शनिवार, 31 मई 2008

वो आख़िरी रात

कहीं पढ़ा सुना था कि, जिंदगी बहुत छोटी है, मोहब्बत के लिए भी और नफरत के लिए भी और शायद इसीलिए किसी ने कहा भी है कि ,

दुश्मनी करना भी तो इतनी जगह जरूर रखना कि सामने पड़ो तो नज़रें चुरानी न पडें।

मगर शायद ये बात समझते समझते बहुत देर हो गयी या यूं कहूँ कि उम्र के उस पड़ाव पर बहुत कम लोग ये बातें समझ पाते हैं और मैं उन में से नहीं था। बात उन दिनों की है जम मैं अपनी दसवीं की परीक्षाओं के बाद खेल कूद में लगा हुआ था। हम सब दोस्त एक जगह इकठ्ठा होते और फ़िर आगे का कार्यक्रम तय होता और वो एक जगह हम पहले ही तय कर लेते थे। तब जाहिर सी बात है कि आज की तरह न तो कोई शोप्पिंग मॉल होता था न कोई स्य्बर कैफे न ही कोई कोफ्फी हौस इसिलए किसी न किसी दोस्त का घर ही हमारा मिलन स्थल बन जाता था और वहाँ थोडा सा उस दोस्त के मम्मी पापा को तंग करके हम आगे निकल जाते थे। उन दिनों खेल कूद का दौर था, अजी नहीं सिर्फ़ क्रिकेट की मगजमारी नहीं थी, नहीं ये नहीं कहता कि नहीं थी मगर दूसरे खेल भी हम मेज़ में खेला करते थे, सर्दियों की रातों में badminton खेलना अब तक याद आता है। मगर कुछ दिनों से हमारे बीच में वोलीबाल खेलने का एक क्रेज़ सा बन गया था। सभी लोग दो टीमों में बाँट कर खूब खेलते थे और पसीने में तर होकर शाम के गहराने तक घर वापस लौट जाते थे।

अक्सर खेल ख़त्म होने के बाद , थोड़ी देर सुस्ताने के लिए जब बैठते थे तो पहला काम तो ये होता था कि ये तय करें कि कल किसके घर मिलना है , दूसरा ये कि आज कौन एकदम बकवास खेला फ़िर थोड़ी गपशप । यहाँ ये बता दूँ कि हम लोगों के बीच कभी अपने परीक्षा परिणामों की चर्चा नहीं होती थी ,शायद उसका कारण ये था कि तब आज के जैसा karfew जैसा माहौल नहीं बनता था। अमर मेरे दोस्तों में थोडा ज्यादा करीब था और सबसे ज्यादा मेरी उसीसे पटती थी। उसका कारण एक ये भी था कि हम दोनों के घर एक ही गली में थे। अक्सर खेल के बाद जब हम दोनों घर लौटते थे तो एक ही साथ और हमेशा उसके साइकल पर लौटते थे । उस दिन अचानक अमर कोई बात कहते कहते बोल पड़ा कि , यार तुने, कैलाश की छोटी बहें को देखा है , कितनी सुंदर है "

मुझे नहीं पता कि ऐसा उसने क्यों कहा , मगर मैं उसके ये कहने से बिल्कुल अवाक् था। क्योंकि कैलाश हमारे साथ पड़ने वाला हमारा दोस्त था और उन दिनों दोस्त की बहन , सिर्फ़ बहन ही होती थी और हम समझते भी थे। अपने घर आने पर मैं चुपचाप घर की ओर चल दिया। अगले दिन से उसकी मेरी बातचीत बंद हो गयी। दोस्तों ने लाख पूछा , उससे भी और मुझसे भी मगर बात वहीं की वहीं रही। लगभग एक या सवा साल तक हम सभी दोस्तों की बीच रहते हुए भी कभी आमने सामने नहीं हुए । इस बात का मुझे कोई मलाल भी नहीं था ।

एक दिन अचानक मुझे पता चला कि कैलाश की उसी बहन की शादी , अमर के फुफेरे भैया से हो रही है और चूँकि कैलाश के पिताजी नहीं थे इसीलिए उसके घर के हालत को देखते हुए अमर ने ही ये रिश्ता करवाया था। मेरा दिल बुरी तरह बैचैन था अमर से मिल कर माफी मांगे के लिए भी और अपनी किए पर शर्मिन्दा होने के कारण भी। मैं अमर के घर गया उसकी मम्मी मुझे इतने दिनों बाद अचानक देख कर पहले चौंकी फ़िर खुशी से आने को कहा। उन्होंने बताया कि अमर उसी रिश्ते के सिलसिले में बाहर गया हुआ है और देर रात तक घर लौटेगा। मैंने उन्हें कहा कि अमर के लौटने पर उसे जरूर बता दें कि मैं आया था, वैसे मैं सुबह आकर मिल जाऊँगा। मुझे उससे कुछ जरूरी बात कहनी है।

उन दिनों फोन का चलन नहीं था तो मोबाईल का कौन कहे। अगली सुबह उठता तो गली में अफरा तफरी का आलम था । हर कोई बदहवास सा भागा जा रहा था। मैंने साथ वाले छोटे लड़के से पूछा कि अबे क्या हुआ कोई चोरी वोरी हुई है क्या , या कहीं झगडा हुआ है ।

नहीं भैया, वो शर्मा जी का बेटा था न अमर , अरे जिससे कभी आपकी दोस्ती थी। सुबह नहाते समय बाथरूम में गिर गया । सर की सारी नसें फट गयी, मर गया बेचारा।

आज तक उस रात की दूरी मुझे सालती है और शायद त उम्र सालेगी। इश्वर से दुआ करता हूँ कि अगले जन्म में किसी भी रूप में अमर को मुझसे जरूर मिलाना ताकि एक बार माफी मांग सकूं.

4 टिप्‍पणियां:

  1. दिल को छू गया आप का यह संस्मरण...
    सच है--दुश्मनी करना भी तो इतनी जगह जरूर रखना कि सामने पड़ो तो नज़रें चुरानी न पडें। '
    और वक्त कभी लौट कर नहीं आता जब मौका मिले मिल कर गिले शिकवे भूला देने चाहिये-

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  2. बहुत मार्मिक संस्मरण.
    सच कुछ धोखे सदैव सालते हैं.

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  3. बेहद मार्मिक.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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