पेड़ के पत्ते,
से लिपटे,
ओस की बूँद ,
के आरपार,
जो की,
देखने की कोशिश,
इक इन्द्रधनुष,
मिला,
छितरा हुआ सा।
खुद में समा,
जब खुद को ,
टटोला,
अपने को,
तलाशा,
तो पाया,
इक पुलंदा,
बिल्कुल ,
बिखरा हुआ सा॥
बहुत बार ,
सजाया-संवारा,
वो आशियाना,
मगर,
हर बार ,
तुम बिन ,
लगा वो,
घरौंदा,
उजड़ा हुआ सा॥
अजय कुमार झा
फोन 9871205767
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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला