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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

उदयपुर : हिन्दुस्तान का सबसे खूबसूरत शहर




उदयपुर राजस्थान के पश्चिमी छोर पर और गुजरात से बिलकुल सटा हुए न सिर्फ देश का सबसे खूबसूरत बल्कि विश्व का तीसरा सबसे स्वच्छ शहर है।  मेरी बहन का निवास स्थान होने के कारण मुझे न सिर्फ उस शहर को एक पर्यटक बल्कि एक नागरिक के रूप में भी समझने का अवसर मिला।  एक ही वर्ष में कार ,रेल ,बस द्वारा मैंने सपरिवार अनेक यात्राएं की और हर बार नए अनुभव नए स्थान जान देख कर चित्त प्रसन्न हो जाता है।  इस शहर की सामाजिक और भौगोलिक खूबसूरती के अतिरिक्त यहां के पावन धार्मिक स्थलों का अनुपम अद्वितीय सौंदर्य किसी को भी मोहित कर सकता है और मुझ जैसी प्रकृति प्रेमी को तो ये इतना भा गया है कि मैंने निश्चय किया है कि सेवा अवकाश के पश्चात इसी शहर को अपना स्थाई निवास स्थान बनाऊंगा। अब से लेकर आगे कई पोस्टों तक मैं आपको वो दिखाऊंगा और समझाऊंगा जो मैंने इस शहर के बारे में अनुभव किया।  इसकी शुरुआत इन खूबसूरत तस्वीरों से करते हैं। 
















बुधवार, 29 जून 2011

बचपन कभी लौट के नहीं आता....कुछ यादें , कुछ बातें




बचपन , और उसकी यादें । सच कहूं तो बचपन खुद ही यादों का टोकरा होता है , कमाल की बात ये है कि बचपन न सिर्फ़ हमारे लिए बल्कि हमारे अपनों के लिए भी हमारा बचपन उनकी यादों का टोकरा ही होता है । एक ऐसा टोकरा , जो समय के साथ और भी भरता जाता है , नई यादें जुडती जाती हैं लेकिन फ़िर भी बचपन की यादों का तो जैसे एक अलग ही सैक्शन होता है । और बचपन की बातें जब आप बडे होकर याद करते हैं , तो बहुत सी मीठी खट्टी यादें आपके आसपास तैरने लगती हैं ।

मुझे अगर बचपन की सारी यादों में कुछ चुनिंदा यादें अलग करने को कहा जाए तो मैं यकीनन , ही गर्मियों की छुट्टियों के उन दिनों को याद करता हूं जो हम अक्सर नानी गांव में बिताया करते थे । पिताजी फ़ौजी थे और हम सेंट्रल स्कूल के बच्चे , हमारे दो महीने की गर्मियों की छुट्टियां पापा के लिए दो महीने की एनुअल लीव में कंवर्ट हो जाती थी । उन दिनों रेल में सफ़र करने की जो यादें , वो पुराने स्टेशन , चारबाग लखनऊ का , तांगों से खचाखच भरा हुआ ,वहां से सफ़र शुरू होकर खत्म होता था बिहार के मधुबनी जंक्शन पर । आह क्या सफ़र होता था कमाल का , सुराही और छागल का जमाना था वो , स्टेशन पर गाडी रुकते ही पानी के लिए भागमभाग, सुराही में डाल कर उसके खिडकी के किनारे रख देना , सुना था कि जितनी हवा लगती है सुराही को पानी उतना ठंडा हो जाता है , और वाह क्या होता था ठंडा । उफ़्फ़ वो मिट्टी की सौंधी खुशबू , फ़िर पूरी जिंदगी मयस्सर नहीं हुआ वो अमृत । मधुबनी पहुंचते पहुंचते हालत ऐसी हो चुकी होती थी कि मानो दंगल लड के आ रहे हैं । 

