जाने कब से,
अपने आसपास,
एक छद्म,
संसार बसा रखा है॥
हरकतों से,
पकड़े जाते हैं,
हैवानों ने भी,
इंसान का,
नकाब लगा रखा है॥
कोई बेच रहा,
धर्म, तो कोई ,
शर्म, और इमान,
कईयों ने तो जीवन को ही,
दूकान बना रखा है॥
बेदिली की ये,
इंतहा है यारों,
माओं ने कोख को,
बेटियों का,
शमशान बना रखा है॥
कितनी बेकसी,
का दौर है ये,
न दिल में जगह है,
न घर में,
लोगों ने मान-बाप को भी,
मेहमान बना रखा है॥
लपटें सी ,
उठ रही हैं,
शहर के हर घर से,
हमने इसीलिए,
गाओं में भी एक,
मकान बना रखा है॥
एक हम हैं, जो,
चेहरे पे नाम लिखा है,
कई मशहूर हैं इतने की,
गुमनामी को ही,
पहचान बना रखा है॥
अभी तो उँगलियों ने,
रफ़्तार नहीं पकडी है,
घरवालों की तोहमत है,
हमने चिट्ठों को अपनी,
संतान बना रखा है॥
अजय कुमार झा
9871205767
अभी तो उँगलियों ने,
जवाब देंहटाएंरफ़्तार नहीं पकडी है,
घरवालों की तोहमत है,
हमने चिट्ठों को अपनी,
संतान बना रखा है॥
nice way to express
हमने चिट्ठों को अपनी,
जवाब देंहटाएंसंतान बना रखा है॥
-अब तो तोहमत लग ही चुकी है. अब पालिये, पोसिये और बड़ा किजिये. शुभकामनाऐं.
वाह झा साहब, बेहतरीन रचना । हम भी शामिल हैं आपकी कविता में । शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंaap teeno kaa dhanyavaad. udantashtaree jee sahee kahaa apne ab to paalnaa hee padegaa, waise mujhe ummeed hai ki ek din yahee mujhe palega.
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