पिछले भाग में आपने पढ़ा कि , हम देर रात दिल्ली से निकल कर शिवा ढाबे पर चाय वाय के लिए रुके थे , अब इसके आगे
चाय पीने के बाद थोड़ा सा तरोताजा होकर हम आगे की और बढ़ चले , बेटे लाल को पीछे आराम से सोने के लिए कह दिया था लेकिन वो भी हमारे साथ ही जगा हुआ था तो फिर गानों का दूसरा दौर चल पड़ा। मैं अक्सर सफर के दौरान आदतन भी कम ही सोता हूँ लेकिन साथ में गाडी चला रहे हमारे सारथि अजय पर वो तड़के भोर वाली तेज़ वाली भयंकर नींद हावी होते देख मैंने अजय से कहा कि अब जहाँ भी सही जगह दिखे गाडी रोक कर पहले इस नींद के झोंके को पूरा किया जाए , समय तकरीबन सुबह पौने चार के आसपास का था।
टोल नाका पार करते ही चाय की छोटी टपरी के पास कार रोक दी गई और अजय और हमारे सुपुत्र दोनों थोड़ी देर में ही नींद की झपकी मारने लगे। मेरी नींद तो यूँ भी गायब ही थी सो मैं कार से उतर कर चाय की टपरी पर बैठ गया , पहले मन हुआ कि चाय के लिए पूछ लूँ लेकिन फिर सुबह चार बजे वो भी एक अकेले के लिए , लेकिन दुविधा उस समय ख़त्म हो गई जब उसने खुद ही पूछा चाय पीयेंगे क्या , मैंने भी हाँ कह दिया।
चाय आराम से पीते हुए देखा तो पौ फटने लगी थी और आसमान का रंग बता रहा था कि यहाँ भोर बहुत ही ज्यादा खूबसूरत लगाने दिखने वाली है। मैंने चाय पी और एक नज़र गाडी पर डाली देखा तो अजय और आयुष दोनों अभी सो रहे थे , मैं पास ही किसी गाँव की और जाते हुए रास्ते की ओर निकल गया जहां से मैं इस खूबसूरत सुबह को और देर तक निहार सकूं। सुबह होने तक का नज़ारा वाकई अद्भुत था।
जब तक मैं वापस आया अच्छी खासी रौशनी निकल आई थी और अजय भी उठ कर साथ ही बने प्रसाधन में अपने नित्य कर्म से निवृत्त होने चले गए थे , आयुष भी उठ चुका था। अजय के साथ मैंने एक चाय और पी उस टपरी पर और फिर हम आगे चल दिए ग्वालियर की तरफ।
मैंने गौर किया तो पाया कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में बहुत कुछ साम्य सा दिख रहा था , वही पीली पीली उसर धूसर मिटटी और तेज़ धूप वाली गर्मी। मगर मेरा अनुमान बहुत जल्दी ही गलत साबित हुआ जब मैंने देखा कि मध्यप्रदेश के खेतों में शायद ही कोई फसल ऐसी हो सामयिक जो मुझे रास्ते में उगाते लगाते नहीं दिखी। ट्रकों की लम्बी लम्बी कतारें अक्सर हमारे साथ मिल जाती थीं या शायद हम ही उनके काफिले के बीच में आ जाते थे।
सुबह के पौने नौ के करीब हमारी गाडी फिर रुकी एक ढाबे पर जहां हमने नाश्ता करने का मन बनाया था , अजय थोड़ी देर और आराम करना चाहते थे इसलिए हमने उन्हें खाट पर आराम से सोने को कह दिया और हम दोनों पिता पुत्र वहीँ नित्य क्रिया से निवृत्त होकर ,दांत मांजने आदि के बाद नाश्ते का विचार करने लगे। और हमने आलू के पराठे के लिए बोल दिया। सुबह का समय था जब तक आलू उबले और तैयारी हुई अजय भी उठ कर हमारे साथ ही नाश्ते के लिए आ गए। मिर्च काफी तेज़ होने के कारण मेरे से पराठा पूरा नहीं खाया गया और मैंने लस्सी पर ही ज्यादा ध्यान दे दिया।
टंकी फुल्ल करने के बाद हमारा सफर फिर आगे की और बढ़ चला। ,कसबे , गाँव , खेत खलिहानों को पार करते हुए हम पहुंच गए ऐसे क्षेत्र में जहां चारों तरफ बड़ी विशाल पवन चक्कियां लगी हुई थीं और चलते हुए इतनी खूबसूरत लग रही थीं मानों हम किसी दुसरे देश की किसी दूसरी दुनिया में घूम रहे हों। खुले खाली रास्तों के साथ साथ चलते हरे भरे खेत और दूर गोल गोल घूमती पवन चक्कियां , लग रहा था कोई सिनेमा जैसा दृश्य आ गया हो सामने।
दोपहर से आगे वक्त खिसक कर शाम की आगोश में जाने को तैयार था और हम भी धीरे धीरे अपने मंजिल इंदौर शहर के आखरी छोर की ओर पहुँच रहे थे जहां पुत्र को अपनी प्रतियोगिता में शामिल होना था , ...
अभी के लिए इतना ही , अगली पोस्ट में
इंदौर , ओंकारेश्वर , शीतला माता जल प्रपात और महेश्वर के साथ ही बाबा माहाकाल की नगरी उज्जैन भी लिए चलेंगे आपको।