कविता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कविता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 12 जुलाई 2009

मुई इस निगोड़ी ब्लॉग्गिंग से , हाय क्यूँ इतना हमें प्यार हुआ ?








मुई इस निगोड़े ब्लॉग्गिंग से,
हाय क्यूँ इतना हमें प्यार हुआ,
बिन इसके इक दिन अब तो,
जीना भी दुश्वार हुआ...

रिश्ते नाते हुए बेमानी,
दोस्त भी कतराते हैं,
बीवी बच्चे भी कोसें,जाओ तुम्हारा
ब्लॉग्गिंग ही परिवार हुआ...

अब लगे है नौकरी भी भारी,
क्या हुआ जो है सरकारी,
नौकरी क्यूँ बना कैरियर अपना,
हाय क्यूँ नहीं व्यापार हुआ....

लिखना छूटा-पढ़ना छूटा (किताबों का ),
हर कोई रहता, रूठा रूठा ,
जब से घुसे हैं ब्लॉग्गिंग में,
तगडा बंटाधार हुआ......

भाड़ में गयी दुनिया सारी ,
और दुनिया के लिए हम भाड़ में,
जब से पहुंचे इस दुनिया में,
कंप्यटर ही संसार हुआ...

बेलन चले , और बर्तन भी,
कभी मिले तीखे ताने,
क्या क्या बतलायें आपको,
इस ब्लॉगर के साथ क्या क्या अत्याचार हुआ....


अजी इतने तक तो बात ये रुकती,
हम सह जाते चुप रह जाते,
मगर अपनी मम्मी के साथ , हमसे लड़ने को,
बेटा भी तैयार हुआ.....

चार अक्षर क्या लिख पाए,
सबको अभी कहाँ टिपियाये,
इतना जुल्मो सितम हुआ,,,
हाय बेगाना घर-बार हुआ..


पिछले दिनों की जो कसर थी सारी,
निकालने की थी आज तैयारी,
इन ससुरे, ससुरालियों ने ,
हाय ये सन्डे भी बेकार किया......


मुई इस निगोड़ी ब्लॉग्गिंग से,
हाय क्यूँ इतना हमें प्यार हुआ ?

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

सपनो को फ्रिज में रख छोड़ा है

मैंने सपने देखना,
नहीं छोडा है,
न ही,
उन्हें पूरा करने की,
जद्दोजहद।
मगर फिलहाल,
जो हाल,
और हालात हैं,
उन सपनो को ।
फोंइल पेपर में,
लपेट कर,
फ्रिज में रख छोडा है,
मौसम जब बदलेगा,
और पिघलेगी बर्फ,
सपने फ़िर बाहर आयेंगे,
बिल्कुल ताजे और रंगीन.

सपनो को फ्रिज में रख छोड़ा है

मैंने सपने देखना,
नहीं छोडा है,
न ही,
उन्हें पूरा करने की,
जद्दोजहद।
मगर फिलहाल,
जो हाल,
और हालात हैं,
उन सपनो को ।
फोंइल पेपर में,
लपेट कर,
फ्रिज में रख छोडा है,
मौसम जब बदलेगा,
और पिघलेगी बर्फ,
सपने फ़िर बाहर आयेंगे,
बिल्कुल ताजे और रंगीन.

रविवार, 8 जून 2008

स्त्री (एक कविता )


आज आपको वीरेन्द्र सारंग जी की एक कविता पढ्वाता हूँ जो मुझे बेहद पसंद है,

मैं चाहता हूँ स्त्री होना,
सुरेले स्वर के साथ कर्कश भी,
करुना के बाद थोडा क्रोध भी,
मैं स्त्री होकर चुपचाप जीवन नहीं चाहता॥

मैं उकठा पुराण में खूजूंगा अपने को,
आर्त्नादों में अर्थ,,
मुंह लगना और भैंस का जाना पानी में,
समझकर पंखा झेलूंगा उमस भरे दिन में,
स्त्री होकर॥

