मंगलवार, 30 अक्टूबर 2012

सियासत की नीयत में खोट






वर्तमान में देश का जो भी राजनीतिक परिदृश्य दिख रहा है वो शायद भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार , भाई भतीजावाद , परिवारवाद , और नैतिकता के पत्तन का चरम है । इससे पहले बेशक कई बार इस तरह होता दिखा है कि सत्ता में बैठी हुई सरकार , उसके मंत्री , और नुमाइंदे पूरी तरह भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं , घपलों घोटालों की एक श्रंखला तब भी देखने को मिलती रही है । किंतु उन सबसे आगे बढकर इस बार तो जैसे बेशर्मी का लबादा ओढ कर सरकार , विपक्ष , और राजनीतिज्ञों के नाते रिश्तेदारों , बडे व्यापारिक घरानों और मीडिया हाउसेज़ तक ने एक ही उद्देश्य पर चलना शुरू किया है । जितना और जैसे भी हो सके ज्यादा से ज्यादा देश के धन संसाधनों को लूटना , उस लूट खसोट का पता चलने पर , पूरी ढिठाई के साथ उसे सिरे से दरकिनार करना , चीख चीख कर जांच जांच का शोर मचाना , क्योंकि उन्हें पता है कि आज तक किसी भी जांच किसी भी मुकदमें की अंतिम परिणति के रूप में किसी भी रसूखदार को कभी रत्ती भर भी कोई नुकसान नहीं पहुंचा है । और अंत में फ़िर एक ही थाली के चट्टे बट्टे की तरह एक दूसरे की करतूतों पर पर्दा डाल देना , क्योंकि वे ये भी देख चुके हैं कि देश की सहिष्णु जनता , अशिक्षिति लोग और गरीम अवाम कभी भी खुल कर पश्विमी देशों की तरह अपनी लडाई पुरज़ोर तरीके से सडकों पर संगठित होकर लड नहीं सकती , राजनीतिक रूप से संगठित होकर परिवर्तन की लडाई भी दूर की कौडी है ।




पिछले कुछ वर्षों में कुछ गैर राजनीतिक लोगों द्वारा असाधारण माद्दा और दुसाहस दिखाने के प्रयासों को भी देश के तमाम राजनीतिज्ञों ने अपनी कुटिल नीतियों द्वारा बार बार हतोत्साहित करने का प्रयास जारी रखा है । बाबा रामदेवा द्वारा उठाया गया मुदा "विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा किए गए काले धन की वापसी  " सिविल सोसायटी के सदस्यों द्वारा भ्रष्टाचार से लडने के लिए लोकपाल विधेयक बनाने का मुद्दा " । एक एक करके  लगभग सभी मंत्रियों के खिलाफ़ उजागर हुए बडे घोटालों के बाद उनके खिलाफ़ स्वतंत्र जांच और गिरफ़्तारी का मुद्दा , और अब अन्ना हज़ारे और जनरल वी के सिंह द्वारा उठाए जा रहे " राइट टू रिजेक्ट , जज़ेस अकाउंटिबिलिटी बिल आदि जैसे मुद्दों को सिरे से न सिर्फ़ दरकिनार करके , बल्कि इन मुद्दों को उठाने वालों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार और इसे बार बार लोकतंत्र पर हमला , संसदीय अधिकार का हनन और जाने क्या क्या कहते फ़िर रहे हैं ।


राजनीतिक जमात को शायद ये भ्रम है , और क्यों न हो , आखिर उसने पिछली आधी शताब्दी में आम जनता को महंगाई , गरीबी , आतंकवाद , भ्रष्टाचार , न्यायिक दोहरापन सहते रहने के बावजूद बेहस धैर्यपूर्वक ,और सहनशील है , इतनी तो जरूर ही कि वो अपने हाथों में जंगल के उस कानून को नहीं ले रही है । पडोसी देशों की सेना और सुरक्षा एजेंसियों से विपरीत देश की सेना व सुरक्षा एजेंसियां बेहद निष्टावान और अनुशासित रही है , ये राजनीतिज्ञों के लिए दूसरी खुशकिस्मती रही है ।



आने वाले  वर्षों में देश में आम चुनाव होने वाले हैं । अभी बेशक स्थिति जो भी जैसी भी दिख रही हो किंतु इतिहास को देखते हुए कुछ नहीं कहा जा सकता कि चुनाव पूर्व परिदृश्य क्या होंगे और चुनाव परिणाम क्या होंगे । आम जनता के लिए ये बहुत महत्वपूर्ण समय है , यकीनन अभी कोई स्पष्ट विकल्प ऐसा नहीं दिख रहा है जो हठात ही देश को कोई नई दिशा दे सके , किंतु आम जनता को फ़िर अपनी आंखे खुली रख के फ़ैसले के लिए तैयार होना होगा । और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि आज और अभी से अपने अपने हिस्से की लडाई को न सिर्फ़ शुरू करना होगा बल्कि उसे पूरी ताकत से लडना भी होगा । यदि आप सचमुच ही देश को बदलना चाहते हैं , अपनी हैसियत बदलना चाहते हैं तो आगे बढिए ...बेहिचक , बेझिझक , बेखौफ़ .........................

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

गांधी , गांधीवाद , गांधी ब्रांडवाद से गांधी परिवारवाद तक .....




2 अक्तूबर , को अब देश में गांधी जयंती के रूप में पहचान मिल चुकी है , हो भी क्यों न आखिर जिस देश को विश्व का सबसे बडे लोकतंत्र का रुतबा हासिल कराने के लिए , एक अकेले व्यक्ति ने अपने नायाब प्रयोगों और सोच से बिना किसी हिंसा , के विश्व के सबसे बडे जनसमूह को सैकडों वर्षों की गुलामी से आज़ादी दिला कर राष्ट्रपिता का दर्ज़ा ( ओह ! याद आया , अभी हाल ही में एक बच्ची द्वारा सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के बाद सरकार ने खुलासा किया है कि मोहन दास करमचंद गांधी उर्फ़ बापू को कभी भी आधिकारिक रूप से "राष्ट्रपिता " का दर्ज़ा नहीं दिया गया है ) मिला , और न भी मिला तो भी देश के बापू का जन्मदिन होता है तो ऐसे में ये बिल्कुल ठीक जान पडता है । बेशक अब बहुत सारे कारणों और लोगों की उठती आवाज़ों के बाद इसी दिन जनमे और भारतीय राजनीति में एक और बेहद महत्वपूर्ण शख्स , पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री को भी अब गाहे बेगाहे सरकारी और गैरसरकारी तरीके से याद किया जाता ही है , लेकिन आम लोगों के लिए तो ये दिन यानि दो अक्तूबर , गांधी जयंती यानि वर्ष की तीन पक्की छुट्टियों ..26 जनवरी ,15 अगस्त और 2 अक्तूबर में से एक । दिल्ली जैसे महानगरों में तो चालान कटने के डर से बाज़ार दुकानों के बंद रखने का दिन और हां सबसे अहम तो छूट ही गया ..ड्राई डे ....यानि शराब की सरकारी दुकानों के भी बंदी का दिन , समझा जाए तो बेवडों के लिए एक दिन पहले ही अपने कोटे की बोतलें खरीद कर रख लेने का अल्टीमेटम ।



" गांधी " से परिचय की बात की जाए तो हम और हमारे बाद आने वाली तमाम नस्लें भी इतिहास , राजनीति , हिंदी के पाठ्यपुस्तकों में गांधी जी की जीवनी , उनके जीवन चरित , उनके सत्य और राजनीति से किए गए प्रयोगों , उनके योगदान , उनके बलिदान और राष्ट्रपिता बापू तक का सब कुछ अलग अलग तरह से पढते रहे हैं और अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभावित आ अप्रभावित होते रहे हैं । ज्यादा आगे बढे पढे तो फ़िर सहमति असहमति , उनकी नीतियों के विरोध पक्ष में ,. आलोचना बहस आदि में भी पडते रहे हैं , और ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा । इससे इतर , देश के तमाम मौद्रिक प्रतीकों , मुद्राओं , नोटों पर लगभग एक जैसी छवि देखने के आदि हो चले हैं । बचपन में स्कूल की तरफ़ से दिखाए गए एकमात्र सिनेमा में ब्रिटिश अभिनेता बेन किंग्सले अभिनीत  " गांधी" तो हमारे ज़ेहन में फ़िर भी रहे किंतु आज और अब के बाद वालों के साथ भी वैसा ही कुछ हो या होगा इसमें संदेह जान पडता है । गांधी संग्राहलय , गांधीधाम , आदि को देखने समझने के भी अपने अपने अनुभव बहुतों या कहा जाए कि सवा अरब की जनसंख्या वाले देश के बहुत कम लोगों के पास सही , लेकिन हैं और होंगे भी ।



"गांधीवाद "...यदि मोटे मोटे रूप में याद किया जाए तो , ग्रामीण भारत के लिए गांधी जी के संकल्प , ग्रामोद्योगों और कुटीर उद्योगों के कायाकल्प की बात , हिंदी की शिक्षा सहित ग्राम्य शिक्षा की बात , राजनीति को समाज सेवा और सामाजित कुरीतियों से लडने का मार्ग बताने व मानने की बात , सर्वहारा मज़दूर किसान वर्ग के हित की बात , शराबबंदी की बात , जातिवाद की बाद , कुल मिलाकर सभी छोटी बडी बातें और आदर्शों को बाद के भारतीय लोकतंत्र में पलीता लगा के सुलगा दिया गया कहा जाए तो हठात कोई मना नहीं कर सकता । साठ वर्षों बाद आज भी देश का किसान , भूखा , गरीब , कर्ज़ से डूबा , आत्मह्त्या तक करने को मज़बूर है , अन्य सभी बातों का भी कमोबेश यही हश्र है । रही सही सारी कसर गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले तमाम राजनेताओं , राजनीतिक दलों ने एक एक संकल्प की चिंदी उडा कर पूरी कर दी है , आगे अभी इसे और कितने गर्त में जाना ये भी देखने वाली बात होगी



"गांधी ब्रांडवाद "....पिछले दो दशकों में विश्व के सारे देश , सारे लोग , सारी सरकारें और सारे समीकरण भी सिर्फ़ बाज़ारवाद , उपभोक्तावाद , की धुरियों के बीच बंट गए तो ऐसे में ये एक नया जुमला देखने सुनने में आया "गांधी ब्रांडवाद " गांधी मार्का छाप राजनीति , गांधी मार्का छाप बाज़ार और उससे जुडी तमाम बातें । यहां एक दिलचस्प किस्सा याद आ रहा है , पिछले दिनों अचानक ही खबर पढने सुनने को मिली कि गांधी जी से जुडी कुछ अनमोल धरोहरें , मसलन उनका चश्मा , उनके कुछ खत और ऐसी ही कुछ अन्य वस्तुएं कहीं विदेश में नीलाम की जा रही हैं और भारत सरकार द्वारा उन्हें नीलामी से बचाने या फ़िर नीलामी में उन्हें खरीद कर देश में वापस लाने की असमर्थता के समय देश की एक कंपनी जो इन दिनों अपनी वायुसेवा कंपनी के दिवालिएपन का ढिंढोरापन पीटती नज़र आ रही है ने अपनी दूसरी शराब व मद्य व्यवसाय के लिए विख्यात कंपनी की बदौलत , उस नीलामी में वो सारी वस्तुएं खरीद लाई । अब इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि जिस शराबबंदी की वकालत पूरी जिंदगी गांधी जी करते रहे आखिरकार उसी शराब की दौलत से उनकी वस्तुओं और देश के सम्मान को बचाया जा सका ।

गांधी परिवारवाद ....इससे मुझे काफ़ी असहमति रही है । आज यदि किसी को अचानक पूछ लिया जाए कि क्या गांधी जी के पुत्रों , पौत्रों या प्रपौत्रों /पौत्रियो या प्रपौत्रियों के नाम या उनके विषय में बताएं तो वे शायद सोच में पडने के बावजूद भी कुछ न बता पाएं । हां जवाहरलाल नेहरू जी वंशबेल , इंदिरा नेहरू जो आगे जाकर स्व. इंदिरा गांधी , स्व. राजीव गांधी के बाद चलते हुए अभी और आगे तक जाएगी , और अब तो इटली की मूल निवासी सोनिया "गांधी " के वाया होते हुए दिनोंदिन मजबूत ही होती चली जा रही है । तो कुल मिला कर ये कि नेहरू वंश कालांतर में गांधी परिवार को दरकिनार करते हुए लेकिन "गांधी" उपनाम के साथ एक नए वंशवादी परंपरा पर चलते हुए अभी बहुत सालों तक भारतीय राजनीति को न भी प्रभावित कर सका तो भी अपनी पैठ तो बनाए ही रखेगा ही ।


बहरहाल , जो भी हो गांधी जयंती आने वाले वर्षों में एक सरकारी अवकाश से अधिक और कुछ के रूप में आम जन को याद रहेगी , या फ़िर कि उनके लिए और किसी भी तरह से प्रासंगिक रहेगी , गांधीवाद , गांधीदर्शन जैसा सबकुछ भविष्य की , आने वाली नस्लों की उनकी सोच और उनकी दिशा के लिए किस तरह से सामने आएगा ये देखने वाली बात होगी ।

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

हिंदी ब्लॉगिंग की असहज़ कुप्रवृत्तियां





पोस्ट लिखने से पहले एक क्लेमर लगा दूं , (जी हां मुझे किसी डिस्क्लेमर की कोई जरूरत नहीं क्योंकि पिछले कुछ समय में इतने सारे ब्लॉगरीय अनुभवों से इतना तो जान ही चुका हूं कि अपने ब्लॉग के सब दादा हैं , कई तो परदादा भी हैं , हम भी देर सवेर हो ही जाएंगे , हां ध्यान रहे कि पोता कोई नहीं है ) तो क्लेमर ये कि इस पोस्ट का हर उस किसी से कुछ न कुछ लेना देना है , जिसे जो लेना हो ले ले जिसे जो देना हो दे दे ) ।
पिछले अनुभवों में एक सबसे बडा अनुभव ये रहा कि हिंदी ब्लॉगिंग में सकारात्मकता का मोल अगर दो पैसा है तो नकारात्मकता का शेयर बाज़ार अरबों खरबों का है ,सम्मान का भाव टके का है तो अपमान की कीमत अनमोल है , फ़िर क्या तेरी क्या मेरी । और हां एक कमाल की बात ये कि , ये आपके चाहने न चाहने , होने न होने से नहीं होता ये होना है तो होता ही है ।


संदर्भ की जरूरत इसलिए नहीं क्योंकि हमेशा की तरह हिंदी ब्लॉगिंग में सबसे ज्यादा प्रवाहमान पोस्टें और गतिवान माहौल कभी होता है तो वो तभी होता है जब कोई ताज़ा ताज़ा ब्लॉगर सम्मेलन , मिलन , बैठकी हुई हो । आखिर हो भी क्यों न , यही तो वो समय होता है जब तमाम तरह के दंड पेले जा सकते हैं या पेले जाते हैं सो पिछले साल के अभूतपूर्व छीछालेदारी के बावजूद जब इस बार भी हमारे बीच के कुछ ब्लॉगर साथियों ने फ़िर से हिंदी ब्लॉगरों में से कुछ को सम्मानित करने की योजना बनाई तो तभी लग गया था कि ओह , बिग ब्लॉग सीज़न टू , कौन बनेगा ब्लॉगपति सीज़न टू भी कम हंगामेदार नहीं रहने वाला है । अब चूंकि इसकी धमक चमक तभी सुनाई देने लगी जब इसकी पहली रूपरेखा के रूप में एक पोस्ट सामने आई । जल्दी ही ये रूपरेखा और उसके बाद निकला नतीज़ा कुछ कुछ इस तरह का हो गया , कि कम से कम मुझे वो स्टार परिवार अवार्ड या फ़िर कलर्स परिवार अवार्ड सरीखा ही लगने लगा था । मगर चूंकि मामला सम्मान का था , प्रोत्साहन का था वो भी हिंदी ब्लॉगिंग , हिंदी ब्लॉगर्स का था तो हाथ तालियों के लिए अपने आप उठ गए । वैसे भी मेरा मानना हमेशा से यही रहा है कि जब हम खुद अपनी इज़्ज़त नहीं कर सकते , एक दूसरे का सम्मान नहीं कर सकते तो फ़िर काहे के लिए इतना उबाल मारते हैं जब सरेआम कोई मंच से कह जाता है कि अधिकांश हिंदी ब्लॉगर लंपट हैं , वो भी तब जब हम खुद लंपटई दिखाने का कोई मौका नहीं चूकते तो वे कैसे चूकें जो जाने कबसे इसी ताक में बैठे रहते हैं कि कोई मौका मिले और जम के लताडा जाए इन ब्लॉगरों को , हुंह्ह कभी अपने को साहित्यकार समझने लगते हैं तो कभी पत्रकार , और संपादक तो खैर हईये हैं सबके सब ।


किसी के आतिथ्य की जिम्मेदारी निभाना सिर्फ़ वही समझ सकता है जो निभाता है ,वर्ना घर पर आने की खबर भर सुनकर कईयों को बांग्लादेश तक का वीज़ा बनवा कर जरूरी काम से निकलते देखा जा सकता है , ऐसे में ब्लॉगर जमात , वो भी हिंदी ब्लॉगर जमात का जमावडा लगाकर उनका आ बैल मुझे मार वाली हिम्मत कर जाना कोई कम पगलेटपन वाला बात नहीं है ,लेकिन हिंदी ब्लॉगिंग करने जैसा पागलपन कर रहे हैं तो फ़िर ये पगलेटपना और ज्यादा हो जाए तो इसमें चौंकना कैसा । लेकिन ये उदवेग इतने भर से ही नहीं रुका सा लगा और सम्मान कार्यक्रम होने तक वो लगभग सम्मान क्रियाकर्म हो चला । इस क्रियाकर्म की समाप्ति पर पता चला कि न सिर्फ़ निर्धारित वर्गीकरण ,बल्कि सम्मानित होने वाले तक बदल गए । कुछ नाम इतने अप्रत्याशित थे कि वे सहज़ प्रवृत्तियों से सीधे ही असहज़ता की ओर ले चले सबको । मुझे खुद "वर्ष २०११ का ब्लॉग खबरी " के रूप में नामांकित और सम्मानित किया गया लेकिन साथ में जोडा गया ब्लॉग "झा जी कहिन "जिसपर मेरी जानकारी के मुताबिक पिछले एक वर्ष में ऐसी कोई पोस्ट या चर्चा मैंने नहीं लगाई है जिसे एक ब्लॉग खबरी के रूप में लगा सकूं । किंतु इसके बावजूद भी मैंने हर्ष पूर्वक उस सम्मान को स्वीकार किया क्योंकि जब तालीम और तहज़ीब ने यही सिखाया है अब तक कि यदि कोई इज़्ज़त दे आपको तो सिर झुका के उसे स्वीकार करना ही मानव धर्म है ।


हां एक ब्लॉगर के रूप में एक ब्लॉग खबरी के रूप में बहुत सारे नामों पर, जिनका ईशारा बहुत सी पोस्टों में किया जा चुका है और अब भी किया ही जा रहा है , जरूर ही आश्चर्य और क्षुब्धता भी हुई , लेकिन मुझे हुई तो हुई । आयोजकों के लिए उन्हें सम्मानित करने (ध्यान रहे कि अपमानित करने के लिए यहां हिंदी ब्लॉग जगत में वज़हें तलाशनी नहीं पडतीं ) के लिए जरूर वाज़िब वजहें रहीं होंगी और सबसे अहम बात ये कि आखिर वे साथी ब्लॉगर्स हैं तो हमारे आपके बीच के ही तो फ़िर उनके सम्मानित हो जाने से कुढ के मर जाने लायक भावना नहीं पैदा हो सकी और माफ़ करिएगा हो भी नहीं पाएगी । मेरे लिए पिछले कुछ घंटों में इस संदर्भ में आई पोस्टों में सिर्फ़ वो पोस्टें सहेजनीय और स्मरणीय रहेंगी जिनमें हमारे साथी ब्लॉगर्स के मुस्कुराते चेहरे , एक दूसरे से बतियाते भाव वाली फ़ोटुएं देखने को मिलीं । शेष , इस पोस्ट सहित तमाम पोस्टें तो हमेशा की तरह गर्त में ही जाती रही हैं और जाएंगी । पुरस्कार समारोह के अतिरिक्त वहां निर्धारित विभिन्न परिचर्चाओं के बारे में कहीं कुछ विशेष न लिखे पढे जाने के कारण और भी निराशा हाथ लगी और ये और भी तब बढ गई जब एक बार फ़िर से एक सत्र को रद्द करने की पिछली भूल को दोहराए जाने का समाचार मिला , खैर ये भी ठीकरा आयोजकों के जिम्मे फ़ूटता है सो फ़ूटा ।


इस कार्यक्रम की समाप्ति के आई पोस्टों में जब इस कार्यक्रम की चर्चा , खबर आने लगी तो उसके समांनांतर वो पोस्टें भी आईं जो बेशक कही तो सहज प्रवृत्तियों के रूप में थीं लेकिन सिर्फ़ चौबीस घंटों के अंदर टिप्पणियों का माल मसाला लगा के उसे इतना असहज़ कर दिया गया मानो इस वर्ष  हिंदी ब्लॉगिंग की सबसे बडी दुर्घटना यही घटी कि हमारे ही कुछ साथियों ने हमारे ही कुछ साथियों का सम्मान कर दिया । सो इसके एवज़ में न सिर्फ़ सम्मानित करने वालों , सम्मानित होने वालों को नामी बेनामी सुनामी बनके बनके हमारे ही कुछ साथी दो टके का कहते दिखे तो कुछ साथी पूरी प्रश्नावली दाग बैठे । देखने पढने वाली बात ये कि कुछ साथी जो पिछले दिनों ब्लॉग आपात काल में नज़रबंद थे अचानक ही ऐसी पोस्टों पर नूमदार होकर अपने ब्लॉगरीय अनुभव को साहित्यिक छटा से लपेट कर यूं पिल पडे मानो कंधों पर बोफ़ोर्स लिए बस इसी एक वज़ह से रुके हुए थे । और ऐसा नहीं है कि वे खुद कभी ऐसे किसी आयोजन , किसी सम्मेलन , किसी सहभागिता के हिस्सेदार नहीं बने या आगे नहीं बनेंगे , हां ये जरूर है कि तब इस रवैये में ठीक वैसा ही फ़र्क आ जाता है जैसा किसी की सोच और शैला में तब आता है जब बेटी के विवाह के समय दहेज़ को भर भर के कोसता व्यक्ति अपने बेटे की शादी के समय पूरी सूची लेकर खडा हो जाता है । सोचता हूं यदि यही सब वज़हें हिंदी ब्लॉगिंग को रफ़्तार देती हैं , उन्हें (दुर)गति प्रदान करती हैं तो चलिए यही सही । जो भी हो , ये सब भी आनी जानी है । तो आइए इस लंपटगिरी को इसी तरह प्रवाह देते रहें और एक दूसरे को यूं ही सम्मानित अपमानित करते और होते रहें ।



