शायद नौकरी लगे हुए तीन साल हो गए थे तो ये उस वक्त की बात हुई यानि 2000-2001 या उसके आसपास की बात थी । स्टेशन कौन सा था ये याद नहीं , मगर बक्सर था शायद , पानी भरने के लिए मैं भी स्टेशन पर लगे नल की लाईन में खडा था और एक नज़र इस बात पर थी कि गाडी कहीं खिसकना न शुरू कर दे ( ये आजकल की बिसलरी नस्ल शायद ही समझ सके कि उस समय स्टेशन पर रुक कर और उतने ही समय में , खाना और पानी या जरूरत की किसी भी चीज़ को लेकर आना जाना कितनी महत्वपूर्ण कला हुआ करती थी इस बात का अंदाज़ा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि वो काम सफ़र कर रहे परिवार के सबसे चुस्त और समझदार और फ़ुर्तीले तो जरूर ही , को दिया जाता था ) , तो वो स्वाभाविक सा काम हम तब कर रहे थे जब गांव से अकेले दिल्ली वापसी पर थे ।
पीछे से किसी ने कंधे पर थपका , " अबे झा तू ही है न "
मैं पलटा , अबे रंजन तू , मेरी ग्यारहवीं कक्षा का दोस्त था रंजन । इत्तेफ़ाक ये कि वो भी अपनी ड्यूटी पर गुजरात जाने के रास्ते में थी चूंकि छोटा भाई दिल्ली में था इसलिए उसी ट्रेन से वो भी दिल्ली की ओर ही अग्रसर था । हमने पानी भरा और वापस चल दिए । उतनी देर हममें से कोई कुछ नहीं बोला । शायम हम दोनों , समय के उस अंतराल में एक दूसरे के चेहरे , हावभाव , चाल के बदलाव को भांप रहे थे । मैंने साथी दोस्तों को पानी की बोतल थमाई , दोस्त से परिचय कराया और फ़िर चल पडे दोस्त की सीट की तरफ़ ।
अकेले है या ..मैंने पूछा सबसे पहले
नहीं यार तेरी भाभी और भतीजी भी हैं साथ में ।
जियोह्ह तो तूने शादी कर ली , अबे उसका क्या हाल है जॉगिंग करे चलबू का ,
दोस्त उछल पडा , अबे धीरे बोल तेरी भाभी है साथ में पिटवाएगा क्या , वो कहानी तो तभी खत्म हो गई थी ।
हा हा हा हा मेरा ठहाका गूंज उठा था । सीट पर पहुंचे तो भाभी जी ,(जिसके लिए पट्ठे ने बाद में बताया कि ये भी सहपाठिन ही रही हैं हमारी लेकिन उस स्कूल में जहां ये बारहवीं में निकल लिए थे ) जो आज स्थानीय कालेज में लेक़्चरार हैं और प्यारी सी भतीजी से मुलाकात हुई । बहुत देर तक फ़िर हम अकेले में बैठ कर बतियाने बैठ गए । भाभी भतीजी खिडकी की सीट पर बैठ कर टिकट का असली महत्व वसूल रही थीं
और तू सुना , कहां क्या कर रहा है , शादी की या नहीं ,
अबे रुक यार , मैं दिल्ली में हूं , सरकारी नौकरी में , और फ़िर पूरी विस्तृत बात अपने कार्यालय और काम के बाबत । उसे बहुत हैरानी हुई । मैं समझ रहा था कि उसे और उस समय के मेरे सभी दोस्तों को ये जानकर बहुत हैरानी होती है कि मेरे जैसा थर्ड डिविजन पास लडका , कोई प्रतियोगिता पास करके नौकरी में कैसे आ गया , मतलब इत्ती बुद्धि वृद्धि ..ये कृपा कैसे किसकी हो गई ।
मैं खुद भी आंकता हूं खुद को तो यही पाता हूं कि दसवीं तक पढाई के बारे में मैं इतना ही होशियार था कि गली में सबके द्वारा पूछने पर , कि परीक्षाएं कैसी चल रही हैं , मुझे लगा कि नहीं ये उन वार्षिक परीक्षाओं से ज्यादा जरूरी तो हैं ही । इन स्थितियों में यदि प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए सोच रहा था तो ...। मुझे अब लगता है कि मैंने खूब मेहनत की उस दौरान और उससे भी ज्यादा आश्वस्त था इस बात को लेकर कि आज नहीं तो कल आखिरी सफ़लता मिलेगी ही ॥
परीक्षाओं के उस दौर पर ,और ऐसी हर परीक्षा को यदि उकेर दिया जाए शब्दों में तो निश्चित रूप से दिलचस्प जरूर लगेगी आपको । खूब अवसर हुआ करते थे उन दिनों , और सभी क्षेत्रों में ,हम सभी दोस्तों ने ये ठान ही लिया था कि अब आर या पार । हमारे एक बहुत की कुशाग्र मित्र जो उन दिनों हमारे साथ ही प्रतियोगिता परीक्षाओं के समर में दौड रहे थे ने रिकार्ड 14 बार बैंक पी ओ कैडर की लिखित परीक्षा पास की मगर साक्षात्कार में कभी पास न हो सकने के बावजूद पंद्रहवीं बार बैंक पी ओ बन कर ही माने । उसी समय जाना था कि पढाई , लक्ष्य , उससे पाने की जिद और पाने के लिए अथक परिश्रम और प्रतिबद्धता क्या होती है ।