मैं स्त्री होकर वाद्य नहीं होना चाहता की बजता रहूँ....
बर्तन भी नहीं की मंजता रहूँ सुबह-शाम,
मैं जानता हूँ, स्त्री से जो हवा आती है, वह,
सहस्र होती... सहती हो जाती है, और भोगती रहती स्त्री,
सारे काम भरे हैं घट्ठों वाले हाथों में ,
फ़िर भी बवालेजान स्त्री, मेहेंदी रचने के बाद भी,
ओखल-जाँत, बाल-जूडे, श्रृंगार भावना से लबरेज स्त्री,

गंदे मुहावरों के लिए प्रसिद्ध स्त्री,
श्रम-सौंदर्य के स्वेद में एन वक्त पर खाती है डांट,
पुष्ट आत्मविश्वास और कमाया-धमाया मिल जाता पानी में,
स्त्री होकर मैं चाहता हूँ मुट्ठी भीचना॥

मैं जानना चाहता हूँ और स्त्री की यात्राएं,
जो सिर्फ़ वही करती है एक पुरूष के लिए,
मैं सरंक्षित करना चाहता हूँ,
स्त्री के भीतर दबे उन्चासों पवन,
मैं विशेष आत्मविश्वास के साथ स्त्री के सफर पर हूँ,
स्त्री होकर .... वाकई मैं चाहता हूँ स्त्री होना॥

स्त्री (एक कविता )


आज आपको वीरेन्द्र सारंग जी की एक कविता पढ्वाता हूँ जो मुझे बेहद पसंद है,

मैं चाहता हूँ स्त्री होना,
सुरेले स्वर के साथ कर्कश भी,
करुना के बाद थोडा क्रोध भी,
मैं स्त्री होकर चुपचाप जीवन नहीं चाहता॥

मैं उकठा पुराण में खूजूंगा अपने को,
आर्त्नादों में अर्थ,,
मुंह लगना और भैंस का जाना पानी में,
समझकर पंखा झेलूंगा उमस भरे दिन में,
स्त्री होकर॥

मैं स्त्री होकर वाद्य नहीं होना चाहता की बजता रहूँ....
बर्तन भी नहीं की मंजता रहूँ सुबह-शाम,
मैं जानता हूँ, स्त्री से जो हवा आती है, वह,
सहस्र होती... सहती हो जाती है, और भोगती रहती स्त्री,
सारे काम भरे हैं घट्ठों वाले हाथों में ,
फ़िर भी बवालेजान स्त्री, मेहेंदी रचने के बाद भी,
ओखल-जाँत, बाल-जूडे, श्रृंगार भावना से लबरेज स्त्री,

गंदे मुहावरों के लिए प्रसिद्ध स्त्री,
श्रम-सौंदर्य के स्वेद में एन वक्त पर खाती है डांट,
पुष्ट आत्मविश्वास और कमाया-धमाया मिल जाता पानी में,
स्त्री होकर मैं चाहता हूँ मुट्ठी भीचना॥

मैं जानना चाहता हूँ और स्त्री की यात्राएं,
जो सिर्फ़ वही करती है एक पुरूष के लिए,
मैं सरंक्षित करना चाहता हूँ,
स्त्री के भीतर दबे उन्चासों पवन,
मैं विशेष आत्मविश्वास के साथ स्त्री के सफर पर हूँ,
स्त्री होकर .... वाकई मैं चाहता हूँ स्त्री होना॥

सोमवार, 2 जून 2008

हमने चिट्ठों को अपनी संतान बना रखा है (कविता )

जाने कब से,
अपने आसपास,
एक छद्म,
संसार बसा रखा है॥

हरकतों से,
पकड़े जाते हैं,
हैवानों ने भी,
इंसान का,
नकाब लगा रखा है॥

कोई बेच रहा,
धर्म, तो कोई ,
शर्म, और इमान,
कईयों ने तो जीवन को ही,
दूकान बना रखा है॥

बेदिली की ये,
इंतहा है यारों,
माओं ने कोख को,
बेटियों का,
शमशान बना रखा है॥

कितनी बेकसी,
का दौर है ये,
न दिल में जगह है,
न घर में,
लोगों ने मान-बाप को भी,
मेहमान बना रखा है॥

लपटें सी ,
उठ रही हैं,
शहर के हर घर से,
हमने इसीलिए,
गाओं में भी एक,
मकान बना रखा है॥