शनिवार, 4 अगस्त 2012

लडाई खत्म नहीं , लडाई अब शुरू हुई है






अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगियों , जिन्हें सिविल सोसायटी के सदस्य के रूप में देश ने पहचाना था , ने कल अचानक ही घोषणा कर दी और एक प्रश्न पूरे देश के सामने उछाल दिया कि क्या अन्ना और उनके सहयोगियों को अब एक राजनीतिक विकल्प देने के लिए खुद राजनीति में उतरना होगा और साथ ही अनशन की समाप्ति की घोषणा भी कर दी । बेशक राजनीतिक सामाजिक गलियारों में इस तरह के और इससे जुडी कई संभावनाओं के कयास लगाए जाते रहे हों किंतु जंतर मंतर पर खडे और इस सारे जनांदोलन पर अपने मन मस्तिषक का एक कोना लगाए आम आदमी के लिए ये सब अचानक सा हुआ ही रहा । इस निर्णय की जो प्रतिक्रिया देखने पढने सुनने को मिली उसने कहीं से भी आश्चर्यचकित नहीं किया । राजनीतिक दल अपने अपने चरित्र के हिसाब से उपहास उडा रहे हैं , लांछन लगा रहे हैं , और खुद अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । कुछ मौका उन्हें भी मिल गया है जो शुरू से ही इसे किसी न किसी करवट बिठाने पर आमादा थे ।

एक आम आदमी की नज़र से इस जनांदोलन का आकलन विश्लेषण किया जाना जरूरी है और इसके लिए सबसे पहले एक आम आदमी होना जरूरी है । आम आदमी जो पिछले साठ बरसों से जाने कितने ही जननायकों , कितने ही जनांदोलनों और कितने ही राजनीतिक दलों के तमाम वादों ,नारों के बहकावे भुलावे में आकर हर बार किसी न किसी को अपनी किस्मत का फ़ैसला करने का हक देता रहा ,और हर बार पिछली बार से ज्यादा और अधिक ठगा जाता रहा , उसे जब कोई गैर राजनीतिक व्यक्ति , कोई गैर राजनीतिक समूह ऐसा मिला जिसने उसे रातों रात गरीबी से ,भुखमरी से , कुपोषण से और इन जैसे तमाम कोढ खाजों से छुटकारा दिलाने का वादा  न करते हुए मुद्दों की लडाई के लिए प्रेरित किया तो वे उनके पीछे हो लिए । आम आदमी को आज भी किसी टीम टाम और किसी देव परदेव से अधिक उन मुद्दों की फ़िक्र रही है जिनका उठाया जाना और जिनके लिए लडा जाना जरूरी है । ये एक सुखद संयोग रहा कि , वो चाहे बाबा रामदेव हों या अन्ना हज़ारे से जुडे हुए सिविल सोसायटी के दल के लोग कम से कम किसी भी तुलना में वे उन जन प्रतिनिधियों से , जो कि हर बार आम लागों को किसी न किसी बहाने से खुद को सत्ता सौपे जाने और फ़िर पूरे देश को दीमक की तरह चाटे जाने के लिए मजबूर कर देते रहे , उनसे पहली ही नज़र में बेहतर तो लगे ही , ऐसे में यदि जनता ने उन्हें अपने लिए आवाज़ उठाने वाला , सियासत से आंखें मिला कर डंके की चोट पर उन्हें भ्रष्ट , अमर्यादित , चरित्रहीन कहने का साहस/दु:साहस करने वाला माना तो कुछ भी अनुचित नहीं था ।

विश्व में आर्थिक मंदी ने आम लोगों की लगभग एक सी स्थिति कर दी थी और अरब देशों सहित जाने कितने ही मुल्कों में आम और मध्यम वर्गीय लोगों ने सियासत और सत्ता के साथ पूंजीपतियों के गठजोड का पुरजोर विरोध किया । निरंकुश सरकारों के प्रति न सिर्फ़ अपना गुस्सा दिखाया बल्कि आम अवाम की ताकत को महसूस कराते हुए  कई स्थानों पर उसे पूरी तरह उखाड फ़ेंका । भारत में भी संचार एवं सूचना तंत्र के प्रसार ने एक क्रांति ला दी वो थी विचारों के प्रवाह और प्रसार की क्रांति । मोबाइल , कंप्यूटर , इंटरनेट तक लोगों की पहुंच ने उनका आपस में न सिर्फ़ संपर्क सूत्र जोड दिया बल्कि लोगों को किसी मुद्दे और समस्या पर बहस करने विमर्श करने और तर्क वितर्क करने का मौका दे दिया । इतना ही नहीं इन सभी मत अभिमतों का सारी सूचना प्रसार तंत्र और मीडिया के माध्यम से न सिर्फ़ सरकार बल्कि समाज तक भी पहुंचने लगी जिसने इसे और विस्तार दे दिया । वैश्विक समाज से लोगों के जुडाव होने का एक लाभ ये हुआ कि पश्चिमी और विकसित देशों में चल रहे प्रशासनिक कायदे कानूनों की जानकारी , व्यवस्था को सुचारू करने चलाने के लिए अपनाए जाए रहे उपायों और अधिकारों की समझ भारत में भी लोगों को होने लगी । ऐसे ही समय में देश का बुद्धिजीवी वर्ग सक्रिय होकर , सीधे सीधे उन कानूनों की मांग उठा बैठा । पहली और बडी सफ़लता उसे सूचना के अधिकार की लडाई जीत कर मिल भी गई ।



पिछले कुछ ही समय में सूचना के अधिकार का उपयोग करके लोगों ने सरकार और सियासत के हलक में हाथ डाल कर उससे वो वो सूचनाएं और जानकारियां हासिल कर लीं जो सरकार और सत्ता में बैठे हुए लोग कभी भी अन्य किसी भी तरह से कम से कम आम लोगों तो कतई नहीं पहुंचने देते । आज ये स्थिति हो गई है कि सरकार को सूचना का अधिकार , उस भस्मासुरी वरदान की तरह महसूस हो रहा है जो अब खुद सरकार के गले की फ़ांस बन गया है । हालात का अंदाज़ा सिर्फ़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ समय में ही सूचना के अधिकार के कारण जाने कितने ही लोगों की हत्या हो चुकी है और सरकार अब तक नौ बार इसमें संशोधन और बदलाव की कोशिश कर चुकी है । अब भी रोज़ाना हज़ारों अर्ज़ियां रोज़ नए खुलासे कर रही हैं ,और यदि सरकार को लेश मात्र भी इसकी ताकत का अंदाज़ा पहले हो जाता तो नि:संदेह सरकार इस कानून को कम से कम इस शक्ल में तो कतई पास होने नहीं देती । इस सफ़लता ने प्रशासन और व्यवस्था से जुडे भिडे और उसके भीतर पैठ कर सब कुछ देख परख चुके कुछ संवेदनशील लोगों को ये मौका दिया कि वे एक जगह संगठित होकर उन मुद्दों और समस्याओं के पीछे जनता को कर सकें जिसके लिए आज तक भारतीय अवाम ने कभी भी आवाज़ नहीं उठाई थी ।

सिविल सोसायटी के नाम पर संगठित उस समूह ने पूरे सुनियोजित तरीके से और सारी लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप पहले सरकार द्वारा प्रस्तावित एक भ्रष्टाचार विरोधी कानून के मसौदे को न सिर्फ़ पढा बल्कि पूरे तर्कों और कारणों से उसमें व्याप्त कमियों को बताते हुए उससे बेहतर कानून का मसौदा सरकार के सामने रख दिया । इतना ही नहीं उस संगठन ने ये सारी प्रक्रिया खुलेआम जनता के सामने रख बांट दी और सरकार के मंशे की कलई खोल कर रख दी । जनता जो पहले ही सरकारी नीतियों और राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण बढी महंगाई की वजह से भुखमरी के कगार पर पहुंची हुई थी उसने फ़ौरन बात को समझा और बिना किसी शक शुबहे , बिना कोई कारण परिणाम जाने और उसकी परवाह किए इस संगठन का साथ देने लगी । इस संगठन के अगुआओं में बहुत सारे व्यक्तियों में से कुछ चेहरे ऐसे थे जिन्हें अवाम उनकी ईमानदार छवि के कारण सम्मान देती आई थी और इस बात ने इस संगठन की लडाई को हवा दी । रही सही कसर इस संगठन के लडाई के उस तरीके ने पूरी कर दी जिसका नाम ले लेकर देश की सबसे बडी राजनीतिक पार्टी अब तक अपनी दुकान चलाती आई थी यानि गांधीवादी आमरण अनशन का रास्ता । मौजूदा समय में जहां किसान और मजदूर आंदोलन तक हिंसक रूख अपनाए हुए थे इस संगठन ने आमरण अनशन का गांधीवादी हथियार आजमाया । तरकीब काम कर गई और बरसों बाद ऐसा लगा मानो आम जनता सडक पर उतर कर सत्ता और सरकार को अपनी बात कहने को उद्धत हुई । मीडिया का दखल और इस आंदोलन की मिनट दर मिनट कवरेज ने इसे पूरे देश में फ़ैलाने में कोई कसर नहीं बाकी रखी ।


सबसे पहले जब मुट्ठी भर लोग जंतर मंतर पर जनलोकपाल बिल को संसद पटल पर रखे जाने की मांग को लेकर बैठे तब किसी को ये अंदाज़ा भी नहीं था कि ये अवाम द्वारा अपनाई और लडी जानी वाली कुछ बडी लडाइयों में से एक बन जाएगी , लेकिन ऐसा हुआ । इस बीच बाबा रामदेव ने विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा किए कराए गए काले धन को देश में वापस लाए जाने की मांग को लेकर अपनी मुहिम छेड दी , जिसे भी लोगों ने हाथों हाथ लिया । एक आंदोलन से दूसरा आंदोलन अलग होकर भी जुड गया । सरकार जो पहले से ही इस तरह आम आदमी द्वारा सडक पर किसी कानून के बनने बनाए जाने के मुद्दे की लडाई को अपने दशकों से स्वप्रदत्त अधिकार में हनन मान कर उबाल खाए बैठी थी उसने पूरी राजनीतिक बिसात बिछा दी । पहले ना नुकुर करते हुए उन्हें वार्ता के लिए बुलाया गया और इस बहाने टूटा पहला अनशन और सडकों पर उतरा हुज़ूम घर लौटा कि चलो लडाई शुरू तो हुई ,इस आस और धोखे में कि शायद सरकार को जनमानस की भावना का ख्याल आ गया और उनकी ताकत और आक्रोश का अंदाज़ा हो गया है ।


लडाई की अगली किस्त तब शुरू हुई जब संसद सत्र के दौरान सिविल सोसायटी की टीम ने जनलोकपाल बिल के मसौदे को संसद पटल पर रखने की पुरज़ोर मांग की । न सिर्फ़ इस संगठन को बल्कि अवाम को भी ये स्पष्ट होना बहुत जरूरी था कि असल में सत्ता के पक्ष विपक्ष में बैठे और राजनीति कर रहे तमाम धुरों में कौन कौन इस कानून के साथ खडे हैं और कौन विरोध में खडे हैं । ये बात स्पष्ट भी हुई जब संसद सत्र के दौरान इस प्रस्तावित विधेयक पर बोलते हुए लगभग हर दल और हर नेता ने अपने मन की बात कही जो शासक द्वारा गुलाम से उसे उसकी हद में रहने की हिदायत और चेतावनी देने जैसा कुछ था । यहां चूक ये हुई कि जिस सरकार और राजनीति की मंशा पहले ही स्पष्ट हो चुकी थी उसको दूसरा मौका दिया जाना गलत था कम से कम तब तो जरूर ही जब अवाम की प्रतिक्रिया समग्र और मुखर थी । आखिर क्यों नहीं सत्र को आगे बढाया जा सकता था , क्यों नहीं उस बहस को चलने दिया जा सकता था । दबाव को और बढने देना चाहिए था इतना कि आर पार का निर्णय हो सकता । लेकिन बहुत सारी बातें स्पष्ट होते हुए भी बहुत कुछ अस्पष्ट ही रहा ।


