रविवार, 8 जून 2008

स्त्री (एक कविता )


आज आपको वीरेन्द्र सारंग जी की एक कविता पढ्वाता हूँ जो मुझे बेहद पसंद है,

मैं चाहता हूँ स्त्री होना,
सुरेले स्वर के साथ कर्कश भी,
करुना के बाद थोडा क्रोध भी,
मैं स्त्री होकर चुपचाप जीवन नहीं चाहता॥

मैं उकठा पुराण में खूजूंगा अपने को,
आर्त्नादों में अर्थ,,
मुंह लगना और भैंस का जाना पानी में,
समझकर पंखा झेलूंगा उमस भरे दिन में,
स्त्री होकर॥

मैं स्त्री होकर वाद्य नहीं होना चाहता की बजता रहूँ....
बर्तन भी नहीं की मंजता रहूँ सुबह-शाम,
मैं जानता हूँ, स्त्री से जो हवा आती है, वह,
सहस्र होती... सहती हो जाती है, और भोगती रहती स्त्री,
सारे काम भरे हैं घट्ठों वाले हाथों में ,
फ़िर भी बवालेजान स्त्री, मेहेंदी रचने के बाद भी,
ओखल-जाँत, बाल-जूडे, श्रृंगार भावना से लबरेज स्त्री,

गंदे मुहावरों के लिए प्रसिद्ध स्त्री,
श्रम-सौंदर्य के स्वेद में एन वक्त पर खाती है डांट,
पुष्ट आत्मविश्वास और कमाया-धमाया मिल जाता पानी में,
स्त्री होकर मैं चाहता हूँ मुट्ठी भीचना॥

मैं जानना चाहता हूँ और स्त्री की यात्राएं,
जो सिर्फ़ वही करती है एक पुरूष के लिए,
मैं सरंक्षित करना चाहता हूँ,
स्त्री के भीतर दबे उन्चासों पवन,
मैं विशेष आत्मविश्वास के साथ स्त्री के सफर पर हूँ,
स्त्री होकर .... वाकई मैं चाहता हूँ स्त्री होना॥

2 टिप्‍पणियां:

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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