किसी मुझ जैसे की डायरी का एक पन्ना ..............
"नाम उसका मुहब्बत था शायद ,जिंदगी के हर मोड पे मुझसे टकराई थी वो ,
मैं चलता रहा और इश्क भी ,जाने खुद को और मुझको कहां ले आई थी वो "
"हम एक बार जीते हैं , एक ही बार मरते हैं और हमें प्यार भी एक ही बार होता है " फ़िल्म कुछ कुछ होता है का ये डायलॉग जब मैंने सुना तो मुझे वहीं पर शाहरूख खान से कहने का मन हुआ कि हां तुम्हारी तीन घंटे की इस रीलजिंदगी में ये एक बार से ज्यादा मुनासिब और मुफ़ीद है भी नहीं , मगर भईये ये जिंदगी उस तीन घंटे से बहुत बडीऔर उससे कई गुना ज्यादा अलग होती है ,और बेशक ये बात जरूर लागू होती होगी बहुत सारे लोगों की जिंदगी में ये सब एक बार ही होता होगा , मगर अपना क्या करें कि हम तो इस एक जिंदगी में जिए ही कई बार हैं और मरे भी जाने कितनी ही बार हैं । एक जिंदगी ...मुझे तो लगता है कि हम एक ही दिन में कई बार जीते और मरते हैं,मगर मैं यहां जिंदगी और मौत के बीच जीने और मरने के बहीखाते का हिसाब मिलाने नहीं बैठा हूं , कम से कम ,अभी तो नहीं । आज प्यार मुहब्बत इश्क और जितने भी नाम इस अनुभूति , इस अनुभव , इस एहसास के हैं ,उसकी बात करेंगे ।
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मैं जब सिर्फ़ ग्यारह बारह वर्ष का था तब मुझे पहला प्यार हुआ था , मुझे नहीं पता कि वो प्यार था या कुछ और था,क्योंकि मैं आज तक प्यार को समझ नहीं पाया हूं , परिभाषित नहीं कर पाया हूं , उसके पैमाने तय नहीं कर पाया हूं,मगर इतना जरूर है कि उन दिनों बहुत अच्छा अच्छा सा लगता था और दुनिया की कोई भी ताकत कोई भी मजबूरी कोई भी परंपरा कोई भी नियम कानून विधि मुझे वो अच्छा अच्छा सा महसूस कराने से नहीं रोक सकती थी । सिर्फ़ एक साल
का साथ रहा मेरा और मेरे उस मुझसे भी नादान दोस्त का । मगर आज तक भी मुझे उसकी सूरत याद है और ताउम्र रहेगी,हां ये अलग बात है कि अब सामने आने पर मैं उसे पहचान भी न सकूं ,लेकिन प्यार तो बिना चेहरे ,बिना सूरत के भी होता है ....रहता है ।
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उम्र बढी और एहसास भी बदले , फ़िर प्यार हुआ दोस्तों के इश्क , उनकी मुहब्बत से ....अरे नहीं नहीं जी , उनकीप्रेयसी और प्रेमिकाओं से नहीं बल्कि प्यार हुआ उनकी दोस्ती , उनकी शिद्दत , उनकी मुहब्बत की पहल से ,इज़हार की हिम्मत,इंकार-इकरारकी दुविधा से, और ये वो वक्त था जब सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दोस्तों की दोस्ती ,इश्क के लिए ,हम अपनी पूरी ताकत , पूरा समय और पूरा ध्यान भी दे दिया करते थे । शायद मैट्रिक की परीक्षा तक यही हाल रहा , हालांकि, बाद में मुझे ये भी पता चला कि कई दोस्तों में ये एहसास इतना ज्यादा तीव्र था कि बात तभी उनके अभिभावकों तक पहुंच गई थी ,और वे इस बात पर दृढ थे इतने कि बहुत सालों बाद पता चला कि कम से कम एक दोस्त और दोस्तनी को तो मैं जानता हूं जिन्होंने स्कूली दिनों की उस दोस्ती, इश्क को बाद में विवाह की मंज़िल तक पहुंचाया ।
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हालांकि प्रेम का मकसद सिर्फ़ विवाह ,या इश्क की मंज़िल सिर्फ़ सहमति से एक साथ रहने का कोई करार ही मात्र होता है,इस बात को मुझे मानने में बहुत ज्यादा दिक्कत होती है । और ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आजतक जितने भी शाश्वत प्रेम कहानियां सुनी हैं उन सबके किरदारों ने एक दूसरे के प्यार को पाने के लिए जिंदगी दांव पर लगा दी और जान जाने तक भी,
वे विवाह जैसा कुछ कर नही सके ..रांझे को तो सुना है कि हीर से विवाह करने के बाद भी उसका साथ नसीब नहीं हुआ । चलिए इस फ़िलासफ़ी को यहीं छोडा जाए ...........