एक हम हैं, जो,
चेहरे पे नाम लिखा है,
कई मशहूर हैं इतने की,
गुमनामी को ही,
पहचान बना रखा है॥

अभी तो उँगलियों ने,
रफ़्तार नहीं पकडी है,
घरवालों की तोहमत है,
हमने चिट्ठों को अपनी,
संतान बना रखा है॥

अजय कुमार झा
9871205767

हमने चिट्ठों को अपनी संतान बना रखा है (कविता )

जाने कब से,
अपने आसपास,
एक छद्म,
संसार बसा रखा है॥

हरकतों से,
पकड़े जाते हैं,
हैवानों ने भी,
इंसान का,
नकाब लगा रखा है॥

कोई बेच रहा,
धर्म, तो कोई ,
शर्म, और इमान,
कईयों ने तो जीवन को ही,
दूकान बना रखा है॥

बेदिली की ये,
इंतहा है यारों,
माओं ने कोख को,
बेटियों का,
शमशान बना रखा है॥

कितनी बेकसी,
का दौर है ये,
न दिल में जगह है,
न घर में,
लोगों ने मान-बाप को भी,
मेहमान बना रखा है॥

लपटें सी ,
उठ रही हैं,
शहर के हर घर से,
हमने इसीलिए,
गाओं में भी एक,
मकान बना रखा है॥

एक हम हैं, जो,
चेहरे पे नाम लिखा है,
कई मशहूर हैं इतने की,
गुमनामी को ही,
पहचान बना रखा है॥

अभी तो उँगलियों ने,
रफ़्तार नहीं पकडी है,
घरवालों की तोहमत है,
हमने चिट्ठों को अपनी,
संतान बना रखा है॥

अजय कुमार झा
9871205767

बुधवार, 5 मार्च 2008

में खुद को ही प्यार करने लगा

जब लगे,
दुत्कारने,
मुझको सभी,
परित्यक्त ,
सा हर कोई,
व्यवहार करने लगा॥

खुद को,
उठाया,
गले से,
लगाया,
में खुद ,
खुद को,
ही प्यार करने लगा॥

जीता रहा,
जिस दुनिया को,
अपने,
सीने से लगाए,
मुझे अपने से,
दूर जब ये,
संसार करने लगा॥

खुद को,
सम्भाला,
संवारा-सराहा,
स्नेह से,
पुचकारा,
खुद को ही,
लाड करने लगा॥

उसने इतना,
दिया नहीं मौका,
कि उसे,
कह पाता,
मैं बेवफा,
तो खुद ,
आईने में,
अपने अक्स से,
मोहब्बत का,
इजहार करने लगा।

क्या करता सोचा चलो कोई तो होना ही चाहिए प्यार करने वाला तो मैं खुद ही क्यों ना

में खुद को ही प्यार करने लगा

जब लगे,
दुत्कारने,
मुझको सभी,
परित्यक्त ,
सा हर कोई,
व्यवहार करने लगा॥

खुद को,
उठाया,
गले से,
लगाया,
में खुद ,
खुद को,
ही प्यार करने लगा॥

जीता रहा,
जिस दुनिया को,
अपने,
सीने से लगाए,
मुझे अपने से,
दूर जब ये,
संसार करने लगा॥

खुद को,
सम्भाला,
संवारा-सराहा,
स्नेह से,
पुचकारा,
खुद को ही,
लाड करने लगा॥

उसने इतना,
दिया नहीं मौका,
कि उसे,
कह पाता,
मैं बेवफा,
तो खुद ,
आईने में,
अपने अक्स से,
मोहब्बत का,
इजहार करने लगा।

क्या करता सोचा चलो कोई तो होना ही चाहिए प्यार करने वाला तो मैं खुद ही क्यों ना

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

अतीत की एक खिड़की (कविता )

अतीत की,
इक झरोखा ,
जबसे,
अपने अन्दर,
खोला है॥

आँगन के,
हर कोने पे,
टंगा हुआ,
बस,
खुशियों का,
झोला है॥

तोतों के,
झुंड मिले,
तितलियों की,
टोली भी,
बरसों बाद ,
सुन पाया,
मैं कोयल की,
बोली भी॥

आम चढा ,
अमरुद चढा ,
नापे कई,
नदी नाले भी,
बन्दर संग ,
मिला मदारी,
मिल गए ,
जादू वाले भी॥