स्टेशन पर पहला काम होता था , मां का , हमें प्लेटफ़ॉर्म पर लगे चापाकल पर जितना हो सके मांज के पहचाने जाने लायक करना , अगर पापा का मूड ठीक है और वे बक्से को दोबारा से खोल बंद करने में गुस्सा नहीं किए जाने जैसे दिख रहे हैं तो फ़िर आपको एक अदद जोडी हाफ़ पैंट और टीशर्ट भी प्रदान की जा सकती है । स्टेशन से आगे का सफ़र तय होता था कटही गाडी (हां ये बैलगाडी जैसा होता था लेकिन पीछे की बॉडी और यहां तक कि उसके पहिए भी सिर्फ़ लकडी का बना होता था ), समय लगता था तकरीबन चार या सवा चार घंटे । ओह क्या सफ़र होता था वो , नदिया के पार का कोन दिसा में ले के चला रे बटोहिया का गाना याद है आपको , बस वही सिनेमा चलता था समझिए , रेत वाले और मिट्टी वाले रास्तों में जब वो कटही गाडी फ़ंसती थी तो हमारे मौसेरे भाई जो उसके डरेवर हुआ करते थे , वे कूद के आगे से बैलों को आव आव आव आव आव आव करते थे और हम बच्चे , नीचे उतर के मस्ती करने लगते थे । रास्ते में लगे हुए आम के पेडों में वो लदे फ़दे आम । कई बार इतने लदे हुए कि नीचे से सोंगड (डाली को अबांस या लाठी का सहारा देना ) तक लगे रहते थे । हम ऐसे हुलस जाते थे कि कूद के तोड लिया जाए या कि मार जाए मिट्टी का ढेला और आम हाथ में । कई बार कर भी डालते थे , आम तो क्या खाक आना था , बगीचे वाले जरूर आ जाते थे फ़िर देखते तो कहते , अरे ई सहरूआ सब है , दे दो , आम दो , गोपी आम सब (गोपी आम वो जो उन दिनों सबसे पहले पेडों पर पकते थे ) , और बस रास्ते में ही पेट पूजा का जुगाड हो जाता था । रास्ते में पडने वाले जाने कितने ही कमल गाछी , बगीचे , ताल , तलैये , पोखरे , मंदिर , कुंएं , ढिहबाड स्थान , सब एक एक करके यादों का कोना पकड लेते थे , और जिन कोनों को हम शहर में जाकर हम टटोला करते थे ..........

हालांकि टटोलने को तो अब हम उन शहरों को भी टटोला करते हैं जो उन दिनों में शहर सरीखे लगते थे । शहर जिनमें कालोनियां हुआ करती थीं दूर दूर , मैदान हुआ करते थे , घर , घर जैसे लगते थे जिनके आगे पीछे इत्ती खुली जगह तो होती ही थी कि ठाट से घर की उगाई सब्जी आप खाने में इस्तेमाल कर सकते थे और जो जरा जोरदार मेहनती आदमी हुए तो पडोसियों की भी मौज थी , आखिर बेलों में थोक के भाव निकलने वाली तोरियों और खीरों पे उन्हें भी बराबर की राय्ल्टी मिलने वाली जो होती थी । बचपन का एक ऐसा ही शहर था लखनऊ ।
इमामबाडा 



ओह क्या बात थी उस शहर की वो भी उस समय जब लखनऊ की नफ़ासत पूरे शबाब पर थी , बडे और छोटे इमामबाडों के झूमरों की चमक दिन में बिना जले भी कयामत सरीखी हुआ करती थी , भुलभुलैय्या सच में खो जाने जैसा डरवना लगता था और वो बडे वाले रामलीला ग्राउंड में दशहरे का रावण दहन मेला , तोपखाना बाज़ार की रामलीला , दोस्त और सहपाठी संजय सुतार के पापा जी की लवली स्टुडियो , एक फ़ोटो या शायद ज्यादा भी अब तक मिलती हैं पुराने एलबमों में । लखनऊ बहुत से कारणों से याद रहा है हमेशा , तांगों का शहर , तांगे उन दिनों सडकों के राजे हुआ करते थे । पूरा लखनऊ , टकबक टकबक की गूंजों से ठहाके लगाया करता था । मीना बाज़ार की धूम से लेकर प्रकाश कुल्फ़ी , फ़ालूदे वाले के आलीशान रेस्तरां में एक फ़ुल प्लेट चौदह रुपए की , उम्माह क्या बात थी उन दिनों की भी । शोर फ़िल्म को देखकर , तोपखाना बाज़ार के पास भी आया था एक सायकल चलाने वाला बाजीगर ...। लखनऊ की दीवाली की चमक जब ईद की ठसक से मिलती थी तो यकीन मानिए कि समां ही कुछ और बंध जाता था । सच कहें तो देश की असल संसकृति वहीं देखी परखी थी । वो पतंगों की दुनिया और वो पेशेवर बदेबाज ।बदेबाज जानते हैं आप , अरे वही जो पतंगों पे नोट चिपका के उडाया करते थे , और टक्कर होती थी किसी और नोट चिपके पतंग से , उफ़्फ़ क्या कयामत की जंग हुआ करती थी डोरों की , मानों एक पतंग के उडने से लेकर उसके कटने तक एक पूरी जिंदगी जी जाया करती थी वो डोर और उसकी सखी मांझा । आसमान भरा होता था उन कागजी जंगी जहाज़ों से । 


