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शुक्रवार, 1 मई 2020

कलम के धनी






उस दिन जब मैंने बात बात में लिख दिया था तो भाई पद्म सिंह जी ने हैरानी से पूछा था इतने पेन।  मैंने मुस्कुरा कर उन्हें कहा था की पेन के किस्से फिर कभी सुनाऊंगा।  लिखने पढ़ने वाले और नहीं लिखने पढ़ने वालों के लिए भी पेन का साथ हमेशा से रहता आया है।  मुझे बचपन से पेन से लिखना ,उन्हें संभाल कर सहेज कर रखना , कमीज की ऊपरी जेब में लगाए रखना उतना ही भाता था जितना कलाई घड़ी और ये आदत आज भी बदस्तूर जारी है।

उन दिनों भी पेन से लिखने की शुरुआत कक्षा छः से ही हुआ करती थी ,किन्तु पढ़ाई में बहुत ज्यादा भुसकोल होने के कारण लिखने का शौक तो तब तक नहीं हुआ था अलबत्ता कक्षा 7 से ही नीले और काले रंग के पेन जरूर रखने लगा था और चूँकि वो समय निब वाले पेन का हुआ करता था सो बड़ी कंजूसी से और बड़ी सावधानी से उसका उपयोग किया जाता था।  जेब में रखने के कारण लीक होकर कमीज का कल्याण कर देने के महान काम को  कई बार अंजाम देने का परिणाम माँ की झिकड़ी जरूर होती थी।


कक्षा आठ तक आते आते एक दिन एक शिक्षक ने मेरी कॉपी में देख कर ,उन दिनों हम भुसकोल विद्यार्थियों की कॉपियां देखने दिखाने लायक नहीं होती थीं , अचानक ही मेरी लिखावट को साफ़ बता दिया।  बस वहीँ से हाथ से लिखने का जो जुनून जगा वो आज तक ख़त्म नहीं हुआ।  आज भी मैं सुबह से शाम तक साथ आठ पेज लिख डालता हूँ , जब तक कुछ लिखता नहीं चैन नहीं आता।

लिखने की इस आदत से  मेरी पेन से दोस्ती भी बढ़ती गयी और हम उस दौर के साक्षी रहे हैं जब रेनॉल्ड्स ,मोंटेक्स ,लिंक ,रोटोमैक आदि के बॉल पेनों ने धूम मचा दी थी।  उन पेनों को खरीदना इस्तेमाल करना एक अलग ही आनंद देता था।  धीरे धीर बॉल पेन की सुलभता ने इंक वाले पेन को आउट डेटेड कर दिया।  मुझे याद है की अपने इंटर के दिनों में और उसके बाद बहुत समय तक परिक्षा के लिए मैं विशेष रूप से युनिबॉल का एक बॉल पेन इस्तेमाल करता था।

इसके बाद  दौर आया जेल पेन का जिनमे एड जेल ने आते ही धूम मचा दी थी।  इंक पेन वाली नज़ाकत और बॉल पेन वाली तेज़ी दोनों से युक्त ये पेन अपने अलग अलग कई रूपों मसलन रोलर पेन और इनके जैसे ही अन्य पेनों ने बहुत हद तक बॉल पेन के बाज़ार की बादशाहत खत्म कर दी । नए बच्चे तो आज भी जेल पेन रॉलर पेन के दीवाने हैं ।

नौकरी भी लिखने वाली मिल गई जहाँ लिखते लिखते सुबह से शाम हो जाती है मगर लिखने का काम खत्म नहीं होता । बस फिर क्या था पेनों का शौक जुनून बन गया ।

जिस भी शहर में जाऊँ वहाँ से पेन खरीदना , उपहार में पेन मिलना , पेन देना , पहचान के दुकानदारों द्वारा मुझे नए नए पेन जानबूझकर दिखाना , मेरे लिए विशेष पेन मँगवाना , कुल मिलाकर ये सिलसिला बढ़ता गया ।

आज भी पूरे अदालत परिसर में किसी अधिकारी कर्मचारी , को किसी विशेष पेन की जरूरत पड़ती है तो बेहिचक बेझिझक ले जाता है । मैं अदालत में अपने सहकर्मियों को भी ढेर ढेर पेन बाँटता हूँ । हाँ बहुत महँगे पेन मुझे उपहार में ही मिले । अपने पैसों से मैंने एक बार 1200 का पेन खरीदा था , वैसे मेरे पास दो रुपए से लेकर दो हज़ार तक के पेन हैं जिनकी संख्या हज़ारों , हाँ हज़ारों में है । आप मिलेंगे तो आपको भी स्नेह स्वरूप मिलेंगे ये पेन ।

रविवार, 23 जुलाई 2017

ज़रा बता कितने दिनों से मिट्टी को नहीं छुआ




रे मिटटी के मानुस आखिर ये तुझे क्या हुआ ,
ज़रा बता कितने दिनों से मिट्टी को नहीं छुआ ...

आज शाम अचानक पैर की एक उंगली हल्की से चोटिल हो गयी , पास पड़े गमले में से मेरे डाक्टर साहब को निकाल कर मैंने वहां लगा लिया ,सो बरबस ही मुझे ये किससे याद आ गए | वैसे मेरा बहुत सारा समय मिट्टी के साथ ही गुजरता है , मैं मिट्टी मिट्टी होता रहता हूँ और पूरी तरह मिट्टी ही हो जाना चाहता हूँ ......


यकीन जानिये मैं गंभीर होकर पूछ रहा हूँ और खासकर हमारे जैसे उन तमाम दोस्तों से जो अपनी जड़ो से दूर , खानाबदोश बंजारे हो कर , इस पत्थर , सीमेंट की धरती वाले जड़(बंज़र) में कहीं आकर आ बसे , सच बताइये आपको कितने दिन हुए , कितने महीने या शायद बरस भी , मिट्टी को छुए महसूसे , मिट्टी में खेले कूदे और मिट्टी की सौंधी सुगंध को अपने भीतर समेटे हुए ......


चलिए जितनी देर आप सोचते हैं उतनी देर तक कुछ पुरानी बातें हों जाएँ , जैसा कि मैं अक्सर कहता रहा हूँ कि , बचपन से ही बहुत सारे दूसरे बच्चों की तरह हम भी पूरे दिन घर से बाहर ही उधम मचाते थे और हर वो शरारत और खेल में शामिल पाए जाते थे जो उन दिनों खेले जाते थे और ज़ाहिर था कि खूब चोट भी खाते थे , बचपन में ही एक नहीं दो दो बार बायें कोहनी में हुआ फ्रेक्चर भी , खेल खेलते ही हुआ था |


मगर मैदान में खेलते हुए जितनी भी बार गिरे , चोटी चोट खाई , छिलन हुई ...उसका तुरंत वाला फर्स्टएड ईलाज और बेहद कारगर था ......धरती की मिट्टी | कोइ बैंडएड कोइ पट्टी कोइ मरहम जब तक आता तब तक तो मिट्टी लगा के मिट्टी के बच्चे फिर मिट्टी में लोट रहे थे | आज के बच्चों के तो कपड़ों पर भी मिट्टी लग जाए तो न सिर्फ बच्चा बल्कि उसके अभिभावक भी एकदम से चिंतित हो जाते हैं , जबकि वैज्ञानिक तथ्य ये कहते हैं कि मिट्टी में कम से कम बयालीस से अधिक तत्व पाए जाते हैं जो मिट्टी के बने इस मनुष्य के लिए निश्चित रूप से लाभकारी होते हैं |



यहाँ देखता हूँ तो पाता हूँ कि शहरों में मानो होड़ सी लगी है ज़मीन को छोड़ कर आसमान की ओर लपकने की , हमारा फैलाव ज़मीन से जुड़ कर नहीं , जमीं से ऊपर उठ कर हो रहा है , गगन चुम्बी अपार्टमेंट अब एक आम बात हो गयी है , यहाँ हम ये भयंकर भूल कर रहे हैं कि जिन पश्चिमी देशों से ये ऊंची ऊंची इमारतों में निवास बनाने की परिकल्पना आयातित की गयी है वे इस देश और इस देश की धरती से सर्वथा भिन्न हैं | इन्सान बार बार ये भूल जाता है कि बेशक जितना ऊपर उड़ ले , आखिर उसे आना इसी मिट्टी में ही और उसे क्या उसके पहले के सभी कुछ को सदियों और युगों या शायद उससे भी पहले से भी यही और सिर्फ यही होता आया है |




रविवार, 16 जुलाई 2017

पुरुष तन के भीतर स्त्री मन ....




कल हमारी बहुत सी मित्र दोस्त सहेलियों ने बड़ी ही मार्के की बात कही , वैसे ऐसा तो वे अक्सर करती हैं , कि सालों साल और लगभग पूरी उम्र हमारी माँ , बहिन और पत्नी की भांति वे सब , घरेलू काम , जिसमें सबसे प्रमुख घर के सभी सदस्यों के पौष्टिक और सुस्वाद भोजन तैयार कर सबको खिलाना , सबसे अहम् , को चुपचाप , बिना किसी पारिश्रमिक , मेहनताने और कई बार तो प्रशंसा भी नहीं , के बिना ही , निरंतर करती जाती हैं | उनका कहना कि , पुरुषों को ये काम करना आना तो दूर इन कामों के किये और करने वाली की कद्र भी नहीं होती , सच है , अक्सर ऐसा देखा भी जता है | ये उनकी नैसर्गिक ड्यूटी मान कर अनदेखा किया जाता है | अपना हाल थोड़ा जुदा है |

पढाई लिखाई के कारण , शायद इंटर कालेज के दिनों में ही माँ बाबूजी और घर से दूर रहने के दौरान , विद्यार्थी जीवन में ही खुद के लिए लगभग हर वो काम , जो गृहणियों के जिम्मे होता है , करने की पहले मजबूरी फिर आदत सी हो गयी | शुरुआत , दाल चावल ,खिचड़ी जैसे आसान विकल्पों से हुई और जाने कितने ही बरस , वही उबला उबली चलती रही |

आज से पूरे बाईस बरस पहले जब दिल्ली पहुंचे तो मामला और आगे बढ़ा ,मगर खेल असली तब शुरू हुआ जब रोटी बनाने की बारी आई | हम सब नए रंगरूटों को हमारे सीनियरों ने पूरे एक सप्ताह तक तो एकदम नई दुल्हन की तरह रखा फिर एक दिन अचानक ही बिना बताये सब गायब हो लिए और सुबह से दोपहर होते होते ,पेट में चूहे दौड़ने लगे | किचन में पूरी सफाई से ,पहले ही हमारी खिचडी का सब रसद गायब , सिर्फ आटा | वहां से शुरू हुई हमारी रोटियाँ बनाने की पूरी ट्रेनिंग | लस्सी , लपसी से होते हुए जल्दी ही हम लोई तक पहुँच गए | फिर तो हम रोटियाँ भी ऐसी बनाने लगे कि सबका सरकमफ्रेंस भी भी नाप के देखा जाता तो एक दम सेम टू सेम :) :) :) :)

इसके बाद तो हममें से सब के सब इतने दक्ष हो चुके थे कि , परीक्षाओं के दिनों में गाँव से आने वाले अपने तमाम दोस्तों के लिए हम खेल खेल में सब कुछ बना लेते थे | मुझे याद है कि , दो घंटे तक बिना रुके मैं सत्तर सत्तर रोटियाँ बना लेता था | आज जब दो संतानों का पिता हूँ तो ,किसी भी कुशल गृहणी को न सिर्फ चुनौती बल्कि हर तरह के भोजन , निरामिष भी ,दक्षिण भारतीय भी और गुलाबजामुन , मालपुए जैसे पकवान भी पूरी दक्षता से बना लेता हूँ |

बिटिया बुलबुल की चोटी गूंथना और उसे तैयार करना जितना मुझे पसंद है ,उससे अधिक बिटिया को पापा से तैयार होना | कढ़ाई , सिलाई , इस्त्री ...छोडिये ..


सौ बात की एक बात ..माँ जो कहती थी ...भोला तेरा मन भीतर से स्त्री है , और मुझे लगता है पुरुष तन के भीतर स्त्री मन होना ही सर्वोत्तम है ....बिलकुल अर्धनारीश्वर हो जाने जैसा है .........

