शुक्रवार, 16 मई 2008

जाने कितने निशाने हैं ?

समय के,
अंतराल पर,
नित नया,
धमाका होता है,
हर बार,
किसी शहर का,
कोई कोना,
मौत की,
नींद में,
सोता है॥

कैसा मज़हब,
कैसा मकसद,
आतंक और,
दहशत के ,
ही वे,
दीवाने हैं,
निर्दोष ,
मासूम ,
औरत,
बच्चे,
रेल -बस,
और ,
मन्दिर मस्जिद,
जाने कितने
निशाने हैं॥

उन्हें बिलखते,
बच्चे नहीं दिखते,
उन्हें उजड़ते,
घर शहर नहीं दिखते,
मौत के सुदागर,
छिप के रहते हैं,
सामने आने का,
वे जिगर नहीं रखते॥

हाँ, मगर ,
बड़े फख्र से,
अपनी हैवानीयत,
को वे,
कुबूल करते हैं॥
उन्हें इंसान ,
समझने की,
हमारे हर ,
भूल की, वो पूरी,
कीमत ,
वसूल करते हैं।

आज मुझे,
मानवाधिकार का,
ढोल पीटने वाला,
जाने क्यों ,कोई,
दिखाई नहीं देता,
शायद उन्हें,
इन धमाकों का,
शोर कभी,
सुनाई नहीं देता।


सिर्फ़ इतना कि, जो ये सब करते हैं उन्हें किसी भी दृष्टिकोण से इंसान नहीं कहा जा सकता , इसलिए उनके साथ बिल्कुल जानवरों जैसा सलूक करना चाहिए, जानवर पागल हो जाए तो उसे मारना ही बेहतर होता है.

2 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसी दुखद और निन्दनीय घटना पर स्वभाविक मनोभावों को दर्शाती रचना.

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  2. bahut bahut dhanyavaad udantashtari jee.

    जवाब देंहटाएं

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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