गोमती उन दिनों उफ़नती खूब थी और बरसाती नाले भी । ऐसा लगता था मानो कैंट का पूरा वो हिस्सा , हरी चटक साफ़ धुली चादर ओढे बैठे हैं । लेकिन सिर्फ़ अच्छा अच्छा ही नहीं होता था , मुझे याद है कि दो बरसातों मे दो बच्चों के नाली में फ़िसल कर बह जाने के कारण मौत की घटना भी देखी सुनी थी । लेकिन फ़िर भी इन कडवी यादों को परे रखकर बरसात के वो दिन पुदीने के पकौडे , हरी खट्टी चटनी के साथ खाने के दिन हुआ करते थे और हां आज के बच्चे जो अपनी कविताओं में पढते हैं न कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी , उन दिनों हकीकत थी भाई लोगों , एक बडी ही प्यारी हकीकत । जब भी उस शहर की खिडकी में पर्दों को उठा कर झांकने की कोशिश करता हूं एक हूक सी उठ जाती है । लखनऊ की यादों में तुलसी सिनेमा हॉल का , कुकरैल वन यानि क्रोकोडाईल पार्क और बोटैनिकल गार्डन का ज़िक्र भी कैसे भूल सकता हूं । एक पार्क की याद नहीं आ रही है , उसके सामने अंग्रेजों की बनी हुई कोई कोठीनुमा हवेली सी थी , पता नहीं क्या नाम था उसका , वो छोटी वाली गोल ईंटों से निर्मित भवन स्कूल की तरफ़ से और माता पिता से मिली अनुमति के महान सहमति के बाद जाने मिला था वो मौका । स्कूल में लगे वो शहतूत के पेड , लंच में चीलों का स्कूल के मैदानों के ऊपर चक्कर काटना और हमारा रोटी के टुकडे उछालना । 

          लखनऊ की दास्तान तो शायद पहले भी आपसे कह चुका हूं ,लखनऊके सेंट्रल स्कूल में दूसरी कक्षा का वो पहला दिन ,आदत के अनुसार रोतेहुए ही स्कूल पहुंचा था ...और मैं उन बच्चों में से ही एक था .जो बहुत समयतक तुतलाते हैं। बस पहला दिन ही याद रह गया था बहुत दिनों तक ।रिसेस पीरीयड में तो ..अपना गर्दभ रुदन हमारी ,मैडम के इतना नाकाबिलेबर्दाश्त हुआ कि उन्होंने हमे चुप कराने की खातिर .अपना लंच बॉक्स उस दिनहमारे नाम कुर्बान कर दिया,.दीदी की सहेलियों ने बहुत समय तक हमारी तुतलाती बोली को ..अपने सब टीवी समझ कर उपयोग किया ..। 


सेन्ट्रल स्कूल , लखनऊ
खनऊ के दोस्तों में अनिल विनोद की जुडवां भाईयों की जोडी हम दोनों ,भाईयों की जोडी के साथ मिल कर बिल्कुल जहां चार यार मिल जाएं वाली गैंग सी बन गई थी और उस जमाने के खेल भी उफ़्फ़ ..क्या खेल थे वे भी स्कूल में , कागज के तरह तरह के खिलौने , कैमरा , नाव , डौगी...और जाने क्या क्या .सोचता हूं उस कागज के कैमरे को बना कर जो खुशीहमें मिलती थी वो आजकल के बच्चों को फ़ेसबुक पर कोई मैसेज भेज कर कहांआ पाता होगा ? 