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

पॉलिथीन में मूतते लोग .....................




समय लगभग साढे सात -आठ बजे शाम का वक्त । पिछले कई दिनों से बालों की कटाई का काम किसी न किसी अनचाही बाधा/व्यवधान के कारण स्थगित हो जाता था ।  अब अक्सर ही ऐसा होता है कि ऐसे कामों के लिए मैं और पुत्र एकसाथ ही निकल जाते हैं । मुख्य सडक पर स्थित सैलून के दरवाज़े पर पहुंचते ही भांप जाते हैं कि , रविवार के छूटे और मंगलवार को सैलूनों के बंद होने के कारण , लोग बाग जम कर रंगाई/घिसाई/पुताई करवाने के इरादे से वहां जमे हुए हैं । 

कोने में रखी बैंच पर बिखरे हुए अखबार के अलग अलग पन्नों को लगभग समेटते और उठाते हुए मैं और पुत्र वहीं बैठ जाते हैं । समाचार पत्र का नाम पढ कर हैरानी होती है , हैरानी इसलिए क्योंकि अब तक लगभग अधिकांश सलूनों में तो पंजाब केसरी ही देखते आए थे । यहां इस पंजाब केसरी समाचार पत्र से जुडा एक दिलचस्प किस्सा साझा करने का मन है । उन्नीस वर्ष पहले जब मैं दिल्ली आया था तो , एक दिन शायद वृहस्पतिवार का दिन रहा होगा , दिलशाद गार्डेन से अंतरराज्यीय बस अड्डे की ओर जाने वाली किसी बस के रास्ते में कहीं एक व्यक्ति जोर जोर से चिल्लाता हुआ बस में चढा ," पेपर पेपर , हिंदुस्तान ,दैनिक जागरण , नवभारत ..सैक्सी पेपर पंजाब केसरी .....मैं चौंक उठा था , मगर सिर्फ़ मैं ही चिहुंका था किसी दूसरे ने ध्यान भी नहीं दिया , हां पंजाब केसरी जरूर तीन चार लोगों ने खरीद लिए और फ़िर मुख्य समाचार पत्र को किनारे रख सीधे उसके वीरवारीय परिशिष्ट को खोल कर पूरी शिष्टता के साथ पढने लगे । खैर , इस पोस्ट का मुख्य विषय ये नहीं है । 

कैंची खच खच खच खच चलती जा रही है , मैं आदतन आंख मूंद लेता हूं ।

" क्या हुआ , आं ......क्या , बाथरूम जाना है " आवाज़ के साथ ही मैं आंखें खोलता हूं तो सामने लगे आइने में देखता हूं कि , मेरे बाल काट रहा वो लडका , बैंच पर बैठे एक थुलथुले लडके , जो कसमसा रहा था और माथे पर पसीने की चुहचुहाट भी दिखाई दे रही , की ओर देख कर उससे पूछ रहा था ।

" हां , बहुत तेज़ पेशाब आ रहा है , मुझे जाना है "

" लेकिन , यहां तो है ही नहीं कोई भी बना हुआ , दूर जाना पडेगा , मेरे बाल काटते काटते वो अब रुक चुका है और साथ खडे एक अन्य लडके जो दूसरे ग्राहक को निपटा रहा है उसकी ओर देख रहा है । मैं शीशे में देख रहा हूं कि लडके की कसमसाहट बढ रही है ।

यार ये तो रोज़ का झंझट हो गया है , ले जाकर बिठाकर स्कूटर पे इसको फ़टाफ़ट घर पे .लायलपुर............फ़ारिग करा के ले आ । "

मैं और हैरान हो उठता हूं , यहां से लायलपुर , स्कूटर पे , वो भी ....फ़ारिग होने ।

"असलम , तू ले जा,........ वो आतिफ़ भाई वाला स्कूटर ले जा , गल्ले में चाभी पडी होगी , सुन रिजर्व आन कर दियो , और कहीं टैम मत लगाइयो , धंधे का टैम है , जा जा ले जा इसको " मेरे सर पर कैंची चलाता लडका भुनभुनाते हुए एक सांस में बोल जाता है ।

कोने में कंघा फ़ेर रहा एक दुबला सा लडका , सुनते ही भाग खडा होता है , थुलथुला लडका पहले ही दुकान के बाहर जा चुका था ।


"वो राशिद के, बिजली बत्ती वाले कारीगर लौंडे क्या करते हैं ....... कै रिए थे पता है", अब मेरा पूरा ध्यान दोनों नाए मित्रों की होती इस बातचीत पर चला जाता है  ............साले , पॉलिथिन में करके गांठ मार के धर देते हैं , निकलते बडते फ़ैंकि आते हैं कहीं ............कह के वो अजीब नज़रों से आइने में देखता जहां मेरी नज़र उससे टकराते ही सकपका जाता है ।

"हां दिक्कत तो है ही , किया क्या जाए .....उधर से कसमसाहट भरी आवाज़ आती है ।


खच खच खच ...। मैं कुर्सी से उठकर खडा होता हूं , बजाय ये पूछने के कि , पैसे कितने हुए , बेसाख्ता पूछ बैठता हूं , क्या ये दिक्कत सबके साथ है , कब से है , आप लोग इसकी शिकायत क्यों नहीं करते ........

वो कहता है , बाबूजी साठ रुपए हो गए .....। मैं पैसे देता हूं और पुत्र का हाथ पकड कर सलून के बाहर हो जाता हूं । दिमाग में स्वच्छता अभियान , ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में शौच के विरूद्ध मुहिम ...जाने क्या क्या ,,घूमने लगता है ।

गुनधुन में ही दवाई की दुकान पर पहुंचता हूं । वहां भी वही सवाल ............

हां , मैं भी घर जाता हूं , क्या करूं दवाई का दुकानदार हूं इसलिए ज्यादा देर रोक कर रखने का नुकसान जानता हूं ...............पहले था एक बना हुआ , खुला था , गंदा रहता था ,  आसपास के लोग बोलते थे , लडाई हो जाती थी , इसलिए तुडवा दिया किसी ने .......


स्थान .....जगतपुरी से चंदरनगर जाने वाली सडक , समय लगभग साढे सात से साढे आठ का ,तारीख...आज की तारीख से थोडा सा पहले ......मेरे पास एक नायाब हल है .............अगर प्रयोग सफ़ल रहा तो वो भी बताउंगा , फ़िलहाल काम शुरू हो चुका है ........

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

विधिक , येडिक , लोगलिक और किताबिक ...


ग्राम यात्रा के दौरान रेल की खिडकी से खींची गई एक फ़ोटो



अब इस देश को मिलने वाली रोज़ाना की खबरों में न्यायिक क्षेत्र से जुडी हुआ कोई समाचार , कोई फ़ैसला , कोई रोक न हो ऐसा संभव नहीं लगता । फ़िर इन दिनों तो मामला जीवन और मौत के बीच उठी बहस का है । मामला हत्या के बाद फ़ांसी ,माफ़ी और उम्रकैद और फ़िर माफ़ी के बीच इतना ट्रैंडिक हो गया कि सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी के सबसे नए नए अनाडी युवराज़ को ये तक कहना पडा कि इस देश में प्रधानमंत्री तक को न्याय नहीं मिल पाता है । 


उनका आशय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश में दोषी ठहराए और फ़ांसी की सज़ा पाए उन तीन मुजरिमों की दया याचिका के चौदर वर्षों तक लंबित रहने के कारण उनकी सज़ा में कमी करके उम्रकैद में बदलने से अपनी नाखुशी ज़ाहिर करने का था । हालांकि अगले ही दिन न्यायालय ने तमिलनाडु की प्रदेश सरकार द्वारा उन तीनों कैदियों की सज़ा उम्रकैद में परिवर्तित करते ही राज्य सरकार द्वारा उनकी रिहाई के लिए केंद्र की स्वीकृति पाने के प्रयास पर रोक भी लगा दिया है ।

किसी भी बहस से पहले यहां इस बात का उल्लेख करना ठीक होगा कि जिस तथाकथित विलंब के कारण न्यायालय को प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए ऐसा निर्णय लेने पर विवश होना पडा वो विलंब तब हुआ जब केंद्र में लगातार खुद कांग्रेस व समर्थक पार्टियों की ही सरकार रही है । कहा जा रहा है कि ये फ़ाईल पूरे पांच वर्ष तक एक अधिकारी की दराज़ में ही पडी रही । इसी कडी में आज के समाचारों पर यकीन किया जाए तो बिहार में आज से बारह वर्ष पूर्व फ़ांसी की सज़ा पाने  चार अपराधियों की दया याचिका आज तक राष्ट्रपति भवन पहुंची ही नहीं । 

क्या किसी सार्वजनिक/सरकारी अधिकारी (खुद महामहिम ही क्यों न हों )के दफ़्तर से जुडे उच्चाधिकारियों से अपने दायित्वों के पालन में ऐसी गंभीर गलतियों की अपेक्षा की जा सकती है । आखिरकार क्यों नहीं इस व्यवस्था को अब बदलने की जरूरत है और यदि सक्षम सरकारें और देश की सबसे शक्ति़शाली महिला अपने पुत्र को उसके पिता के हत्यारों को उनके अंज़ाम तक नहीं पहुंचा कर न्याय नहीं दिलवा पाई ..........तो यकीनन ही हवन करेंगे , हवन करेंगे , हवन करेंगे वाली स्थिति है ।

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येडिक परिदृश्य माने येडा मुख्यमंत्री के जाने बाद देश प्रदेश के राजनीतिक हलकों में जारी उठापटक । आज कोर्ट ने भी थोडा जा झटका क्या दिया कि सबने बालटी भर भर के कोसा है पार्टी को ,जबकि बिजली व्यवस्था पर सरकार द्वारा सब्सिडी दिए जाने के निर्णय पर स्थगनादेश पर मेरी प्रतिक्रिया ये रही कि ,यदि आप मुझसे इस खबर पर कुछ व्यक्त करने को कहें तो मेरी दो हैं ...

पहली ये कि बिल्कुल ठीक किहिस कोर्ट । ई फ़िलासफ़ी हमरे गले भी नहीं उतर रही थी कि खाली आंदोलन का हिस्सा बनने से आप शोंगड लगा के बिजली फ़ूंकने के अधिकारी हो जाते हैं जी , इहां हमारे जैसों का साला भविष्य निधि खाता तक करेंट खा रहा है बिल के मारे , नीचे इहे आपका माफ़ी वाला आज भी बिना मीटर के ही दौडाए उडाए रहता है अपना डीजे ...

दूसरी ये कि , यदि सपाट राय जानना चाहें तो , ये सरकार द्वारा बिजली बिल की माफ़ी क लिए सब्सिडी को एक तात्कालिक उपाय बनाने के निर्णय को इस वाद के पूर्ण फ़ैसले के आने तक रोक यानि स्टे लगा दी गई है , तो ये बिल्कुल स्वाभाविक न्यायिक प्रक्रिया है , अंतरिम फ़ैसलों को पूर्ण निर्णय मानने बताने की जल्दबाज़ी से बचा जाना चाहिए , लगता है चुनाव बहुत ही नज़दीक हैं .....

