आमिर खान के सत्यमेव जयते से बेशक बहुत सारे लोगों को बहुत सारी शिकायतें हों , और इसके पक्ष विपक्ष , नफ़े नुकसान के गणित-गुणाभाग का आकलन विश्लेषण किया जा रहा हो , लेकिन मेरे लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी है कि आज की तारीख में बुद्दू बक्से से बेकार बक्से तक की स्थिति में पहुंचने वाली टीवी पर सप्ताह में एक डेढ घंटे किसी मुद्दे को प्रभावी तरीके से उछाल कर उसे समाज में बहस करने के लिए छोड दिया जाता है तो यही बडी बात है । इसके एक आध एपिसोड को छोडकर मुझे सब विषयों और मुद्दों , उनकी प्रस्तुति और उसके बाद उनका पडने वाला प्रभाव स्पष्ट महसूस हुआ , जैसा कि आमिर खुद बार बार कह रहे हैं कि बात दिल पे लगनी चाहिए और दिल पे लगेगी तो बनेगी भी ।
पिछले बहुत सारे एपिसोड कहीं न कहीं , किसी न किसी रूप में महिलाओं के मुद्दों और उनसे जुडी समस्याओं के आसपास ही घूमते रहे , इसके बावजूद भी कल एक टीवी समाचार में देखा कि गोहाटी में सरेआम , एक युवती के साथ पूरी भीड ने वहशियाना हरकत की , उसने जता और बता दिया है कि अभी कुछ नहीं बदला है बल्कि कहा जाए कि बहुत कुछ बिगड गया है । और मुझे तो लगता है कि समाज को अब इससे भी ज्यादा घृणित , अमानवीय , कुकृत्यों और अपराधों को देखने सुनने और भुगतने के लिए तैयार हो जाना चाहिए , आखिर इस रास्ते को हमने ही तो हाइवे बनाया है ,और सबसे जरूरी बात ये थी कि जहां गति और दिशा का नियंत्रण होना चाहिए था वहां कोई इन्हें संभालने मोडने वाला नहीं था ।
हालिया एपिसोड में आमिर ने भारतीय समाज में जाति प्रथा के एक साइड इफ़्फ़ेक्ट और बुरे इफ़्फ़ेक्ट के रूप में मिली छुआछूत की बीमारी को उठाया । हमेशा की तरह , आमंत्रित मेहमानों और विशेषज्ञों ने ,अपने अनुभव , आंकडों और विमर्श से ये दिखा दिया कि अब भी बहुत कुछ नहीं बदला है । कम से कम उन समाजों में तो जरूर ही जहां ये व्याप्त थीं । यानि कि ग्रामीण परिवेश में । भारतीय समाज में जाति प्रथा की शुरूआत , जातियों का निर्धारण , उनके कार्यों का निर्धारण , उनके जीवन स्तर , उनके अधिकार आदि पर बहस तो सालों से चली आ रही है और सच कहा जाए तो जाति वर्गीकरण के कई वैज्ञानिक और सामाजिक तर्कों के बावजूद कभी कभी तो लगता है कि अब समय आ गया है जब इंसानी समाज से जाति और धर्म जैसे विषयों को बिल्कुल ही विलुप्त कर देना चाहिए । वैसे भी किसी आम खास जाति को उच्च और निम्न का प्रमाणपत्र देने की हैसियत और औकात कम से कम किसी इंसान की तो कतई नहीं होनी चाहिए ।
सरकार ने अपनी नीतियों और अपने नुमाइंदों के अनुसार बहुत सारे काम और बहुत सारी योजनाओं , कुछ कानूनों को लाद कर भी ये जताने का प्रयास तो किया ही है कि उन जातियों , जिन्हें निम्न या छोटा कहा समझा समझाया जाता रहा था सदियों से , के लिए बहुत बडा उद्धारकर्मी उपाय दिया । हालांकि बहुत सारे बदलाव और परिवर्तन जरूर हुए भी , लेकिन कमोबेश वो घाव अब भी कहीं न कहीं मवाद बहाता दिख मिल जाता है । खुद सरकारी आंकडों पर यकीन करें तो आज भी देश में हाथ से मैला ( मैला यानि मल मूत्र भी ) ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका है । आज़ादी के साठ साल बाद भी ।
शहर से निकलकर ग्रामीण परिवेश की तरफ़ बढने पर ही मुझे एहसास हुआ कि ऐसी कोई बीमारी भी इस समाज में है । शहरी जीवन में पहले और अब भी मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि जाति प्रथा या छुआछूत की किसी बडी घटना ने मेरा ध्यान उस ओर खींचा था सिवाय कुछ के जब एक आध सहकर्मियों ने कभी कभी किसी दूसरे सहकर्मी के साथ बैठ कर लंच करने में असर्मथता जताई थी , बाद में पता चला कि वो छोटी जाति के उस सहकर्मी के साथ भोजन साझा नहीं करना चाहते थे । पिताजी फ़ौज में थे सो शुरू से ही परिवेश ऐसा रहा कि जाति धर्म भाषा आदि ने कभी मुझे अपने दायरे बनाने बढाने में कोई खास भूमिका नहीं निभाई । गांव में रहने के दौरान जरूर बहुत कुछ अनुभव हुआ ।इत्तेफ़ाक ये रहा कि उन्हीं दिनों अपनी स्नातक की पढाई के दौरान अंग्रेजी साहित्य (प्रतिष्ठा ) के पाठ्यक्रम में मुल्कराज़ आनंद की "अनटचेबल" पढने को मिली , जिसे मैंने अब तक सहेज़ कर रखा हुआ है ।