नानी से फ़िर,
सुनी कहानी,
दादी ने ,
लाड दुलार किया,
गली में मिल गयी,
निम्मो रानी,
जिससे मैंने , प्यार,
पहली बार किया॥

बारिश पडी टू,
नाचे छमछम,
हवा चली और,
उडी पतंग,
मिली दिवाली,
फुल्झाध्यिओं सी,
इन्द्रधनुष से,
होली के रंग॥

फ़िर इक,
हल्का सा,
झोंका आया,
खुली आँख और,
कुछ नहीं पाया॥

काश , कभी,
वो छोटी खिड़की,
यूं न बंद होने पाती,
ख़ुद खोलता,
मैं उसको,
रोज ये जवानी,
बचपन से ,
जा कर मिल आती॥

अफ़सोस की ये खिड़की सिर्फ़ तभी खुलती है जब मैं गहरी नींद में होता हूँ.

अतीत की एक खिड़की (कविता )

अतीत की,
इक झरोखा ,
जबसे,
अपने अन्दर,
खोला है॥

आँगन के,
हर कोने पे,
टंगा हुआ,
बस,
खुशियों का,
झोला है॥

तोतों के,
झुंड मिले,
तितलियों की,
टोली भी,
बरसों बाद ,
सुन पाया,
मैं कोयल की,
बोली भी॥

आम चढा ,
अमरुद चढा ,
नापे कई,
नदी नाले भी,
बन्दर संग ,
मिला मदारी,
मिल गए ,
जादू वाले भी॥

नानी से फ़िर,
सुनी कहानी,
दादी ने ,
लाड दुलार किया,
गली में मिल गयी,
निम्मो रानी,
जिससे मैंने , प्यार,
पहली बार किया॥

बारिश पडी टू,
नाचे छमछम,
हवा चली और,
उडी पतंग,
मिली दिवाली,
फुल्झाध्यिओं सी,
इन्द्रधनुष से,
होली के रंग॥

फ़िर इक,
हल्का सा,
झोंका आया,
खुली आँख और,
कुछ नहीं पाया॥

काश , कभी,
वो छोटी खिड़की,
यूं न बंद होने पाती,
ख़ुद खोलता,
मैं उसको,
रोज ये जवानी,
बचपन से ,
जा कर मिल आती॥

अफ़सोस की ये खिड़की सिर्फ़ तभी खुलती है जब मैं गहरी नींद में होता हूँ.

बुधवार, 27 फ़रवरी 2008

खुद को इक दिन इंसान बना लूंगा (कविता)

कोशिश मेरी,
जारी है,
इक दिन ,
मैं खुद को,
इंसान बना लूंगा॥

जब्त कर लूंगा ,
सारा गुस्सा ,
और नफरत भी,
भीतर ही अपने,
अभिमान दबा दूंगा॥

तुम रख लेना,
मेरे हिस्से की,
खुशी का,
कतरा-कतरा,
तुम्हारे सारे,
ग़मों को अपना,
मेहमान बना लूंगा॥

उखड जायेंगे,
सियासत्दाओनोन् के,
महल और,
मनसूबे भी,
बेबसों की,
आहों को वो,
तूफान बना दूंगा॥

तुम दरो न,
की कहीं ,
मेरे हमनाम,
बन कर,
बदनाम ना हो जाओ,
जब कहोगे,
खुद को, तुमसे,
अनजान बना लूंगा॥

बेशक मुझे,
बड़े नामों में,
कभी गिना ना जाए,
बहुत छोटी ही सही,
मगर अपनी,
पहचान बना लूंगा।

कोशिश जारी है और आगे भी रहेगी...