चलिए ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि ये येडा राजनीति का बदलता हुआ नया पेडा साबित होता है या  येडा येडा कह कर अपनों द्वारा ही खदेडा जाने वाला है । जो भी बदलाव की इस कोशिश की विफ़लता और परिवर्तन के इस प्रयास का टूट कर बिखरना अंतत: राजनीति , समाज और व्यवस्था के लिए हानिकारक ही साबित होगा , ऐसा मुझे लगता है ।

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लोगलिक यानि सामाजिक परिदृश्य में ये है कि आज शाम को दफ़्तर से लौटते हुए एक साथ खडी दो रेहडियों के पास रुका । एक पर कन्हैया लाल साग बेच रहे थे और दूसरे पर देवीलाल टमाटर । हमें दोनों ही लेने थे सो वहां रुकना पडा । साग को काट छांट कर देने में जितना वक्त लगा उतने में उन दोनों से हुई बातचीत का लब्बलुआब कुछ यूं था ।

पुलिस से ज्यादा नगर निगम वाले उन्हें परेशान करते हैं , वे तो पूरी रेहडी ही उठा ले जाते हैं ,जबकि वे हर मौसम में यूं ही जीतोड मेहनत करके पेट पाल रहे हैं । पुरानी सरकार , नई वाली आकर गई सरकार के अलावा किसी ने भी कभी उनसे उनकी कठिनाइयों के लिए नहीं पूछा । यदि सरकार छोटे छोटे व्यावसायिक बिक्री केंद्रों /हाटों/स्टालों को बना कर उन्हें किराए पर रेहडी वालों को दे दे तो इससे स्थानीय लोगों को भी फ़ायदा होगा और रेहडी वालों को भी सरकार को तो होगा ही , क्यों नहीं कोई रेहडी वाला आप सब मिलकर तैयार करते जो आप सबकी दिक्कत सीधे सरकार तक पहुंचाए , राहुल गांधी कुलियों से मिले हैं सुना है ....................हां सुना था , लेकिन इसके बाद कुछ बदल जाएगा इसका विश्वास नहीं है ।

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किताबिक माहौल का तो पूछिए मत । राजधानी फ़िर किताब मेले से रौनकदार सी हो गई है और उतना ही रौनकदार हो गया है फ़ेसबुक और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स , हर तरह किताबें ही किताबें , दोस्तों की किताबें , लेखकों की किताबें , कवियों की किताबें , ब्लॉगरों की किताबें , पाठकों की किताबें , और हम सब शब्दों , कथ्यों , अर्थों के दीवानों के लिए इससे सुखद और कुछ नहीं हो सकता कि हम अपने आस पास , शब्दों की जो दुनिया बुन रहे हैं वो किताबों की शक्लों में उनके पास भी पहुंच रही है जो इसे किताबों की शक्ल में ही पढना समझना चाह रहे हैं । उन सभी दोस्तों ,मित्रों , लेखकों , प्रकाशकों को असीम बधाई और शुभकामनाएं ....

परीक्षाओं का समय नज़दीक है , इंटरवेल लंबा भी हो सकता है , मगर मैं आता रहूंगा

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

बसंत पंचमी , सरोसत्ती पूजा और रंग अबीर


ये मूर्तियां , मां शारदे की जय के नारे से गुण्जायमान हो रही होंगी


आज का ही दिन , बहुत बरसों पहले , बहुत बरसों पहले इसलिए कहा है क्योंकि दिल्ली में खानाबदोशी के जीवन से पहले जब एक स्थाई और बहुत ही खूबसूरत जिंदगी जिया करते थे उन दिनों , आज का दिन , यानि वसंत पंचमीं के दिन का मतलब था , सज़ा हुआ दालान , प्रसाद की खुशबू से गमकता -महकता हुआ आंगन और ऊपर रंग बिरंगी पताकाओं की लंबी लंबी लडियों से दूर दूर तक की सज़ावट , खूब जोर जोर से बजता हुआ भौंपू जिसमें हम अपने अपने स्वाद के हिसाब से गला फ़ाड साउंड में गाने चला के सुना करते थे । मगर रुकिए किस्सा यहां से नहीं शुरू होता था ।

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जैसा कि मैंने अनुभव किया है कि चाहे जो भी कहिए अपने देश का एक गज़ब का रिवाज़ है और वो है हमारे त्यौहारों पर्वों की अधिकता और विशिष्ट होने के कारण कमाल की रोचकता । अब देखिए न इत्ता खुशकिस्मत देश भी और कौन सा होगा या कितने होंगे जिन्हें शीत ऋतु , ग्रीष्म ऋतु , शरद और वसंत तक प्रकृति का हर रंग देखने को मिलता है , हम वसंत में रंगों से सराबोर हो उठते हैं , तो शीत ऋतु में रौशनियों की चकमकाहट , यानि कि हमारे पास जितने ज्यादा बदलते हुए मौसम हैं , उससे भी ज्यादा उन्हें सैलिब्रेट करने की वज़हें ।
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मुझे याद है कि सरस्वती पूजा , जिसे उन दिनों बच्चे फ़्लो में सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती पूजा कहते थे , की तैयारी तो संभवत: वर्ष के शुरूआती दिनों से ही हो जाती थी और उसमें सबसे पहले काम होता था प्रतिमा बनाने वाले कुम्हार को इसके लिए बेना(बयाना) देना । हम उन्हें जाकर बता देते थे कि हमें कितनी बडी ,छोटी और कैसी मूर्ति चाहिए । सरस्वती पूजा हम अपने ही दालान पर किया करते थे , वो भी जब देखा कि हमारे बहुत सारे मित्र अपने अपने दालानों घरों पर सरस्वती पूजा बडे ही मनोयोग से कर रहे हैं तब हम जो अपने टोले के कुछ मित्रों ने भी यही सोचा कि हमें भी मां शारदे की पूजा अर्चना के इस दिन को उत्साह पूर्वक मनाना ही चाहिए । हम सब मित्र इसके लिए साल भर में जमा किए हुए पैसों का उपयोग करते थे और जो कमती बढती होती थी उसके लिए अभिभावकों को पटाया जाता था ।
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स्थान और प्रतिमा का निर्धारण होने के बाद तैयारियां शुरू हो जाती थी , बाजा वाले को साटा देना (यानि उस दिन के लिए उसे बुक करना ) , दरी , सजावट का सामान , प्रसाद का सामान , पूजा सामग्री , आदि तमाम कार्य सबके जिम्मे लगाए जाते । असली तैयारी शुरू होती थी दो दिन पहले जब हम मेहराब ( बांस की बाति{हरे कच्चे बांस को चीर के बनाई गई लंबी छोटी खपच्चियां ) ,अशोक के पत्ते , रंगीन कागज़ों को तिकोनी कटाई और फ़िर उन्हें लंबी सुतरियों पे बांध के दूर दूर तक लगाई जाने वाली पताकाएं । और यहां से जो हमारी जीत तोड मेहनत और भाग दौड का सिलसिला शुरू होता था तो फ़िर वो प्रतिमा विसर्जन तक यूं ही चलता रहता था ।

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पूजा से एक दिन पहले हम बैलगाडी पर बैठ कर मूर्ति लाने के लिए निकलते थे , जहां से ये मूर्ति लाई जाती थी वो गांव लगभग सात आठ किलोमीटर था , कच्चे पक्के रास्ते और हिचकोले खाती हमारी बैलगाडी । मूर्ति को किसी भी झटके से बचाने के लिए बैलगाडी में खूब सारा पुआल बिछा कर उसे गद्देनुमा बना दिया जाता था और फ़िर कुछ ज्यादा सक्षम मित्र प्रतिमा को उस गांव से लेकर अपने दालान तक लाने के लिए विशेष जिम्मा उठाते थे । प्रतिमा को साडी या बडी चुनरी से अच्छी तरह ढांप कर खूब जोर जोर से गला फ़ाड नारे , सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती माता की जय ..मां सरस्वती को दालान पे बनाए गए चौकी प्लेटफ़ार्म पे स्थापित किया जाता था ।
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पूजा की सुबह से पहले की वो रात अब भी यूं की यूं याद है कि जब मां के जिम्मे प्रसाद , पूजा , आदि की तैयारी , के अलावा हम सबको रात भर दूध/चाय भिजवाते रहना ताकि दोस्तों की मंडली उर्ज़ा के साथ काम करती रहे । मूर्ति, पांडाल , पताकाएं , सब कुछ सजाते सजाते भोर हो जाती थी । अधिकांशत: पूजा पर भी मैं ही बैठता था और उसकी वज़ह थी , मुझे रंगीन धोती पहनने का बहुत ही शौक था , अब भी है , और संस्कृत के मंत्रोंच्चारण से प्यार । उन दिनों मुझे स्त्रोतरत्नावली से तांडव स्त्रोत सहित जाने कितने ही स्त्रोत यूं ही कंठस्थ हो चुके थे मैं नियमित रूप से सुबह पूजा भी किया करता था , ये बदस्तूर अब भी जारी है ।
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नियत समय पर पूजा अर्चना और प्रसाद वितरण के बाद होता था गला फ़ाड बाजा बजाने का सर्वप्रिय कार्यक्रम , हालत ये हो जाती थी कि जब तक आंगन से मां और चाचियां हमें दौडा कर पीटने को उतारू न हो जाती थीं तब तक उसका वोल्यूम यूं ही बढा रहता था । पूजा के बाद सभी दोस्तों की मंडली निकलती थी अन्य दोस्तों द्वारा की जा रही पूजा में शामिल होने के लिए , प्रसाद लेने के लिए और सज़ी धज़ी मां शारदे को देखने के लिए । एक दिलवस्प बात बताना ठीक होगा कि जैसा कि उन दिनों हम मानते थे कि मां शारदे के चरणों में सारी पुस्तकें रख देने से हमें जरूर अच्छे नंबर आएंगे और मैं तो सबसे ऊपर गणित की पुस्तक ही रखता था :) :) :) :) ।
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दोपहर को भजन कीर्तन का दौर चलता था , ढोल मंजीरे और तालियां मार मार के सारे सुरों की ऐसी तैसी करते हुए हम सरस्वती माता को प्रसन्न करने का फ़ुल टू जोर लगाते थे । शाम की पूजा के बाद गैस वाली पैट्रोमैक्स लाइट से रौशनी की जाती थी । और कार्यक्रम के नाम पर उन दिनों का एकमात्र और सबसे पसंदीदा आयोजन होता था , वीसीआर के साथ तीन पिक्चरों का दौर (वीसीआर और वो तीन पिक्चरें ---एक पोस्ट पढवाउंगा आपको इनसे जुडी यादों से भी ) ,सुबह तक हमें ये याद नहीं होता था कि कौन से पिक्चर का कौन सा संवाद था ।
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अगले दिन दोपहर के समय मूर्ति विसर्जन का समय होता था । बाद में तो प्रतिमा को दो तीन या जितने भी दिन मन हो रखा जाने लगा था , मगर उस समय हम यही करते थे । मां शारदे की विदाई का समय ठीक वैसा ही होता था जैसे कोई घर की बेटी गौना कराके ससुराल जाने की तैयारी में हो । बैलगाडी को खूब सज़ाया जाता था , और हम सब , जितने उस बैलगाडी पर लद सकते थे उतने सब , ढोल मंज़ीरों से लैस होकर बैठ जाया करते थे । उस दिन पहली बार फ़िज़ा में गुलाल की खुशबू और रंग जम कर उडाए जाते थे , और यूं लगता था मानो हमने वसंतोत्सव और फ़ागुन का आगाज़ कर दिया हो ।
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खूब गाते बजाते पूरे गांव घूमते हुए , बीचोबीच बने सरोवर में हम प्रतिमा को पूरी श्रद्धा के साथ विसर्जित करते थे । जनवरी फ़रवरी के गांव के बेहद सर्द दिनों में , सरोवर के जमा देने वाले पानी में जब हम दोस्त मां सरस्वती की प्रतिमा को हाथों में उठाए ज्यादा से ज्यादा आगे ले जाने की धुन में उतरते थे तो वो आनंद ही कुछ और होता था । थके हारे हुए वापस आने पर सबको ठंडाई मिलती थी वो भंग तरंग वाली , और शाम को जो रंग जमता था ,उसके क्या कहने .............। गांव से शहर आने के बाद भी ये सिलसिला चलता रहा शायद बहुत सालों तक , हमारी जगह अगली फ़ौज़ आई , उसके बाद उससे भी अगली , और अब भी ये चल रहा है .. अभी हाल ही में जब गांव गया था तो पोस्ट के ऊपर खींची हुई फ़ोटो इसका प्रमाण है । चलते चलते ..हमारे पवन भाई का कार्टून भी देखें आप







शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

नाम उसका मुहब्बत था शायद


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किसी मुझ जैसे की डायरी का एक पन्ना ..............

