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शनिवार, 9 मई 2020

ये उन दिनों की बात थी



स्कूल के दिन थे वो और मैं शायद आठवीं कक्षा में , दानापुर पटना के केन्द्रीय विद्यालय में पड़ता था | उन दिनों स्कूल की प्रार्थना के बाद बच्चों को सुन्दर वचन , समाचार शीर्षक , कविता ,बोधकथा कहने सुनाने का अवसर मिलता था | अवसर क्या था बहुत के लिए तो ये सज़ा की तरह होता था क्यूंकि चार लोगों के सामने खड़े होकर कुछ सार्थक बोलना यही सोच कर बहुत के पसीने छूट जाया करते थे |

किन्तु उन्हीं दिनों कमज़ोर और अंतर्मुखी बच्चों को प्रोत्साहित करने की नई योजना पर काम करते हुए अध्यापकों ने नए नए बच्चों को ये जिम्मेदारी सौंपनी शुरू की | मुझे याद है की ऐसे ही एक सहपाठी का जब बोलने सुनने का अवसर आया तो सब कुछ अचानक भूल जाने के बाद उसने खुद ही ये कहने के बाद कि कोई बात नहीं आप यही सुन लें कह आकर कोई संस्कृत का श्लोक सुना दिया | बाद में कक्षा में उसे संस्कृत के अध्यापक महोदय से डांट और स्नेह दोनों मिला | स्नेह इसलिए कि उसने संस्कृत का श्लोक सुनाया और डांट इसलिए कि सुनाने से पहले ये क्यूँ कहा कि कोई बात नहीं और कुछ न सही तो यही सुनिए |

मुझे अन्दाजा था कि देर सवेर मेरा नंबर भी आने वाला है | एक दिन तुकबंदी करते करते मैंने एक छोटी सी कविता लिख डाली जिसका शीर्षक था " बिल्लू का सपना " | इसे मैं बार बार पढ़ कर खुश होता और कुछ ही दिनों में मुझे ये याद हो गई | थोड़े दिनों बाद ही मेरी बारी आ गयी | पूरे स्कूल के सामने स्टेज पर खड़े होने की वो झिझक वो डर इस कदर हावी थी कि उसे शब्दों में बयान कर पाना मुश्किल था | जैसे ही मैंने कहा मैं अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ आपको सुनाना चाहता हूँ अब पूरे विद्यालय सहित चौंकने की बारी मेरे शिक्षकों की थी |

खैर काँपती हुई टाँगे और बुरी तरह लडखडाते हुए स्वर से जब मैंने वो कविता समाप्त की पूरा स्कूल और अध्यापकों सहित तालियों की तड़तडाहट से गूंज रहा था | उसके बाद मेरा डर छू मंतर हो चुका था अगले चार सालों तक मैं स्कूल की किसी भी कविता , रचनात्मक प्रस्तुति प्रतियोगिता का निर्विवाद विजेता और लोकप्रिय विद्यार्थी हो चुका था |

बहुत से साथी मज़ाक में मुझे कवि जी कवि जी कह कर चुहल करते थे | ऐसी ही एक प्रतियोगिता में एक बार मैंने अति उत्साह में बिना हाथ में कविता अंश लिए ही उसका पाठ करने पहुँच गया और बिलकुल शून्य हो गया | मेरे से ज्यादा सब निराश हुए और प्रतियोगिता से बाहर होने के बावजूद भी सबने दोबारा मुझे स्टेज पर बुला कर मुझसे वो कविता सुनी | वो भी मेरे लिए एक बड़ा सबक था |

कविता पाठ का ये सिलसिला फिर शुरू हुआ मेरे सेवा में आने के बाद जहाँ अनेक कार्यक्रमों का संचालन करते हुए अधिकारियों को ये भान हो गया था कि मैं कविता ,शेर , ग़ज़लें आदि कह पढ़ लेता हूँ | आवाज़ भारी होने के कारण (बकौल उनके ) सुनने में भी अच्छी लगती है |

इसके बाद होने वाले तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों में न सिर्फ मेरी उपस्थिति अपेक्षित और अनिवार्य सी हो गई बल्कि अक्सर शुरुआत ही मेरी बैटिंग से होती है , और बहुत सी राजनीतिक सभाओं , शाखा के बौद्धिक में , रेडियो टीवी में , सैकड़ों हज़ारों की भीड़ को भी मैं बहुत ही सहजता के साथ संबोधित और सम्मोहित कर पाता हूँ |

कविता पाठ ,भाषण कला के अतिरिक्त नाटक में अभिनय का अवसर भी मुझे जब जहां मिला मैंने उसे भरपूर जिया | स्कूल कालेज के दिनों में बहुत कम शिरकत करने के बावजूद गाँव में काली पूजा के दौरान खेले गए एक नाटक के इकलौते नारी किरदार "वनजा" को मैंने इस तरह निभाया था कि मुझे स्नेह स्वरूप गाँव के बहुत से सम्मानित व्यक्तियों से नकद राशि दी |