अब बात हालिया जनांदोलन और अनशन की , इस अनशन और आंदोलन का उद्देश्य था दागी केंद्रीय मंत्रियों पर जांच की मांग , जिसके लिए कतई भी इतने दिनों तक भूखे रहकर अपनी बात कहने रखने की जरूरत नहीं थी । मौजूदा हालातों में ये सर्वविदित है कि सिर्फ़ जांच के दायरे में लाए जाने और उन पर मुकदमा चलाए जाने से सरकार , व्यवस्था और राजनीति के चरित्र पर लेशमात्र भी फ़र्क नहीं पडने वाला था । इन चौदह के बाद अगले अट्ठाईस भी उसी रास्ते पर चलने वाले मिलने वाले थे और हैं देश को । सरकार और सत्ता जो दो बार सडक पर उतरे जनसमूह को बरगलाने और घर वापस भेजने में सफ़ल हो चुकी थी उसे बहुत अच्छी तरह पता था कि दो वक्त की रोजी रोटी के लिए लडता आम आदमी बार बार इस लडाई में अपना सर्वस्व दांव पर लगाने नहीं आ सकेगा । तिस पर भूल ये हुई कि टाइमिंग की गलती ने सारी स्थिति को उलट कर रख दिया । यदि राजनैतिक विकल्प का रास्ता चुना जाना ही तय था तो फ़िर ये अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव से पहले ही क्यों नहीं चुना गया या फ़िर कि सिर्फ़ एक पत्र के आने भर ने कैसे इस निर्णय तक पहुंचा दिया अचानक । सबसे बडी कमी ये रही कि जिस तरह का नियोजन और प्रतिबद्धता और उससे अधिक पारदर्शिता अब तक लोगों को दिख रही थी , उन्हें महसूस हो रही थी सब कुछ झटके से होने के कारण उन्हें हटात ये समझ ही नहीं आया ।


अब बात जहां तक राजनैतिक विकल्प देने की है तो अन्ना के सहयोगी पहले ही इस बारे में बहुत कुछ स्पष्ट कह कर चुके हैं लेकिन फ़िर भी अब ये लडाई न तो जनलोकपाल बिल तक सीमित रही है न ही सरकार बदलने तक । अब एक नई दिशा देने की बात की जा रही है तो ये लडाई नि:संदेह बहुत लंबी और निर्णायक होगी । देखना ये है कि क्या सच में ही साठ सालों तक उपेक्षा का शिकार आम आदमी दिए जाने वाले राजनैतिक विकल्प में और जो देने जा रहे हैं उनमें अपना विश्वास जत पाएगा । रही सरकार और सियासत की बात तो उसके लिए ये किसी भी नज़रिए से लाभदायक नहीं होगा । अवाम ने अपना विकल्प चुना तो भी सत्ताच्युत होकर शक्तिहीन होने के लिए उन्हें तैयार रहना होगा और यदि ऐसा नहीं हो पाया तो फ़िर ये असंतोष किस करवट ले जाएगा देश को ये भी देखना होगा । दोनों ही सूरतों में आम आदमी के लिए निराश होने , थक कर बैठ जाने और चुप हो जाने का कोई अवसर नहीं है । उसे नए मुद्दे , नई लडाई , नई सोसायटी खडी करनी होंगी और तब तक इस लडाई को जारी रखना होगा जब तक स्थिति वास्तव में सुधार की ओर न बढे और इसके लिए पहले उसे खुद को भी दुरूस्त , ईमानदार करना होगा ।

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

दीदी , राखियां और रक्षा बंधन ..कुछ यादें




मुझे ज्ञात नहीं है कि विश्व के किसी अन्य देश में , भाई बहन के प्रेम , स्नेह और विश्वास का प्रतीक ऐसा कोई पर्व त्यौहार या परंपरा है जैसा कि भारत में रक्षाबंधन का त्यौहार है । यूं तो कहा जाता है कि इस त्यौहार के पीछे असली कहानी रानी पद्मावती द्वारा अपनी सहायता के लिए मुगल नरेश को चिट्ठी लिखना जैसी कोई घटना थी ,मगर उससे इतर ये बहुत ही सुखद लगता है कि आजकल पश्चिम से आयातित होने वाले तमाम उल जलूल डे नुमा जबरिया बनाए जा रहे त्यौहारों से अलग एक बिल्कुल साधारण , बिना लकदक , तामझाम और फ़ूं फ़ां के मनाया जाने वाला ये पर्व , सिर्फ़ भाई बहन के बीच के अटूट स्नेह , प्रेम और विश्वास का प्रतीक है जो पूरे देश में बडे ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है । पूरे देश भर में बहनें अपने भाइयों की कलाइयों को भांति भांति के सुंधर धागों और राखियों से सजाती हैं और ये उम्मीद करती हैं कि ये डोर उनके बीच के प्रेम स्नेह को बनाए रखेगी । 


मेरी दीदी को गए अब बाइस बरस से ऊपर हो चुके हैं लेकिन अब भी याद है कि दीदी किस तरह महीना पहले से ही तैयारियां शुरू कर देती थीं । पहले यूं आज की तरह कहां बाज़ार राखियों से पटे होते थे , मुझे तो वो स्पंज की फ़ूली हुई बडी बडी राखियां ही याद हैं , बाद के वर्षों में दीदी बाज़ार से रेशम के धागे , मोती , छोटी छोटी टिकलियां और जाने क्या क्या लाती थीं और फ़िर उनसे गज़ब की राखियां बनाती थीं । फ़िर शुरू होता था राखियों को भेजने का दौर । अब तो पोस्ट आफ़िस में भी कहां दिखते हैं रखियों से भरे हुए , फ़ूले हुए लिफ़ाफ़े और दूसरी तरफ़ उनके पहुंचने का इंतज़ार । चचेरे , ममेरे , मौसेरे , फ़ुफ़ेरे और जितने भी रे भाई हैं , सबके नाम पते पहले से ही लिख कर रख लेना लिफ़ाफ़ों पर ताकि कोई छूटे न और फ़िर जो जितनी दूर उसे उतना पहले ही भेजने की तैयारी । और सबसे आखिर में हम दोनों भाइयों की राखी । आज तक न दीदी की यादें धुंधली हुई हैं न ही उन राखियों की ।


बरसों पुरानी एक फ़ोटो , बाएं से अनुज संजय , दीदी और फ़िर आखिर में मैं

रक्षा बंधन के दिन सुबह ही उठ कर , अमूमन तौर पर , छुट्टी का दिन होने के कारण स्कूली दिनों की अपेक्षा थोडी ज्यादा देर से उठने की गुंजाइश ज्यादा होती थी , लेकिन रक्षा बंधन के दिन सुबह सुबह उठ कर नहा धो कर एकदम बीबा पुत्तर जैसे तैयार हो कर चकाचक हो जाने की जल्दी हुआ करती थी । मां थाल में टीका रोली और राखी के साथ मिठाई सब सज़ा कर तैयार रखती थीं । फ़िर दीदी राखी बांधती थीं पहले अपनी बनाई राखी और फ़िर एक एक करके लिफ़ाफ़ों में आई हुई राखियां । कलाई से कोहनी तक सब फ़ुलल्लम फ़ुल और हम भी पूरे शान से शाम तक उसे बांधे बांधे फ़िरते रहते थे । एक दूसरे को दिखाते और देखते हुए । मां घर में कोई पकवान , कोई खास व्यंजन की तैयारी में और हम बच्चे पूरे मुहल्ले मैदान में धमाचौकडी ।

एक और खास बात हुआ करती थी वो थी स्कूल में एक दिन पहले राखी का त्यौहार मनाया जाना । ये तो नहीं पता कि इन दिनों इस परंपरा को कैसे निभाया जाता है किंतु उन दिनों इसे बडी शिद्दत के साथ मनाया जाता था । स्कूल में साथ पढने वाली सहपाठिनें घर से बनाई हुई राखियां ला कर हमारी कलाई पर बांधती थीं और हम उन्हें टॉफ़ी चॉकलेट दिया करते थे । क्लास में चहेते बच्चों के हाथों में भी खूब सारी राखियां बंधी होती थीं और शिक्षकों को भी बांधा जाता था । गांव पहुंचे तो, हर आंगन में सुनाई देने लगा ,

"ॐ येन बद्धो बलि राजा , दानवेन्द्रो महाबलः !
तेन त्वां प्रति बध्नामि , रक्षे मा चल मा चल:  ॥"

अब तो सब कुछ सिर्फ़ यादें रह गई हैं और सब कुछ सिमट कर आ गया है यहां
बुलबुल गोलू भईया को राखी बांधती हुई



मंगलवार, 24 जुलाई 2012

एलबम में छुपी जिंदगी ............





हमारा मस्तिष्क ,अपने आप में एक खूबसूरत एलबम की तरह होता है , एक ऐसा एलबम जिसमें हमारे चाहने न चाहने से कोई तस्वीर नहीं लगती , बल्कि यादों का ऐसा कोलाज़ बन जाता है जिन्हें टटोल कर कुछ लोग तो जिंदगी तक गुज़ार देते हैं । हमारे भी अंतर्मन में जाने ऐसी कितनी ही जिंदगियां गड्डमगड्ड पडी हुई हैं । समय असमय वो अपने आप ट्रेलर की तरह सामने से गुज़र जाती हैं । लेकिन मन के भीतर की यादों को चाहे जितना बखान किया जाए , बताया जाए , हर कोई उसे ठीक ठीक वैसा ही समझ ले या कि हम उसे वैसा ही बयां भी कर पाएं ये जरूरी तो नहीं । इसलिए ही शायद फ़ोटो खींचने का चलन शुरू हुआ होगा \ जिसने भी इसे शुरू किया उसका एहसान मानव को मानना ही चाहिए । चित्रों , तस्वीरों और फ़ोटो में जाने हमने कितनी ही  जिंदगियों को सहेज़ कर रख छोडा है । जबसे मोबाइल आया है तबसे  और भी  आसान हो गया इन्हें सहेज़ना । देखिए न मैं खुद यही करता हूं अब ...मोबाइल से खींची गई कुछ तस्वीरों और हर फ़ोटो के साथ एक दास्तान एक फ़साना ...है न





मां अन्नपूर्णा मंदिर , जालंधर


                शहर की पथरीली मिट्टी , कुछ नकली काली परत वाली धूल से जब भी जी जाता है ऊब ,
                 आंखों को शीतल और मन को पावन करने को , नहीं मिलती है ये हरी हरी सी दूब




दिल्ली से मधुबनी रेल यात्रा के दौरान


                     ज़िंदगी को सफ़र समझ के चलते रहे दिन रात सही , मगर पटरियों पर जो पल गुज़रे ,
                              वहीं फ़साना बन बैठा , यादें कुछ और जुडीं , जहां कहीं भी रुक हम उतरे








           जीवन धार बनी युगों से तुम इस धरा पर , इठलाती इतराती , शीतल सर्प सरीखी बहती हो
           निचोड निचोड पहाडों से अमृत लाती , हम रोज़ घोलते विष तुममें , फ़िर भी कुछ न कहती हो


             शहर की आपाधापी में , हम इंसान से कब मशीन हुए , इसका गुमान कहां अब होता है ,
              यूं फ़ुर्सत में बैठ पल दो पल ,यार संग बोल बतियाने को , अक्सर ये मन रोता है








सैंट्रल स्कूल दानापुर , जिसे बरसों बाद देखा था
                             

                              कैसे कह दें अब कुछ याद नहीं , कैसे कह दें कि सब भूल गए ,

                              एक एक चैप्टर एक एक पीरीयड याद आया , जब भी अपने स्कूल गए




                  हम जैसे कुछ बदकिस्मत , अक्सर जाने कई वज़हों से , इन शहरों में आ फ़ंसते हैं ,
                            जहां सब कुछ छोडा छूटा , जाकर देखो , कुछ लोग वहां अब भी बसते हैं









    कभी कभी मन करता है , मांग लें इस ईश्वर से , इक और भी जीवन दे दो उधार ,
    कंकड पत्थर में बहुत जी लिए , अब प्रकृति की गोद में भी थोडे तो दें दिन गुज़ार






चलिए आज के लिए इतना ही ......