"नाम उसका मुहब्बत था शायद ,जिंदगी के हर मोड पे मुझसे टकराई थी वो ,
मैं चलता रहा और इश्क भी ,जाने खुद को और मुझको कहां ले आई थी वो "


"हम एक बार जीते हैं , एक ही बार मरते हैं और हमें प्यार भी एक ही बार होता है " फ़िल्म कुछ कुछ होता है का ये डायलॉग जब मैंने सुना तो मुझे वहीं पर शाहरूख खान से कहने का मन हुआ कि हां तुम्हारी तीन घंटे की इस रीलजिंदगी में ये एक बार से ज्यादा मुनासिब और मुफ़ीद है भी नहीं , मगर भईये ये जिंदगी उस तीन घंटे से बहुत बडीऔर उससे कई गुना ज्यादा अलग होती है ,और बेशक ये बात जरूर लागू होती होगी बहुत सारे लोगों की जिंदगी में ये सब एक बार ही होता होगा , मगर अपना क्या करें कि हम तो इस एक जिंदगी में जिए ही कई बार हैं और मरे  भी जाने कितनी ही बार हैं । एक जिंदगी ...मुझे तो लगता है कि हम एक ही दिन में कई बार जीते और मरते हैं,मगर मैं यहां जिंदगी और मौत के बीच जीने और मरने के बहीखाते का हिसाब मिलाने नहीं बैठा हूं , कम से कम ,अभी तो नहीं । आज प्यार मुहब्बत इश्क और जितने भी नाम इस अनुभूति , इस अनुभव , इस एहसास के हैं ,उसकी बात करेंगे ।
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मैं जब सिर्फ़ ग्यारह बारह वर्ष का था तब मुझे पहला प्यार हुआ था , मुझे नहीं पता कि वो प्यार था या कुछ और था,क्योंकि मैं आज तक प्यार को समझ नहीं पाया हूं , परिभाषित नहीं कर पाया हूं , उसके पैमाने तय नहीं कर पाया हूं,मगर इतना जरूर है कि उन दिनों बहुत अच्छा अच्छा सा लगता था और दुनिया की कोई भी ताकत कोई भी मजबूरी कोई भी परंपरा कोई भी नियम कानून विधि मुझे वो अच्छा अच्छा सा महसूस कराने से नहीं रोक सकती थी । सिर्फ़ एक साल
का साथ रहा मेरा और मेरे उस मुझसे भी नादान दोस्त का । मगर आज तक भी मुझे उसकी सूरत याद है और ताउम्र रहेगी,हां ये अलग बात है कि अब सामने आने पर मैं उसे पहचान भी न सकूं ,लेकिन प्यार तो बिना चेहरे ,बिना सूरत के भी होता है ....रहता है ।
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उम्र बढी और एहसास भी बदले , फ़िर प्यार हुआ दोस्तों के इश्क , उनकी मुहब्बत से ....अरे नहीं नहीं जी , उनकीप्रेयसी और प्रेमिकाओं से नहीं बल्कि प्यार हुआ उनकी दोस्ती , उनकी शिद्दत , उनकी मुहब्बत की पहल से ,इज़हार की हिम्मत,इंकार-इकरारकी दुविधा से, और ये वो वक्त था जब सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दोस्तों की दोस्ती ,इश्क के लिए ,हम अपनी पूरी ताकत , पूरा समय और पूरा ध्यान भी दे दिया करते थे । शायद मैट्रिक की परीक्षा तक यही हाल रहा , हालांकि, बाद में मुझे ये भी पता चला कि कई दोस्तों में ये एहसास इतना ज्यादा तीव्र था कि बात तभी उनके अभिभावकों तक पहुंच गई थी ,और वे इस बात पर दृढ थे इतने कि बहुत सालों बाद पता चला कि कम से कम एक दोस्त और दोस्तनी को तो मैं जानता हूं जिन्होंने स्कूली दिनों की उस दोस्ती, इश्क को बाद में विवाह की मंज़िल तक पहुंचाया ।
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हालांकि प्रेम का मकसद सिर्फ़ विवाह ,या इश्क की मंज़िल सिर्फ़ सहमति से एक साथ रहने का कोई करार ही मात्र होता है,इस बात को मुझे मानने में बहुत ज्यादा दिक्कत होती है । और ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आजतक जितने भी शाश्वत प्रेम कहानियां सुनी हैं उन सबके किरदारों ने एक दूसरे के प्यार को पाने के लिए जिंदगी दांव पर लगा दी और जान जाने तक भी,
वे विवाह जैसा कुछ कर नही सके ..रांझे को तो सुना है कि हीर से विवाह करने के बाद भी उसका साथ नसीब नहीं हुआ । चलिए इस फ़िलासफ़ी को यहीं छोडा जाए ...........
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तो इसके बाद लडकपन से युवापने की ओर बढे ।और वाह क्या रुत और रुतबा होता है उस अल्हड तरूणाई के मौसम का ,वो गीत आपने सुना है न जवानी जिंदाबांद । सच में जवानी जिंदाबाद ही होती है और शायद इसीलिए यही वो समय भी होता है जब जवानी जिंदाबाद ही तय करती है कि आगे जीवन आबाद होने वाला है या बर्बाद । मगर कहते हैं न इश्क अंधा होता है ,उसे कहां दिखती हैं जिम्मेदारियां उसे कहां दिखती हैं बंदिशें , सामाजिक दीवारें ,मान्यताएं परंपराएं ,वो तो बस कहीं भी पनप जाता है बिल्कुल बरसात की काई की तरह और फ़िर तेज़ धूप में उधड कर गिर भी जाता है ।

चलिए आगे की कहानी फ़िर कहूंगा .........................

बुधवार, 22 जनवरी 2014

आदमी खाने अघाने को तैयार ही नहीं है ;) ;) ;) ;)






एक महीने की निरी लुटी , पिटी , बिचारी सी आम आदमियों वाली सरकार ने गजब की हुरहुरी मचा दी है ,

गरियाए गए और लठियाए भी गए ,

कुल दर्जन भर मुकदमा ठोंक दिहिस है भाई लोग ऊ भी एकदम्मे कानूनी , बोलिए तो लीगली लीगली जी ,

बनने से पहले से बनने से बाद तक , खुद अपने ही निकल निकल के छील रहे हैं ,

पावर देखिए , दरोगा जी को सस्पेंड कराने के लिए , अरे सस्पेंड छोडिए तबादला कराने के लिए फ़ुटपाथ पर लोटना पडा ,जबकि इत्ता तो हमारे जमाने में चौधरी जी फ़ोन पर ही करा लिया करते थे और कोई  भी रे टे कर जा रहा है तो कोई सम्मन भेज के तलब कर रहा है ,
अगलों की दिक्कत ये है कि भाई लोगों ने बदलाव की बात को दिल से लगा लिया है ये सोच कर कुछ तो कर लो कि कल को बच्चे कहें कि सिर्फ़ लोकतंत्र का ट्वेंटी ट्वेंटी ही खेलते रहे या अपनी तरफ़ से भी कोई कोशिश की ....सो ठुकाई तो बनती है , पुलिस ने पूरा हाथ साफ़ किया ..हमारी पुलिस , सदैव हमारे पास , डंडा लिए ;) ;) ;) ;)

हालत देखिए :- येडा मिनिस्टर के नाम से चुना गए हैं कहीं तो ,शिंदे चचा जैसे कर्मठ गृह मंत्री तक उन्हें पागल मुख्यमंत्री कह रहे हैं , खोंख खोंख के दम फ़ूल जाता है मुदा आदमी खाने अघाने को तैयार ही नहीं है ;) ;) ;) ;)

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

दिख तो रहा है , मगर दिखाई नहीं देता




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राजधानी दिल्ली में सिर्फ़ एक साल पुरानी राजनीतिक पार्टी “आम आदमी पार्टी” यानि “आप” की सरकार बने महज़ एक माह ही हुआ है और देश भर के राजनीतिक हलकों से लेकर समाज , मीडिया और लगभग पूरे देश में रोज़ाना चाहे सवाल उठा कर , चाहे आलोचना करके या फ़िर किसी और बहाने से निशाने पर लेकर किंतु निरंतर ही “आप” चर्चा में बनी हुई है । इस पार्टी के गठन की पृष्ठभूमि , इसका अंदाज़ , इसकी शैली के कारण इसके संगठन का तानाबाना बुनने वाले सभी छोटे बडे भी न सिर्फ़ सबकी नज़रों में हैं बल्कि आवश्यक अनावश्यक रूप से अपने उद्देश्यों और संकल्पों को पूरा करने का बोझ भी ढो रहे हैं ।
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हालांकि वो नियम कि जिसे जितना दबाओ वो उतना ही ऊपर उठ जाता है , इस नई नवेली पार्टी पर भी लागू हो रहा है । इस पोस्ट के लिखे जाने तक नई बनी सरकार ने लगभग एक माह का काम काज तो देख ही लिया है और साथ ही अपने पूर्व के साथियों सहित वर्तमान के बहुत से सहयोगियों के बदलते हुए रंग और तेवर भी । इस पार्टी का भविष्य , इस सरकार का भविष्य क्या और कैसा होगा ये तो अभी देखना बांकी है किंतु जिस तेज़ी से दिल्ली के बाद पूरे देश भर में इससे जुडने वाले लोगों की संख्या बढी है , इसके बारे में लोगों के बीच कौतूहल और बहस बढी है उसने सत्तासीन केंद्रीय पार्टी समेत इस बार सत्ता में आने की प्रबल दावेदार बनकर उभरी भारतीय जनता पार्टी को भी कहीं कहीं चिंतित तो कर ही दिया है ।
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कहते हैं न कि अंधों के देश में यदि कोई आंख वाला पहुंच जाए तो उसे वहां बीमार करार दे दिया जाता है । ऐसा ही कुछ परिदृश्य वर्तमान की दिल्ली सरकार के साथ हो रहा है । जिस प्रदेश में पिछले पंद्रह वर्षों से लगातार कांग्रेस की सरकार चली आ रही थी और उसके हिस्से में बिजली पानी की महंगाई , बेतहाशा भ्रष्टाचार के साथ साथ राष्ट्रमंडल खेल घोटाला जैसे जाने कितने ही कारनामे आए , जिस प्रदेश में निगम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी प्रबल जीत के साथ काबिज होने के बावजूद भी इन मुद्दों के खिलाफ़ खडा होना तो दूर निगम में व्याप्त भ्रष्टाचार अनियमितता और तमाम गडबडियों की तरफ़ रत्ती भर भी ध्यान न दे सकी और कमाल की बात ये कि चुनाव के बाद जब अप्रत्याशित रूप से एक नई पार्टी जिसके प्रत्याशियों और समर्थकों तक को हिकारत की नज़र से देखा जाता था , खिल्ली उडाई जाती थी वो उस संख्या तक पहुंच गई कि सांप छछूंदर वाली स्थिति हो गई तो एक नई रस्सा कशी का खेल शुरू हो गया , पहले मैं , पहले मैं की स्थिति बदल कर पहले “आप” पहले “आप” पर आकर टिक गई । सीधे सीधे इस नई पार्टी को ही घेरा गया कि अब चुनाव लडा है तो सरकार बनाओ और चला कर दिखाओ । तिस पर तुर्रा ये कि जो काम साठ सालों से बिगडा हुआ था , उलझा हुआ था उसका हल ढूंढने और तलाशने के लिए सबने डेडलाइन भी तय करनी शुरू कर दी ।
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रोज़ाना वादों को पूरा और झट से पूरा कर देने का दबाव और अगले ही पल उसे पूरा न करने का आरोप जडने का एक अंतहीन सिलसिला ही शुरू हो गया । आम जनता जो बरसों से त्रस्त और पस्त थी उसने तो खैर जिस तरह का व्यवहार किया वो समझ में आता है और उसकी एक बानगी इस इश्तेहारनुमा खबर से भी समझी जा सकती है , जिसमें एक सज्जन से सीधे सीधे ही सरकार से कहा है कि वो उनकी मांग मान ले अन्यथा आंदोलन के लिए तैयार रहे
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अब कुछ मुख्य बातें जो दिख तो रही हैं मगर दिखाई नहीं दे रही हैं
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१. दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री को दिल्ली के एक थाने के प्रभारी को निलंबित करने के लिए आग्रह करना पड रहा है , जबकि पडोसी राज्य के मुख्यमंत्री महज़ चंद मिनटों में एक प्रशासनिक अधिकारी को रातों रात निलंबित करने में भी नहीं हिचकते हैं
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२.दिल्ली सरकार के वर्तमान मंत्रियों की सरलता और साधारण व्यक्तिव के कारण न सिर्फ़ अदने से पुलिस अधिकारी , कर्मचारी तक उन्हें आंखे दिखा रहे हैं जबकि इससे पहले के तमाम सरकारों के निगम पार्षद और उनके चमचे तक आला अधिकारियों को हडकाते नहीं डरते थे ।
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३. इस नई पार्टी पर कांग्रेस की बी टीम होने जैसा आरोप लगाया जाता है और जब दल के मुखिया ये बयान देते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मैदान में है ही नहीं तो इस पार्टी की तथाकथित ए टीम यानि कांग्रेस के नेतागण कहते हैं कि आम आदमी पार्टी में बदबूदार और घटिया लोग भरे पडे हैं ।
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४.इस पार्टी के मुखिया , अगुआ से लेकर तमाम नेताओं के लिए मीडिया से लेकर समकक्ष और विपक्ष के तमाम नेता , क्या करेगा , जूते खाएगा , झूठ बोल रहा है , यानि तू तडाक की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं जो ये बता समझा रहा है कि बेशक आम आदमी सत्ता पर बैठ गया हो मगर सियासती लोगों की नज़र में उसकी औकात अभी वही है ।
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अब कुछ वो बातों जिनसे फ़िलहाल इस नई पार्टी को परहेज़ ही करना चाहिए था :-
फ़िलहाल दिल्ली में पैठ बना कर सत्ता में आकर लोगों का बहुत सारा अधूरा काम करने को प्राथमिकता देनी चाहिए थी बनिस्पत इसके कि तुरंत फ़ुरत में आगामी लोकसभा चुनावों के लिए अपनी दावेदारी ठोंकने की जल्दबाज़ी । इस नई पार्टी के पास  करने के लिए काम और कार्यक्षेत्र पहले ही इतना ज्यादा है कि अनावश्यक रूप से फ़ैलाव करने की जगह केंद्रित होकर मुद्दों पर अपनी सारी उर्ज़ा और श्रम लगाना चाहिए था ।
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ये जरूरी नहीं कि पल पल , मिनट दर मिनट , किया अनकिया , कहा अनकहा , सब कुछ का मीडियाकरण होता रहे । आप काम करते जाइए , चुपचाप करते जाइए , ढिंढोरा पीटने की कोई जरूरत नहीं है । काम का परिणाम सारी कहानी और फ़साना लोगों के सामने अपने आप रख देंगे ।
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आप सामाजिक सेवा के उद्देश्य से राजनीति में आए हैं , व्यवहार , तेवर , शैली , भाषा नम्र और उदार रखें एक सेवक और समाज के सेवक की तरह , बेशक रखें इसमें किसी को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए , होगी भी नहीं किंतु ये इतना भी नम्र और सरल साधारण न हो कि नीचे बैठा मातहत भी आपको अपना सेवक ही समझे । ये भारत है मेरी जान , यहां डंडे का काम डंडे के बल पर ही हो सकता है , कम से कम डंडे को उतना ऊंचा तो रखना ही होगा कि उसका डर और खौफ़ बना रहे ।
अब एक आखिरी बात , लोगों ने आपको आपकी नीयत देख कर एक विकल्प के रूप में चुना है तो सबसे पहला और आखिरी प्रयास यही और सिर्फ़ यही होना चाहिए कि अपनी नीयत स्पष्ट और साफ़ रखिएगा । आप करते जाइए , आप बढते जाइए ….

