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शनिवार, 9 मई 2020

ये उन दिनों की बात थी



स्कूल के दिन थे वो और मैं शायद आठवीं कक्षा में , दानापुर पटना के केन्द्रीय विद्यालय में पड़ता था | उन दिनों स्कूल की प्रार्थना के बाद बच्चों को सुन्दर वचन , समाचार शीर्षक , कविता ,बोधकथा कहने सुनाने का अवसर मिलता था | अवसर क्या था बहुत के लिए तो ये सज़ा की तरह होता था क्यूंकि चार लोगों के सामने खड़े होकर कुछ सार्थक बोलना यही सोच कर बहुत के पसीने छूट जाया करते थे |

किन्तु उन्हीं दिनों कमज़ोर और अंतर्मुखी बच्चों को प्रोत्साहित करने की नई योजना पर काम करते हुए अध्यापकों ने नए नए बच्चों को ये जिम्मेदारी सौंपनी शुरू की | मुझे याद है की ऐसे ही एक सहपाठी का जब बोलने सुनने का अवसर आया तो सब कुछ अचानक भूल जाने के बाद उसने खुद ही ये कहने के बाद कि कोई बात नहीं आप यही सुन लें कह आकर कोई संस्कृत का श्लोक सुना दिया | बाद में कक्षा में उसे संस्कृत के अध्यापक महोदय से डांट और स्नेह दोनों मिला | स्नेह इसलिए कि उसने संस्कृत का श्लोक सुनाया और डांट इसलिए कि सुनाने से पहले ये क्यूँ कहा कि कोई बात नहीं और कुछ न सही तो यही सुनिए |

मुझे अन्दाजा था कि देर सवेर मेरा नंबर भी आने वाला है | एक दिन तुकबंदी करते करते मैंने एक छोटी सी कविता लिख डाली जिसका शीर्षक था " बिल्लू का सपना " | इसे मैं बार बार पढ़ कर खुश होता और कुछ ही दिनों में मुझे ये याद हो गई | थोड़े दिनों बाद ही मेरी बारी आ गयी | पूरे स्कूल के सामने स्टेज पर खड़े होने की वो झिझक वो डर इस कदर हावी थी कि उसे शब्दों में बयान कर पाना मुश्किल था | जैसे ही मैंने कहा मैं अपनी लिखी कुछ पंक्तियाँ आपको सुनाना चाहता हूँ अब पूरे विद्यालय सहित चौंकने की बारी मेरे शिक्षकों की थी |

खैर काँपती हुई टाँगे और बुरी तरह लडखडाते हुए स्वर से जब मैंने वो कविता समाप्त की पूरा स्कूल और अध्यापकों सहित तालियों की तड़तडाहट से गूंज रहा था | उसके बाद मेरा डर छू मंतर हो चुका था अगले चार सालों तक मैं स्कूल की किसी भी कविता , रचनात्मक प्रस्तुति प्रतियोगिता का निर्विवाद विजेता और लोकप्रिय विद्यार्थी हो चुका था |

बहुत से साथी मज़ाक में मुझे कवि जी कवि जी कह कर चुहल करते थे | ऐसी ही एक प्रतियोगिता में एक बार मैंने अति उत्साह में बिना हाथ में कविता अंश लिए ही उसका पाठ करने पहुँच गया और बिलकुल शून्य हो गया | मेरे से ज्यादा सब निराश हुए और प्रतियोगिता से बाहर होने के बावजूद भी सबने दोबारा मुझे स्टेज पर बुला कर मुझसे वो कविता सुनी | वो भी मेरे लिए एक बड़ा सबक था |

कविता पाठ का ये सिलसिला फिर शुरू हुआ मेरे सेवा में आने के बाद जहाँ अनेक कार्यक्रमों का संचालन करते हुए अधिकारियों को ये भान हो गया था कि मैं कविता ,शेर , ग़ज़लें आदि कह पढ़ लेता हूँ | आवाज़ भारी होने के कारण (बकौल उनके ) सुनने में भी अच्छी लगती है |

इसके बाद होने वाले तमाम साहित्यिक कार्यक्रमों में न सिर्फ मेरी उपस्थिति अपेक्षित और अनिवार्य सी हो गई बल्कि अक्सर शुरुआत ही मेरी बैटिंग से होती है , और बहुत सी राजनीतिक सभाओं , शाखा के बौद्धिक में , रेडियो टीवी में , सैकड़ों हज़ारों की भीड़ को भी मैं बहुत ही सहजता के साथ संबोधित और सम्मोहित कर पाता हूँ |

