शनिवार, 7 जून 2008

एक कविता या पता नहीं और कुछ

इतने निष्ठुर,
इतने निर्मम,
ये बच्चे,
अपने से नहीं लगते,
फ़िर किसने ,
ये नस्लें ,
बोई हैं॥

किस किस के ,
दर्द का,
करें हिसाब,
लगता है,
पिछली रात,
शहर की,
हर आँख,
रोई है॥

सपनो का,
पता नहीं,
मगर नींद तो,
उन्हें भी,
आती है,
जो ओढ़ते हैं,
चीथरे, या ,
जिनके जिस्म पर
रेशम की,
लोई है॥

क्या क्या,
तलाशूं , इस,
शहर में अपना,
मेरी मासूमियत,
मेरी फुरसत,
मेरी आदतें,
सपने तो सपने,
मेरी नींद भी,
इसी शहर में,
खोई है॥

ये तो ,
अपना अपना,
मुकद्दर है, यारों,
उन्होंने , सम्भाला है,
हर खंजरअपना ,
हमने उनकी,
दी हुई,
हर चोट,
संजोई है..

3 टिप्‍पणियां:

  1. सपने मत खोइए
    मुकद्दर को मत रोइए
    अपना हाथ जगन्नाथ
    देगा हमेशा आप का साथ

    जवाब देंहटाएं
  2. जो भी हो..है बहुत उम्दा. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. aap dono kaa dhanyavaad. dwivedee jee , gurujee kahan the aap main to kab se laalten liye aapkee baat joh raha thaa. chailye ab aa gaye hain to raastaa fir mat bhool jaaiyegaa.

    जवाब देंहटाएं

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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