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

मकर संक्रांति वाया लाय चुडलाय एंड खिचडी

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सभी मित्रों को मकर संक्रांति की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं








Photo: आप सभी को मकर संक्रांति की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !


 मकर संक्रांति के दिन से जुडी बचपन की जो बहुत सारी यादें हैं उनमें से सबसे पहली है जनवरी की सर्द कोहरे भी सुबह में ठंडे ठंडे पानी से नहाना । और नहाना इसलिए भी कंपल्सरी था या कहें कि बिना किसी दबाव के इस कंपल्सरी रूल को मान लिया जाता था क्योंकि नहाने के तुरंत बाद ही तो लाय चुडलाय तिलबा ( मुढही , चिवडे और तिल को भून कर गुड की चाशनी में लपेट कर बनाए गए छोटे बडे लड्डू ) मिलना होता था ।


इस सुबह का इंतज़ार असल में तो साल के शुरू से ही रहता था लेकिन जब एक दिन पहले मां को चूडा , मुढही तिल गुड आदि सामग्री लाते और फ़िर उन्हें भूनते देखते थे और उसकी महक रसोई से निकल कर घर के सारे कमरों में चली जाती थी तो होमवर्क करते करते भी मन और जीभ दोनों ही रोमांचित हो जाती थी । ठंडे पानी से नहाने में कोई खास उर्ज़ नहीं होता था क्योंकि वैसे भी उन दिनों कौन सा गीज़र हीटर का जमाना था मगर हम थे तो आखिर बच्चे ही ।

मुझे याद है कि नहाने के बाद सबसे पहला काम होता था मां द्वारा एक रस्म का निभाया जाना जिसे हमारे मिथिला समाज में आज भी बदस्तूर निभाया जाता है । मां एक कटोरे में भीगे और फ़ूले हुए चावल , सफ़ेद तिल और गुड को मिला कर तैयार की हुई सामग्री हम सब बच्चों को बारी बारी से अपने हाथों से मुंह में खिलाते हुए पूछती थीं " तिल चाउड बहबैं " हम कहते थे "हं" । पूछने पर मां बताती थी कि मैंने ये खिलाते हुए पूछा है कि इसका मतलब वृद्धावस्था में तुम सब संतान हमारा बोझ वहन करोगे न , और हम कहा करते थे हां । जाने वो हम कितना कर पाए या नहीं , और सच कहूं तो मेरे मां बाबूजी ने तो हमें मौका ही नहीं दिया ।

इसके बाद बारी आती थी दिन के खाने की । पूरे बिहार में इस दिवस को खिचडी दिवस के रूप में भी मनाया जाता है , कारण यही कि उस दिन लगभग हर घर में दिन का खाना यही होता था , खिचडी और उसके चार दोस्त , अरे नहीं समझे , मां के शब्दों में

"खिचडी के चार यार
घी, पापड , दही अचार "



उस दिन के खिचडी का स्वाद ही अनोखा जान पडता था । मुझे तो याद है कि न सिर्फ़ अपने घर के खाने में बल्कि यदि कहीं न्यौता दावत भी खाने जाते थे तो भी खाने में यही खिचडी और उसके चार यार ही होते थे । गांव बदल गए , समाज बदल गया और बहुत कुछ हम भी बदल गए नहीं बदला तो ये मकर संक्रांति और नहीं बदला तो खिचडी खाने का रिवाज़ । कहते हैं कि इस पर्व के बाद शीत ऋतु का प्रकोप कम होना शुरू हो जाता है । अब बदलते पर्यावरण के प्रभाव में ये अब कितना सच झूठ हो पाता है ये तो ईश्वर ही जाने मगर मगर संक्रांति का पर्व अब भी बहुत ही उल्लास और हर्ष के साथ पूरे उत्तर भारत में मनाया जाता है । चलते चलते आप सबको पुन: बधाई और शुभकामनाएं ।


रविवार, 12 जनवरी 2014

ब्लॉगिंग के सातवें साल में ....




वर्ष 2007 के आखिरी महीनों में जब लिखतन से अचानक इस खिटपिट की ओर मुडे थे तब कंप्यूटर से भी इतना ही परिचय था कि दफ़्तर में काम करते हुए , टाईपराईटर पर टाइपिंग सीखने के बाद अब हम कंप्यूटर के सोफ़्ट कीबोर्ड पर भी कुलांचे तो भरने ही लगे थे अलबत्ता तब ये बिल्कुल भी नहीं सोचा था कि बहुत जल्दी ही हिंदी अंतर्जाल के एक ऐसे सदस्य बन जाएंगे कि भागीदारी हिस्सेदारी सी महसूस होने लगेगी ।

ब्लॉगिंग की शुरूआत भी बहुत ही मज़ेदार ढंग से शुरू हुई थी । कादम्बिनी का वो अंक , जिसमें तफ़सील से पढकर हमने ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम रखा । और उस समय हिंदी ब्लॉग्स और ब्लॉगर्स की संख्या भी लगभग एक हज़ार के भीतर ही थी । वो दौर भी कमाल का था और वो ही क्यों उसके बाद से लेकर अब तक का सफ़र और हिंदी ब्लॉगिंग में होते परिवर्तन , बढते दायरे और प्रभाव का अफ़साना भी कम दिलचस्प नहीं रहा । जिंदगी में आते उतार चढावों की तरह ही ब्लॉगिंग भी निरंतर चढती उतराती रही । एक समय ये भी आया कि हमने अपने सारे ब्लॉग्स पर लिखना स्थगित करके सीधे साइट की ओर रुख किया | मगर ब्लॉग्स बहुत ज्यादा दिनों तक सूने आंगन की तरह नहीं देख पाए ।


किंतु अब जब देखता हूं तो पाता हूं कि , पिछले कुछ वर्षों का आर्काइव , उनसे पिछले के कुछ वर्षों के मुकाबले पासंग भी नहीं है । ऐसा शायद बहुत सारी अन्य वज़हों के अलावा , शायद फ़ेसबुक और ट्विट्टर जैसी साइटों पर अधिक समय देना भी नि:संदेह रहा । इस बीच ब्लॉगिंग में जिन दो चीज़ों की कमी और खली , नए और तेज़ एग्रीगेटरों की कमी और पाठकों की टिप्पणी करने को लेकर निष्क्रियता ।हालांकि नए ब्लॉगरों के आगमन और पोस्ट लिखने की उनकी रफ़्तार ने ब्लॉगिंग के धार में कमी नहीं आने दी । इस बीच बडे स्तर पर भी ब्लॉग संगोष्ठी / सम्मेलनों की धमक और चमक ने भी खबरों में स्थान बनाए रखा । चाहे वो नेपाल की राजधानी काठमांडू हो या गांधी का क्षेत्र वर्धा ।

बदलते हुए परिवेश में सोशल नेटवर्किंग साइट्स का महत्व और प्रभाव जितनी तेज़ी से बढता जा रहा है उतनी ही ज्यादा बडी जिम्मेदारी इन पर उपस्थिति दर्ज़ कराने वाले लोगों के कंधों पर भी आ रही है । अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुए दंगों में इन साइटों के दुरूपयोग का नमूना भी देखने को मिला था , किंतु अच्छी बात ये है कि ब्लॉगिंग फ़ेसबुक और ट्विट्टर के उत्तेजनामयी तीव्र व्यवहार से कहीं अलग ठहरा हुआ और ठोस सा दीख पडता है । 

ब्लॉगिंग का ये सफ़र अब चलते चलते मुझे सातवें वर्ष में लेकर आ गया है । आने वाले समय में लेखन पठन और टिप्पणियों को लेकर भी ज्यादा संज़ीदा और गंभीर हो सकूं यही कोशिश रहेगी । एक बात और ब्लॉगिंग के शुरूआती दिनों में हमने ब्लॉग बैठकियों का एक गजब का दौर भी देखा था । मुझे पूरी उम्मीद है कि बहुत जल्दी ही दिल्ली में हम फ़िर से बहुत सारे ब्लॉगर मित्र बैठ कर कुछ औपचारिक अनौपचारिक सी बातें करने वाले हैं । ब्लॉगिंग का ये सफ़र बदस्तूर चलता रहे ,और बहुत सारे वे साथी जो अलग अलग कारणों से थोडी बहुत दूरी बनाए हुए हैं वे भी यदा कदा ही सही उपस्थिति दर्ज़ कराते रहें तो और भी अच्छा लगेगा ।

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

कैमरामैन लुट्टन के साथ चंपू जी ,चिंचपोकली "प्याज तक"




टीवी न्यूज़ एंकर चंपू जी : "ये है दरभंगा का वो सुलभ शौचालय जहां पर बताया जाता है कि एक बार यासिन भटकल ने छी छी किया था , आइए पूछते हैं दरबान जी से कुछ खास इस बारे में

दरबान जी बताइए , क्या आपको लगा था कि उस दिन भटकल ने कुछ खास किया था आपके शौचालय में ?