विधि की पढाई के दौरान लगने वाले विधिक साक्षरता शिविरों में खेले गए नुक्कड़ नाटकों की तो धुरी ही मैं होता था और इनमे ऐसा डूब जाता था कि साथी सहपाठी भी उफ्फ्फ उफ्फ्फ कर उठते थे | सेवा में आने के बहुत दिनों बाद एक भोजपुरी धारावाहिक में अभिनय के लिए आए प्रस्ताव को भी मुस्कुरा कर ठुकराना पडा था मुझे |

लेकिन आज भी वो स्टेज पर पहली बार कविता पाठ के दौरान अपनी टांगों का कांपना और आवाज़ की थरथराहट मैं बिलकुल नहीं भूला हूँ |

तो  उन दिनों की बात थी

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

ये उन दिनों की बात थी







#येउनदिनोंकीबातथी 

जैसा की मैं पहले भी बहुत बार कह चुका हूँ कि  हम और हमारी उम्र के तमाम लोग कई मायने में बहुत ही अलहदा रहे हैं ।  ये वो दौर था शायद 83 -84 का साल था , टीवी फ्रिज के बाद प्रेशर कुकर लोगों के घर में पहुँचने लगा था।  पिताजी की पोस्टिंग उन दिनों पूना के cardiac theoretic center में थी। और हम सब वहीँ थोड़ी दूर स्थित फ़ौजी क्वार्टस में रहा करते थे। तो प्रेशर कुकर के आने से पहले ही किचन में उसका इंतज़ार किसी नई बहू के आने की तरह किया जा रहा था।  फ़ौजी कैंटीन में जिस दिन कुकर उपलब्ध हुआ उसी दिन एक साथ हमारी उस फ़ौजी कॉलोनी में बीस बाईस प्रेशर कुकर बहूरानी पधारी थीं।  

हॉकिन्स का वो प्रेशर कुकर उन दिनों हर किचन का शो स्टॉपर हुआ करता था। लेकिन पहले दिन और सबसे पहली बार उसका उपयोग करने के ऐसे ऐसे किस्से अगले कई दिनों तक मम्मियों आंटियो की शाम की गेट सभा [जिसमे सभी अपने अपने गेट पर खड़े होकर दुनिया भर की सारी बातें कर लिया करती थीं ] में सुने सुनाए गए जिन्होंने इतिहास रच दिया।  

मुझे याद है कि उन दिनों केरोसिन स्टोव का प्रयोग होता था जो बर्तन की पेंदी को काला कर दिया जाता था जो बाद में बर्तन साफ करने के दौरान खासी मुसीबत पैदा करता था और जिससे बचने के लिए पेंदी में मिट्टी का लेप लगा दिया जाता था तो हमारी माँ ने उस कुकर बहुरानी को नीचे से मिटटी का बॉटम पैक लगा कर पहली बार उसमें खीर बनाने की कोशिश की जो सीटी लग कर बाइज्जत फट फटा गया फिर बिना ढक्कन लगाए ही खीर बना कर बहुरानी की बोहनी की गयी।  

अब पड़ोस की सुनिए , एक आँटी रात के लगभग आठ बजे कूकर लिए हुए घर पहुंची और बताया की बहू का ढक्कन ही बहार आने को तैयार नहीं है [कुक्कर  का ढक्कन एक विशेष स्थान पर ही पहुँच कर खुल पाता है ] सो उन्हें वहीँ क्रैश कोर्स करवाया गया।  मेरी दीदी जिन्होंने हॉन्किंस का वो निर्देश और उसमें दी गयी रेसिपी वाली पुस्तिका को पूरा पढ़ डाला था सो उन्हें पता चल गया था कि इसे संचालित कैसे करना है।  

अगले दिन कोई बिना रबर चढ़ाए खाना बनाने की असफल कोशिश तो कोई अचानक से तेज़ सीटी की आवाज़ से चीत्कार मार उठने के किस्से सुनाने आता जाता रहा।  बहुत समय बाद अनुज भी अपने साथियों के साथ ऐसे ही ढक्कन निकालने की अथक कोशिश करने के बाद पड़ोस से कसी को बुला कर लाया और उन्होंने उसे दिखा कर समझाया की कैसे खोला जाता है कुकर का ढक्कन।  



इसके कुछ बरसों बाद गैस चूल्हे का भी अपना स्वैग आया और ये वो समय था जब चेतक स्कूटर और गैस कनेक्शन के लिए सालों पहले नंबर लगाया जाता था और जब वो डिलीवर होता था तो आसपास से अलग विशेष स्टेटस वाली फील अपने आप आ जाती थी।  हम गैस का उपयोग करते आ रहे थे , लेकिन हमारे यहां पड़ोस में रह रहे एक अंकल जी के यहॉं गैस चूल्हा पहली बार आया।  मैं तब मैट्रिक में था ,उन्होंने मुझे   उसे संस्थापित करने में मदद करने के लिए बुलाया जो मैंने बड़ी आसानी से कर लिया।  