रविवार, 22 जुलाई 2012

एक रविवार हुआ करता था ...







एक वक्त हुआ करता था , सच उस वक्त तो वक्त के सरकने का एहसास हुआ करता था , वक्त के गुजरने का आभास हुआ करता था और वक्त के आने का इंतज़ार भी हुआ करता था । हमें तो वो वक्त भी याद है जब साल के शुरूआती दिनों में ही दीपावली के सर्द उजली टिमटिमाती रातों के घनघोर इंतज़ार में हिंदी की कविता " आई दीवाली रे " पढ पढ के ही खुश हो लिया करते थे , और उन्हीं दिनों में एक दिन हुआ करता था रविवार ।


आप कहेंगे , लो रविवार तो अब भी होता है , अरे धत , ये तो संडे है जी संडे , संडे यानि फ़न डे और फ़न के नाम पर आज जो कुछ मैं कम से कम इस शहर की भोर दुपहरी और शाम को देखता हूं अपने आसपास वो मुझे किसी भी लिहाज़ से सांप के फ़न से कम खतरनाक नहीं लगता । खैर तो बात हो रही थी रविवार की । सप्ताह भर के बाद मिली छुट्टी और उस छुट्टी के आने का इंतज़ार , मानो सब कुछ एक कमाल का अनुभव हुआ करता था । रविवार के जाने से लेकर अगले रविवार के आने तक का कुल सिलेबस मानो यही था बस , कि बीते रविवार को दिखाई गई पिक्चर कितनी अच्छी थी , और आने वाले रविवार की तो क्या कहने ।


सुबह सुबह ही नहा धो कर चकाचक हो जाना , और फ़िर उन दिनों के क्रिकेट मैच । चट से मैच का फ़ैसला और पट से मैच शुरू । अजी काहे का पैड , और काहे का गल्वस । बस टीम में एक या दो बैट वाले दोस्तों का होना जरूरी होता था , सबसे एक एक रुपया इकट्ठा करके बॉल का जुगाड । पास के किसी पेड की टहनियों को काट छील कर विकेट तैयार और वो भी नहीं हुआ तो फ़टाक से नौ दस ईंटों को इकट्ठा करके करीने से एक के ऊपर एक रख कर उसे ही विकेट का रुप दे दिया जाता था । बस हो गया मैच शुरू और नियम भी तभी के तभी मैच दर मैच बना लिए जाते थे । जैसे प्रमोद अंपायरिंग करेगा , तो नॉ बॉल और एलबीडब्लयू नहीं रखा जाएगा मैच में , क्योंको प्रमोद को ही नहीं पता , विकास खाली है तो उसे लेग अंपायर बना दिया जा सकता है । बस उसके बाद कुल पंद्रह बीस ओवरों का मैच और क्या खाक मुकाबला करेंगे आज के फ़िक्स्ड सट्टेबाजी वाले मैच उस मैच के रोमांच का । लेकिन उससे पहले सात साढे सात बजे वाले टीवी कार्यक्रम को देख निपटा लिया जाता था ।



मुझे याद है कि उन दिनों शो थीम , स्टार ट्रैक ,विक्रम और बेताल , बेताल पच्चीसी , और सबसे अधिक सप्ताह में दिखाई जाने वाली पिक्चर हमारे मुख्य आकर्षण हुआ करते थे रविवार को मनाने के । टीवी और क्रिकेट ही क्यों , गर्मी के दिनों या उन दिनों जब घर पर ही रहने की बाध्यता होती थी तब , लूडो और कैरम की धमाधम मची होती थी , इतनी कि कभी कभी तो अलग अलग गुट बनाकर सब बैठ जाते थे खेलने के लिए और न कुछ हुआ तो अंताक्षरी ही सही । कॉमिक्स और बाल पत्रिकाओं में और नंदन , चंपक ,बालहंस , के अलावा  बेताल , मेंड्रेक , चाचा चौधरी , बिल्लू , पिंकी ,लंबू मोटू ,  नागराज जैसे सैकडों किरदार उन दिनों बच्चों के साथी हुआ करते थे ।



कुल मिलाकर समां कुछ इस तरह बंधता था कि आसपास के सभी बच्चे इकट्ठे होकर एक साथ ही पूरा रविवार बिता दिया करते थे । मम्मीओं के लिए जहां ये दिन सप्ताह भर के छूटे छोडे कामों को पूरा करने और कुछ विशेष बनाने का होता था तो पापाओं के लिए दोस्तों के यहां जाकर जरूरी काम निपटाने का , बाज़ार से सामान राशन लाने का , या फ़िर घर के आंगन में या पीछे लगी बगीची क्यारियों की निडाई गुडाई का । और सब मज़े मज़े में अपने काम को निपटाते थे ।



उस रविवार को खोए हुए इतना समय बीत चुका है कि न तो अब उसे वापस लाया जा सकता है न ही उसे भुलाया जा सकता है । अब तो बस हम अपने बच्चों को उस रविवार के किस्से सुना सुना कर ललचाते रहते हैं । कॉमिक्स और पत्रिकाओं का स्थान ले लिया है उनके कार्टून चैनलों ने और लूडो शतरंज और कैरमबोर्ड को रिप्लेस कर दिया है वीडियो कंप्यूटर ने । हम भी कहां वो रहे हैं अब , कहां तो अपने युवापन में रविवार को सभी दोस्तों के पते  ढूंढ ढूंढ कर उनके पत्रों को पढा करते थे ,उनका जवाब दिया करते थे और अब यहां बैठे कंप्यूटर पर खिटपिट कर रहे हैं उन दिनों की याद बिसूरते बैठे हैं । ऊपर से पानी की बिजली की और अब तो बारिश और मौसम की फ़िक्र अलग से ।


सनडे को फ़नडे में बदलते देख लिया अब जाने आने वाले समय में इसे रन डे (भागते दौडते दिन ) के रूप में भी परिवर्तित होते देख ही लेंगे शायद , तभी तो अक्सर ये मन गुनगुना उठता है ...

दिल ढूंढता है फ़िर वही फ़ुर्सत के रात दिन

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

अनटचेबल ...........






आमिर खान के सत्यमेव जयते से बेशक बहुत सारे लोगों को बहुत सारी शिकायतें हों , और इसके पक्ष विपक्ष , नफ़े नुकसान के गणित-गुणाभाग का आकलन विश्लेषण किया जा रहा हो , लेकिन मेरे लिए सिर्फ़ इतना ही काफ़ी है कि आज की तारीख में बुद्दू बक्से से बेकार बक्से तक की स्थिति में पहुंचने वाली टीवी पर सप्ताह में एक डेढ घंटे किसी मुद्दे को प्रभावी तरीके से उछाल कर उसे समाज में बहस करने के लिए छोड दिया जाता है तो यही बडी बात है । इसके एक आध एपिसोड को छोडकर मुझे सब विषयों और मुद्दों , उनकी प्रस्तुति और उसके बाद उनका पडने वाला प्रभाव स्पष्ट महसूस हुआ , जैसा कि आमिर खुद बार बार कह रहे हैं कि बात दिल पे लगनी चाहिए और दिल पे लगेगी तो बनेगी भी ।


पिछले बहुत सारे एपिसोड कहीं न कहीं , किसी न किसी रूप में महिलाओं के मुद्दों और उनसे जुडी समस्याओं के आसपास ही घूमते रहे , इसके बावजूद भी कल एक टीवी   समाचार में देखा कि गोहाटी में सरेआम , एक युवती के साथ पूरी भीड ने  वहशियाना हरकत की , उसने जता और बता दिया है कि अभी कुछ नहीं बदला है बल्कि कहा जाए कि बहुत कुछ बिगड गया है । और मुझे तो लगता है कि समाज को अब इससे भी ज्यादा घृणित , अमानवीय , कुकृत्यों और अपराधों को देखने सुनने और भुगतने के लिए तैयार हो जाना चाहिए , आखिर इस रास्ते को हमने ही तो हाइवे बनाया है ,और सबसे जरूरी बात ये थी कि जहां गति और दिशा का नियंत्रण होना चाहिए था वहां कोई इन्हें संभालने मोडने वाला नहीं था ।


हालिया एपिसोड में आमिर ने भारतीय समाज में जाति प्रथा के एक साइड इफ़्फ़ेक्ट और बुरे इफ़्फ़ेक्ट के रूप में मिली छुआछूत की बीमारी को उठाया । हमेशा की तरह , आमंत्रित मेहमानों और विशेषज्ञों ने ,अपने अनुभव , आंकडों और विमर्श से ये दिखा दिया कि अब भी बहुत कुछ नहीं बदला है । कम से कम उन समाजों में तो जरूर ही जहां ये व्याप्त थीं । यानि कि ग्रामीण परिवेश में । भारतीय समाज में जाति प्रथा की शुरूआत , जातियों का निर्धारण , उनके कार्यों का निर्धारण , उनके जीवन स्तर , उनके अधिकार आदि पर बहस तो सालों से चली आ रही है और सच कहा जाए तो जाति वर्गीकरण के कई वैज्ञानिक और सामाजिक तर्कों के बावजूद कभी कभी तो लगता है कि अब समय आ गया है जब इंसानी समाज से जाति और धर्म जैसे विषयों को बिल्कुल ही विलुप्त कर देना चाहिए । वैसे भी किसी आम खास जाति को उच्च और निम्न का प्रमाणपत्र देने की हैसियत और औकात कम से कम किसी इंसान की तो कतई नहीं होनी चाहिए ।


सरकार ने अपनी नीतियों और अपने नुमाइंदों के अनुसार बहुत सारे काम और बहुत सारी योजनाओं , कुछ कानूनों को लाद कर भी ये जताने का प्रयास तो किया ही है कि उन जातियों , जिन्हें निम्न या छोटा कहा समझा समझाया जाता रहा था सदियों से , के लिए बहुत बडा उद्धारकर्मी उपाय दिया । हालांकि बहुत सारे बदलाव और परिवर्तन जरूर हुए भी , लेकिन कमोबेश वो घाव अब भी कहीं न कहीं मवाद बहाता दिख मिल जाता है । खुद सरकारी आंकडों पर यकीन करें तो आज भी देश में हाथ से मैला ( मैला यानि मल मूत्र भी ) ढोने की प्रथा को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका है । आज़ादी के साठ साल बाद भी ।


शहर से निकलकर ग्रामीण परिवेश की तरफ़ बढने पर ही मुझे एहसास हुआ कि ऐसी कोई बीमारी भी इस समाज में है । शहरी जीवन में पहले और अब भी मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि जाति प्रथा या छुआछूत की किसी बडी घटना ने मेरा ध्यान उस ओर खींचा था सिवाय कुछ के जब एक आध सहकर्मियों ने कभी कभी किसी दूसरे सहकर्मी के साथ बैठ कर लंच करने में  असर्मथता जताई थी , बाद में पता चला कि वो छोटी जाति के उस सहकर्मी के साथ भोजन साझा नहीं करना चाहते थे । पिताजी फ़ौज में थे सो शुरू से ही परिवेश ऐसा रहा कि जाति धर्म भाषा आदि ने कभी मुझे अपने दायरे बनाने बढाने में कोई खास भूमिका नहीं निभाई । गांव में रहने के दौरान जरूर बहुत कुछ अनुभव हुआ ।इत्तेफ़ाक ये रहा कि उन्हीं दिनों अपनी स्नातक की पढाई के दौरान अंग्रेजी साहित्य (प्रतिष्ठा ) के पाठ्यक्रम में मुल्कराज़ आनंद की "अनटचेबल" पढने को मिली , जिसे मैंने अब तक सहेज़ कर रखा हुआ है ।








गांव में बस्तियों की बसावट और फ़ैलाव , जरूर उनके गोत्र मूल , पेशे, आदि के अनुसार था और अब भी है जो मुझे बहुत अलग सा नहीं लगा । लेकिन जैसे जैसे मुझे ये जानने को मिला कि उन्हें चापाकल , पोखर तालाब मंदिर और सामूहिक भोज तक में साथ बैठाना शामिल करना तो दूर उनके लिए वो सब वर्जित है , मुझे हैरानी भी हुई और कोफ़्त भी । मुझे अब तक याद है एक बार क्रिकेट खेल के मैदान से वापसी में बहुत जोर की प्यास लगने के कारण ,मैं स्वाभाविक रूप से जो भी चापाकल (हैंडपंप) दिखा उसमें से पानी पीने लगा । साथ के सभी लडके मुझे इस तरह छोडकर भागे मानो दिन में ही भूत देख लिया हो ।


अर्सा हो गया गांव छोडे और उसे महसूसते हुए , लेकिन मुझे पता है कि अब भी , जबकि सच में ही बहुत कुछ बदल गया है , उन बस्तियों में पक्के मकान हैं , और उनमें उनके पढते लिखते बच्चे हैं , विकास की , आगे बढने की एक ललक और झलक दिखाई देती है , लेकिन आज भी और अब भी वहां बहुत सी वर्जनाएं हैं जिन्हें तोडने टूटने में जाने कितने युग और लगेंगे ।

गुरुवार, 28 जून 2012

खुद अपने आप से आगे निकलिए ......