कविता पाठ ,भाषण कला के अतिरिक्त नाटक में अभिनय का अवसर भी मुझे जब जहां मिला मैंने उसे भरपूर जिया | स्कूल कालेज के दिनों में बहुत कम शिरकत करने के बावजूद गाँव में काली पूजा के दौरान खेले गए एक नाटक के इकलौते नारी किरदार "वनजा" को मैंने इस तरह निभाया था कि मुझे स्नेह स्वरूप गाँव के बहुत से सम्मानित व्यक्तियों से नकद राशि दी |

विधि की पढाई के दौरान लगने वाले विधिक साक्षरता शिविरों में खेले गए नुक्कड़ नाटकों की तो धुरी ही मैं होता था और इनमे ऐसा डूब जाता था कि साथी सहपाठी भी उफ्फ्फ उफ्फ्फ कर उठते थे | सेवा में आने के बहुत दिनों बाद एक भोजपुरी धारावाहिक में अभिनय के लिए आए प्रस्ताव को भी मुस्कुरा कर ठुकराना पडा था मुझे |

लेकिन आज भी वो स्टेज पर पहली बार कविता पाठ के दौरान अपनी टांगों का कांपना और आवाज़ की थरथराहट मैं बिलकुल नहीं भूला हूँ |

तो  उन दिनों की बात थी

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

थोड़ा और जीना है ,मुझे





मैंने अपने निजी जीवन में इतने उतार चढ़ाव देखे हैं जो विरले लोगों की किस्मत में ही होते हैं , बेहद ख़राब से खराब समय और बहुत ही शानदार से भी कहीं अधिक शानदार दिन।  इसलिए मैं दोस्तों से बात करते समय अक्सर एक बात कहता हूँ की मेरी उम्र यदि 47 वर्ष की है तो मेरा अनुभव 94 वर्षों का है।  

इन सबने मुझे एक बात सिखा दी कि ,नकारात्मकता और निराशा से कहीं अच्छा है कि सकारात्मक रहने की भरसक कोशिश की जाए। आखिर हूँ तो इंसान ही और बहुत बार अपने इस प्रयास में थोड़ा सा असफल भी रहता हूँ मगर फिर अगले ही क्षण मेरी ज़िद मेरा जुनून दुबारा मुझे उसी तेवर ,उसी रफ़्तार में लाकर रख देती है और मेरा सफर निर्बाध निरन्तर चल पड़ता है।  यूँ भी ज़िंदगी में मुझे सफर से ज्यादा कुछ भी और पसंद नहीं शायद इसलिए भी उस वक्त मैं हर समय धरती ,ज़मीन ,पेड़ रास्तों के करीब होता हूँ। 

इस देशबन्दी के बहुत से अप्रत्यक्ष प्रभावों में से एक प्रभाव मुझ पर ये पड़ा की दशकों से संवाद और संपर्क से छूटे छोड़े गए मित्रों ,बंधू बांधवों को तलाश तलाश कर उनके संपर्क सूत्र निकाल कर वीडिओ कॉल और फोन वल्ल के माध्यम से उनसे बात की अपना समाचार दिया उनका हाल जाना।  दीदियाँ ,मासियां ,सहेलियाँ भी , मामा ,चाचा ,दोस्त , क्लास मेट ,बैच मेट ,बहुत पुराने साथी ब्लॉगर सबसे रोज़ाना बात करते करते ही घंटो कैसे बीत रहे हैं इसका मुझे अंदाज़ा ही नहीं होता।

बेहद भावुक इंसान हूँ सो आवाज़ में थरथराहट और आँखों से आँसू कब बेसाख्ता निकल जाते हैं मुझे पता ही नहीं चलता और मैं भी उन्हें नहीं रोकता बरसों के बाँध टूट रहे हैं तो उन्हें टूटने देता हूँ।  साथ ही सबसे वादा भी करता जा रहा हूँ कि इन सबसे उबरने के बाद यदि जीवन रहा तो निश्चित रूप से सबसे ,हाँ सभी से मुलाकात करूंगा।  किसी के गले लगना है ,किसी के गोद में सर रख कर खूब रोना है ,किसी के पाँव पर माथा रख कर सुकून महसूस करना है।  मेरे भीतर मौजूद हर रोम छिद्र में से जो स्नेह ,जो मुहब्बत जाने कबसे बँधी हुई है वो सब लुटा देनी है और खुद भी लुट जाना है।  आसपास में रह रहे और बहुत दूर दूर रह रहे सबसे एक बार हुलस कर ,उन्हें भींच कर सराबोर हो जाना है।  उदयपुर ,भिलाई ,पटना ,मधुबनी ,दरभंगा कोलकाता ,जोधपुर ,जयपुर , फरीदाबाद, जनकपुर  ,नोएडा सब जगह उड़ उड़ कर जाना है।  थोड़ा और जीना है  ..........


गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

उदयपुर : हिन्दुस्तान का सबसे खूबसूरत शहर




उदयपुर राजस्थान के पश्चिमी छोर पर और गुजरात से बिलकुल सटा हुए न सिर्फ देश का सबसे खूबसूरत बल्कि विश्व का तीसरा सबसे स्वच्छ शहर है।  मेरी बहन का निवास स्थान होने के कारण मुझे न सिर्फ उस शहर को एक पर्यटक बल्कि एक नागरिक के रूप में भी समझने का अवसर मिला।  एक ही वर्ष में कार ,रेल ,बस द्वारा मैंने सपरिवार अनेक यात्राएं की और हर बार नए अनुभव नए स्थान जान देख कर चित्त प्रसन्न हो जाता है।  इस शहर की सामाजिक और भौगोलिक खूबसूरती के अतिरिक्त यहां के पावन धार्मिक स्थलों का अनुपम अद्वितीय सौंदर्य किसी को भी मोहित कर सकता है और मुझ जैसी प्रकृति प्रेमी को तो ये इतना भा गया है कि मैंने निश्चय किया है कि सेवा अवकाश के पश्चात इसी शहर को अपना स्थाई निवास स्थान बनाऊंगा। अब से लेकर आगे कई पोस्टों तक मैं आपको वो दिखाऊंगा और समझाऊंगा जो मैंने इस शहर के बारे में अनुभव किया।  इसकी शुरुआत इन खूबसूरत तस्वीरों से करते हैं। 
















शनिवार, 11 नवंबर 2017

ये उन दिनों की बात थी ..







आजकल जो दीवानापन युवाओं का मोटरसाईकिल और युवतियों का स्कूटियों के प्रति और बच्चों की ललक भी स्कूटी दौडाने की और दिखाई देती है , ठीक वैसी ही और वैसी ही क्यूँ , बल्कि उससे कहीं ज्यादा (ये भी मैं बताउंगा कि उससे ज्यादा कैसे और क्यूँ ) उन दिनों में हमें और हमारी उम्र के बच्चों में सायकल के प्रति हुआ करती थी | अरे नहीं , उन दिनों बच्चों की सायकल के नाम पर सिर्फ बहुत छोटे बच्चों वाली ट्राय सायकल का ही चलन था सो , घर में पिताजी की सायकल, जिसकी सीट से बस थोड़ा सा ऊपर हमारी मुंडी पहुंचा करती थी , उसके प्रति हमारा दीवानापन था | और फुर्सत के समय जब कभी वो सायकल बिना ताले के मिल जाती थी समझिये कि वो पल , वो समय यादगार बन जाता था |

उन दिनों सायकल भी अन्य सबकी तरह चुनिन्दा ब्रांड में ही उपलब्ध हुआ करता था , तो वो हुआ करता था एवन , एटलस और हरक्यूलस | और सायकल ही क्यूँ उसके बेकार हो चुके टायर को भी नहीं छोड़ा जाता था , वो हमारा सबसे पसंदीदा दोस्त हुआ करता था , हाथ में छडी लेकर या फिर सीधा हाथ से ही , उस टायर को सडकों गलियों में उसकी पीठ पर शाबासी के अंदाज़ में थपकाते हुए दूर दूर तक दौड़ना और ये इक्का दुक्का नहीं बल्कि पूरी टोली निकला करती थी अपने अपने इकलौते टायर को लेकर | और इस नायाब खेल से हमारा परिचय भी लखनऊ के कैंट एरिया (तोपखाना के आसपास ) वाले फ़ौजी कालोनी में ही हुआ था | पिताजी की पोस्टिंग उन दिनों लखनऊ सेन्ट्रल कमांड के रिक्रूटमेंट सेंटर में हुआ करती थी | मौक़ा मिला और हम सायकल को स्टैंड (बड़ा ही कठिन हुआ करता था उसे स्टैंड से उतारना खासकर वो बीच वाले स्टैंड से ) से उतार कर फुर्र ...|