वो कंचों की रंगबिरंगी और चंचल चटकीली दुनिया वो मिट्टी की गुच्चियों मेंकंचों को पिलाना .और फ़िर वो सर्फ़ के बडे वाले मजबूत गत्ते के गोल डब्बे में...सैकडों कंचे संभाल कर रखना .जब एक साथ देखो तो लगता था मानो हर कंचे में एक आकाश गंगा समाई होती थी फ़िर वो सर्फ़ का डिब्बासिर्फ़ कंचों के खजाने को ही तो नहीं समेटे रहता था .उसमें बाद में हमनेमाचिस की डिब्बियों के कवर भी हजारों की संख्या में भर के रख लिए थे.ओह और उसका वो ताश टाईप खेल । जाने कैसे कैसे खेल बनाएथे हमने .सायकल के पुराने टायर को डंडे से मार मार के .पूरी शाम दौडाते रहना .वो सडकों पर देखे दिखाए .सांप नेवले की लडाई..बंदर बंदरिया के खेल .और जादू भी। वो आकाश में उडती चील कीपरछाई के साथ साथ भागना .वो कोयल के साथ कू कू कू ..बोलतेजाने की आदत .और वो मैनों की संख्या को देख देख कर बोलना.वन फ़ॉर नथिंग , टू फ़ॉर गुड ..थ्री फ़ॉर ..लेटर और फ़ोर फ़ॉर ..गेस्ट ..और आगे भी ..।


लखनऊ में जिस एक बात ने हमेशा ही बांधे रखा .वो था ..जितनी धूम से होली मनती थी , उतनी ही रंगीन ईद हुआ करती थी , ..वो पीर बाबा की मजार और वहां के प्रसाद में मिलने वाले बताशे,...और उसी पीर बाबा की मजार के पासवो पापा का फ़ौजी थियेटर ...मुझे याद है कि फ़ौज में रहते हुए पापा की जहांजहां पोस्टिंग हुई वहां की और कुछ जिन बातों में समानता थी उनमें से एक थी ओपन थियेटर ..यानि फ़ौजी सिनेमा .क्या बात थी उस पिक्चर हॉल की...कई जगहों पर हफ़्ते में सिर्फ़ एक दिन सिनेमा दिखाया जाता था तो कई जगहों में हफ़्ता भर एक ही पिक्चर देखी जाती थी .हा हा हा ..पिक्चर के बीच में , वो झमाझम बारिश, का आना ....और सब के सब भीगते हुए पिक्चर देखते थे ......। 

ओह उस प्यारे से घर को कैसे भूल सकता हूं , कॉलोनी के शुरूआत में ही , पहला घर , खुल्ला खुल्ला दो बडे बडे कमरे , आगे मैदान के बराबर खुली जगह औरपीछे बहुत ही बडा अहाता ..वहां पहली बार ही तो ..धनिया के , मूली के ,गाजर के , भिंडी के , नींबू के , मिर्च के और जाने किन किन पौधों से पहलापरिचय हुआ था .पिताजी ने लगाए थे ..और उनकी देखभाल भी ऐसी होतीथी जैसे , वे भी घर के ही बच्चे हों .क्या खूब जंचती थी वो क्यारियां ।सोचता हूं कि आज पिताजी की वो आदत , और वो अहातों और आंगनों वाला मकान हमें भी मिली होती तो टमाटर , आलू , गोभी के बढते दामों से हम खुदको तरकारी प्रूफ़ कर चुके होते ..। 

वहीं तो सायकल चलाना .सीखना शुरू किया था .वो कैंची स्टाईलकी सायकल चलाने की अदा ...वाह और क्या रोकते थे उसे.बिल्कुल दोनों पैर का घसीटा मार के .,और बहुत बार तो बहुत से लोगोंके दोनों टांगों के बीच जाकर भी रुकती थी धडाम से .। अजी तब ये टोबूकी सायकलें कहां  तब तो इंतज़ार होता था कि , कब पापा की आंख लगे और कब मौका मिले .सायकल पर हाथ आजमाने का न हेलमेट की टेंशन ना लायसेंस की कहीं ठोके ठुकाए तो भी घुटना और कोहनी का ही नुकसान का खतरा था बस ..और उसी कैंची स्टाईल से सायकल चलाने में भी रेस तो लगती ही थी । 

बरसात का मौसम ,वो सफ़ेद मोटी पन्नी की बरसाती ,आज तक दुकान में वैसी शक्ल तक का रेन कोट देखने को भी नहीं मिला जाने बापू ने ..कहां से उस मोटी पन्नी का जुगाड कर के ...दर्जी को पटा कर वो अनोखी सीबरसाती तैयार करवाई थी और उसकी वो टोपी .तो बस अपने लिएभी वो स्कूल बैग को बचाने के ही काम आती थी , बांकी का सारा कोर कसर तोहम पूरी तरह भीग कर पूरा कर लेते थे ..ओह वो बरसात ...और उससे उफ़नते नाले .नदियां ।इस कमब्खत दिल्ली की गलियों में जब नाली केबजबजाते हुए पानी को बारिश के अठखेलियां करते हुए पानी से मिलते देखता हूं, समझ ही नहीं आता कि नाली के पानी को खुशी ज्यादा होती होगी ,या बारिशके पानी को अपनी बदकिस्मती का गम ज्यादा होगा .॥ 