दरबान जी " हां सर , भटकल ने कुछ तो ऐसा किया था उस दिन कि हमारा पूरा सीवर ही अटकल हो गया था उस दिन के बाद

तो देखा आपने किस तरह से हमने एक्सक्लुसिवली आपको बताया कि भटकल ने सुलभ शौचालय में भी अपना दरभंगा मौडयूल छोडा था ।

कैमरामैन लुट्टन जी के साथ मैं ,चंपू जी , सुलभ शौचालय , दरभंगा ,"प्याज तक "

ब्रेक के बाद फ़िर जारी हैं पत्रकार चंपू जी नई रपट के साथ  
न्यूज़ चैनल के पत्रकार चंपू जी : भटकल के अब्बा लटकल से : क्या आपको लगता है कि आपका बेटा बेगुनाह है ?

टीवी दर्शक : चंपू जी , क्या आपको लगता है कि इससे भी बडा बेवकूफ़ी का सवाल कोई और रिपोर्टर पूछ सकता है , या आपने सबसे बडा पूछ लिया ?

चंपू जी : नहीं नहीं , अभी तो इंडिया टीवी वाला रिपोर्टर का भी पूछना बांकी है :)

स्टूडियो से मैं  झिंगुर चौधरी इसी के साथ आपको बताता चलूं कि आज के लिए यही विषय होगा हमारी "हडबडी बहस"  के लिए , तो देखना न भूलें आपके अपने चैनल ,

कल से लेकर आज तक , एक ही चैनल "प्याज तक "


सोमवार, 26 अगस्त 2013

कुछ भी , कभी भी .........




आज देश की सर्वोच्च विधायी संस्था , संसद में ,मांग उठाई गई कि देश के एक स्वनाम धन्य संत आसाराम बापू पर लगे बलात्कार जैसे संगीन अपराध वो भी उनकी ही एक नाबालिग अनुयायी के साथ , के मामले पर सरकार सिर्फ़ इस वजह से गंभीर नहीं है क्योंकि उनके साथ " धर्म " और उनके अंधानुयायियों का भारी दबाव काम कर रहा है जो शायद पुलिस प्रशासन और सरकार को सीधे सीधे उस कानूनी कार्रवाई को करने से रोक रहा है जो उन्हें करना चाहिए । ये स्थिति अपने आप में ही सारी बातों को स्पष्ट करने के लिए काफ़ी है ।



इसी के समानांतर , महानगर मुंबई में एक फ़ोटो पत्रकार का बलात्कार , जिसके पांच आरोपियों को पुलिस जीतोड कोशिश के बाद देश के अलग अलग कोने से गिरफ़्तार करने में सफ़ल हो जाने की खबरें भी आम लोगों को मिलती हैं । अब आम आदमी के सामने ये प्रश्न खडा हो जाता है कि आखिर धर्म की ढाल क्या इतनी मज़बूत हो गई है आज कि पुलिस और प्रशासन तक इतने पंगु दिखाई दे रहे हैं कि संसद जैसी राष्ट्रीय संस्था को अपने सभी जरूरी काम काज को छोडकर इस मुद्दे की ओर ध्यान खींचना पडा । जो भी हो आज प्राथमिकी दर्ज़ कराए इतना समय तो हो ही गया है कि कम से कम पुलिस उस स्थिति में खुद को ला पाती कि या तो आरोपी को गिरेबां से धर के अदालत की चौखट तक खींच लाती या फ़िर सीधे सीधे ये साबित कर पाती कि आरोप उस हद तक मिथ्या या संदेहास्पद हैं कि अन्य कानूनी विकल्पों का सहारा लिया जाए । इस पूरे मामले में आगे कब क्या होगा कैसे होगा और क्या परिणाम निकलेगा ये तो भविष्य की बात है किंतु इतना तो तय है कि आज कानून और इसके निगेहबान , लाख दलीलों तर्कों से आम आदमी को ये भरोसा नहीं दिला सकते कि कानून सभी के लिए समान है ।





अब बात करते हैं दूसरे घटनाक्रम की , जो इत्तेफ़ाक से धर्म के इर्द गिर्द ही घूमता फ़िरता प्रतीत होता है बेशक उसके आगे पीछे कोई राजनीतिक , या कैसी भी कोई और सोच हो । उत्तर प्रदेश में संतों द्वारा  परंपरागत रूप से की जाने और बरसों से चली आ रही चौरासी कोस परिक्रमा किए जाने की घोषणा की जाती है । इस परिक्रमा से जुडे मिथक और सत्य का सारा सच तो  संत समाज ही बेहतर जान समझ सकता है लेकिन कुल मिलाकर इसे आम अवाम के सामने इस तरह प्रस्तुत किया जाता है मानो ये इस समय किया जाने वाला सबसे पहला और आखिरी जरूरी धार्मिक कृत्य था जिसका अभी और सिर्फ़ अभी पूरा होना ही नितांत आवश्यक था ।


उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार जो पहले से ही  मुस्लिक तुष्टिकरण के आरोपों तले किसी तरह से अपना कार्यकाल एक एक दिन आगे बढा रही थी और जिस पर ताज़ा ताज़ा एक अन्य घटना के कारण भी भारी दबाव था अपेक्षित प्रतिक्रिया दिखाते हुए , इस यात्रा को सुरक्षा मुहैय्या कराके फ़ौरन पूरी करा देकर किसी अनावश्यक और अप्रिय स्थिति को टालने के विकल्प के मौजूद होने के बावजूद भी , न सिर्फ़ इस पर सिरे से प्रतिबंध लगाने का मन बना लिया बल्कि इसे करते हुए ऐसा प्रदर्शित किया मानो प्रदेश पर चीन या पाकिस्तान के हमले को विफ़ल करने जैसा काम कर लिया हो । ये आग अभी तो सुलगी है और जब तक सब कुछ ठंडा होगा तब तक ये दावानल क्या कितना खाक करेगा ये वक्त ही बताएगा ।
"यहां एक सवाल जो मन में कौंध उठा अचानक कि क्या अच्छा होता यदि ऐसी कोई परिक्रमा यात्रा , अभी हाल ही में टूट कर बिखर चुके राज्य उत्तराखंड के प्रभावित गांव कस्बों की ओर कूच करके पूरी की जाती । जाने वाले लोग अपने साथ वहां जिंदगी को दोबारा पटरी पर लौटाने के लिए जूझते अपने जैसे ही कुछ इंसानों की मदद के लिए जो भी संभव होता वो ले जाते , श्रम करते , सहायता करते । क्या उससे मिला सुकून इस परिक्रमा से मिले सुकून से कम होता ? क्या किसी राज्य सरकार , किसी केंद्र सरकार , किसी कानून , किसी धर्म में इतनी हिम्मत थी कि मानवीयता /इंसानियत को बचाने बसाने के लिए की जाने वाली इस परिक्रमा को टेढी नज़र से भी देख पाती ?"

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

गांधी , गांधीवाद , गांधी ब्रांडवाद से गांधी परिवारवाद तक .....




2 अक्तूबर , को अब देश में गांधी जयंती के रूप में पहचान मिल चुकी है , हो भी क्यों न आखिर जिस देश को विश्व का सबसे बडे लोकतंत्र का रुतबा हासिल कराने के लिए , एक अकेले व्यक्ति ने अपने नायाब प्रयोगों और सोच से बिना किसी हिंसा , के विश्व के सबसे बडे जनसमूह को सैकडों वर्षों की गुलामी से आज़ादी दिला कर राष्ट्रपिता का दर्ज़ा ( ओह ! याद आया , अभी हाल ही में एक बच्ची द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के बाद सरकार ने खुलासा किया है कि मोहन दास करमचंद गांधी उर्फ़ बापू को कभी भी आधिकारिक रूप से "राष्ट्रपिता " का दर्ज़ा नहीं दिया गया है ) मिला , और न भी मिला तो भी देश के बापू का जन्मदिन होता है तो ऐसे में ये बिल्कुल ठीक जान पडता है । बेशक अब बहुत सारे कारणों और लोगों की उठती आवाज़ों के बाद इसी दिन जनमे और भारतीय राजनीति में एक और बेहद महत्वपूर्ण शख्स , पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री को भी अब गाहे बेगाहे सरकारी और गैरसरकारी तरीके से याद किया जाता ही है , लेकिन आम लोगों के लिए तो ये दिन यानि दो अक्तूबर , गांधी जयंती यानि वर्ष की तीन पक्की छुट्टियों ..26 जनवरी ,15 अगस्त और 2 अक्तूबर में से एक । दिल्ली जैसे महानगरों में तो चालान कटने के डर से बाज़ार दुकानों के बंद रखने का दिन और हां सबसे अहम तो छूट ही गया ..ड्राई डे ....यानि शराब की सरकारी दुकानों के भी बंदी का दिन , समझा जाए तो बेवडों के लिए एक दिन पहले ही अपने कोटे की बोतलें खरीद कर रख लेने का अल्टीमेटम ।



" गांधी " से परिचय की बात की जाए तो हम और हमारे बाद आने वाली तमाम नस्लें भी इतिहास , राजनीति , हिंदी के पाठ्यपुस्तकों में गांधी जी की जीवनी , उनके जीवन चरित , उनके सत्य और राजनीति से किए गए प्रयोगों , उनके योगदान , उनके बलिदान और राष्ट्रपिता बापू तक का सब कुछ अलग अलग तरह से पढते रहे हैं और अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभावित आ अप्रभावित होते रहे हैं । ज्यादा आगे बढे पढे तो फ़िर सहमति असहमति , उनकी नीतियों के विरोध पक्ष में ,. आलोचना बहस आदि में भी पडते रहे हैं , और ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा । इससे इतर , देश के तमाम मौद्रिक प्रतीकों , मुद्राओं , नोटों पर लगभग एक जैसी छवि देखने के आदि हो चले हैं । बचपन में स्कूल की तरफ़ से दिखाए गए एकमात्र सिनेमा में ब्रिटिश अभिनेता बेन किंग्सले अभिनीत  " गांधी" तो हमारे ज़ेहन में फ़िर भी रहे किंतु आज और अब के बाद वालों के साथ भी वैसा ही कुछ हो या होगा इसमें संदेह जान पडता है । गांधी संग्राहलय , गांधीधाम , आदि को देखने समझने के भी अपने अपने अनुभव बहुतों या कहा जाए कि सवा अरब की जनसंख्या वाले देश के बहुत कम लोगों के पास सही , लेकिन हैं और होंगे भी ।



"गांधीवाद "...यदि मोटे मोटे रूप में याद किया जाए तो , ग्रामीण भारत के लिए गांधी जी के संकल्प , ग्रामोद्योगों और कुटीर उद्योगों के कायाकल्प की बात , हिंदी की शिक्षा सहित ग्राम्य शिक्षा की बात , राजनीति को समाज सेवा और सामाजित कुरीतियों से लडने का मार्ग बताने व मानने की बात , सर्वहारा मज़दूर किसान वर्ग के हित की बात , शराबबंदी की बात , जातिवाद की बाद , कुल मिलाकर सभी छोटी बडी बातें और आदर्शों को बाद के भारतीय लोकतंत्र में पलीता लगा के सुलगा दिया गया कहा जाए तो हठात कोई मना नहीं कर सकता । साठ वर्षों बाद आज भी देश का किसान , भूखा , गरीब , कर्ज़ से डूबा , आत्मह्त्या तक करने को मज़बूर है , अन्य सभी बातों का भी कमोबेश यही हश्र है । रही सही सारी कसर गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले तमाम राजनेताओं , राजनीतिक दलों ने एक एक संकल्प की चिंदी उडा कर पूरी कर दी है , आगे अभी इसे और कितने गर्त में जाना ये भी देखने वाली बात होगी