ऊँचाई और वजन के हिसाब से , वो भी अपनी औकात से बाहर था सो सीट के ऊपर दाहिना कंधे को टिका कर , बीच में पैर घुसा कर विशेष आसन में (जिन्हें उन दिनों हम कैंची स्टाईल कहा करते थे ) उसे पैडल मार कर चलाने की भरपूर कोशिश करते थे और जब सायकल पूरी स्पीड से चल देती थी तो बस कयामत आ जाती थी क्यूँकी ब्रेक मार कर रोकने जैसी उत्तम ड्राईविंग कतई नहीं आती थी सो आजकल जैसे हमारी महिला ब्रिगेड दोनों तरफ अपने पैर फैला कर स्कूटी रोकती हैं , उससे भी कहीं अधिक छितरा के अपनी दोनों टाँगे खोल के सड़क पर घिसटा कर सायकल को रोकने की कोशिश होती थी | और इस बीच यदि सामने से कोई आ गया तो फिर उसकी दोनों टांगों के बीच जाकर इस रोमांचक सायकल ट्रेनिंग का अस्थाई अंत हो जाता था | वापसी में छिले हुए घुटने और कुहनियाँ इस बात का पूरा सबूत होती थीं कि कितनी शिद्दत से मेहनत की जा रही है |

थोड़े और बड़े हुए तो सायकल के कैरियर पर गेंहू की बोरी बाँध कर उसे पिसवाने के लिए आटे चक्की तक ले जाने का कार्यक्रम भी किसी स्टंट से कम नहीं होता था ,जहां से पच्चीस पैसे की वो गुड में मूंगफली के दाने चिपके वाली पट्टी खाते हुई घर वापसी होती थी |थोड़े और वीर हुए तो गैस का सिलेंडर भी पुराने सायकल की ट्यूब से बाँध कर रिफिल कराने का फीयर फैक्टर वाला स्टंट भी बखूबी अंजाम दिया गया | मुझे पूरी तरह सायकल चलाने के लिए दसवीं पास करने के बाद ही मिली थी | और उसके बाद ग्राम जीवन में खेतों की मेड पगडंडी कच्ची सड़कों पर चलाते हुए हम उसके चैम्पियन होते गए |


घर से मधुबनी कुल 14 किलोमीटर आना व् जाना , वो भी पूरे कालेज की पढ़ाई के दौरान , ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत सुकून भरे सफ़र जैसे रहे | गाँव की स्वच्छ हवा में हम खुद कब उस सायकल पर हवा से बातें करने लगते थे हमें पता नहीं चलता था | मुझे याद है कि एक मित्र के कहने पर हम सिर्फ 35 मिनट में ये दूरी नाप कर मधुबनी के मिथिला टाकीज में फिल्म "लैला मजनू " देखने जा पहुंचे थे | उन दिनों सायकल का टैक्स भी लगता था जो दो रुपये हुआ करता था और एक लोहे का पत्तडनुमा टुकड़ा सायकल के टायरों में फंसा कर टैक्स भुगतान प्रमाण चिन्ह लगा दिया जाता था ...|


सायकल से मेरी मुहब्बत के साक्षी न सिर्फ मेरे परिवारवाले बल्कि गाँव के संगी साथी भी रहे और मैं अब भी शायद ही कभी ग्राम प्रवास के दौरान सायकल से गाँव से मधुबनी आने जाने का लोभ छोड़ पाता हूँ और सबके लाख मना करने के बावजूद कम से कम एक बार तो सायकल से पूरे शहर का चक्कर लगा आता हूँ ....
ये उन दिनों की बात थी .....हाँ ये उन्हीं दिनों की बात थी ..

रविवार, 16 जुलाई 2017

पुरुष तन के भीतर स्त्री मन ....