        और जाने ऐसे कितने ही शहर , और कितनी ही यादें , मन के एलबम में चुपचाप बैठी अपनी बारी का   इंतज़ार कर रही हैं ..अगली पोस्ट में आपको पूना लिए चलूंगा । 


  

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

तोपखाना , तेलीबाग ,ओपन थियेटर,बाबा की मजार ..हॉकी, कंचे ,पतंग ,सायकल.....और एक शहर ...नाम था.....लखनऊ ...






जैसा कि अपनी पिछली पोस्ट में मैंने कह भी दिया था , कि अपने शुरूआती दिनों के कुछ सबसे बेहतरीन पलों को मैंने ,लखनऊ की गलियों में ही बीतते हुए महसूस किया था .............और कहूं कि अब तक महसूस करता रहा हूं ।लखनऊ के सेंट्रल स्कूल में दूसरी कक्षा का वो पहला दिन ...........आदत के अनुसार रोते हुए ही स्कूल पहुंचा था ...और मैं उन बच्चों में से ही एक था ...जो बहुत समय तक तुतलाते हैं ......... बस पहला दिन ही याद रह गया था बहुत दिनों तक .... रिसेस पीरीयड में तो ..अपना गर्दभ रुदन हमारी ,मैडम के इतना नाकाबिले बर्दाश्त हुआ कि उन्होंने हमे चुप कराने की खातिर ....अपना लंच बॉक्स उस दिन हमारे नाम कुर्बान कर दिया.........दीदी की सहेलियों ने बहुत समय तक हमारी तुतलाती बोली को ..अपने सब टीवी समझ कर उपयोग किया ...............


लखनऊ
के दोस्तों में अनिल विनोद की जुडवां भाईयों की जोडी हम दोनों , भाईयों की जोडी के साथ मिल कर बिल्कुल जहां चार यार मिल जाएं वाली गैंग सी बन गई थी .......और उस जमाने के खेल भी उफ़्फ़ ....क्या खेल थे वे भी .............स्कूल में , कागज के तरह तरह के खिलौने , कैमरा , नाव , डौगी .....और जाने क्या क्या .....सोचता हूं उस कागज के कैमरे को बना कर जो खुशी हमें मिलती थी वो आजकल के बच्चों को फ़ेसबुक पर कोई मैसेज भेज कर कहां पाता होगा ?

वो
कंचों की रंगबिरंगी और चंचल चटकीली दुनिया ......वो मिट्टी की गुच्चियों में कंचों को पिलाना ......और फ़िर वो सर्फ़ के बडे वाले मजबूत गत्ते के गोल डब्बे में ...सैकडों कंचे संभाल कर रखना ......जब एक साथ देखो तो लगता था मानो हर कंचे में एक आकाशगंगा समाई होती थी .................फ़िर वो सर्फ़ का डिब्बा सिर्फ़ कंचों के खजाने को ही तो नहीं समेटे रहता था ........उसमें बाद में हमने माचिस की डिब्बियों के कवर भी हजारों की संख्या में भर के रख लिए थे ........ओह और उसका वो ताश टाईप खेल ............ जाने कैसे कैसे खेल बनाए थे हमने ........सायकल के पुराने टायर को डंडे से मार मार के ....पूरी शाम दौडाते रहना ....................वो सडकों पर देखे दिखाए ........सांप नेवले की लडाई ............बंदर बबंदरिया के खेल ......और जादू भी। वो आकाश में उडती चील की परछाई के साथ साथ भागना ............वो कोयल के साथ कू कू कू .......बोलते जाने की आदत ..........और वो मैनों की संख्या को देख देख कर बोलना..........वन फ़ॉर नथिंग , टू फ़ॉर गेस्ट .......थ्री फ़ॉर ..पता नहीं और फ़ोर फ़ॉर ..गेस्ट .....और आगे भी ..