खुद को इक दिन इंसान बना लूंगा (कविता)

कोशिश मेरी,
जारी है,
इक दिन ,
मैं खुद को,
इंसान बना लूंगा॥

जब्त कर लूंगा ,
सारा गुस्सा ,
और नफरत भी,
भीतर ही अपने,
अभिमान दबा दूंगा॥

तुम रख लेना,
मेरे हिस्से की,
खुशी का,
कतरा-कतरा,
तुम्हारे सारे,
ग़मों को अपना,
मेहमान बना लूंगा॥

उखड जायेंगे,
सियासत्दाओनोन् के,
महल और,
मनसूबे भी,
बेबसों की,
आहों को वो,
तूफान बना दूंगा॥

तुम दरो न,
की कहीं ,
मेरे हमनाम,
बन कर,
बदनाम ना हो जाओ,
जब कहोगे,
खुद को, तुमसे,
अनजान बना लूंगा॥

बेशक मुझे,
बड़े नामों में,
कभी गिना ना जाए,
बहुत छोटी ही सही,
मगर अपनी,
पहचान बना लूंगा।

कोशिश जारी है और आगे भी रहेगी...

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

दरकते रिश्ते (एक कविता )

मर रहा है ,
हर एहसास आज,
और रिश्ते भी ,
दरकते जा रहे हैं॥

अब ख़ुद पर बस नहीं,
कठपुतली , बन वक्त के साथ,
थिरकते जा रहे हैं॥

लगे तो रहे, ताउम्र, पर जाने,
निपटाए काम की, हम ही ,
निपटते जा रहे हैं॥

gairon से दुश्मनी की,
कहाँ है फुरसत,
हम तो अपनों से ही,
उलझते जा रहे हैं।

न खाते-पैगाम, न दुआ सलाम,
युग हो रहा है वैश्विक, हम,
सिमटते जा रहे हैं॥

चाहता हूँ की रहे साथ सिर्फ़ मोहाब्बत,
पर खुदगर्जी और नफरत भी मुझसे,
लिपटते जा रहे हैं॥

सपने पाल लिए इतने की,
भिखारियों की मानिंद,
घिसटते जा रहे हैं॥

आंखों ने रोना छोडा,
हमने भी सिल लिए लैब,
जख्म ख़ुद ही अब तो ,
सिसकते जा रहे हैं॥

कैसे कोसुं अब,
इस पापी दुनिया को,
जब मुझमें भी सभी पाप,
पनपते जा रहे हैं॥

दरकते रिश्ते (एक कविता )

मर रहा है ,
हर एहसास आज,
और रिश्ते भी ,
दरकते जा रहे हैं॥

अब ख़ुद पर बस नहीं,
कठपुतली , बन वक्त के साथ,
थिरकते जा रहे हैं॥

लगे तो रहे, ताउम्र, पर जाने,
निपटाए काम की, हम ही ,
निपटते जा रहे हैं॥

gairon से दुश्मनी की,
कहाँ है फुरसत,
हम तो अपनों से ही,
उलझते जा रहे हैं।

न खाते-पैगाम, न दुआ सलाम,
युग हो रहा है वैश्विक, हम,
सिमटते जा रहे हैं॥

चाहता हूँ की रहे साथ सिर्फ़ मोहाब्बत,
पर खुदगर्जी और नफरत भी मुझसे,
लिपटते जा रहे हैं॥

सपने पाल लिए इतने की,
भिखारियों की मानिंद,
घिसटते जा रहे हैं॥

आंखों ने रोना छोडा,
हमने भी सिल लिए लैब,
जख्म ख़ुद ही अब तो ,
सिसकते जा रहे हैं॥

कैसे कोसुं अब,
इस पापी दुनिया को,
जब मुझमें भी सभी पाप,
पनपते जा रहे हैं॥

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

आदमियों की भीड़ में इंसान नहीं मिलता

यहाँ आदमियों की,
भीड़ है,
पर कोई,
इंसान नहीं मिलता..

सबसे निश्छल,
सबसे निष्पाप,
ऐसा कोई,
नादाँ नहीं मिलता॥

बेईमानों की,
पहुंच ऊंची है,
रुत्बेदार कोई,
ईमान नहीं मिलता॥

पंख मिलते ही,
उड़ जाते हैं परिंदे घरों से,
माँ-बाप की लाठी सा,
संतान नहीं मिलता॥

हर तरफ शोर है,
कहीं रोने का, कहीं गाने का,
शहर का कोई कोना,
सुनसान नहीं मिलता॥

यूं तो धनकुबेरों की,
फेहरिस्त है बहुत लम्बी,
पर गरीबों को अपना कहे जो,
धनवान नहीं मिलता॥

आदमियों की भीड़ में इंसान नहीं मिलता

यहाँ आदमियों की,
भीड़ है,
पर कोई,
इंसान नहीं मिलता..