कल हमारी बहुत सी मित्र दोस्त सहेलियों ने बड़ी ही मार्के की बात कही , वैसे ऐसा तो वे अक्सर करती हैं , कि सालों साल और लगभग पूरी उम्र हमारी माँ , बहिन और पत्नी की भांति वे सब , घरेलू काम , जिसमें सबसे प्रमुख घर के सभी सदस्यों के पौष्टिक और सुस्वाद भोजन तैयार कर सबको खिलाना , सबसे अहम् , को चुपचाप , बिना किसी पारिश्रमिक , मेहनताने और कई बार तो प्रशंसा भी नहीं , के बिना ही , निरंतर करती जाती हैं | उनका कहना कि , पुरुषों को ये काम करना आना तो दूर इन कामों के किये और करने वाली की कद्र भी नहीं होती , सच है , अक्सर ऐसा देखा भी जता है | ये उनकी नैसर्गिक ड्यूटी मान कर अनदेखा किया जाता है | अपना हाल थोड़ा जुदा है |

पढाई लिखाई के कारण , शायद इंटर कालेज के दिनों में ही माँ बाबूजी और घर से दूर रहने के दौरान , विद्यार्थी जीवन में ही खुद के लिए लगभग हर वो काम , जो गृहणियों के जिम्मे होता है , करने की पहले मजबूरी फिर आदत सी हो गयी | शुरुआत , दाल चावल ,खिचड़ी जैसे आसान विकल्पों से हुई और जाने कितने ही बरस , वही उबला उबली चलती रही |

आज से पूरे बाईस बरस पहले जब दिल्ली पहुंचे तो मामला और आगे बढ़ा ,मगर खेल असली तब शुरू हुआ जब रोटी बनाने की बारी आई | हम सब नए रंगरूटों को हमारे सीनियरों ने पूरे एक सप्ताह तक तो एकदम नई दुल्हन की तरह रखा फिर एक दिन अचानक ही बिना बताये सब गायब हो लिए और सुबह से दोपहर होते होते ,पेट में चूहे दौड़ने लगे | किचन में पूरी सफाई से ,पहले ही हमारी खिचडी का सब रसद गायब , सिर्फ आटा | वहां से शुरू हुई हमारी रोटियाँ बनाने की पूरी ट्रेनिंग | लस्सी , लपसी से होते हुए जल्दी ही हम लोई तक पहुँच गए | फिर तो हम रोटियाँ भी ऐसी बनाने लगे कि सबका सरकमफ्रेंस भी भी नाप के देखा जाता तो एक दम सेम टू सेम :) :) :) :)

इसके बाद तो हममें से सब के सब इतने दक्ष हो चुके थे कि , परीक्षाओं के दिनों में गाँव से आने वाले अपने तमाम दोस्तों के लिए हम खेल खेल में सब कुछ बना लेते थे | मुझे याद है कि , दो घंटे तक बिना रुके मैं सत्तर सत्तर रोटियाँ बना लेता था | आज जब दो संतानों का पिता हूँ तो ,किसी भी कुशल गृहणी को न सिर्फ चुनौती बल्कि हर तरह के भोजन , निरामिष भी ,दक्षिण भारतीय भी और गुलाबजामुन , मालपुए जैसे पकवान भी पूरी दक्षता से बना लेता हूँ |

बिटिया बुलबुल की चोटी गूंथना और उसे तैयार करना जितना मुझे पसंद है ,उससे अधिक बिटिया को पापा से तैयार होना | कढ़ाई , सिलाई , इस्त्री ...छोडिये ..


सौ बात की एक बात ..माँ जो कहती थी ...भोला तेरा मन भीतर से स्त्री है , और मुझे लगता है पुरुष तन के भीतर स्त्री मन होना ही सर्वोत्तम है ....बिलकुल अर्धनारीश्वर हो जाने जैसा है .........

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

किक्रेट की कुछ यादें .....कुछ भी कभी भी

ये जोश , ये जज़्बा , ये जुनून ................और कहां ??


मुझे ये याद नहीं कि कब मैंने क्रिकेट देखना बंद कर दिया था , ये भी नहीं कि बंद ही क्यों कर दिया उस खेल को जो कि मैं अपने बचपने से से युवापन तक खेलते रहने के कारन मेरा सबसे प्रिय खेल था और मेरे जैसे ही लाखों करोडों भारतीयों का भी । अब थोडा ज़ोर डाल कर सोचता हूं तो याद आता है कि शायद ये फ़िक्सिंग की आंधी का दौर था जब एक वितृष्णा सी हो गई थी मन में कि यार इस खेल को ही जेंटलमैन खेल कहते थे ? और दूसरी वजह शायद ये रही कि , कभी क्रिकेट सीज़न के स्वरूप से बदलते हुए अब ये खेल न तो खेल ही जैसा लग रहा था और सालों भर चलते रहने के कारण वो आकर्षण बरकरार रख पा रहा था । हालांकि प्रदर्शन और टीम के लिहाज़ से कभी भी भारतीय टीम न तो लचर रही और न ही कभी कमज़ोर हुई इसके बावजूद कि बहुत बार एकदम निराश करते हुए पहले ही दौर में प्रतियोगिता से बाहर हो गई । लेकिन बरसों पहले ऐसा नहीं था , कतई नहीं था ।



