रविवार, 2 मार्च 2008

रिश्तों को लादने से अच्छा..........

यूं तो आज कल के समय में यदि रिश्ते ,नाते , जज्बात, एहसास , की बातें की जाएँ तो बहुत से लोगों को लगता है कि ये बातें अब सिर्फ़ बातें ही हैं या कि बिल्कुल बेमानी हो चुकी हैं। विशेषकर शहरों में तो अब जो बचा हुआ है उसे लोग प्रकतिकल होने का नाम देते हैं । लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आता कि ये कौन सी व्यावहारिकता है जो इंसानियत से कोसों दूर ले जाती है। खैर, ये बातें बहुत कुछ तो लोगों के निजी अनुभव पर भी आधारित होती हैं। और ये हो सकता है कि मेरा अनुभव आप से बिल्कुल अलग हो ।

यहाँ मैं जिन रिश्तों की बात कर रहा हूँ वो इंसान के नैसर्गिक रिश्ते होते हैं। यानि खून के भी , परिवार के भी, पड़ोस के भी, जाने अनजाने रिश्ते भी , उनका आधार और स्वरूप कोई भी हो मगर किसी न किसी मोड़ पर कभी ना कभी हर रिश्ते में उतार चढाव आते जरूर हैं और वही वो समय हैं जब इनकी नाजुकता और दृढ़ता की परख हो पाती हैं । हालांकि मेरा अनुभव तो यही कहता है कि जब कभी ऐसा लगे कि रिश्ते थोड़े से तनाव में हैं तो उन्हें खींच कर पकड़ने से अच्छा है कि ढील दी जाए , उन्हें थोडा विराम दिया जाए, । क्योंकि ज्यादा खींचने से उनके टूटने की गुज्ज़ईश ज्यादा रहती है । और यदि थोड़ा विराम देने के बाद भी आपके या कि सामने वाले के मन का बोझ कम नहीं हुआ तो फ़िर रिश्ते लादने से अच्छा है कि उसे पीठ से उतार दिया जाए। फ़िर चाहे कल को आप पर कोई भी इल्जाम क्यों ना लगे, मगर इसमें आपको ये तसल्ली तो रहेगी कि आप अपनी जगह पर ठीक हैं।

मेरा अगला पन्ना :- सफ़ेद चेहरे (एक लघु कथा )

4 टिप्‍पणियां:

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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