शायद नौकरी लगे हुए तीन साल हो गए थे तो ये उस वक्त की बात हुई यानि 2000-2001 या उसके आसपास की बात  थी । स्टेशन कौन सा था ये याद नहीं , मगर बक्सर था शायद , पानी भरने के लिए मैं भी स्टेशन पर लगे नल की लाईन में खडा था और एक नज़र इस बात पर थी कि गाडी कहीं खिसकना न शुरू कर दे ( ये आजकल की बिसलरी नस्ल शायद ही समझ सके कि उस समय स्टेशन पर रुक कर और उतने ही समय में , खाना और पानी या जरूरत की किसी भी चीज़ को लेकर आना जाना कितनी महत्वपूर्ण कला हुआ करती थी इस बात का अंदाज़ा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि वो काम सफ़र कर रहे परिवार के सबसे चुस्त और समझदार और फ़ुर्तीले तो जरूर ही , को दिया जाता था ) , तो वो स्वाभाविक सा काम हम तब कर रहे थे जब गांव से अकेले दिल्ली वापसी पर थे ।

पीछे से किसी ने कंधे पर थपका , " अबे झा तू ही है न "

मैं पलटा , अबे रंजन तू , मेरी ग्यारहवीं कक्षा का दोस्त था  रंजन । इत्तेफ़ाक ये कि वो भी अपनी ड्यूटी पर गुजरात जाने के रास्ते में थी चूंकि छोटा भाई दिल्ली में था इसलिए उसी ट्रेन से वो भी दिल्ली की ओर ही अग्रसर था । हमने पानी भरा और वापस चल दिए । उतनी देर हममें से कोई कुछ नहीं बोला । शायम हम दोनों , समय के उस अंतराल में एक दूसरे के चेहरे , हावभाव , चाल के बदलाव को भांप रहे थे । मैंने साथी दोस्तों को पानी की बोतल थमाई , दोस्त से परिचय कराया और फ़िर चल पडे दोस्त की सीट की तरफ़ ।

अकेले है या ..मैंने पूछा सबसे पहले

नहीं यार तेरी भाभी और भतीजी भी हैं साथ में ।

जियोह्ह तो तूने शादी कर ली , अबे उसका क्या हाल है जॉगिंग करे चलबू का ,

दोस्त उछल पडा , अबे धीरे बोल तेरी भाभी है साथ में पिटवाएगा क्या , वो कहानी तो तभी खत्म हो गई थी ।

हा हा हा हा मेरा ठहाका गूंज उठा था । सीट पर पहुंचे तो भाभी जी ,(जिसके लिए पट्ठे ने बाद में बताया कि ये भी सहपाठिन ही रही हैं हमारी लेकिन उस स्कूल में जहां ये बारहवीं में निकल लिए थे ) जो आज स्थानीय कालेज में लेक़्चरार हैं और प्यारी सी भतीजी से मुलाकात हुई । बहुत देर तक फ़िर हम अकेले में बैठ कर बतियाने बैठ गए । भाभी भतीजी खिडकी की सीट पर बैठ कर टिकट का असली महत्व वसूल रही थीं

और तू सुना , कहां क्या कर रहा है , शादी की या नहीं ,

अबे रुक यार , मैं दिल्ली में हूं , सरकारी नौकरी में , और फ़िर पूरी विस्तृत बात अपने कार्यालय और काम के बाबत । उसे बहुत हैरानी हुई । मैं समझ रहा था कि उसे और उस समय के मेरे सभी दोस्तों को ये जानकर बहुत हैरानी होती है कि मेरे जैसा थर्ड डिविजन पास लडका , कोई प्रतियोगिता पास करके नौकरी में कैसे आ गया , मतलब इत्ती बुद्धि वृद्धि ..ये कृपा कैसे किसकी हो गई ।

मैं खुद भी आंकता हूं खुद को तो यही पाता हूं कि दसवीं तक पढाई के बारे में मैं इतना ही होशियार था कि गली में सबके द्वारा पूछने पर , कि परीक्षाएं कैसी चल रही  हैं , मुझे लगा कि नहीं ये उन वार्षिक परीक्षाओं से ज्यादा जरूरी तो हैं ही । इन स्थितियों में यदि प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए सोच रहा था तो ...। मुझे अब लगता है कि मैंने खूब मेहनत की उस दौरान और उससे भी ज्यादा आश्वस्त था इस बात को लेकर कि आज नहीं तो कल आखिरी सफ़लता मिलेगी ही ॥


परीक्षाओं के उस दौर पर ,और ऐसी हर परीक्षा को यदि उकेर दिया जाए शब्दों में तो निश्चित रूप से दिलचस्प जरूर लगेगी आपको । खूब अवसर हुआ करते थे उन दिनों , और सभी क्षेत्रों में ,हम सभी दोस्तों ने ये ठान ही लिया था कि अब आर या पार । हमारे एक बहुत की कुशाग्र मित्र जो उन दिनों हमारे साथ ही प्रतियोगिता परीक्षाओं के समर में दौड रहे थे ने रिकार्ड 14 बार बैंक पी ओ कैडर की लिखित परीक्षा पास की मगर साक्षात्कार में कभी पास न हो सकने के बावजूद पंद्रहवीं बार बैंक पी ओ बन कर ही माने । उसी समय जाना था कि पढाई , लक्ष्य , उससे पाने की जिद और पाने के लिए अथक परिश्रम और प्रतिबद्धता क्या होती है ।

वैसे भी मेरा यही फ़लसफ़ा है कि जहां भी जो भी दे रहे हो , अपनी ओर से कोशिश होनी चाहिए कि अपना सौ प्रतिशत दें । बाद में ये अफ़सोस नहीं होना चाहिए कि  , काश ये और ज्यादा करके देखा होता । मैं क्रिकेट , बैडमिंटन , वॉलीबॉल , फ़ुटबॉल अच्छा खेलता था मगर स्कूल की टीम में आज तक सिर्फ़ खिलाडियों को पानी ही देता रहने वाला डेडिकेटेड प्लेयर रहा । हां कालोनी और उसके बाद ग्राम्य जीवन में जरूर खेलता और अच्छा खेलता रहा । राजनीति भी अछूती नहीं रही ,मगर शायद अनुभव इतने तल्ख मिल गए कि फ़िर तो एक बू सी हमेशा ही आती रही उधर से । काम , पढाई लिखाई , घुमाई किसी भी बात में मुझे अपनी पूरी उर्जा झोंकने में आनंद आता है ।


मुझे लगता है ये इस तरह की कोशिश है जिसमें आप खुद से आगे निकलने की कोशिश में रहते हैं , हर पल हर समय आपी सोच और क्रियाकलाप उसी दिशा में आगे बढती हैं । और आगे निकलने का मतलब मेरा सिर्फ़ विकास के रास्ते पर होना नहीं है , आगे मतलब अपने वजूद से अपने होने के एहसास की तरफ़ आगे । जिंदगी अपना चक्र पूरा करती ही है , आज तक किसी के रोके टोके नहीं रुकी है इसलिए तब तक हमें चलायमान रहना ही होगा , चलते रहना होगा निरंतर ..कभी अपने साथ ..कभी खुद अपने आप से आगे .....

मंगलवार, 26 जून 2012

हाय किताबों से इश्क कर बैठा ...........


"आप इस उम्र में भी इतना क्यों पढते हैं ? " ,

मैंने चौंक के सर उठा कर देखा तो एक सहकर्मी महिला मित्र मेरे हाथों में अटकी उस मोटी सी किताब को देखते हुए , मुझसे प्रश्न कर रही थीं । मेरे होठों पर एक मुस्कुराहट तैर गई , वही जो अक्सर ऐसे सवाल ( जो मुझे न सिर्फ़ दफ़्तर , घर ,बल्कि कई बार मेहमानों के यहां भी ) को सुनने के बाद तैर जाया करती थी । और घर पर तो ताने के रूप में मिलता है ये ,सो कई बार झुंझलाहट भी हो जाती है । क्या करूं , मुझे आदत है , मुझे इसके अलावा और कुछ नहीं आता , मुझे लिखना पढना पसंद है , जैसे जाने कितने ही रटे रटाए जुमले दोहराता हूं ।


वो मुट्टली किताब जो इन दिनों मेरे हत्थे चढी हुई है




"अगला प्रश्न होता है ,अच्छा कितना पढ लेते हैं आप , मतलब कितने घंटे लगभग ?" 

" जी मैंने कभी हिसाब नहीं रखा , लेकिन शायद छ; सात या आठ घंटे तो पढ ही लेता हूं , लेकिन सिर्फ़ किताबें नहीं , समाचार पत्र , पत्रिकाएं , और नेट पर भी पढता हूं बहुत कुछ " मैंने उन्हें थोडा सा उकताते हुए जवाब दिया ।

" हमारे तो बच्चे भी इतना नहीं पढते आजकल , कंपीटीशन इतना टफ़्फ़ होता जा रहा है , कहती हूं फ़िर भी नहीं पढते , क्या करें जब हमें ही पढता नहीं देखते । वो तो फ़िर भी समाचार पत्र पढ लेते हैं सुबह मैं तो वो भी नहीं देख पाती ..........और फ़िर जाने क्या क्या ??

उनके साथ मैं हूं हां करता रहा और उनके जाने के बाद बहुत समय तक मन में बहुत सी बातें उमड घुमड करती रहीं । क्या सच में ही मैं किताबी कीडा टाईप का हो चला हूं । मुझे लगा कि नहीं , बिल्कुल नहीं । अभी तो जाने कितना कुछ बांकी बचा है पढने को , समय ही कहां मिलता है । रोज़ की सरकारी नौकरी , वो भी अदालत जैसी जगह पर जहां सुबह से शाम तक , चेहरों , , न्यायिक प्रक्रियाओं , मुकदमों और फ़ैसलों को ही पढते फ़ुर्सत नहीं मिलती तो उसमें अपनी पसंद की किताबों की पढने की बात ही कहां । लेकिन पसंद की किताबें , मुझे तो सब कुछ पढना अच्छा लगता है । कानून की किताबों से लेकर काद्मबनी  तक , और समाचार पत्रों से लेकर विभिन्न वेबसाइट्स , ब्लॉगपोस्ट्स और दोस्तों के फ़ेसबुक अपडेट्स तक । अपनी पसंद की रेंज़ बहुत बडी है या कहा जाए कि कोई रेंज़ ही नहीं है । अजी छोडिए , बेकार की बात है ,इतना ही पढाकू होता तो दसवीं में थर्ड डिवीज़न न आई होती , और सच कहूं तो अब तक विश्वास नहीं होता कि बांकी सब तो ठीक था लेकिन गणित के पेपर में पास कैसे हो गया आखिर ?