1983 के चैंपियन




अगर क्रिकेट से जुडी पुरानी से पुरानी यादों को टटोलता हूं तो ठीक ऐसा ही जोश जुनून और एक सनसनाहट महसूस की थी जब भारत ने पहली बार विश्व कप जीता था । उस समय बहुत ज्यादा खेलता तो नहीं था क्रिकेट हां शुरूआत जरूर हो चुकी थी और हम नियमित रूप से शाम को खेला करते थे । ये नियमितता और ज्यादा तब बढ जाती थी जब क्रिकेट सीज़न हुआ करता था । ओह वो समय , मुझे अब तक याद है वो जिंबाब्वे के खिलाफ़ भारत का मैच , सुशील दोषी की कमेंट्री ( उन दिनों रेडियो पर किक्रेट कमेंट्री में मिला रोमांच अब टीवी और सीधे स्टेडियम में बैठ कर देखने में भी नहीं मिल पाया ) भारत की ऐसी स्थिति जहां से जीत की कल्पना करना भी बेमानी सा लगता था , उस समय कपिल देव ने जो भुतहा पारी , हा हा हा उस समय हमारे बीच एक बात बडी लोकप्रिय हो गई थी कि उस दिन कपिल के ऊपर कोई सवार हो गया था और उसने ऐसी धुलाई की कि बस समां ही बांध दिया । जब एक छोर से विकेट पे विकेट गिरते जा रहे थे तो सबने रेडियो बंद करके बातें शुरू कर दीं । लगभग आधे घंटे के बाद एक शोर सा सुनाई दिया किसी के रेडियो पर , हमें लगा चलो मैच खत्म , रेडियो ऑन किया तो ..सुनाई दिया , दिल के मरीज़ कृपया अपना ध्यान रखें और रेडियो सेट से दूर हो जाएं ,हालात ही ऐसे थे , कपिल मैच का रुख पलट चुके थे , लेकिन फ़िर भी स्कोर इतना था कि लगता था कि अब खत्म हुआ सब कुछ , लेकिन उस दिन कपिल , कुछ और ही ठान कर बैठे थे ।



कपिलदेव और गावस्कर दो ऐसे नाम थे जो क्रिकेट का क जानने वाला बच्चा बच्चा जानता था , हालांकि फ़ायनल में वेस्टइंडीज़ के जबडे से जीत को निकाल लाने वाले मोहिंदर अमरनाथ , सबके प्रिय फ़ायनल के बाद ही हुए थे , कम से कम हमारे तो जरूर ही । और फ़िर वो फ़ायलन , सोचता हूं कि इस फ़ायनल से कम जुनून था उसमें , दो बार की चैंपियन , कालूओं की टीम । वो भी उन कालूओं की जो उन दिनों क्रिकेट दानव ही थे । बाप रे बाप रे सब के सब तवे , एकदम मजबूत । और जब भारत जीत कर पहुंचा था । पटाखों का शोर शराबा तो याद नहीं लेकिन लोग पागलों की तरह तो उस समय भी घर से निकल आए थे । ओह क्या दिन थे वे भी ..........