लखनऊ में जिस एक बात ने हमेशा ही बांधे रखा ............वो था ..जितनी धूम से होली मनती थी , उतनी ही रंगीन ईद हुआ करती थी , ..वो पीर बाबा की मजार और वहां के प्रसाद में मिलने वाले बताशे,...और उसी पीर बाबा की मजार के पास वो पापा का फ़ौजी थियेटर .........मुझे याद है कि फ़ौज में रहते हुए पापा की जहां जहां पोस्टिंग हुई वहां की और कुछ जिन बातों में समानता थी उनमें से एक थी ओपन थियेटर ..यानि फ़ौजी सिनेमा ............क्या बात थी उस पिक्चर हॉल की ...कई जगहों पर हफ़्ते में सिर्फ़ एक दिन सिनेमा दिखाया जाता था तो कई जगहों में हफ़्ता भर एक ही पिक्चर देखी जाती थी .............हा हा हा ........पिक्चर के बीच में , वो झमाझम बारिश, का आना ....और सब के सब भीगते हुए पिक्चर देखते थे ......

ओह
उस प्यारे से घर को कैसे भूल सकता हूं , कॉलोनी के शुरूआत में ही , पहला घर , खुल्ला खुल्ला दो बडे बडे कमरे , आगे मैदान के बराबर खुली जगह और पीछे बहुत ही बडा अहाता .........वहां पहली बार ही तो ..धनिया के , मूली के , गाजर के , भिंडी के , नींबू के , मिर्च के और जाने किन किन पौधों से पहला परिचय हुआ था ........पिताजी ने लगाए थे ..और उनकी देखभाल भी ऐसी होती थी जैसे , वे भी घर के ही बच्चे हों .........क्या खूब जंचती थी वो क्यारियां सोचता हूं कि आज पिताजी की वो आदत , और वो अहातों और आंगनों वाला मकान हमें भी मिली होती तो ...टमाटर , आलू , गोभी के बढते दामों से हम खुद को तरकारी प्रूफ़ कर चुके होते ............

वहीं
तो सायकल चलाना ....सीखना शुरू किया था ........हा हा हा वो कैंची स्टाईल की सायकल चलाने की अदा .............वाह और क्या रोकते थे उसे ...........बिल्कुल दोनों पैर का घसीटा मार के ...और बहुत बार तो बहुत से लोगों के दोनों टांगों के बीच जाकर भी रुकती थी ..धडाम से ........... अजी तब ये टोबू की सायकलें कहां .......तब तो इंतज़ार होता था कि , कब पापा की आंख लगे ....और कब मौका मिले ...सायकल पर हाथ आजमाने का ........ हेलमेट की टेंशन ......ना लायसेंस की ....कहीं ठोके ठुकाए तो भी घुटना और कोहनी का ही नुकसान का खतरा था बस .........और उसी कैंची स्टाईल से सायकल चलाने में भी रेस तो लगती ही थी .....

बरसात
का मौसम ..........वो सफ़ेद मोटी पन्नी की बरसाती ........आज तक दुकान में वैसी शक्ल तक का रेन कोट देखने को भी नहीं मिला .......जाने बापू जी ने ..कहां से उस मोटी पन्नी का जुगाड कर के ...दर्जी को पटा कर वो अनोखी सी बरसाती तैयार करवाई थी ..........और उसकी वो टोपी ......तो बस अपने लिए भी वो स्कूल बैग को बचाने के ही काम आती थी , बांकी का सारा कोर कसर तो हम पूरी तरह भीग कर पूरा कर लेते थे ..........ओह वो बरसात ...और उससे उफ़नते नाले .....नदियां ....।इस कमब्खत दिल्ली की गलियों में जब नाली के बजबजाते हुए पानी को बारिश के अठखेलियां करते हुए पानी से मिलते देखता हूं , समझ ही नहीं आता कि नाली के पानी को खुशी ज्यादा होती होगी ,या बारिश के पानी को अपनी बदकिस्मती का गम ज्यादा होगा .......


ओह
..........लखनऊ ..........तुझसे जुडी यादें ...और जिंदगी का एक हसीन टुकडा...........जाने कब फ़िर किस मोड पर तेरे आगोश में ....अपना वो खोया ...सब कुछ तलाशूंगा ..........मुझे यकीन है कि ......बेशक ..तूने अपना चेहरा मोहरा बदल लिया होगा ..........मगर तेरी गोद अब भी मुझे जरूर पहचान लेगी ...........पहचान लेगी .............
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