वैसे भी मेरा यही फ़लसफ़ा है कि जहां भी जो भी दे रहे हो , अपनी ओर से कोशिश होनी चाहिए कि अपना सौ प्रतिशत दें । बाद में ये अफ़सोस नहीं होना चाहिए कि , काश ये और ज्यादा करके देखा होता । मैं क्रिकेट , बैडमिंटन , वॉलीबॉल , फ़ुटबॉल अच्छा खेलता था मगर स्कूल की टीम में आज तक सिर्फ़ खिलाडियों को पानी ही देता रहने वाला डेडिकेटेड प्लेयर रहा । हां कालोनी और उसके बाद ग्राम्य जीवन में जरूर खेलता और अच्छा खेलता रहा । राजनीति भी अछूती नहीं रही ,मगर शायद अनुभव इतने तल्ख मिल गए कि फ़िर तो एक बू सी हमेशा ही आती रही उधर से । काम , पढाई लिखाई , घुमाई किसी भी बात में मुझे अपनी पूरी उर्जा झोंकने में आनंद आता है ।
मुझे लगता है ये इस तरह की कोशिश है जिसमें आप खुद से आगे निकलने की कोशिश में रहते हैं , हर पल हर समय आपी सोच और क्रियाकलाप उसी दिशा में आगे बढती हैं । और आगे निकलने का मतलब मेरा सिर्फ़ विकास के रास्ते पर होना नहीं है , आगे मतलब अपने वजूद से अपने होने के एहसास की तरफ़ आगे । जिंदगी अपना चक्र पूरा करती ही है , आज तक किसी के रोके टोके नहीं रुकी है इसलिए तब तक हमें चलायमान रहना ही होगा , चलते रहना होगा निरंतर ..कभी अपने साथ ..कभी खुद अपने आप से आगे .....
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट..
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही .... खुद से ही प्रतियोगिता करते रहना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंअपने आप से ही आगे निकलने की यात्रा निरंतर चले...!
जवाब देंहटाएंगिरकर पुन: पुनश्च सँभलने का नाम है जिंदगी
जवाब देंहटाएंखुद से स्पर्धा कर आगे निकलने का नाम है जिंदगी
ट्रेन से उतरकर कुछ सामान लेने वाली बात पर कई बात याद हैं, लिखना है कभी|
जवाब देंहटाएंहम लोग सफल होने का श्रेय अधिकतर खुद को और असफल होने का दोष ईश्वर को या तकदीर को या फिर दुसरे कारणों को दे देते हैं| जबकि सफलता\असफलता में भाग्य और प्रयत्न दोनों का योगदान रहता है|
ऊर्जा को सही दिशा में और सही उद्देश्य से लगाना ही चाहिए| ब्लोगीय सक्रियता के दिनों में साफ़ दिखता है कि आप पूरी ऊर्जा से सक्रिय हैं|
सतत प्रयत्न कामयाब तो होते ही हैं ...
जवाब देंहटाएंआज तो बड़े ज्ञानी ध्यानियों जैसी बातें हो गयी। बहुत अच्छी पोस्ट है। विचारणीय।
जवाब देंहटाएंस्पर्धा ही जीवन में आगे बढ़ने का माध्यम है,
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति,,,
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,
रंजन से बढ़िया मुलाकात हुई,पुरनिया दोस्त मिलते हैं तो लगता है,जान में जान आई !
जवाब देंहटाएंखुद से ही प्रतियोगिता करते रहना चाहिए………बिल्कुल सही कहा।
जवाब देंहटाएंस्कूल में मिलने वाले मार्क्स से किसी व्यक्ति के भविष्य के बारे में नहीं आँका जा सकता . असली व्यक्तित्त्व तो बाद में ही उभर कर सामने आता है .
जवाब देंहटाएंसुन्दर संस्मरण .
"जॉगिंग करे चलबू का..."
जवाब देंहटाएंइतना सब ज्ञान का बात बता दिये और असली बात ही गोल कर दिये ... जे कहाँ का बात हुआ महाराज ... अरे किस्सा तो पूरा सुनाये होते ...
आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार । पढने और सराहने के ;लिए ।
जवाब देंहटाएंशिवम भाई , जॉगिंग की कहानी इसलिए पूरा नहीं बताए काहे से जॉगिंग आ जॉगिंगनी दुन्नो अपना दुनिया में मस्त हैं ।
औरों में आप खो जाते हैं, आप अपने ही निकटतम प्रतिद्वन्दी हैं।
जवाब देंहटाएंसंघर्ष गाथा अच्छी लगी
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