सच कहूं तो वो तो एक युग की शुरूआत थी , उस युग की जिसने अंतत: राष्ट्रीय खेल हॉकी की लोकप्रियता को पीछे धकेलते हुए क्रिकेट को जुनूनी स्तर तक पहुंचा दिया । मैं किसी भी खेल में कभी भी अनाडी तो नहीं रहा , बैडमिंटन , वॉलीबॉल , हॉकी , फ़ुटबॉल , शतरंज , आदि सभी खेलों में एक अच्छे और जुझारू खिलाडी के रूप में जाना जाता रहा , लेकिन क्रिकेट वो खेल रहा जिसे बचपने से लेकर जवानी तक उसी जुनून से खेलते रहे और साथ साथ खेल को भी देखते सुनते रहे ।मैं अपनी टीम में एक लेग स्पिनर के रूप में जाना जाता था और कहता चलूं कि घातक इतना कि पहले ही स्पैल में कमर तोड सकने वाली कूव्वत , बैटिंग में पिंच हिटर , चौका छक्का नहीं तो घर वापस , फ़ील्डिंग स्लिप में और मजाल कि कैच निकल जाए आजू बाजू से भी । हा हा हा हा मेरे जैसे तो कम से कम करोड या शायद करोडों खिलाडी होंगे और दीवाने तो उससे भी ज्यादा । एक से एक ऐसी अनमोल यादें हैं मेरे जैसे करोडों भारतीयों के पास क्रिकेट से जुडी हुईं । बेशक उन दिनों आज वाला ग्लैमर , पैसा और शायद शोहरत भी नहीं था मगर मुझे याद है गावस्कर के सबसे अधिक शतकों पर हीरे जडित ट्रे नुमा ट्रॉफ़ी , मुझे याद है कपिल के चार सौ बत्तीस विकेट ( शायद यही रिकॉर्ड था ) लेने पर लोगों द्वारा अपने घरों दीवारों पर रंगीन बल्बों से लिखी गई मुबारकबाद , और जाने कौन कौन सी यादें । मनिंदर सिंह का आखिर में सिर्फ़ एक रन न बना पाने के कारण हारे हुए मैच भी , और तपते बुखार में गावस्कर द्वारा मारा गया एकमात्र एकदिवसीय शतक जो उन्होंने अपनी ससुराल कानपुर में मारा था शायद , श्रीकांत की बॉलिंग और एक मैच में पांच विकेट लेना , नरेंद्र हिरवानी के पहले ही टैस्ट मैच में फ़िरकी से पूरी वैस्ट इंडीज़ टीम का बाजा बजा देना , सिक्सर सिद्धो , अज़हर की फ़िल्डींग , जडेज़ा की चालीसे के बाद की बल्लेबाजी , उफ़्फ़ कहां तक क्या क्या लिखूं ।



अब चलते चलते कुछ बातें इस विश्व कप की । जब ये विश्व कप शुरू हुआ तो जैसा कि मैंने अपनी पोस्टों में भी इस बात को लिखा कि इस बात की पूरी खबर जोर शोर से फ़ैली हुई थी कि इस महाखेल प्रतियोगिता में भी सट्टेबाजी का प्रकोप ज़ारी है ..जो दो बातें बहुत पहले ही तय हुई बताई गईं वो ये कि सेमिफ़ायनल में भारत पाकिस्तान को हराएगा और चैंपियंन भारत बनेगा ..लेकिन मुझे कहीं भी ये नहीं लगा कि जो खिलाडी अपना जीजान लगा के खेल रहे थे वे किसी भी तरह की सौदेबाजी में लिप्त थे , कम से कम अपनी टीम के लिए तो मैं पूरी तरह से आश्वस्त हूं । जो भी हो , ये जीत कई मायनों में एतिहासिक और यादगार रहेगी , क्रिकेट में एक किंवदंती बन चुके सचिन तेंदुलकर को दिया गया ये वो अनमोल तोहफ़ा है जो उन्हें दिया जाना बहुत ही जरूरी था । जो लोग इस जीत को , किसी भी अन्य समस्या से , अन्य मुद्दों से जोड या घटा के देख रहे हैं उन्हें ये समझना चाहिए कि कुछ मौके बहस और विमर्श से परे सिर्फ़ सेलिब्रेट करने के लिए भी होते हैं तो आप फ़िलहाल तो इस बात की खुशी मनाइए कि आप आज सिरमौर हैं , विश्व चैंपियन ...








सचिन खुद सिरमौर देश का , उसके सिर पे ताज यही  साजे


गुरुवार, 11 नवंबर 2010

जालियांवाला बाग ,शहीदी कुआं ....और कुछ यादें ..पंजाब यात्रा -५


पिछली पोस्ट में आप पढ चुके हैं कि कैसे हमने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की सैर और कुछ खरीददारी वैगेरह के बाद , वहीं पास में ही स्थित , जालियांवाला बाग की ओर बढ चले । जालियांवाला बाग के लिए मेरी धुंधली स्मृति में सिर्फ़ इतना था कि जब पिताजी के साथ गया था तो उस कुएं में झांक कर देखा था जिसे अब जाकर जाना कि शहीदी कुआं कहा जाता है । मुझे ये याद नहीं कि उस वक्त वो कुआं कैसा बना हुआ था , मगर अब जबकि उसे देखा तो पाया कि यकीनन ऐसा तो कतई नहीं था ।