सबसे निश्छल,
सबसे निष्पाप,
ऐसा कोई,
नादाँ नहीं मिलता॥

बेईमानों की,
पहुंच ऊंची है,
रुत्बेदार कोई,
ईमान नहीं मिलता॥

पंख मिलते ही,
उड़ जाते हैं परिंदे घरों से,
माँ-बाप की लाठी सा,
संतान नहीं मिलता॥

हर तरफ शोर है,
कहीं रोने का, कहीं गाने का,
शहर का कोई कोना,
सुनसान नहीं मिलता॥

यूं तो धनकुबेरों की,
फेहरिस्त है बहुत लम्बी,
पर गरीबों को अपना कहे जो,
धनवान नहीं मिलता॥

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

दर्द संभालता हूँ मैं ( एक कविता )

हर पल,
इक नया ,
वक़्त ,
तलाशता हूँ मैं॥

जो मुझ संग,
हँसे रोये,
वो बुत,
तराश्ता हूँ मैं॥

मेरी फितरत ,
ही ऐसी है कि,
रोज़ नए दर्द,
संभालता हूँ मैं॥

परवरिश हुई है,
कुछ इस तरह से कि,
कभी जख्म मुझे, कभी,
जख्मों को पालता हूँ मैं॥

सुना है कि, हर ख़ुशी के बाद,
एक गम आता है, तो,
जब भी देती है, ख़ुशी दस्तक,
आगे को टालता हूँ मैं॥

वो कहते हैं कि,
धधकती हैं मेरी आखें,
क्या करूं कि सीने में,
इक आग उबालता हूँ मैं॥


क्या करूं , ऐसा ही हूँ मैं....

दर्द संभालता हूँ मैं ( एक कविता )

हर पल,
इक नया ,
वक़्त ,
तलाशता हूँ मैं॥

जो मुझ संग,
हँसे रोये,
वो बुत,
तराश्ता हूँ मैं॥

मेरी फितरत ,
ही ऐसी है कि,
रोज़ नए दर्द,
संभालता हूँ मैं॥

परवरिश हुई है,
कुछ इस तरह से कि,
कभी जख्म मुझे, कभी,
जख्मों को पालता हूँ मैं॥

सुना है कि, हर ख़ुशी के बाद,
एक गम आता है, तो,
जब भी देती है, ख़ुशी दस्तक,
आगे को टालता हूँ मैं॥

वो कहते हैं कि,
धधकती हैं मेरी आखें,
क्या करूं कि सीने में,
इक आग उबालता हूँ मैं॥


क्या करूं , ऐसा ही हूँ मैं....

बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

वो लड़कपन के दिन (एक कविता )

काश कि ,
कभी उन,
लड़कपन के,
दिनों में फिर से,
जो लॉट मैं पाता॥


खुदा कसम,
उस बचपने और,
उस मासूमियत से,
यहाँ फिर कभी मैं,
न लॉट के आता॥

वो कागज़ की नाव,
वो कागज़ की प्लेन,
और कागज़ की पतंग,
हर बच्चा, हर रोज़,
कागज़ की कोई दुनिया बनाता॥

कभी पतंगों की लूट,
कभी झगडे झूठ मूठ,
वो छोटी सी साइकल,
उसकी घंटी की टन टन , अब,
कार में कहाँ वो आनंद है आता॥

वो होली-दिवाली का,
महीनों पहले से इंतज़ार,
कहाँ भूल पाया हूँ,
वो बचपन का प्यार, काश कि,
खुदा फिर उससे मिलाता॥

कभी बाबूजी की दांत, कभी माँ का लाड,
कभी काच्चे अमरुद, कभी बेरी का झाड़,
बीता जो लड़कपन तो ,
बना ये जीवन पहाड़, काश कि,
ये पहाड़ मैं कभी चढ़ न पाता॥

काश कि ,
कभी उन,
लड़कपन के,
दिनों में, फिर से,
जो लॉट मैं पाता॥????


क्या आपको भी वो दिन सताते हैं , या कि कुछ याद दिलाते हैं??
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...