जी हां , शुक्र मनाता हूं कि न तो वो जमाना आज की तरह का बच्चों के लिए मेट्रिक परीक्षाओं के समय और शायद उससे पहले भी कर्फ़्यूनुमा हुआ करता था और न ही कम नंबर आने पर उनका कोर्ट मार्शल हुआ करता था अलबत्ता तैंतीस प्रतिशत के लिए अभिभावक आश्वस्त हुआ करते थे सो हम भी फ़ैले पडे रहते थे कि अगर कुर्सी टेबल पास तो हम भी पास । शायद वो मैट्रिक के इम्तहान ही थे जिनके परिणाम ने बदल कर रख दिया । लगा कि नहीं , पढने का अपना ही आनंद है । न सिर्फ़ अकादमिक पढाई में बल्कि फ़िर प्रतियोगिता परीक्षाओं के दौर में और उसके बाद साहित्यिक रुचि जगने के बाद तो जैसे किताबों से इश्क सा हो गया । और किताबों से ही क्यों कहूं , पढने से मोहब्बत हो गई ये कहना चाहिए । हालांकि शुरू में तो पढाई इस वज़ह से शुरू हुई कि , अबे धत जब राकेश  , राजीव  , विजय  , सबको पढने में इतना मज़ा आता है तो कुछ तो आनंद होगा ही पढने में ।


एक वाकया याद आ रहा है बहुत पहले का । मेरी दीदी पढाई लिखाई में बहुत ज्यादा प्रखर और मेधावी  थीं और मैं उतना ही भयंकर भुसकोल इसलिए अक्सर मन में ये अरमान रहते थे कि जैसे मां बाबूजी दीदी को कहते थे , " क्या पूरे दिन किताब हाथ में लिए पढती रहती है , थोडी देर के लिए इसे छोड दे " , हाय कि वो कौन सा दिन होगा जब हमारे लिए भी मां बाबूजी यही कहेंगे । और सच में ही कहने लगे वे जब मैंने प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी शुरू की । अब तेज़ तर्रार तो थे नहीं , सो दे धमाधम , दे दनादन परीक्षा पे परीक्षा , मजाल है जो एक भी छोडी हो और मजाल है कि एक भी पास कर पाए हों । तब अंदाज़ा ही नहीं था शायद , न परीक्षाओं को पास करने के स्तर का और न ही अपनी काबलियत का । फ़िर वो दौर भी आया कि जहां जहां प्रयास किया सफ़लता मिली । और शायद इसी दौर ने पढाई में वो कशिश पैदा कर दी कि हम किताबों से , शब्दों से ही इश्क कर बैठे । अब तो बिना पढे रहा ही नहीं जाता । आदत इतनी खराब कि , सहकर्मियों को ( उनके बच्चों के लिए ) न सिर्फ़ नए आवेदनों के बारे में ही नहीं बताता रहता हूं बल्कि उन प्रतियोगिताओं के लिए मिलने वाली पत्रिकाओं , सामग्रियों के बारे में लगभग जबरन भी बता दिया करता हूं । क्या पता अगला चाहे परेशान ही हो जाता हो ।


हां साहित्य से लगाव स्नातक में अंग्रेजी ऑनर्स के दौरान ही हो गया लेकिन परवान चढा दिल्ली में रहने के दौरान और उन मित्रों के संपर्क में आने के बाद जिन्होंने मुझे गुनाहों का देवता , रतिनाथ की चाची , मुझे चांद चाहिए , का स्वाद लगा दिया । फ़िर तो ये लगी लगाए न लगे और बुझाए न बुझे वाली स्थिति हो गई । शायद ही कोई दिल्ली पुस्तक मेला हो जहां मैं जाकर ढेर सारी किताबें न खरीद लाया हूं । बेशक वो मेरे अलावा सबके लिए " रद्दी वाले का अच्छा खासा स्टॉक "हों लेकिन मेरे लिए किसी पूंजी से कम नहीं । एक दिन हुलस कर जोश में किताबों का कोना भी बना लिया , मगर किताब को पढ कर उनके लिए कुछ लिखने में अब तक आलसी ही निकला , जल्दी ही उस आदत को भी नियमित करता हूं । अब  तो ये इश्क ज़ारी रहेगा , माशूकाएं मिलती रहेंगी और मैं उन्हें पढता रहूंगा ..........................................

थोडी सी किताबों के लिए एक अस्थाई सा ठिकाना अपने कमरे में , बांकी सब बेचारों को संदूक की सज़ा सुनाई हुई है

रविवार, 20 मई 2012

ब्लॉगिंग में हुआ बवाल , ब्लॉगिंग को मिली उछाल










पिछले कितने समय , अब इसका लेखा जोखा भी क्या रखना , बस ये समझिए कि कम से कम एक बरस से तो जरूर ही , ब्लॉगिंग एकदम मुइतमईन सी हो गई थी । फ़ेसबुक , गूगल प्लस और ट्विट्टर ने मानो ब्लॉगिंग की रफ़्तार को पहले पकड फ़िर जकड के रख लिया । गोया जो यहां से जरा सा उधर की ओर गया मानो जैसे वहीं का हो कर रहा है । दूसरों की क्या कहें कमोबेश हम खुद भी उसी गाडी में सवार हो गए थे अलबत्ता कारण शायद थोडे बहुत अलग अलग हों । 


लाख कोशिश हुई , वैसे ऐसी कोई घनघोर कोशिश हुई हो इसकी जानकारी कम से कम अपने पास तो कतई नहीं है , लेकिन हुई होती तो घनघोर ही हुई होती न कि ब्लॉगिंग को दोबारा पटरी पर लाया जाए , बल्कि ब्लॉगिंग को क्यों कहें , कहा जाए कि ब्लॉगरों को दोबारा पटरी पर लाया जाए । हद है आखिर इत्ती घनघोर मनहूसियत , न कोई विरोध , न झंडे , न झंडाबरदार , पोस्टों पर टिप्पणियां तो छोडिए , पोस्टों के ही लाले पड गए । फ़िर पोस्टें लिखी भी जाती रही हों तो पाठक पढें कैसे । तेज़ और लोकप्रिय एग्रीगेटर्स तो कब के कोमा में चले गए और धत तेरे कि धाकड लिक्खाड से लेकर धुरंधर टिप्पाड तक , पोज़िटिव निगेटिव के चटके से लेकर चिट्ठाजगत सक्रिय निष्क्रिय , हवाले मतवाले आदि तमाम टाईप के एक्सक्लुसिव खोजी खबरी भी इनके साथ ही कोमा में चले गए । हा! रे ब्लॉगिंग का दुर्भाग्य ।


लेकिन ऐसा नहीं है जी बिल्कुल भी नहीं , बीच बीच में कभी ब्लॉगर मिलन /बैठक / संगोष्ठी के बहाने तो कभी ईश्वर , धर्म , मज़हब के बहाने दंड पेलने वालों ने रौनक बनाए रखी । भर भर के बाल्टियां , ऐसी कोसमकोस शुरू कि समझ ही नहीं सकता कोई कि यदि धर्म , मज़हब पर बातें करने वाले , विमर्श करने वाले इतने सहिष्णु और गंभीर  लोग हैं तो फ़िर तो इनकी समझ की और दूसरों को समझाने की इनकी कोशिशों की दाद ही नहीं दाद खाज और खुजली भी देनी चाहिए । मगर न जी , मामला कुछ जमा नहीं । इक्का दुक्का बार बीच बीच में चल रहे एक आध एग्रीगेटर में से हमारीवाणी को भी उसी तरह निशाने पर लिया गया जिस तरह से पहले ही ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत का शिकार हमारे तीस मार खां ब्लॉगर मित्र लोग कर चुके थे , लेकिन सब नाकाफ़ी रहा रफ़्तार बढी नहीं कुल मिला कर ।

देश और प्रदेश में बेशक हवाएं अब गर्म हुई हों और लू के साथ साथ धूप की तपिश ने सबको हलकान करना शुरू कर दिया हो लेकिन भला हो ब्लॉगजगत के लिक्खाडों का कि यहां मामला गर्मा गर्मी का पहले ही शुरू हो गया । अब ये न ही पूछिएगा कि हाऊ हू बिकम बोल्ड , एंड किसने किसको क्या किया फ़िर टोल्ड और आखिरकार मामला वो भी पड ही गया कोल्ड , हां इत्ता जरूर रहा कि इस विषय ने पिछले कुछ दिनों तक बनाए रखा होल्ड । लेकिन एक बार फ़िर से फ़ार्मूला हिट्टम हिट रहा कि नकारात्मकता उत्प्रेरक का काम करती है ।

इस बारे में जब सोचता हूं तो मुझे एक दिलचस्प किस्सा याद आता है जो शायद मैं आपसे पहले भी बांट चुका हूं । एक स्कूल में बच्चों ने एक चैरिटी कार्यक्रम रखा , योजना बनी कि इस कार्यक्रम के बारे में लोगों को बताया जाए और फ़िर जब लोग इस कार्यक्रम को देखने आएं तो टिकट खरीद कर उसे देखें , टिकट से जो पैसे आएं उससे स्कूल के बच्चों के लिए खेलने और संगीत के लिए कुछ सामान खरीदा जाए । सारी तैयारियां हो गईं , तय हुआ कि लोगों को जानकारी पैम्फ़लैट के माध्यम से दी जाए । अगले दिन कुछ स्कूली बच्चे स्कूल के सामने ही सडक पर हाथों में पैम्फ़्लैट लेकर खडे हो । जो भी वहां से गुजरता , उसके हाथ में पकडा देते , लोग , बाइक स्कूटर कारों में सवार , सब उसे पकडते और आदत के अनुसार एक निगाह डाल कर वहीं फ़ेंक कर चलते बनते । बच्चे बडे दुखी और मायूस हो गए । इतने में एक युवक जो ये सब थोडी देर से देख रहा था उसने उन बच्चों से कुछ कहा । बच्चों ने सामने से आ रहे एक बाइक सवार को रोका और पैम्फ़लेट देने लेगे , उसने जैसे ही आगे हाथ बढाया , बच्चों ने पैम्फ़्लेट को दोनों हाथों से मोड तरोड दिया । बाइक सवार ने हैरान परेशान होते हुए उस पैम्फ़लेट को पकड लिया , और फ़िर अचानक उसे खोल कर सीधा करके पढने लगा । बच्चों के चेहरे पर मुस्कान आ गई । यानि फ़लसफ़ा ये कि मानव मन है ही ऐसा हमेशा उलटी बातें , उलटी चीज़ें ही ज्यादा आकर्षिंत करती हैं । फ़िर हम कौन से डायनासोर हैं , हम भी तो आखिर बाइक सवार ही हैं सो जैसे ही कागज़ मोड के पकडाया गया सब स्विच ऑन मोड में आ ही गए ।


वैसे ये फ़लसफ़ा एक लिहाज़ से ठीक भी है , जब कोई चर्चा न करे , जब कोई बात न करे तो खुद ही अपनी चर्चा करो , खुद ही अपनी बात करो । ब्लॉग जगत में आयोजन चाहे कैसा भी है , आयोजक चाहे कोई भी हो लेकिन जब तक उसका मीन मेख निकाल कर उसका पूरा पोस्टमार्टम न किया जाए तब तक आयोजन की पूर्णाहुति नहीं होती , पहले भी कभी नहीं हुई है । सो एक एक करके ऐसे वैसे सारे आयोजन के कर्ताधर्ताओं के कसबल ढीले पडते चले गए , जिनके बचे हुए हैं हमें पूरा यकीन है कि पोस्टों और टिप्पणियों की मिसाइलों से उनके मनोबल को भी नेस्तनाबूत कर ही दिया जाएगा । तो लब्बोलुआब ये कि रविंद्र प्रभात जी ने पिछले बार परिकल्पना सम्मान योजना और समारोह के खूबसूरत संचालन और उसके बाद हुए तमाम हंगामों के बावजूद हिम्मत न हारते हुए एक बार फ़िर से ब्लॉगरों को सम्मानित करने का मन बना लिया । जी हां सम्मानित को बोल्ड इसलिए किया है ताकि ठीक से बार बार ये ज़ेहन में आ सके कि सम्मानित ही करने की मंशा है । यहां एक साथ ही कई सारे प्रश्न उछले उछाले जा सकते हैं , उछल ही रहे हैं ।