"गांधी ब्रांडवाद "....पिछले दो दशकों में विश्व के सारे देश , सारे लोग , सारी सरकारें और सारे समीकरण भी सिर्फ़ बाज़ारवाद , उपभोक्तावाद , की धुरियों के बीच बंट गए तो ऐसे में ये एक नया जुमला देखने सुनने में आया "गांधी ब्रांडवाद " गांधी मार्का छाप राजनीति , गांधी मार्का छाप बाज़ार और उससे जुडी तमाम बातें । यहां एक दिलचस्प किस्सा याद आ रहा है , पिछले दिनों अचानक ही खबर पढने सुनने को मिली कि गांधी जी से जुडी कुछ अनमोल धरोहरें , मसलन उनका चश्मा , उनके कुछ खत और ऐसी ही कुछ अन्य वस्तुएं कहीं विदेश में नीलाम की जा रही हैं और भारत सरकार द्वारा उन्हें नीलामी से बचाने या फ़िर नीलामी में उन्हें खरीद कर देश में वापस लाने की असमर्थता के समय देश की एक कंपनी जो इन दिनों अपनी वायुसेवा कंपनी के दिवालिएपन का ढिंढोरापन पीटती नज़र आ रही है ने अपनी दूसरी शराब व मद्य व्यवसाय के लिए विख्यात कंपनी की बदौलत , उस नीलामी में वो सारी वस्तुएं खरीद लाई । अब इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि जिस शराबबंदी की वकालत पूरी जिंदगी गांधी जी करते रहे आखिरकार उसी शराब की दौलत से उनकी वस्तुओं और देश के सम्मान को बचाया जा सका ।

गांधी परिवारवाद ....इससे मुझे काफ़ी असहमति रही है । आज यदि किसी को अचानक पूछ लिया जाए कि क्या गांधी जी के पुत्रों , पौत्रों या प्रपौत्रों /पौत्रियो या प्रपौत्रियों के नाम या उनके विषय में बताएं तो वे शायद सोच में पडने के बावजूद भी कुछ न बता पाएं । हां जवाहरलाल नेहरू जी वंशबेल , इंदिरा नेहरू जो आगे जाकर स्व. इंदिरा गांधी , स्व. राजीव गांधी के बाद चलते हुए अभी और आगे तक जाएगी , और अब तो इटली की मूल निवासी सोनिया "गांधी " के वाया होते हुए दिनोंदिन मजबूत ही होती चली जा रही है । तो कुल मिला कर ये कि नेहरू वंश कालांतर में गांधी परिवार को दरकिनार करते हुए लेकिन "गांधी" उपनाम के साथ एक नए वंशवादी परंपरा पर चलते हुए अभी बहुत सालों तक भारतीय राजनीति को न भी प्रभावित कर सका तो भी अपनी पैठ तो बनाए ही रखेगा ही ।


बहरहाल , जो भी हो गांधी जयंती आने वाले वर्षों में एक सरकारी अवकाश से अधिक और कुछ के रूप में आम जन को याद रहेगी , या फ़िर कि उनके लिए और किसी भी तरह से प्रासंगिक रहेगी , गांधीवाद , गांधीदर्शन जैसा सबकुछ भविष्य की , आने वाली नस्लों की उनकी सोच और उनकी दिशा के लिए किस तरह से सामने आएगा ये देखने वाली बात होगी ।

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

अनटचेबल ...........






आमिर खान के सत्यमेव जयते से बेशक बहुत सारे लोगों को बहुत सारी शिकायतें हों , और इसके पक्ष विपक्ष , नफ़े नुकसान के गणित-गुणाभाग का आकलन विश्लेषण किया जा रहा हो , लेकिन मेरे लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी है कि आज की तारीख में बुद्दू बक्से से बेकार बक्से तक की स्थिति में पहुंचने वाली टीवी पर सप्ताह में एक डेढ घंटे किसी मुद्दे को प्रभावी तरीके से उछाल कर उसे समाज में बहस करने के लिए छोड दिया जाता है तो यही बडी बात है । इसके एक आध एपिसोड को छोडकर मुझे सब विषयों और मुद्दों , उनकी प्रस्तुति और उसके बाद उनका पडने वाला प्रभाव स्पष्ट महसूस हुआ , जैसा कि आमिर खुद बार बार कह रहे हैं कि बात दिल पे लगनी चाहिए और दिल पे लगेगी तो बनेगी भी ।


पिछले बहुत सारे एपिसोड कहीं न कहीं , किसी न किसी रूप में महिलाओं के मुद्दों और उनसे जुडी समस्याओं के आसपास ही घूमते रहे , इसके बावजूद भी कल एक टीवी   समाचार में देखा कि गोहाटी में सरेआम , एक युवती के साथ पूरी भीड ने  वहशियाना हरकत की , उसने जता और बता दिया है कि अभी कुछ नहीं बदला है बल्कि कहा जाए कि बहुत कुछ बिगड गया है । और मुझे तो लगता है कि समाज को अब इससे भी ज्यादा घृणित , अमानवीय , कुकृत्यों और अपराधों को देखने सुनने और भुगतने के लिए तैयार हो जाना चाहिए , आखिर इस रास्ते को हमने ही तो हाइवे बनाया है ,और सबसे जरूरी बात ये थी कि जहां गति और दिशा का नियंत्रण होना चाहिए था वहां कोई इन्हें संभालने मोडने वाला नहीं था ।


हालिया एपिसोड में आमिर ने भारतीय समाज में जाति प्रथा के एक साइड इफ़्फ़ेक्ट और बुरे इफ़्फ़ेक्ट के रूप में मिली छुआछूत की बीमारी को उठाया । हमेशा की तरह , आमंत्रित मेहमानों और विशेषज्ञों ने ,अपने अनुभव , आंकडों और विमर्श से ये दिखा दिया कि अब भी बहुत कुछ नहीं बदला है । कम से कम उन समाजों में तो जरूर ही जहां ये व्याप्त थीं । यानि कि ग्रामीण परिवेश में । भारतीय समाज में जाति प्रथा की शुरूआत , जातियों का निर्धारण , उनके कार्यों का निर्धारण , उनके जीवन स्तर , उनके अधिकार आदि पर बहस तो सालों से चली आ रही है और सच कहा जाए तो जाति वर्गीकरण के कई वैज्ञानिक और सामाजिक तर्कों के बावजूद कभी कभी तो लगता है कि अब समय आ गया है जब इंसानी समाज से जाति और धर्म जैसे विषयों को बिल्कुल ही विलुप्त कर देना चाहिए । वैसे भी किसी आम खास जाति को उच्च और निम्न का प्रमाणपत्र देने की हैसियत और औकात कम से कम किसी इंसान की तो कतई नहीं होनी चाहिए ।


सरकार ने अपनी नीतियों और अपने नुमाइंदों के अनुसार बहुत सारे काम और बहुत सारी योजनाओं , कुछ कानूनों को लाद कर भी ये जताने का प्रयास तो किया ही है कि उन जातियों , जिन्हें निम्न या छोटा कहा समझा समझाया जाता रहा था सदियों से , के लिए बहुत बडा उद्धारकर्मी उपाय दिया । हालांकि बहुत सारे बदलाव और परिवर्तन जरूर हुए भी , लेकिन कमोबेश वो घाव अब भी कहीं न कहीं मवाद बहाता दिख मिल जाता है । खुद सरकारी आंकडों पर यकीन करें तो आज भी देश में हाथ से मैला ( मैला यानि मल मूत्र भी ) ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका है । आज़ादी के साठ साल बाद भी ।


शहर से निकलकर ग्रामीण परिवेश की तरफ़ बढने पर ही मुझे एहसास हुआ कि ऐसी कोई बीमारी भी इस समाज में है । शहरी जीवन में पहले और अब भी मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि जाति प्रथा या छुआछूत की किसी बडी घटना ने मेरा ध्यान उस ओर खींचा था सिवाय कुछ के जब एक आध सहकर्मियों ने कभी कभी किसी दूसरे सहकर्मी के साथ बैठ कर लंच करने में  असर्मथता जताई थी , बाद में पता चला कि वो छोटी जाति के उस सहकर्मी के साथ भोजन साझा नहीं करना चाहते थे । पिताजी फ़ौज में थे सो शुरू से ही परिवेश ऐसा रहा कि जाति धर्म भाषा आदि ने कभी मुझे अपने दायरे बनाने बढाने में कोई खास भूमिका नहीं निभाई । गांव में रहने के दौरान जरूर बहुत कुछ अनुभव हुआ ।इत्तेफ़ाक ये रहा कि उन्हीं दिनों अपनी स्नातक की पढाई के दौरान अंग्रेजी साहित्य (प्रतिष्ठा ) के पाठ्यक्रम में मुल्कराज़ आनंद की "अनटचेबल" पढने को मिली , जिसे मैंने अब तक सहेज़ कर रखा हुआ है ।








गांव में बस्तियों की बसावट और फ़ैलाव , जरूर उनके गोत्र मूल , पेशे, आदि के अनुसार था और अब भी है जो मुझे बहुत अलग सा नहीं लगा । लेकिन जैसे जैसे मुझे ये जानने को मिला कि उन्हें चापाकल , पोखर तालाब मंदिर और सामूहिक भोज तक में साथ बैठाना शामिल करना तो दूर उनके लिए वो सब वर्जित है , मुझे हैरानी भी हुई और कोफ़्त भी । मुझे अब तक याद है एक बार क्रिकेट खेल के मैदान से वापसी में बहुत जोर की प्यास लगने के कारण ,मैं स्वाभाविक रूप से जो भी चापाकल (हैंडपंप) दिखा उसमें से पानी पीने लगा । साथ के सभी लडके मुझे इस तरह छोडकर भागे मानो दिन में ही भूत देख लिया हो ।


अर्सा हो गया गांव छोडे और उसे महसूसते हुए , लेकिन मुझे पता है कि अब भी , जबकि सच में ही बहुत कुछ बदल गया है , उन बस्तियों में पक्के मकान हैं , और उनमें उनके पढते लिखते बच्चे हैं , विकास की , आगे बढने की एक ललक और झलक दिखाई देती है , लेकिन आज भी और अब भी वहां बहुत सी वर्जनाएं हैं जिन्हें तोडने टूटने में जाने कितने युग और लगेंगे ।

गुरुवार, 28 जून 2012

खुद अपने आप से आगे निकलिए ......





शायद नौकरी लगे हुए तीन साल हो गए थे तो ये उस वक्त की बात हुई यानि 2000-2001 या उसके आसपास की बात  थी । स्टेशन कौन सा था ये याद नहीं , मगर बक्सर था शायद , पानी भरने के लिए मैं भी स्टेशन पर लगे नल की लाईन में खडा था और एक नज़र इस बात पर थी कि गाडी कहीं खिसकना न शुरू कर दे ( ये आजकल की बिसलरी नस्ल शायद ही समझ सके कि उस समय स्टेशन पर रुक कर और उतने ही समय में , खाना और पानी या जरूरत की किसी भी चीज़ को लेकर आना जाना कितनी महत्वपूर्ण कला हुआ करती थी इस बात का अंदाज़ा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि वो काम सफ़र कर रहे परिवार के सबसे चुस्त और समझदार और फ़ुर्तीले तो जरूर ही , को दिया जाता था ) , तो वो स्वाभाविक सा काम हम तब कर रहे थे जब गांव से अकेले दिल्ली वापसी पर थे ।

पीछे से किसी ने कंधे पर थपका , " अबे झा तू ही है न "

मैं पलटा , अबे रंजन तू , मेरी ग्यारहवीं कक्षा का दोस्त था  रंजन । इत्तेफ़ाक ये कि वो भी अपनी ड्यूटी पर गुजरात जाने के रास्ते में थी चूंकि छोटा भाई दिल्ली में था इसलिए उसी ट्रेन से वो भी दिल्ली की ओर ही अग्रसर था । हमने पानी भरा और वापस चल दिए । उतनी देर हममें से कोई कुछ नहीं बोला । शायम हम दोनों , समय के उस अंतराल में एक दूसरे के चेहरे , हावभाव , चाल के बदलाव को भांप रहे थे । मैंने साथी दोस्तों को पानी की बोतल थमाई , दोस्त से परिचय कराया और फ़िर चल पडे दोस्त की सीट की तरफ़ ।

अकेले है या ..मैंने पूछा सबसे पहले

नहीं यार तेरी भाभी और भतीजी भी हैं साथ में ।

जियोह्ह तो तूने शादी कर ली , अबे उसका क्या हाल है जॉगिंग करे चलबू का ,

दोस्त उछल पडा , अबे धीरे बोल तेरी भाभी है साथ में पिटवाएगा क्या , वो कहानी तो तभी खत्म हो गई थी ।