बस फिर क्या था ,मुझे याद है की उसके बाद उन अंकल की मित्र मंडली में आए कम से कम दर्जन भर से अधिक गैस चूल्हों को एसेम्बल करने के लिए वे मुझे अपने स्कूटर पर पीछे बिठा कर ले जाते और उधर बर्नर नीला होता और इधर घरवाले हमें रसगुल्ले की मिठास से गीला कर रहे होते।  शुरू शुरू में मुझे थोड़ी शर्म और झिझक भी होती थी मगर चूल्हे जलने के बाद पूरे घर के लोगों के चहरे पर आई वो ख़ुशी की चमक धीरे धीरे मेरी सारी झिझक ख़त्म करती चली गयी।  



हाय रे , वो दिन और उन दिनों की बात , तो जैसा कि मैं कहता हूँ #येउनदिनोंकीबातथी 


मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

ये उन दिनों की बात थी





#येउनदिनोंकीबातथी 

​वो वर्ष शायद 96 -97 के आसपास का रहा होगा।  मुझे ये तो याद नहीं कि अपनी किस प्रतियोगी परीक्षा को देने के दौरान मैं कोलकाता अपने चचेरे भैया चुन्नू भईया के यहां पर ठहरा हुआ था।  उन दिनों जैसा कि अक्सर सफर में ​आते जाते रुकते चलते हो जाया करता था हम टूथ ब्रश ,शेविंग किट आदि भूल जाया करते थे और फिर हर नई जगह पर पहुँच कर उन्हें खरीद कर फिर वहीं भूल कर आगे निकल जाते थे।  

अब तो लगातार सफर करने के अनुभव ने जाने क्या क्या सिखा समझा दिया तो सफर के सामना में टॉर्च ,रस्सी ,दवाई के साथ साथ सब कुछ वाईन्ड अप करने के बाद सामानों को क्रॉस चैक करने की आदत बाय डिफ़ॉल्ट सी हो गयी है। 

तो उन दिनों कोलकता में परीक्षा देने के बाद कोलकाता से मेरी वापसी हो गयी। थोड़े दिनों बाद भाभी का फोन आया तो उन्होंने इस बीच वहां घटा बड़ा ही मजेदार वाकया सुनाया। हुआ ये की चुन्नू भईया के बड़े साले साहब किशुन जी भी उन्हीं दिनों किसी काम से कोलकाता गए हुए थे। उन्होंने एक दिन अचानक जल्दबाजी में या बिना देखे हुए भूलवश जब ब्रश करके बाहर निकले तो हमारे भाभी यानी अपनी बहन श्री से कहा ये भोला अपना जो टूथपेस्ट भूल गया था उसमे झाग तो बहुत बढ़िया आता है मगर स्वाद एकदम बकवास है इसका। भाभी ने जोरदार ठहाका लगा कर उन्हें कहा कि अपने ध्यान से नहीं देखा वो शेविंग पेस्ट था टूथ पेस्ट नहीं।  जब वो ये बात मुझे फोन पर बता रहीं थीं तो मैं ये दृश्य कल्पना करके ही पेट पकड़ कर हँसते हँसते लोट पोट हो गया था। 

ऐसे ही एक बार ,नौकरी लगने के कुछ दिनों बाद मेरा गाँव जाना हुआ ,वो शायद काली पूजा का समय था और गाँव में बहुत सारे मेहमान रिश्तेदार आदि भी हमेशा की तरह आए हुए थे।  मैं स्नान के लिए लिरिल साबुन का प्रयोग किया करता था जिसकी नीम्बू युक्त मादक गंध बहुत समय तक न सिर्फ देह को बल्कि चापाकल के आसपास के स्थान को भी गमकाए रखती थी।  मेरे एक काकाजी अक्सर नहाने के बाद पूछते थे भोला ये तेरा साबुन बहुत खुशबू मारता है। मैं मुस्कुरा कर रह जाता था। 


  एक दिन मेरे स्नान करने के तुरंत बाद वे स्नान करने उसी चापाकल पर आए।  थोड़ी देर बाद स्नान करके मुझे साबुन दानी पकड़ाते हुए कहा कि भोला आज तेरे साबुन से मैं भी नया लिया। खुशबू  तो अलग थी मगर झाग से पूरा बदन भर गया। स्नान का तो आनंद आ गया। 

अब हैरान होने की बारी मेरी थी क्यूंकि मुझे याद था कि स्नान वाला साबुन तो मैं अपने तौलिये और लोटे के साथ ही उठा लाया था अपने कमरे में। मैंने साबुन दानी खोल कर देखी। उसमें उन दिनों नया नया चला वो खुशबू और झाग से कपड़ों को भर देने वाला एरियल या रिन जैसा कोई नीला साबुन था।  अब मैं समझ गया था कि उसमें से झाग और खुशबू इतनी भरपूर क्यों आई।  मगर मैंने काका जी की चेहरे की ख़ुशी और मासूमियत के कारण बिना उन्हें कुछ कहे बस मुस्कुरा कर रह गया।  

आह वो दिन ,और उन दिनों के वो मासूम किस्से 
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