गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

बदले हैं अब दस्तूर ज़माने के

आज लगभग डेढ़ महीने बाद ब्लॉग पर लौटा हूँ, पिछले दिनों के लिए सिर्फ़ इतना की वे मेरी जिंदगी के कुछ बेहद कठिन दिनों में से कुछ दिन रहे, मन में कुछ भी नहीं हैं न ही मस्तिष्क में इसलिए कुछ हलकी फुलकी पंक्तियाँ आपको पढ़वाता हूँ जो मैंने कहीं बहुत पहले पढी थी, यदि मेरी याददाश्त ठीक है तो लेखिका का नाम था , सुश्री रीता यादव।:-

बदले हैं अब दस्तूर ज़माने के इस कदर,
अपना कोई बनना ही गंवारा नहीं करता

पागल भी नहीं लोग की माने नसीहत,
जो मान ले गलती वो दोबारा नहीं करता

अपने लिए तो जीते हैं , मरते हैं सभी लोग,
औरों के जख्म कोई दुलारा नहीं करता

जाते हैं बिखर आज, गुलिश्ते बहार के,
जिनको कोई माली भी संवारा नहीं करता

ऐसे तो मुकद्दर को कोई बदल सका,
फ़िर भी सिकंदर है , जो हारा नहीं करता

तूफानों से लड़ के जिन्हें मिल जाए किनारा,
वो ही कभी औरों को पुकारा नहीं करता

तारे भी तोड़ लाने का जो रखता है जिगर,
वो शख्स फटेहाल, गुजारा नहीं करता

4 टिप्‍पणियां:

  1. rita ji ke sath sath aapko bhi dhero badhai sundar gazal padhane ke liye





    arsh

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  2. आप के जीवन का कठिन दौर खत्म हो यही कामना है और आप लगातार ब्लाग जगत पर योगदान देते रहें यही शुभेच्छा है ।

    जवाब देंहटाएं
  3. aap dono ka blog par aane, padhne aur saraahne ke liye dhanyavaad.

    जवाब देंहटाएं
  4. रीता जी की बहुत उम्दा रचना याददाश्त से आपने हमारे साथ साझा की, बहुत आभार.

    अच्छे -बुरे, सरल-कठिन समय का मिश्रण ही जीवन है. समय कभी एक सा नहीं चलता वरना तो सुख का मजा भी जाता रहेगा.

    आपको परेशानियों से जल्द राहत मिले, मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं.

    जवाब देंहटाएं

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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