यूं तो कुछ दिन पहले ये कविता मैंने पोस्ट की थी मगर ना जाने क्यों आज फिर इसे लिखने और पढ़ने को जी चाह रहा है ॥
जाने तेरी इन,
काली मोटी गहरी,
आंखों में कभी क्यों,
मेरे सपने नहीं आते॥
तू तो ग़ैर है फिर ,
क्यों करूं तुझसे शिक़ायत,
जब पास मेरे ,
मेरे अपने नहीं आते॥
उन्हें मालोम है कि,
हर बार मैं ही माँग लूंगा माफी,
इसीलिए वो कभी,
मुझसे लड़ने नहीं आते॥
जो शम्माओं को पड़ जाये पता ,
कि उनकी रोशनी से,
परवाने लिपट के देते हैं जान,
वे कभी जलने नहीं पाते॥
जबसे पता चला है कि,
यूं जान देने वालों को सुकून नसीब नहीं होता,
हम कोशिश तो करते है,
पर कभी मरने नहीं पाते॥
जो कभी किसी ने पूछ लिया होता,
मुझसे इस कलामजोरी का राज़ ,
खुदा कसम हम,
कभी यूं लिखने नहीं पाते॥
अजय कुमार झा
09871205767
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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला