की बात हो या किसी दुर्घटना की , देख सुन कर तो यही लगता है , अरे ये तो अभी बस अभी कुछ देर पहले , कुछ दिन पहले ही तो घटा था । इतना ही नहीं कमोबेश यही हाल यहां मनाए जा रहे त्यौहारों , उत्सवों , और निजि दावतों का भी है । किसी भव्य स्थान पर बनावटी पंडालों और मसालेदार लजीज़ खानों के बीच सभी पुते हुए चेहरे , दुकान से कोई उपहार खरीद कर और उस पर जबरद्स्त सी एक कृत्रिम मुस्कुराहट की पैकिंग करके पकडाते हुए ऐसे लगते हैं , मानो जैसे आप सुबह उठ कर रोज नित्य क्रिया से निवृत्त हो रहे हों । यहां सब कुछ वही होते हुए भी वही नया है , वही खबर है , वही चलन है , वही फ़ैशन है । मगर क्या सचमुच ही ही बस यही है देश , यही है समाज है ।

मेरे मोबाईल से ,गांव में लगे हुए एक साप्ताहिक हाट की फ़ोटो

      बेशक आज ग्रामीण क्षेत्र की आधी से अधिक आबादी अनेक कारणों से शहर की ओर पलायन कर चुकी है । बेशक कभी सुदूर देहात कहलाने वाले गांव कस्बे भी अब बहुत से नए साधनों और संसाधनों से लैस होकर छोटे नगर का रूप धारण कर चुके हैं । इसके बावजूद भी अभी भी गावों में भारतीय परंपरा, संस्कार, अपनापन , आपसी सहभागिता का जो स्थायित्व बना हुआ है वो ही असली भारत की पहचान है । बेशक आज भारत इस बात पर इतराए कि उसने अपने दम पर चांद पर अपना कदम रख दिया है मगर भारत की असली उपलब्धि तो यही होगी कि सवा अरब की जनसंख्या को खिलाने पिलाने लायक अन्न जल उसके पास मौजूद है । और यदि ऐसा संभव है तो ये सिर्फ़ ग्रामीण समाज में रह रहे उन किसानों , उन श्रमिकों के कारण ही है जिन्हें आज के इस आधुनिक शहरी समाज ने अपने पीछे उपेक्षित छोडा हुआ है । इतना ही नहीं आज जिस प्रदूषण को बढते हुए चुपचाप शहरी समाज देख रहा है और इसके बाद भी उसमें वृद्धि के लिए जिम्मेदार बन रहा है , यदि वो अब तक पूरे शहरों को लील नहीं गई है तो वो सिर्फ़ इसलिए कि आज भी हर साल गावों में सैकडों पेड पौधे लगाए जाते हैं । आज जो भी हरी सब्जियां ,और  जो मौसमी फ़ल स्वाद ले ले शहर के लोग खा रहे हैं वो सब उसी ग्रामीण समाज की बदौलत है ।

डा. अनीता कुमार जी के ब्लोग से साभार

इस समाज की सुध लेने वाला आज कोई नहीं है । किसी भी समाचार माध्यम , किसी भी स्वयंसेवी संस्था ,किसी बडे अधिकारी , मंत्री को आज फ़ुर्सत नहीं है कि वो इनके लिए कुछ सोचे करे भी । और तो और जरा इस तथ्य पर नज़र डालिए । पिछले दिनों जब कुछ चिकित्सकों से कहा गया कि उन्हें अपनी सेवा का थोडा सा कार्यकाल ग्रामीण क्षेत्रों के लिए भी देना होगा तो उन्होंने उससे बेहतर त्यागपत्र देना समझा ,और दे दिया । ग्रामीण क्षेत्र में आज जिस बात की सबसे ज्यादा जरूरत है वो है , शिक्षा और चिकित्सा  की समुचित व्यवस्था । सबसे दुखद बात तो ये है कि आज उनकी उपेक्षा वो भी कर रहे हैं जो वहां से निकल कर यहां बडे बडे महानगरों की चकाचौंध में कहीं खोए इतराए फ़िर रहे हैं । आज तो हालत ये हो चुकी है कि अब तो उन्हें अपने परिचय के पार्श्व से उस स्थान, उस कस्बे, उस गांव का नाम जुडे होने में भी कोफ़्त होने लगती है जिसके बिना शायद उनका वजूद ही नहीं होता । ठीक है जी ठीक है , करो जो करना है , अभी तो जिस पानी की कमी , आटे दाल , दूध सबजी की महंगाई का रोना लेकर चीख पुकार मची हुई है , समय आने पर उन सबकी तलाश में ही सही उन गावों की , उन खेतों खलिहानों की सुध तो ली ही जाएगी ।


मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

एलेक्सा ने मुझे मना कर दिया रैंकिग देने से .......

हम तो जोरदार नंबर लेने के लिए पहुंचे थे


समाचार तंत्र बार बार दिखा सुना रहे हैं कि इस साल गर्मी बहुत ज्यादा पडने वाली है पडने क्या वाली है , पड ही रही है । और इसका प्रभाव सिर्फ़ बाहरी जीवन में ही नहीं पड रहा है ..इस बढते हुए तापमान का असर तो इन दिनों हिंदी ब्लोग्गिंग में भी पडता दिख रहा है ( देखिए एक तो जैसे ही मैं ब्लोग्गिंग के साथ हिंदी को जोड देता हूं कईयों के कलेजे पर सांप लोटने लगते हैं ) उनका कहना ये है कि मैं बार बार हिंदी ब्लोग्गिंग हिंदी ब्लोग्गिंग ही क्यों करता जपता रहता हूं । मैं भी क्या करूं जी ...मजबूर हूं ...आखिर आज तक मेरी पोस्ट पर किसी चीनी, जापानी , फ़्रांसीसी ने टीप दी है क्या । हां अंग्रेजी में आती रहती हैं कभी कभार ...तो एक पल को लगा कि या तो जरूर सीधा इंगलैंड से ही कोई पाठक होगा या फ़िर जरूर कोई भारतीय मूल की विदेशी अभिनेत्री होंगी जो अभी हिंदी सीख रही होंगी ..इसलिए तब तक अंग्रेजी में टीपती होंगी ....मगर सारी खुशी काफ़ूर हो जाती है कि वे तो अगली गली में रहने वाला /वाली को ब्लोग्गर निकली । कुल जमा जोड एक ही एलियन हैं जो पोस्ट पर लैंड होते हैं ..मगर वो खुद ही हिंदी ब्लोग्गिंग हिंदी ब्लोग्गिंग कहते हैं ..फ़िर मैं तो निरा इंसान ठहरा ..तो मैं क्यों न कहूं हिंदी ब्लोग्गिंग हिंदी ब्लोग्गिंग । खैर आज मुद्दे की बात ये नहीं है , आज तो बात बहुत ही गंभीर है ..। अभी कुछ दिनों पहले ही एलेक्सा रैंकिंग को लेकर जानकारी देने वाली एक पोस्ट पढी थी । हमें भी जिज्ञासा हो ही गई ..यार ये जिज्ञासा हमेशा ऐसे मौकों पर फ़ट से कैसे जाग जाती है पता नहीं । हमने भी ठान ही ली की अब जो हो अब तो हम भी रैंकिंग हासिल कर ही लेंगे ।

 अगले ही दिन हम भी नहा धो कर तैयार हो कर निकल पडे अलेक्सा रैंकिंग पाने । मगर अलेक्सा कौन सा हमारी मामू की सहेली थी जो हम धडधडाते हुए उनके पास पहुंच जाते हमने तो आज तक उनको देखा भी नहीं था । समस्या बडी ही विकट हो गई थी । सो सोचा ये गया कि जिन्हें जिन्हें ये अलेक्सा रैंकिंग मिली हुई है उनसे ही पूछा जाए । सब के सब पक्के दोस्त निकले ...जैसे आजकल कुछ मित्र बस प्रतीक्षा में रहते हैं कि कब हम कहें कि अब तो बहुत थक से गए हैं ब्लोग्गिंग करते करते ..वो कहेंगे कि ..शुभकामनाएं हैं जी ....ब्लोगजगत आपको हमेशा याद रखेगा । अलविदा । हाय री ऐसी मित्रता ..न छूटते बनता  है न ही टूटते बनता है । खैर जैसे तैसे हमने भी गूगल बाबा, ब्लोग्गर बाबा और भी जितने बाबा आजकल पुलिस से बच गए थे उन सबसे जुगाड करके अलेक्सा का सही पता ठिकाना मालूम कर ही लिया ।

  दफ़्तर में पहुंचे तो देखा कि , वहां तो एक लाईन से बहुत सारी मैडम बैठी हुई थीं । और सत्यानाश ये कि सब रैंकिंग बांट रही थीं ..लंबी लंबी लाईन लगी हुई थी । हम फ़ंस गए फ़ेर में गज़ब हो गया । अब यदि किसी और लाईन में लग गए और अलेक्सा की जगह ....मोनिस्का या ...सानिक्सा जैसी कोई रैंकिंग मिल गई तो सारी मेहनत बेकार जाएगी । हमने भी अनुमान से अंदाज़ा लगाया कि हो न हो ये सुनहरे बालों वाली ही अलेक्सा होंगी ।

देखिए , सुनिए, हमें आपकी रैंकिंग चाहिए ...मतलब अलेक्सा रैंकिंग । सुना आपने पिछले दिनों ही बहुत बांटी हैं । मैं तो जी बस धडाधड पोस्ट लिखने, टीपने , और जो फ़िर भी समय बच गया तो चर्चा ठूंसने में लगा रहता हूं ..आजकल खूब उठापटक चल रही है सो ओवर टाईम भी कर लेता हूं । इन सबके बीच एक गरीब की रैंकिंग का हक मारा जाए तो क्या ये अन्याय नहीं होगा ? आप तो कितने  अच्छे हृदय वाली लगती हैं ..मुझे भी दें आप ये रैंकिंग ।

उन्होंने धैर्यपूर्वक सुनने के बाद कहा , " ठीक है वैसे भी मैं शक्ल देख कर थोडी देती हूं ये रैंकिंग ...नहीं तो आप तो लाईन में भी लगने लायक नहीं लग रहे हैं । चलिए अपनी ब्लोग्गिंग के बारे में कुछ बातें बताईये , फ़िर मैं सोचती हूं कि क्या किया जा सकता है ??

मैंने फ़ौरन सोचा कि ओह आज मौका मिल ही गया । वैसे तो हमारा साक्षात्कार , सत्कार , और जितने भी अच्छे बुरे कार हैं न ( अब आप सब सीधा वो चतुर रामलिंगम वाला चमत्कार  और ...त्कार मत लगा लेना ) वो कोई लेता देता नहीं , तो आज खुद ही शुरू हो जाते हैं । यहां कौन सा कोई दूसरा प्रतिद्वंदी बैठा है जो हमारी बात काटेगा ।

अलेक्सा जी अब अपने मुंह से क्या कहें ..........हें हें हें ...हम पिछले ढाई बरस से घुसे हुए हैं जी इस दुनिया में । पिछले बरस तो डिब्बा (लैपटौप ) भी घर ले आए ताकि लैप में न सही टौप में तो आ ही जाएं । टौप में तो क्या खाक आते , पहले तो सारे लफ़डों झगडों का पता ही नहीं चलता । अब मरे कम्बख्त आंखें बंद करके भी ब्लोग्स को पढता हूं तो तापमान से ही सब पता चल जाता है । टिप्पणी भी करता फ़िरता हूं , और तो और अलेक्सा जी मैंने अपनी जेबखर्ची से ब्लोग्गर मीट भी करवाई । सुना कि इससे सोशल रिलेशन बनते हैं , आखिर इसी के लिए तो हम ब्लोग्गिंग करते हैं ..बस इसी के लिए करते हैं , ऐसा मुझे बताया है किसी ने । मगर सुनने को मिला कि पता नहीं इसके घर का खर्चा कौन चलाता है । बताईये अलेक्सा जी , इत्ती कुर्बानियां दी हैं । और सुनिए .पपलू की तरह कहीं भी फ़िट हो जाते हैं या कर दिये जाते हैं । और अपने मुंह से क्या क्या तारीफ़ करें ..लोग बाग कर रहे हैं आजकल एक दूसरे की जम कर खातिरदारी । ऐसी बात थोडी है कि हमारा कोई दोस्त नहीं है । बस अब तो आप रैंकिंग दे ही डालो ...हमें । हमें भी तो कुछ कमाई धमाई हो ..हम भी तो लाखों करोडों के वारे न्यारे करें । क्यों क्या कहती हो आप ?

"चल निकल यहां से ..कोई दूसरा ...............देख ." अबे तुझे ये तक तो पता नहीं कि इस रैंकिंग से कोई कमाई धमाई नहीं होती , बडा आया रैंकिंग वाला । और उसने मुझे भावभीनी विदाई देते हुए ..मेरे पिछवाडे ऐसी लात जमाई कि ...मैं बस बेहोश हो गया ..और बेहोशी में ही सारा हाल आप सबसे कह डाला ॥

मैडम अलेक्सा लात जमाते हुए

रविवार, 11 अप्रैल 2010

हिंदी ब्लोग्गिंग का संक्रमण काल शुरू हो चुका है ..घटियापन और गलीजपने की पराकाष्ठा देखनी है अभी तो ??


हिंदी ब्लोग्गिंग में आज जो भी हो रहा है , और उसे देख कर जो भी ब्लोग्गर्स अपने दांतों तले उंगली दबा रहे हैं , या दुख और शायद खुशी भी जाहिर कर रहे हैं , उनकी जानकारी के लिए नहीं भी तो नए ब्लोग्गर्स के लिए यहां ये बताना जरूरी हो जाता है कि अभी जिस स्थिति में हिंदी ब्लोग्गिंग को आप देख रहे हैं वो अब भी जी हां अब भी पहले से घट चुके संक्रमणकाल से बेहतर है । जी हां बिल्कुल ठीक पढा  आपने मैंने बेहतर ही लिखा है । कारण क्या दूं इसका , बस इतना समझिए न कि आज जो टूट फ़ूट , रूठना मनाना आप  देख रहे हैं वो तो बस एक छोटी सी बानगी भर है । अजी इससे पहले हिंदी ब्लोगजगत अपने शुरूआती दौर में ही जैसे घिनौने माहौल और गलीज़ कुत्ताघसीटी से गुजर चुका है ,उसकी तो अब कल्पना करना भी दुष्कर है । पहले तो एक दूसरे को बलात्कारी और फ़िर बात घर तक और शायद एक दूसरे की मां बहन ..छोडिए पुरानी बातें । 

 इन दिनों फ़िर से एक बार लग रहा है कि हिंदी ब्लोग्गिंग धीरे धीरे एक दुष्चक्र में फ़ंसती जा रही है । हालांकि अभी कुछ समय पहले भी धर्म की व्याख्या करने वाले पंडितों और मौलवियों ने अपने पूजा और नमाज का सारा वक्त भी शायद यहीं देना शुरू कर दिया । लेकिन थोडे समय बाद ही उसका प्रभाव कम हो गया था । सबसे लोकप्रिय संकलक ब्लोगवाणी के दोबारा शुरू होने पर अब ये पूरे उफ़ान पर है । एक से एक बढ कर डाक्टर , इंजिनीयर , वैद्य हकीम , सब कमाल कमाल के शोध और उसके नतीजे परोस रहे हैं । न तो पिछली बार ही इन सबका मकसद समझ आ रहा था , न इस बार ही । कम्बखत ये भी तो नहीं बताते कि ये सब पढ कर कितने मुसलमान हिंदू बन गए और कितने हिंदू मुसलमान । या शायद मेरा ही भ्रम हो ये सब कुछ और ही साबित करने के लिए किया लिखा जा रहा हो  । वैसे सच कहूं तो मैंनें इतना उच्च कोटि का धर्मशास्त्र विद तर्कशास्त्र को कभी समझने की कोशिश की भी नहीं । पहले  ही देख रहा था कि जो जो ऐसी कोशिश कर रहा था वो भी अपनी मूल ब्लोग्गिंग को छोड रोज इनकी बात का जवाब ढूंढने में  ही लगा हुआ है । कभी कभी तो लगता है कि हिंदी ब्लोग्गिंग में हिंदुस्तान पाकिस्तान युद्ध लडा जा रहा है । शायद समय आ रहा है कि संकंलकों से ये गुजारिश करनी पडेगी कि ...प्रभु या तो हम जैसे आम इंसानों को ही अपनी शरण में रखो .....या फ़िर इन गुणी जनों को ही पर्याप्त सम्मान दो ।

मुझे याद नहीं कि ब्लोग्गिंग के शुरूआती दिनों में कभी किसी क्षेत्र विशेष को लेकर ऐसा कुछ कहा लिखा गया हो कि फ़लाना राज्य के ब्लोग्गर्स , या कि फ़लाना समूह के ब्लोग्गर्स । मगर पिछले कुछ समय में ही देखा और पाया कि बातें निकलनी शुरू हुईं , इलाहबादी ब्लोग्गर्स , छत्तीसगढ के ब्लोग्गर्स ,लखनऊ ब्लोग्गर्स ...और जाने ही कितने । हालांकि हिंदी ब्लोगजगत , का ये एक चरित्र रहा है कि ये आभासी होते हुए भी बहुत हद तक आभासी नहीं रह पाया । और फ़िर यदि एक ही स्थान से , एक ही शहर से , एक ही राज्य से , एक ही क्षेत्र से ब्लोग्गिंग करने वाले साथी आपस में एक दूसरे से मिल गए , जानपहचान हुई और इसके बाद जो नतीजे निकले , उसीका परिणाम था ये ब्लोग्गिंग में क्षेत्रविशेष का उल्लेख होना करना , जो शायद स्वाभाविक ही था । मगर दिक्कत वहां शुरू हुई जहां से सभी ब्लोग्गर्स के अलावा भी इसी समाज के फ़ितरत के अनुरूप ही व्यवहार करने लगे , ऐसा मेरा अंदाज़ा मात्र है । छोटा सा उदाहरण ये है कि अभी हाल में श्री अनिल पुसदकर जी और ललित शर्मा जी के बीच किसी गलतफ़हमी की बात कही जा रही है , ये गलतफ़हमी शायद इसीलिए हुई क्योंकि दोनों ब्लोग्गर्स मित्र एक दूसरे से परिचित थे , यदि न होते तो शायद इस गलतफ़हमी की कोई गुंजाईश भी नहीं होती । और अनिल जी की उस टिप्पणी के विरोध में आहत होकर , नाराज होकर या क्षुब्ध होकर ललित जी ब्लोग्गिंग छोडने का निर्णय करने की बजाय कोई ठसकदार पोस्ट लिख कर उसका जवाब देते ।खैर देर सवेर तो ये गलतफ़हमियां दूर होंगी ही । मगर यहां मुझे गिरिजेश राव जी की बात ही सामने रखनी पडेगी कि , यदि दूर से ही सुंदरता बरकरार रहती है और चेहरे के दाग नजदीक आने पर ही दिखते हैं तो फ़िर चेहरों को आमने सामने लाया ही क्यों जाए ।और आज यही सबसे बडा कारण है यहां चल रही किसी भी तरह की खींचातानी का ।

अब एक और मुद्दे की तरफ़ चलते हैं । ऐसी घटनाएं जब भी घटती है तो हिंदी ब्लोग्गिंग की दशा , दिशा और भविष्य पर भी खूब चर्चा होती है । और सबसे बडी बात तो ये है कि चर्चा में सब कूदते हैं , मैं , आप और हम सब ही । मगर उस समय ये भूल जाते हैं कि आखिर ये किया धरा भी तो हमारा आपका ही है न । कहने और गिनने को तो आज हिंदी ब्लोगजगत में पच्चीसों हज़ार ब्लोग्गर्स हैं , मगर यदि लिखने पढने और टिप्पणी करने में बार बार घूम फ़िर कर वही नाम सामने आते हैं तो उसका सिर्फ़ एक स्पष्ट कारण है कि ये सभी नियमित लेखक और पाठक हैं । और जिसे गुटबाजी कहा जाता है वो सिर्फ़ इन्हीं नियमित ब्लोग्गर्स में ही है । शुक्ल जी, पांडे जी, लाल जी, झा जी, शर्मा जी , शाह जी , दूबे जी , सहगल जी , मिश्रा जी, शास्त्री जी , आदि जितने भी जी लोग हैं , वो सब बदहजमी से पीडित लोग ही असल में इसकी वजह हैं । किसी ने ब्लोग्गिंग को हिंदी सेवा होना बताया , हमें हजम नहीं , किसी को कोई पुरस्कार मिला , चाहे वो ब्लोग जगत का ही कोई पुरस्कार क्यों न हो , हमें हजम नहीं होता , किसी को किसी की चर्चा हजम नहीं हो रही है किसी को ये हजम नहीं हो रहा कि उसकी चर्चा नहीं हो रही है । और हजम न हो तो न हो , उसके लिए दवाई हमें खुद को खिलानी चाहिए । मगर न जी हम तो उसे कारण बताते हैं कि वही है हमारी बदहजमी की वजह , जबकि मूलत: हम बदहज्म लोग ही हैं । जब देखते हैं कि बात आमने सामने कहने में झिझक हो रही है , झिझक इसलिए ही क्योंकि जानते हैं न एक दूसरे को , तो फ़िर लगते हैं एक दूसरे पर कटाक्ष करने , उससे भी बात नहीं बनी तो बेनामी बन लिया जाए । तब कौन रोक सकता है अपनी बदहजमी को अपनी बदनीयती के साथ परोसने से ।

  मैं सोच रहा हूं कि इधर कुछ दिनों से हिंदी ब्लोगजगत पर सबकी नजरें टिक रही हैं  , सभी जानने लगे हैं कि हिंदी ब्लोगजगत में लोग क्या पढ लिख रहे हैं , और कहां कैसे किस बात पर लड भिड रहे हैं तो बेशक ही विनीत कुमार अपनी पुस्तक में हिंदी ब्लोग्गर्स का बढिया बढिया नज़रिया छाप कर विद्यार्थियों को हिंदी ब्लोग्गिंग का उजला पक्ष दिखाने का प्रयास करें । मगर असलियत में जो चल रहा है उससे कभी आलोक मेहता जैसे संपादक को हिंदी ब्लोग्गिंग का उपहास उडाने तो कभी राजीव ओझा जी जैसे स्तंभकार जी को हिंदी ब्लोग्गिंग की टिप्पणियों के मनोविज्ञान पर एक nice  चपत लगाने और उससे भी ज्यादा कुछ ब्लोग्गर्स को ये कहने का अवसर तो मिल ही जाएगा कि ...लुक दिस इज योर्स हिंदी ब्लोग्गिंग , फ़िल्थी एंड स्टिंकिंग ........। अब ये तो तय हमें खुद करना है कि हमें कौन सी कैसी ब्लोग्गिंग चाहिए । मुझे इसका कोई शौर्टकट उपाय नहीं पता , न ही कोई होगा शायद । हां कुछ कोशिशें जरूर की जा सकती हैं । मसलन बन जाईये एक दूसरे से अजनबी, भूल जाईये कि आप जानते हैं किसी , यदि किसी से स्नेह , प्रेम , और यहां तक कि नफ़रत का कारण उससे पहचान भर होना है तो फ़िर यही उचित है । दूसरा और बहुत जरूरी उपाय है कि इतना लिखो , इतना लिखो ...मगर सकारात्मक , ..इतना प्यार उडेलो , इतने मुद्दे उठाओ कि ये सब अतडे पतडे ...उस सैलाब में बह जाएं या उस तूफ़ान में उड जाएं तिनके की तरह । ब्लोग परिकल्पना उत्सव जैसे प्रयासों को भरपूर समर्थन मिलना चाहिए , और ऐसे ही नए नए प्रयास शुरू किए जाने चाहिए । मैं खुद बहुत जल्द ही एक योजना की शुरूआत करने जा रहा हूं जिसमें प्रति माह एक ब्लोग्गर को उसके लेखन कार्य के लिए नकद रूप से पुरुस्कृत किए जाने की  योजना पर विचार हो रहा है । सप्ताह भर की पोस्टों पर आधारित स्तंभ ब्लोग बातें भी शुरू किया जा चुका है । तो अब तय हमें खुद करना है कि हिंदी ब्लोग्गिंग का भविष्य कैसा होना चाहिए .........??????????

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

बस इतना सा ख्वाब है .....पूरे हो जाएं तो कयामत होगी ..झा जी कहिन ..


कल तो आपने देखा ही था कि कौन मूड में था , एकदम से कंप्यूटर को पजिया के सो गया , बीच झपकी में ही उठ उठ कर टीपते रहे , पढते रहे ..ओह नहीं नहीं ..पढते रहे ..फ़िर टीपते रहे .............मगर फ़िर ।
ज्यादा की इच्छा नहीं है , कभी रही भी नहीं । और होती भी तो कौन सा पूरी हो जाती । शायद इसीलिए ही नहीं रही हो । मगर अब इंसान हूं तो छोटी मोटी , थोडी बहुत भी न हो तो फ़िर तो शक होना भी ज़ायज़ सा ही होगा कि आखिर कौन सा बुद्धत्व प्राप्त कर लिया जो इच्छा भी नहीं होती । जरूर निर्वाण प्राप्ति का मार्ग खुलने वाला होगा । मगर छोडिए न इन सब बातों को ...मेरा भी बस इतना सा ख्वाब तो है ही ..बस चुटकी भर है ..आप देखिए चुटकी यदि चिकोटी लगे तो इसमें मेरा क्या कसूर है जी ....खैर पहले ये तो देखिए ..

ख्वाब ये है कि सभी मंत्रियों के , आईएएस अफ़सरों , बडे बडे उद्योगपतियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में  पढ रहे हैं और ये जो बडे बडे कौन्वेंट स्कूल बने हुए हैं न एसी कमरों और स्वीमिंग पूल वाले , सब बैठे झख मार रहे हैं ..और उनके बाहर रेहडी लगाकर एक सेल्समैन बैठा है ...दाखिला करवा लो ..अपने बच्चों को यहां भेजें ...भाई के दाखिले पर बहन का दाखिला फ़्री ...जैसी आवाजें लगा रहा है । बस इतना सा ख्वाब है । 

ख्वाब ये है कि नियम कायदा बनाने का कायदा ..जनता के हाथ में आ गया है और उसने बनाया है कि कल से जो भी मंत्री, अधिकारी, उससे भी बडा अधिकारी , और बडा व्यापारी भी .....सब के सब अपना .....ईलाज़ सिर्फ़  और सिर्फ़ ...जी हां वही ..फ़िर वही ....सरकारी अस्पताल में करवा रहे हैं । सोचता हूं कि क्या उनसे डा. पांडे कभी कह पाएंगे कि देखिए जी यहां तो यही इलाज़ संभव है , मेरी मानिए तो यदि ठीक होना चाहते हैं तो कल को मेरे फ़लाना क्लीनिक या ढिमकाना नर्सिंग होम में आ जाईये सब हो जाएगा । बस इतना सा ख्वाब है ।

ख्वाब बस इतना सा ही है कि आम जनता के पास हर महीने एक फ़ार्म भरने जा रहा है , जिसमें लिखा हुआ है कि ..........क्या आपको लगता है कि इस महीने आपके जनप्रतिनिधि ने आपके लिए इतना काम किया है कि उन्हें उनकी इस महीने की तन्ख्वाह दी जाए ??जनता बहुमत से जो लिखे ...बस उसी हिसाब से वेतन मिले उन्हें । बस इतना ही तो है छोटा सा ख्वाब ।

ख्वाब ये भी है कि किसी दिन बस में साथ की सीट पर थरूर बैठे होंगे ...और मैं कह रहा होउंगा ..कि अरे आज आप भी हमरे साथ इसी कैटल क्लास में ....। का बात है सर ...बहुते ट्विटराते थे ...अब बस में बैठ के टरटरटराईए न तनिक ...। ए हो खलासी कंडक्टर जी ..दीजीए तो इनका भी टिकस ..हमरे ही बीस टकिया में से । बस एतने ख्वाब है जी ..और का ॥

अब का बताएं कि छोटा सा नींद में केतना छोटा छोटा ख्वाब देखे ...सोचते हैं कि फ़ुर्सत से सो कर देखते तो ...शायद देश ही सुधर गया होता .....

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

ओह आज तो यही मूड है जी ......

छुट्टी के बाद अक्सर जो पहला दिन होता है कार्यालय में वो बहुत ही थकान देने वाला रहता है खासकर सोमवार तो अवश्य ही । ऐसा लगता है कि शुरूआत में छक्का मारने की नीयत जैसे सप्ताह के पहले दिन ही सप्ताह भर के काम निपटाने की जुगत में लगे हों । और ऐसी स्थिति में यदि ये मन करे तो मेरा क्या कसूर है ।





और फ़िर रोज रोज़ लिखना जरूरी है क्या , यार कभी कभी पढते टीपते हुई भी समय बिताया जा सकता है न| ....तो जाईये अपने अपने ब्लोग पर इंतजार करिए न हम पहुंच रहे हैं वहीं टीपने के लिए .. जैसे ही जगते हैं फ़ौरन आपही के ब्लोग पर आएंगे ...अरे बिश्वास नहीं है का ..????है न ????

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

सरकारी योजनाओं से कह दो अपने बारे में गरीबों को खुद बताया करें ...







अभी पिछले वर्ष ही गांव गया था तो बहुत कुछ नया और सुखद देखने को मिला जिसमें से एक थी सोलर लाईट से युक्त खंबे । शाम होते ही उनकी दूधिया रौशनी गांव की स्वाभाविक शीतलता में घुल कर गजब की ठंडक दे रहे थे आंखों को । गांव में बिजली के खंबे तो शायद मेरे पैदा होने से पहले से ही लगे हुए हैं और ऐसा नहीं है कि उनमें रोशनी नहीं देखी ..मगर होली दिवाली कौन सा रोज रोज होती है । खैर , शहर में रहने वाले हमलोगों जैसों को आदतन चारों तरफ़ तब तक रोशनी देखने की लत सी पड जाती है जब तक आंखें न मूंद लें । ऐसे में शाम होते ही अंधेरे की चादर असहज न सही मगर सीमित तो कर ही देती है । मुझे खुशी हुई कि चलो कुछ तो अच्छा और बढिया देखने को मिला इस बार , तो लोग सच ही कह रहे हैं कि बिहार बदल रहा है । मगर कहते हैं न खुशी क्षणिक ही होती है अक्सर । थोडी देर बाद पता चला कि गांव में कुल चार ही लगे हैं ..इतने बडे गांव में कुल चार । मैं थोडा हैरान हुआ । जब थोडी और जानकारी ली तो पता चला कि जितने आवंटित किए गए थे सब कहां गए कुछ पता नहीं । ये पहली बार नहीं हुआ था इसलिए मुझे आश्चर्य नहीं हां क्रोध जरूर आया ।


          इसी सब के दौरान मुझे याद आया कि अभी कुछ समय पहले ही सरकार ने गैर परंपरागत उर्जा मंत्रालय ने ऐसी ही एक योजना के तहत छोटे छोटे सोलर लैंप दिए थे ग्रामीण क्षेत्रों के लिए वो भी ढेर सारी सब्सिडी देकर रियायती दाम पर ताकि लोग उसका उपयोग कर सकें । अगले दिन प्रखंड कार्यालय जाने का निर्णय लिया । वहां जाकर मालूम किया तो पता चला कि जितने भी सोलर लैंप पहली किस्त में आए थे , उनमें से एक भी बेचे नहीं गए सब के सब कार्यालय के अधिकारियों और कर्मचारियों ने इधर उधर कर दिए और कुछ रखरखाव के अभाव में बेकार होकर स्टोर रूम में पडे थे । वहां खूब सारे लोगों से बातचीत ,और वाद विवाद के बाद घर आ गया । उसी शाम को पास में ही रहने वाला एक नवयुवक साथी आया और कहा कि वो दिल्ली मुंबई नहीं जाना चाहता । घर में माता पिता बुजुर्ग हैं और जमीन भी है इसलिए सोच रहा था कि यदि कुछ पैसों का जुगाड हो जाए तो कोई धंधा शुरू कर सके । मैंने कहा कि अचानक इतने पैसे का इंतज़ाम तो कठिन होगा , फ़िर अचानक ही मेरे मन में एक बात सूझी और मैंने उसे बताया , कि क्यों नहीं बैंक से ऋण ले लें । आजकल सरकार ने बहुत सारी योजनाएं चलाई हुई हैं , उसमें से किसी के लिए भी प्रयास किया जा सकता है । अगले दिन उसने फ़िर थोडी मायूसी से बताया कि बैंक वाले कह रहे हैं कि लोन तो मिल जाएगा मगर बीस प्रतिशत वे पहले ही रख लेंगे । मेरा दिमाग भन्ना गया था । उसका लोन तो मैंने बिना प्रतिशत के ही पास करवा लिया । मगर इन सबने दिमाग में बहुत सी बातें उठा दीं ।


सरकार हर साल बहुत सी योजनाएं शुरू करती है, गरीबों, पिछडों, मजदूरों के कल्याण के नाम पर । उनमें से अधिकांश पैसा सरकारी कोष से निकाला भी जाता है इस नाम पर । लेकिन उसका कितना लाभ मिलता है गरीबों को सरकार इसपर कभी ध्यान नहीं देती क्यों ।

यदि ग्रामीण क्षेत्र , और ग्रामीण क्षेत्र ही क्यों शहरी गरीब आबादी को भी उनके लिए चलाई जा रही एक एक योजना, उसका लाभ उठाने का उपाय, काम नहीं हो सकने की स्थिति में उसकी शिकायत , आदि जैसी तमाम जानकारियां उपलब्ध कराई जाएं , तो भी क्या इन योजनाओं के नाम पर ये सारा गोलमाल किया जा सकेगा ?

जितनी योजनाएं सरकार चलाती है , हर साल, यदि उनका लाभ सच में ही आम जनता को मिलने लगे तो उनकी स्थिति में सुधार नहीं आएगा और स्थितियां नहीं बदलेंगी ?

यदि सरकार प्रशासन ये काम नहीं करते , तो स्थानीय लोगों के साथ मिल कर कोई छोटी सी स्वंय सेवी संस्था या समूह बना कर इस कार्य को अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता है ?


और ऐसे ढेरों सवाल हैं , जिन पर आज रुक कर सोचे जाने की जरूरत है । आप सिर्फ़ चांद पर पहुंचने की सफ़लता का सेहरा बांध कर महाशक्ति बनने का सपना पूरा नहीं कर सकते ।फ़िर तो जब भी सरकार इन योजनाओं  को बनाए , इन योजनाओं को ही कहा जाए ..कि हे योजनाओं ..जाओ गरीबों के पास खुद चल कर जाओ ..नहीं तो तुम तो चलती रहोगी ..जिनके लिए तुम्हें चलाया जा रहा है ..वे वहीं के वहीं खडे रह जाएंगे ॥

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

कोई संस्थान बताईये जहां बूट पौलिश करने , बाल काटने, स्कूटर ठीक करने, और कपडे सीने का डिप्लोमा दिया जाता हो !!!!!!









आज अदालत में एक मुकदमे के दौरान दुर्घटना पीडित एक व्यक्ति की गवाही के दौरान उससे पूछा गया कि वो काम क्या करता है । सबसे पहले ये बता दूं कि जब दुर्घटना के लिए कोई पीडित व्यक्ति मुआवजा दावा डालता है तो उसे ये भी बताना होता है कि वो क्या काम करता था , ताकि उसकी आमदनी और दुर्घटना से उसमें होने वाली हानि का पता लगाया जा सके और उसीके अनुसार उसे मुआवजा दिलवाया जा सके । जो कुछ भी नहीं करते उनका निर्धारण न्यूनतम मजदूरी के हिसाब से लगाया जाता है , ऐसे ही गृहिणियों , आदि के लिए भी अलग अलग मापदंड बने हुए हैं ।खैर ,।
        
               तो जैसाकि मैं बता रहा था कि जब उस पीडित से , जो कि हादसे में बदकिस्मती से अपना एक पैर गंवा चुका था , पूछा गया कि वो काम करता है । उसका जवाब था ..जी मैं सडक किनारे बैठ कर बूट पौलिश करता हूं । मन तिक्तता से भर गया । इसलिए कि एक तो पहले ही वह कौन सा कम मुसीबतों का मारा होगा जो अब ये भी हो गया इसके साथ । उसकी गवाही के बाद वकील प्रतिपक्ष ने उसे क्रौस करना शुरू किया । क्या आप इस बात का कोई सुबूत पेश कर सकते हैं कि आप उस सडक पर बैठ कर बूट पौलिश करते थे , जवाब मिला ...हां मेरे साथ और भी लडके हैं वहां पर , वे आपको बता सकते हैं । क्या आप इस बाबत कोई सुबूत पेश कर सकते हैं कि आपको बूट पौलिश करके कितनी कमाई होती थी । अगला प्रश्न था कि क्या आपने इसके लिए कोई प्रशिक्षण लिया है । हालांकि वकील प्रतिपक्ष अपना काम कर रहे थे ....मगर मैं मानवीय संवेदनाओं के अनुरूप जलभुन कर रह गया । मगर उस वाकए ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया .......


आखिर जूते पौलिश करने, बाल काटने, कपडे सीने, स्कूटर ठीक करने , छोटी दुकानों पर काम करने वालों के लिए सरकार कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम क्यों नहीं चला सकती । (हालांकि शायद मैकेनिक और टेलर के लिए तो शायद पाठ्यक्रम हैं भी , हां इसकी उपयोगिता कितनी है मुझे नहीं पता ) ।


यदि इस तरह के नए विचार और योजनाएं लाई जाएं तो कम से कम लाखों उन लोगों को जो इन व्यवासायों में लगे हुए हैं उन्हें भी एक हद तक तकनीकी श्रेणी में लाया जा सकेगा ।




आखिए क्यों नहीं इन सभी कार्यों को भी दक्षता के साथ पाठ्यक्रमों के रूप में निराश्रित , बेसहारा , मजदूर बालकों के लिए लाया जाता है , ताकि कम से कम प्राथमिक शिक्षा के बावजूद भी या उसके बिना भी उनका वो हाल न हो जो होता आ रहा है ।


और भी बहुत से प्रश्न हैं जो मन में उमड घुमड रहे हैं ,क्या कभी ऐसा हो पाएगा कि कभी किसी सैलून में मुझे कोई फ़्रेम कराया प्रमाणपत्र मिले जिसमें लिखा हो ...हरीराम नाई , बाल काटने में अहर्ता...अंतर स्नातक , ...किसी दर्जी की दुकान में प्रमाण पत्र मिले ..करीम भाई ..मखदूमपुर अंतर विश्चविद्यालय से सिलाई कटाई में स्नातक और ऐसे ही । यहां सरकार आज भी तरह तरह के अधिकार का झुनझुना ही बजाने में लगी है । मगर जो नगाडा बेरोजगारी शिक्षित बेरोजगारों का बजा रही है उसकी गूंज सरकार को नहीं सुनाई देती है ,,जाने क्यों ।.................
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