गांव में बस्तियों की बसावट और फ़ैलाव , जरूर उनके गोत्र मूल , पेशे, आदि के अनुसार था और अब भी है जो मुझे बहुत अलग सा नहीं लगा । लेकिन जैसे जैसे मुझे ये जानने को मिला कि उन्हें चापाकल , पोखर तालाब मंदिर और सामूहिक भोज तक में साथ बैठाना शामिल करना तो दूर उनके लिए वो सब वर्जित है , मुझे हैरानी भी हुई और कोफ़्त भी । मुझे अब तक याद है एक बार क्रिकेट खेल के मैदान से वापसी में बहुत जोर की प्यास लगने के कारण ,मैं स्वाभाविक रूप से जो भी चापाकल (हैंडपंप) दिखा उसमें से पानी पीने लगा । साथ के सभी लडके मुझे इस तरह छोडकर भागे मानो दिन में ही भूत देख लिया हो ।
अर्सा हो गया गांव छोडे और उसे महसूसते हुए , लेकिन मुझे पता है कि अब भी , जबकि सच में ही बहुत कुछ बदल गया है , उन बस्तियों में पक्के मकान हैं , और उनमें उनके पढते लिखते बच्चे हैं , विकास की , आगे बढने की एक ललक और झलक दिखाई देती है , लेकिन आज भी और अब भी वहां बहुत सी वर्जनाएं हैं जिन्हें तोडने टूटने में जाने कितने युग और लगेंगे ।
सही कहा आपने, काफ़ी कुछ बदला है और काफ़ी कुछ बदलना है, प्रेरक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंरामराम
ना कुछ बदला है और बदलने वाला भी नहीं है हम सब बयान बहादुर टिप्पणी बहादुर बयानों टिप्पणियों से अपनी बहादुरी दिखायेंगे और आगे निकल जायेंगे | वैसे आप का आकलन सही नहीं है की ये शहरों में नहीं होता है खासकर बड़े सरकारी पदों पर पर तो ये जम कर होता है दोनों का अपना अपना गुट होता है और सरकार में अपनी अपनी पहुँच होती है | आमिर का शो मुझे भी पसंद है मै नियमित रूप से उसे देखती हूँ |
जवाब देंहटाएंबेशक इस शो से कुछ बदले न बदले पर सच कहा अपने बुद्दू बक्से पर एक सकारात्मक कदम तो है ही. और ऐसा नहीं है कि असर नहीं होता.हाँ एकदम क्रन्तिकारी परिवर्तन नहीं होते पर लोगों के दिल पर तो लगती है..क्या पता आगे जाकर यही मानसिकता सुधार लाये.
जवाब देंहटाएंउम्मीद पर दुनियाँ कायम है !
जवाब देंहटाएंआपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है, प्लस ३७५ कहीं माइनस न कर दे ... सावधान - ब्लॉग बुलेटिन के लिए, पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक, यही उद्देश्य है हमारा, उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी, टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें … धन्यवाद !
जातिप्रथा को कैसे बदलेंगे? पुरानी जातियों को बदल देंगे तो नयी बन जाएंगी। क्या आज बाबू जाति, आइएस जाति, आरएएस जाति, वकील जाति, डॉक्टर जाति, राजनेता जाति आदि आदि नहीं बनती जा रही हैं? शक्तिमान हमेंशा श्रेष्ठ बना रहेगा और उसी की जाति देश के संसाधनों का उपयोग कर सकेगी। आज क्या सरकारी तंत्र किसी अन्य को संसाधनों का उपयोग करने देता है? ऐसे बहुत से प्रश्न है जिन्हें कोई हल नहीं कर सकता।
जवाब देंहटाएं...बहुत कुछ बदले हैं हम,पर कुछ नहीं बदले !
जवाब देंहटाएंयही दुख है कि अभी कुछ नहीं बदला है..
जवाब देंहटाएंझी जी , बदला तो है बहुत कुछ . लेकिन अभी भी कायम है , यह सच है . लेकिन इसके लिए जिम्मेदार जनता से ज्यादा सरकार है . जब तक फॉर्म पर जातियां और धर्म लिखते रहेंगे , तब तक कोई नहीं भूल पायेगा , आप क्या हैं और हम क्या . १९९० में रखा गया एक उल्टा कदम हमें १०० साल पीछे ले गया है .
जवाब देंहटाएंParichay karane ka shukriya.
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ये है- प्रसन्ने यंत्र!
बीमार कर देते हैं खूबसूरत चेहरे...
ek sarthak kadam to kah hi sakte hain Amir ke show ko!!
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