हा हा हा हा मेरा ठहाका गूंज उठा था । सीट पर पहुंचे तो भाभी जी ,(जिसके लिए पट्ठे ने बाद में बताया कि ये भी सहपाठिन ही रही हैं हमारी लेकिन उस स्कूल में जहां ये बारहवीं में निकल लिए थे ) जो आज स्थानीय कालेज में लेक़्चरार हैं और प्यारी सी भतीजी से मुलाकात हुई । बहुत देर तक फ़िर हम अकेले में बैठ कर बतियाने बैठ गए । भाभी भतीजी खिडकी की सीट पर बैठ कर टिकट का असली महत्व वसूल रही थीं

और तू सुना , कहां क्या कर रहा है , शादी की या नहीं ,

अबे रुक यार , मैं दिल्ली में हूं , सरकारी नौकरी में , और फ़िर पूरी विस्तृत बात अपने कार्यालय और काम के बाबत । उसे बहुत हैरानी हुई । मैं समझ रहा था कि उसे और उस समय के मेरे सभी दोस्तों को ये जानकर बहुत हैरानी होती है कि मेरे जैसा थर्ड डिविजन पास लडका , कोई प्रतियोगिता पास करके नौकरी में कैसे आ गया , मतलब इत्ती बुद्धि वृद्धि ..ये कृपा कैसे किसकी हो गई ।

मैं खुद भी आंकता हूं खुद को तो यही पाता हूं कि दसवीं तक पढाई के बारे में मैं इतना ही होशियार था कि गली में सबके द्वारा पूछने पर , कि परीक्षाएं कैसी चल रही  हैं , मुझे लगा कि नहीं ये उन वार्षिक परीक्षाओं से ज्यादा जरूरी तो हैं ही । इन स्थितियों में यदि प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए सोच रहा था तो ...। मुझे अब लगता है कि मैंने खूब मेहनत की उस दौरान और उससे भी ज्यादा आश्वस्त था इस बात को लेकर कि आज नहीं तो कल आखिरी सफ़लता मिलेगी ही ॥


परीक्षाओं के उस दौर पर ,और ऐसी हर परीक्षा को यदि उकेर दिया जाए शब्दों में तो निश्चित रूप से दिलचस्प जरूर लगेगी आपको । खूब अवसर हुआ करते थे उन दिनों , और सभी क्षेत्रों में ,हम सभी दोस्तों ने ये ठान ही लिया था कि अब आर या पार । हमारे एक बहुत की कुशाग्र मित्र जो उन दिनों हमारे साथ ही प्रतियोगिता परीक्षाओं के समर में दौड रहे थे ने रिकार्ड 14 बार बैंक पी ओ कैडर की लिखित परीक्षा पास की मगर साक्षात्कार में कभी पास न हो सकने के बावजूद पंद्रहवीं बार बैंक पी ओ बन कर ही माने । उसी समय जाना था कि पढाई , लक्ष्य , उससे पाने की जिद और पाने के लिए अथक परिश्रम और प्रतिबद्धता क्या होती है ।

वैसे भी मेरा यही फ़लसफ़ा है कि जहां भी जो भी दे रहे हो , अपनी ओर से कोशिश होनी चाहिए कि अपना सौ प्रतिशत दें । बाद में ये अफ़सोस नहीं होना चाहिए कि  , काश ये और ज्यादा करके देखा होता । मैं क्रिकेट , बैडमिंटन , वॉलीबॉल , फ़ुटबॉल अच्छा खेलता था मगर स्कूल की टीम में आज तक सिर्फ़ खिलाडियों को पानी ही देता रहने वाला डेडिकेटेड प्लेयर रहा । हां कालोनी और उसके बाद ग्राम्य जीवन में जरूर खेलता और अच्छा खेलता रहा । राजनीति भी अछूती नहीं रही ,मगर शायद अनुभव इतने तल्ख मिल गए कि फ़िर तो एक बू सी हमेशा ही आती रही उधर से । काम , पढाई लिखाई , घुमाई किसी भी बात में मुझे अपनी पूरी उर्जा झोंकने में आनंद आता है ।


मुझे लगता है ये इस तरह की कोशिश है जिसमें आप खुद से आगे निकलने की कोशिश में रहते हैं , हर पल हर समय आपी सोच और क्रियाकलाप उसी दिशा में आगे बढती हैं । और आगे निकलने का मतलब मेरा सिर्फ़ विकास के रास्ते पर होना नहीं है , आगे मतलब अपने वजूद से अपने होने के एहसास की तरफ़ आगे । जिंदगी अपना चक्र पूरा करती ही है , आज तक किसी के रोके टोके नहीं रुकी है इसलिए तब तक हमें चलायमान रहना ही होगा , चलते रहना होगा निरंतर ..कभी अपने साथ ..कभी खुद अपने आप से आगे .....

गुरुवार, 3 मई 2012

कोल्ड-बोल्ड ब्लॉगिंग और फ़ास्ट फ़्युरियस फ़ेसबुक






 

हिंदी अंतर्जाल का चेहरा , अपने पैदा होने से अब तक लगातार इतना तेज़ी से बदलता रहा है कि , कभी तो उसको साहित्य अपने निशाने पर लेता है ,ये कह कर कि इस पर जो कुछ भी उपलब्ध कराया जाता है वो स्तरहीन है , जबकि उन्हें भलीभांति मालूम होता है कि अब तो अंतर्जाल पर पूरा साहित्य इतिहास समग्र उपलब्धता की ओर अग्रसर है । कभी मीडिया , इसे अपने आपको न्यू मीडिया कहने कहलाने पर आडे हाथों लेता है । और सबसे कमाल की बात ये है कि इसके बावजूद भी सबको सबकी खबर रहती है और गाहे बेगाहे एक दूसरे की लाइन क्रॉस भी करते रहते हैं । इस बार मामला कुछ ज्यादा अलग इसलिए है क्योंकि इस बार तो एक नज़र सरकार ने भी अपनी टिका दी है और टेढी नज़र टिकाई है । लो जी जुम्मा जुम्मा अभी तो दस बरस भी नहीं हुए । अपने इतने से घंटों दिनों के सफ़र में हिंदी अंतर्जाल ने न सिर्फ़ माध्यम और मंच बदले बल्कि , अपना नज़रिया शैली और दिशा भी बदली । . 


बीच बीच में सेवा प्रदाता कंपनियों के परिवर्तन या ऐसे ही किसी कारणों के लोचा में फ़ंसकर झटके खाते इन मंचों के लिए विपदा पे आफ़त भी कुछ इस तरह की आई कि ,एक एक करके अलग अलग कई कारणों से एग्रीगेटर सेवा साइटें बंद हो गई या रुक गईं । दुनिया देश , फ़टाफ़ट जिंदगी की आदत को अपना रहा था , क्रिकेट भी टेस्ट मैच से लेकर ट्वेंटी ट्वेंटी मोड में पहुंच चुकी थी ऐसे में लोगों को त्वरित से भी तेज़ संवाद और संप्रेषण का हर नया उपाय ज्यादा लुभा रहा था । जिस ब्लॉगर ने अपनी मुफ़्त और अदभुत सेवा यानि ब्लॉग के माध्यम से विश्व अंतर्जाल पर धूम मचा दी और कभी बीबीसी समाचार सेवा की प्रमुख समाचार सूत्र के रूप में विख्यात हुई , उस सेवा को , ट्विट्टर , फ़ेसबुक और यू ट्यूब के बडे विस्तारित जाल ने कडी टक्कर दी । .
इन सब कारणों ने हिंदी ब्लॉगिंग में कोल्ड ब्लॉगिंग का दौर चला दिया । 


 कोल्ड क्या इसे तो चिल्ड ब्लॉगिंग कहिए , वर्तमान में लोकप्रिय एक एग्रीगेटर " हमारीवाणी " के पहले पन्ने की पोस्टें शाम तक भी एक पन्ने तक ही सीमित सी हो कर रह गई हों जैसे । सबके पास नियमित ब्लॉग नहीं लिखने , नहीं लिख पाने और यहां तक कि , नहीं पढ पाने और नहीं टिप्पणी करने या कर पाने के बहाने या कारण थे । लेकिन ट्विट्टर , फ़ेसबुक , प्लस ,और इन जैसे वैकल्पिक मंचों पर गहमागहमी चलती रही । इन सबके बावजूद एक कमाल की बात ये रही कि हिंदी ब्लॉगिंग में मज़हबी कटटरपंथ से जुडी पोस्टों ने गजब रफ़्तार पकड ली । अन्य भाषाओं का तो पता नहीं किंतु मेरा पिछले पांच वर्ष का अनुभव यही बताता है कि किसी भी विवाद के होते ही हिदी ब्लॉगिंग सक्रियता के अपने चरम मोड पर होती है । पिछ्ले दिनों सुना कि ऐसी ही एक पोस्ट से हिंदी ब्लॉगिग ने कोल्ड ब्लॉगिंग से बोल्ड ब्लॉगिंग की इमेज बना ली या बनी हुई घोषित कर करवा दी गई । अब ये तो इत्तेफ़ाक रहा कि एक संयोग भर कौन जाने लेकिन , बोल्ड ब्लॉगिंग ने आपनी अगली पारी के लिए आज के भारत "इंडिया टुडे " के मुख पृष्ठ को ही मुद्दा बना दिया । लेकिन इन सबका प्रभाव ये रहा कि बहुत दिनों बाद बहुत सी पोस्टों पर बहस और विमर्श की एक ऐसी महफ़िल जम गई कि समां बंध गया । .




अब रही बात ब्लॉगर मित्रों दोस्तों की तो , सब कहीं न कहीं लगे तो रहे , कोई प्रकाशन , तो कोई प्रकाशक से उलझे रहे , कई अपनी जिम्मेदारियों और पारिवारिक दायित्वों को संपन्न करने में लगे रहे , तो कई फ़ेसबुक और ट्विट्टर को धुनने में लगे रहे ,कईयों ने तो हार, प्रहार , लुहार तक पर पीएचडी कर डाली इस बीच , हम भी इन्हीं में से एक रहे । कहते हैं कि हिंदी ब्लॉगजगत में हमेशा ही गुटबाजी और समीकरणों की बात होती है , और कमाल ये है कि ये बदलते रहते हैं , खूब बदलते हैं । नाम ले ले के पोस्टें लिखने , एक दूसरे की टांग खींचने और और सभी भाषाई मर्यादाओं को तोड कर दंड पेलने की कवायद तो पहले से भी होती रही है , अलबत्ता इसकी रफ़्तार कम ज्यादा होती रही है । आने वाले दिनों में अंतर्जाल के बहुत सी बंदिशों और पाबंदियों के दायरे में आने की पूरी संभावना है ऐसे में यदि हिंदी अंतर्जाल पर लिखने पढने वाले किसी भी वजह से उदासीन होते हैं या अपनी उपस्थिति अपने विचारों से प्रशासन को कोई मौका देते हैं तो ये आत्मघाती कदम साबित होगा । सबसे जरूरी ये समझना है कि यहां विचारों का आना और बिल्कुल सीधे सीधे आना एक ताकत भी है और कमज़ोरी भी ।



रविवार, 15 जनवरी 2012

दिल्ली टू मधुबनी ..वाया मोबाइल






जब से जेब में मोबाइल आया है , और कुछ हो न हो , फ़ोटो खींचने की शौक एक आदत सी बन गई है , और जो फ़ोटुएं निकल कर आती हैं तो हम भी खुश हो लेते हैं कि चलो ससुरा नेगेटिव तो नहीं निकल के आया । आप शायद यकीन न करें मैं अपने मोबाइल से लगभग छ हज़ार फ़ोटो खींच चुका हूं और ....कहा न आदत से बाज़ नहीं आता । बहुत बार मुसीबत में फ़ंसने के बावजूद , फ़ोटो खींच कर सहेजना मुझे पसंद आता है । चलिए आज आपको अपने पिछले ग्राम प्रवास के दौरान की कुछ तस्वीरें दिखाता हूं



















































 









उम्मीद है आपको पसंद आई होंगी

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