सम्मानित ..क्यों भाई , हिंदी ब्लॉगरों को आखिर सम्मानित किया ही क्यों जा रहा है जब उन्हें अपमानित होने की आदत है तो ऐसी किरपा क्यों वो भी बिना दसबंद जमा किए कराए और फ़िर उससे भी जरूरी बात जब अपमानित करने कराने के लिए किसी को किसी की अनुमति सहमति की जरूरत नहीं होती तो फ़िर सम्मानित करने के लिए ही ये हिमाकत क्यों की जाए भला । वैसे भी देर सवेर कहा तो यही जाने वाला है ही कि हुंह्ह जिन्हें देने का मन था उन्हें दे ही दिया खामख्वाह इत्ता नाटक किया । लेकिन कमाल एक ये है कोई भी ये नहीं कहता कि फ़लां जी और चिल्लां जी को बिल्कुल भी कतई नहीं दिया जाना चाहिए ये सम्मान । अजी धेला भर नहीं जानते वे , कद्दू लिखते हैं और क्या खाक पता है उन्हें लेखन पठन के बारे में , मगर ना जी ये भला क्यों कहा जाए । इनको नहीं दिया जाए कहने से अच्छा है कि ये कहा जाए कि फ़िर इनको क्यों नहीं दिया गया , और जब इनको दिया गया तो उनको क्यों छोडा गया । किसी भी सूरत में आखिरकार सम्मान तो एक ब्लॉगर का ही होना है ।

परिकल्पना ही क्यों जी ..रविंद्र प्रभात ही क्यों ....लो ये कमाल है न । हां भई आखिरकार उन्हें ये हक दिया किसने कि वो यूं सरेआम सार्वजनिक रूप से सबको सम्मानित कर दें ..बताइए .तो ..सम्मानित । अजी जब ब्लॉगरों को घर दफ़्तर में कोई नहीं पूछता तो फ़िर ये इतने बडे हितैषी ..हैं कौन । ओहो ! जरूर परिकल्पना के पीछे किसी विदेशी शक्ति का हाथ है जो ब्लॉगिंग की स्थापित परंपरा यानि " ब्लॉगिंग का ब्लॉगिंग में ब्लॉगरों द्वारा ही अपमान " के बिल्कुल ही विपरीत है इसलिए कतई मंज़ूर नहीं किया जाएगा । फ़िर ये क्या बात हुई भला , हमारी हरकतें , हमारी बतकुच्चियां टिप्पणियां देख के कौन कह सकता है कि ये हिंदी ब्लॉगिंग  बालक अपने जीवन के एक दशक को देख चुका है , गोया अभी तो बचपन चढा भी नहीं है ठीक से घुटने के बल ठेमहुनिया मार के चल रहा है ऐसे में इतना भारी सम्मान । न कदापि नहीं । चलिए जो भी हो , इतना तो है ही कि ब्लॉगिंग अब अगल कुछ समय तक अपने पूरे उछाल पर रहेगी । वो कहते हैं न शेयर मार्केट उछाल वाली , जी जी जी बिल्कुल वैसी ही ।


सौ बात की एक बात देखने के दो ही नज़रिए होते हैं एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक और ज़ाहिर है कि सबके अपना अपना नज़रिया ही होता है ।हिंदी ब्लॉगर के रूप में मैंने पिछले छ: वर्षों में मैंने हमेशा ही हिंदी को ,हिंदी ब्लॉगिंग को , हिंदी ब्लॉगस को  और हिंदी ब्लॉगर्स को आगे बढने , बढाने , प्रोत्साहित करने , सम्मानित करने वाले हर प्रयास , हर छोटी बडी कोशिश का साथ दिया है और आगे भी दूंगा । फ़िलहाल तो ब्लॉगपोस्टों की बढी रफ़्तार और उस पर आई प्रतिक्रियाओं के दौर ने एक बहाना तो तत्काल दे ही दिया है भाई रविंद्र प्रभात जी की इस कोशिश का धन्यवाद अदा करने के लिए । हैप्पी ब्लॉगिंग एंड कीप ब्लॉगिंग ।

गुरुवार, 3 मई 2012

कोल्ड-बोल्ड ब्लॉगिंग और फ़ास्ट फ़्युरियस फ़ेसबुक






 

हिंदी अंतर्जाल का चेहरा , अपने पैदा होने से अब तक लगातार इतना तेज़ी से बदलता रहा है कि , कभी तो उसको साहित्य अपने निशाने पर लेता है ,ये कह कर कि इस पर जो कुछ भी उपलब्ध कराया जाता है वो स्तरहीन है , जबकि उन्हें भलीभांति मालूम होता है कि अब तो अंतर्जाल पर पूरा साहित्य इतिहास समग्र उपलब्धता की ओर अग्रसर है । कभी मीडिया , इसे अपने आपको न्यू मीडिया कहने कहलाने पर आडे हाथों लेता है । और सबसे कमाल की बात ये है कि इसके बावजूद भी सबको सबकी खबर रहती है और गाहे बेगाहे एक दूसरे की लाइन क्रॉस भी करते रहते हैं । इस बार मामला कुछ ज्यादा अलग इसलिए है क्योंकि इस बार तो एक नज़र सरकार ने भी अपनी टिका दी है और टेढी नज़र टिकाई है । लो जी जुम्मा जुम्मा अभी तो दस बरस भी नहीं हुए । अपने इतने से घंटों दिनों के सफ़र में हिंदी अंतर्जाल ने न सिर्फ़ माध्यम और मंच बदले बल्कि , अपना नज़रिया शैली और दिशा भी बदली । . 


बीच बीच में सेवा प्रदाता कंपनियों के परिवर्तन या ऐसे ही किसी कारणों के लोचा में फ़ंसकर झटके खाते इन मंचों के लिए विपदा पे आफ़त भी कुछ इस तरह की आई कि ,एक एक करके अलग अलग कई कारणों से एग्रीगेटर सेवा साइटें बंद हो गई या रुक गईं । दुनिया देश , फ़टाफ़ट जिंदगी की आदत को अपना रहा था , क्रिकेट भी टेस्ट मैच से लेकर ट्वेंटी ट्वेंटी मोड में पहुंच चुकी थी ऐसे में लोगों को त्वरित से भी तेज़ संवाद और संप्रेषण का हर नया उपाय ज्यादा लुभा रहा था । जिस ब्लॉगर ने अपनी मुफ़्त और अदभुत सेवा यानि ब्लॉग के माध्यम से विश्व अंतर्जाल पर धूम मचा दी और कभी बीबीसी समाचार सेवा की प्रमुख समाचार सूत्र के रूप में विख्यात हुई , उस सेवा को , ट्विट्टर , फ़ेसबुक और यू ट्यूब के बडे विस्तारित जाल ने कडी टक्कर दी । .
इन सब कारणों ने हिंदी ब्लॉगिंग में कोल्ड ब्लॉगिंग का दौर चला दिया । 


 कोल्ड क्या इसे तो चिल्ड ब्लॉगिंग कहिए , वर्तमान में लोकप्रिय एक एग्रीगेटर " हमारीवाणी " के पहले पन्ने की पोस्टें शाम तक भी एक पन्ने तक ही सीमित सी हो कर रह गई हों जैसे । सबके पास नियमित ब्लॉग नहीं लिखने , नहीं लिख पाने और यहां तक कि , नहीं पढ पाने और नहीं टिप्पणी करने या कर पाने के बहाने या कारण थे । लेकिन ट्विट्टर , फ़ेसबुक , प्लस ,और इन जैसे वैकल्पिक मंचों पर गहमागहमी चलती रही । इन सबके बावजूद एक कमाल की बात ये रही कि हिंदी ब्लॉगिंग में मज़हबी कटटरपंथ से जुडी पोस्टों ने गजब रफ़्तार पकड ली । अन्य भाषाओं का तो पता नहीं किंतु मेरा पिछले पांच वर्ष का अनुभव यही बताता है कि किसी भी विवाद के होते ही हिदी ब्लॉगिंग सक्रियता के अपने चरम मोड पर होती है । पिछ्ले दिनों सुना कि ऐसी ही एक पोस्ट से हिंदी ब्लॉगिग ने कोल्ड ब्लॉगिंग से बोल्ड ब्लॉगिंग की इमेज बना ली या बनी हुई घोषित कर करवा दी गई । अब ये तो इत्तेफ़ाक रहा कि एक संयोग भर कौन जाने लेकिन , बोल्ड ब्लॉगिंग ने आपनी अगली पारी के लिए आज के भारत "इंडिया टुडे " के मुख पृष्ठ को ही मुद्दा बना दिया । लेकिन इन सबका प्रभाव ये रहा कि बहुत दिनों बाद बहुत सी पोस्टों पर बहस और विमर्श की एक ऐसी महफ़िल जम गई कि समां बंध गया । .




अब रही बात ब्लॉगर मित्रों दोस्तों की तो , सब कहीं न कहीं लगे तो रहे , कोई प्रकाशन , तो कोई प्रकाशक से उलझे रहे , कई अपनी जिम्मेदारियों और पारिवारिक दायित्वों को संपन्न करने में लगे रहे , तो कई फ़ेसबुक और ट्विट्टर को धुनने में लगे रहे ,कईयों ने तो हार, प्रहार , लुहार तक पर पीएचडी कर डाली इस बीच , हम भी इन्हीं में से एक रहे । कहते हैं कि हिंदी ब्लॉगजगत में हमेशा ही गुटबाजी और समीकरणों की बात होती है , और कमाल ये है कि ये बदलते रहते हैं , खूब बदलते हैं । नाम ले ले के पोस्टें लिखने , एक दूसरे की टांग खींचने और और सभी भाषाई मर्यादाओं को तोड कर दंड पेलने की कवायद तो पहले से भी होती रही है , अलबत्ता इसकी रफ़्तार कम ज्यादा होती रही है । आने वाले दिनों में अंतर्जाल के बहुत सी बंदिशों और पाबंदियों के दायरे में आने की पूरी संभावना है ऐसे में यदि हिंदी अंतर्जाल पर लिखने पढने वाले किसी भी वजह से उदासीन होते हैं या अपनी उपस्थिति अपने विचारों से प्रशासन को कोई मौका देते हैं तो ये आत्मघाती कदम साबित होगा । सबसे जरूरी ये समझना है कि यहां विचारों का आना और बिल्कुल सीधे सीधे आना एक ताकत भी है और कमज़ोरी भी ।



रविवार, 15 जनवरी 2012

दिल्ली टू मधुबनी ..वाया मोबाइल






जब से जेब में मोबाइल आया है , और कुछ हो न हो , फ़ोटो खींचने की शौक एक आदत सी बन गई है , और जो फ़ोटुएं निकल कर आती हैं तो हम भी खुश हो लेते हैं कि चलो ससुरा नेगेटिव तो नहीं निकल के आया । आप शायद यकीन न करें मैं अपने मोबाइल से लगभग छ हज़ार फ़ोटो खींच चुका हूं और ....कहा न आदत से बाज़ नहीं आता । बहुत बार मुसीबत में फ़ंसने के बावजूद , फ़ोटो खींच कर सहेजना मुझे पसंद आता है । चलिए आज आपको अपने पिछले ग्राम प्रवास के दौरान की कुछ तस्वीरें दिखाता हूं



















































 









उम्मीद है आपको पसंद आई होंगी

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