जालियांवाला बाग के गेट के सामने ही आपको ढेर सारे लोग मिल जाएंगे कुछ उनमें से वो होंगे जो जालियांवाला बाग की तस्वीरों की मिनि एलबम बेचते दिख जाएंगे और कुछ वे जो आपको वाघा बॉर्डर ले जाने को तत्पर होंगे । खैर हम अंदर की तरफ़ चल पडे । अंदर एक बहुत ही खूबसूरत बाग बना हुआ दिखा । पहली ही झलक में जालियांवाला बाग की खूबसूरती को आप भांप सकते हैं ।














धूप तेज़ थी , इसलिए अंदर घुसते ही सब सुस्ताने बैठ गए । और मैं अपनी आदत से मजबूर उन्हें वहां छोड चल दिया आसपास का ज़ायज़ा लेने ।





मैं महसूस करके देखना चाह रहा था कि आखिर उस दिन क्या कैसे हुआ होगा । वो बाग चारों तरफ़ आबादी से घिरा हुआ है पता नहीं तब था कि नहीं । मैं यही सोच रहा था कि जब जनरल डायर ने सिपाहियों को बदस्तूर गोली चलाने और जब तक कि एक भी खडा व्यक्ति दिखे तब तक चलाते रहने का आदेश दिया होगा तो क्या गोलियों की आवाज आसपास के लोगों को सुनाई नहीं दी होगी और जिस बाग के दरवाजे को बंद करके दस हज़ार से अधिक लोगों पर गोलियों चलवाई जा रही थीं उस भीड में क्या अमृतसर का कोई ऐसा भी घर था जहां से वहां उस समय कोई मौजूद नहीं होगा तो फ़िर उस दरवाजे के खुलने के बाद कैसा हाहाकार मचा होगा । मैं सोच रहा था और कदम इधर उधर चल रहे थे । गेट के साथ बने हुए छोटे से चित्र गलियारे में पहुंच कर मैंने जैसे ही क्लिक किया ..मुझे टोका गया कि फ़ोटो खींचना मना है । मैंने फ़ौरन ही माफ़ी मांगी और फ़िर अच्छी तरह से उस चित्र गैलरी को देखने लगा । मैं समझ नहीं पाया कि आखिर किस कारण से मुझे रोका गया ..वो इकलौता चित्र ये था जो गलती से मैं खींच चुका था ।

साथ में बने एक और चित्रशाला में लगी विशाल पेंटिंग

साथ में ही अमर ज्योति , जिसकी लौ लगातार जलती रहती है । इसका निर्माण 1961 में कराया गया था ।






पुत्र आयुष बडे ही गौर से इस बाग के ऐतिहासिक महत्व के बारे में पूछ रहा था और मैं और उसकी मम्मी उसे बताती जा रही थीं ।


बीच बीच में साढू साहब के सुपुत्र जॉनी भी बहुत ही ध्यानपूर्वक सब सुन रहे थे । हम सब शहीदी कुएं की तरफ़ बढ चले ।



शहीदी कुएं में बहुत ही तब्दीली आ गई थी । सब उसे गौर से देख रहे थे । श्रीमती जी ने जैसे ही कुएं में झांका और जब मैंने उन्हें बताया कि उस दिन ये कुआं लोगों के लाशों के ढेर और उनके रक्त से ही भर गया था ।

कुएं के अंदर का दृश्य

उनका मन इतना तिक्त और विचलित हुआ कि वे ज्यादा देर तक खडी नहीं रह सकीं और आगे की ओर बढ चलीं । मैं थोडी देर तक और घूमता रहा ।

यही है वो स्थान जहां से गोलियां चलाई गईं थीं





अब तक शाम के पांच बज चुके थे और अभी दुर्गयाना मंदिर भी जाना था ।

जब तक हम दुर्गयाना मंदिर पहुंचे , वहां दुर्गा पूजा के कारण इतनी अधिक भीड हो चुकी थी कि , गेट के पास खडे पुलिसकर्मी ने हमें सलाह दी कि , हमें छोटे बच्चों के साथ अभी अंदर नहीं जाना चाहिए । और मैं मन मसोस कर जसदेव जी को वापसी का ईशारा कर चुका था ....।


मगर हां अभी पंजाब से वापसी नहीं हुई थी । आगे की पोस्टों में मैं आपको मिलवाऊंगा होशियारपुर में एक अनोखे हनुमान जी की प्रथा से और फ़िर चलेंगे घूमने ...प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के कॉलेज ...जहां उन्होंने पढाई की और बाद में पढाया भी ....
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