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तो इसके बाद लडकपन से युवापने की ओर बढे ।और वाह क्या रुत और रुतबा होता है उस अल्हड तरूणाई के मौसम का ,वो गीत आपने सुना है न जवानी जिंदाबांद । सच में जवानी जिंदाबाद ही होती है और शायद इसीलिए यही वो समय भी होता है जब जवानी जिंदाबाद ही तय करती है कि आगे जीवन आबाद होने वाला है या बर्बाद । मगर कहते हैं न इश्क अंधा होता है ,उसे कहां दिखती हैं जिम्मेदारियां उसे कहां दिखती हैं बंदिशें , सामाजिक दीवारें ,मान्यताएं परंपराएं ,वो तो बस कहीं भी पनप जाता है बिल्कुल बरसात की काई की तरह और फ़िर तेज़ धूप में उधड कर गिर भी जाता है ।
चलिए आगे की कहानी फ़िर कहूंगा .........................
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मैं जब सिर्फ़ ग्यारह बारह वर्ष का था तब मुझे पहला प्यार हुआ था , मुझे नहीं पता कि वो प्यार था या कुछ और था,क्योंकि मैं आज तक प्यार को समझ नहीं पाया हूं , परिभाषित नहीं कर पाया हूं , उसके पैमाने तय नहीं कर पाया हूं,मगर इतना जरूर है कि उन दिनों बहुत अच्छा अच्छा सा लगता था और दुनिया की कोई भी ताकत कोई भी मजबूरी कोई भी परंपरा कोई भी नियम कानून विधि मुझे वो अच्छा अच्छा सा महसूस कराने से नहीं रोक सकती थी । सिर्फ़ एक साल
का साथ रहा मेरा और मेरे उस मुझसे भी नादान दोस्त का । मगर आज तक भी मुझे उसकी सूरत याद है और ताउम्र रहेगी,हां ये अलग बात है कि अब सामने आने पर मैं उसे पहचान भी न सकूं ,लेकिन प्यार तो बिना चेहरे ,बिना सूरत के भी होता है ....रहता है ।
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उम्र बढी और एहसास भी बदले , फ़िर प्यार हुआ दोस्तों के इश्क , उनकी मुहब्बत से ....अरे नहीं नहीं जी , उनकीप्रेयसी और प्रेमिकाओं से नहीं बल्कि प्यार हुआ उनकी दोस्ती , उनकी शिद्दत , उनकी मुहब्बत की पहल से ,इज़हार की हिम्मत,इंकार-इकरारकी दुविधा से, और ये वो वक्त था जब सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दोस्तों की दोस्ती ,इश्क के लिए ,हम अपनी पूरी ताकत , पूरा समय और पूरा ध्यान भी दे दिया करते थे । शायद मैट्रिक की परीक्षा तक यही हाल रहा , हालांकि, बाद में मुझे ये भी पता चला कि कई दोस्तों में ये एहसास इतना ज्यादा तीव्र था कि बात तभी उनके अभिभावकों तक पहुंच गई थी ,और वे इस बात पर दृढ थे इतने कि बहुत सालों बाद पता चला कि कम से कम एक दोस्त और दोस्तनी को तो मैं जानता हूं जिन्होंने स्कूली दिनों की उस दोस्ती, इश्क को बाद में विवाह की मंज़िल तक पहुंचाया ।
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हालांकि प्रेम का मकसद सिर्फ़ विवाह ,या इश्क की मंज़िल सिर्फ़ सहमति से एक साथ रहने का कोई करार ही मात्र होता है,इस बात को मुझे मानने में बहुत ज्यादा दिक्कत होती है । और ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आजतक जितने भी शाश्वत प्रेम कहानियां सुनी हैं उन सबके किरदारों ने एक दूसरे के प्यार को पाने के लिए जिंदगी दांव पर लगा दी और जान जाने तक भी,
वे विवाह जैसा कुछ कर नही सके ..रांझे को तो सुना है कि हीर से विवाह करने के बाद भी उसका साथ नसीब नहीं हुआ । चलिए इस फ़िलासफ़ी को यहीं छोडा जाए ...........
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तो इसके बाद लडकपन से युवापने की ओर बढे ।और वाह क्या रुत और रुतबा होता है उस अल्हड तरूणाई के मौसम का ,वो गीत आपने सुना है न जवानी जिंदाबांद । सच में जवानी जिंदाबाद ही होती है और शायद इसीलिए यही वो समय भी होता है जब जवानी जिंदाबाद ही तय करती है कि आगे जीवन आबाद होने वाला है या बर्बाद । मगर कहते हैं न इश्क अंधा होता है ,उसे कहां दिखती हैं जिम्मेदारियां उसे कहां दिखती हैं बंदिशें , सामाजिक दीवारें ,मान्यताएं परंपराएं ,वो तो बस कहीं भी पनप जाता है बिल्कुल बरसात की काई की तरह और फ़िर तेज़ धूप में उधड कर गिर भी जाता है ।
चलिए आगे की कहानी फ़िर कहूंगा .........................
काफी उम्दा प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (02-02-2014) को "अब छोड़ो भी.....रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1511" पर भी रहेगी...!!!
- मिश्रा राहुल
आपका बहुत बहुत शुक्रिया और आभार राहुल जी । इस पोस्ट को स्थान और मान देने के लिए
हटाएंप्रेम परिभाषित कर पाना अब सामर्थ्य के बाहर है।
जवाब देंहटाएंमेरे लिए तो ये हमेशा ही मेरे सामर्थ्य के बाहर रहा है प्रवीण जी
हटाएंऔसले बुलंद हैं तो रहें आसान .
जवाब देंहटाएं:) :) :) :)
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