शनिवार, 14 जून 2008

दान (एक छोटी सी कहानी )

सुबह सुबह ही विद्या के फोन की घंटी कम ही बजा करती थी इसलिए जब उस दिन अचानक ही नींद खुलने से पहले ही घंटी बज उठी तो उसने बुरा सा मुंह बनाया, और मन ही मन उस फोन मिलाने वाले को कोसती हुई फोन उठा कर देखने लगी, नंबर देखते ही झुंझलाहट कम हो गयी, कविता दीदी का फोन था,

" हेलो, अरे विद्या तूने, कल मुझे ये तो बता दिया की आज निर्जला एकादशी है , परन्तु शायद तुझे ये नहीं पता कि इस दिन का बड़ा महत्त्व है, सिर्फ़ चावल नहीं खाने का मतलब नहीं है, आज लोग खूब दान पुण्य , करते हैं। मैं तुझे बताती हूँ , आज के दिन मन्दिर में खरबूजा, पंखाघडा, दूध चीनी आदि का दान करने से बहुत पुण्य मिलता है। अरे हाँ , मुझे कौन सा मालूम था , वो तो माँ का फोन आया था , शायद तुझे भी करें।"

इसके बाद तो माँ , बड़ी दीदी, बाजी और जाने किस किस ने फोन करके पुण्य कमाने का सूत्र विद्या को बता दिया। दरअसल विद्या ने अभी अभी घर गिरहस्थी शुरू की थी, और फ़िर घर में सबसे छोटी होने के कारण भी सब उसे हर बात बताते और समझाते थे।

विद्या ने इसके बाद देर करना ठीक नहीं समझा और विनय को भी जबरदस्ती उत कर सारे सामानों की सूची पकडा दी, और ये भी बता दिया कि जब तक वो बाज़ार से ये सारी चीज़ें लाते हैं वो नहा धोकर तैयार हो जायेगी, ताकि मन्दिर जाकर वो सारी चीज़ें दान कर सके, बाद में बहुत भीड़ हो जाती है। विनय भी बेमन से उठ कर बाज़ार चल दिए और जाते जाते बोल गए , " भाई , तुम लोगों का कुछ नहीं हो सकता इस सबसे अच्छा तो ये होगा कि इन चीजों को किसी गरीब को देदो , भगवान् से तुम्हें क्या कब कैसे मिलेगा ये तो पता नहीं मगर गरीब की दुआ हाथोंहाथ मिल जायेगी।"


विद्या सारा समान लेकर फताफर मन्दिर की तरफ़ चल पडी। वहाँ देखा तो वहाँ पहले से ही बहुत सी औरतें , दान के लिए खादी थी, उसने सोचा कि शायद उसे थोडा और जल्दी आना चाहिए था, मगर वो क्या करती , सबने इसके बारे में आज ही तो बताया था। काफी इंतज़ार के बाद उसका नंबर भी आ ही गया , भगवान् को प्रणाम करने के बाद उसने दान की थाली पंडितजी के हाथ में पकडा दी। पंडित जी ने भी उसे खूब मन से आशीर्वाद दिया।

पूजा पाठ के बाद वो बाहर निकलने लगी , तो मन्दिर के गेट पर ही दो छोटी छोटी लडकियां फटी चिती फ्राक में उसके आगे हाथ पसारे आ गयी, अबी वो कुछ और सोचती इससे पहले ही उसे याद आया कि , अरे उसने तो मन्दिर की प्रदक्षिना की ही नहीं। वो तुरंत वापस घूम गयी। प्रदक्षिना करते करते जैसे ही मन्दिर के पीछे पहुँची तो उसे पंडित जी दिखाई दिए, पास में खड़े किसी लड़के को शायद कुछ कह रहे थे, " जा जल्दी से ये सब कुछ पीछे वाले लाला जी की दुकान पर दे आ, कभी कभार तो कमाने धामाने का मौका मिलता है, और हाँ मोहन से कह कि ये साले भूखे नंगे बच्चों को यहाँ से भगाए , सब साले मामला ख़राब करते हैं।"

विद्या ने उड़ती उड़ती निगाह डाली तो देखा कि पंडितजी सारा समान जो अभी अभी दान में लोग दे कर गए थे एक बड़े से पोलीथिन में दाल कर उस लड़के को पकडा रहे थे। विद्या पर निगाह पड़ते ही पंडित जी ने खिसयानी सी हंसी हंस दी।

विद्या, ने गेट पर खड़ी दोनों लड़कियों को दो दो रूपैये का सिक्का दिया। उसके मन को जो भी शांती मन्दिर में दान करते वक्त मिली थी वो सारी कब की उड़ गयी थी। उसे दान का मतलब समझ आ चुका था, और अब उसे अगली एकादशी का इंतज़ार है.

7 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कहानी लिखी है ............दान की महता तभी होती है जब वो किसी जरुरतमंद को दिया जाए

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  2. kahanee aap teeno ko pasand aayee. dhanyavaad.

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  3. अजय आपने कहानी बहुत अच्छी लिखी है और आपको शायद यकीन ना हो पर आपकी कहानी मे पंडित ने जो किया वैसा हाल हम अपनी आंखों से देख चुके है।

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  4. बहुत बढ़िया कहानी लिखी है. बधाई.

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  5. aap logon kaa dhanyavaad. kahanee padhne ke liye aur use pasand karne ke liye bhee.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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