मंगलवार, 30 मार्च 2010

लिव इन रिलेशनशिप :एक अलग दृष्टिकोण (भाग दो )



इस मुद्दे पर बहुत सी बातें मैं अपनी पिछली पोस्ट में रख चुका हूं , मगर चूंकि इस विषय का दायरा इतना वृहत है कि शायद अभी इस पर और भी बहुत कुछ कहने लायक बच गया है । ये मत व्यक्त किया जा रहा है लिव इन रिलेशनशिप विवाह के विकल्प के रूप में या शायद कि विवाह जैसी संस्था को पूरी तरह से औचित्यहीन करने के रूप में अपनाया जा रहा है । जबकि प्रायोगिक रूप से ये बिल्कुल भी सही नज़रिया नहीं है । लिव इन रिलेशनशिप जिन भी देशों और समाज में प्रचलित है वहां भी ये एक खास समय तक ही उस उन्मुक्तवादी नज़रिये को मानता है । उस विशेष समय के बीतने के बाद या तो उस संबंध की परिणति विवाह के रूप में हो जाती है नहीं तो संबंध विच्छेद के रूप में । मगर सबसे ज्यादा गौरतलब बात ये है कि दोनों ही स्थितियों में कानूनी अधिकारिता , किसी विवाद , किसी निराकरण के लिए जिन उपायों और उपबंधों का सहारा लिया जाता है वो सब विवाह या उस जैसी ही किसी संस्था के लिए तय किए गए नियमों कानूनों के अनुरूप ही किया जाता है । उदाहरण के लिए यदि कुछ समय तक एक साथ रहने के बाद किसी युवती को लगता है कि उसे जानबूझ कर छला गया है कि या कि उसके साथ युगल दंपत्ति की तरह रहने वाले युवक ने किसी भी कारण से उसे छोडने का मन बनाया है तो वो उसे बहुत आराम से यौन अत्याचार के लिए बने किसी भी कानून के सहारे कटघरे में खडा कर सकती है । अब यदि विवाह में इस स्थिति की कल्पना भी की जाए , अव्वल तो ये संभव नहीं है किंतु आज के समय को देखते हुए कुछ भी अकल्पनीय नहीं है, और फ़िर भी यदि ऐसा कोई मामला बनता है तो नि:संदेह उसमें भी विवाह विच्छेद तो हो ही जाएगा , अलबत्ता शायद दैहिक शोषण का मामला न बन पाए । सवाल सिर्फ़ सहमति और असहमति का है ।

           एक और महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है कि यदि ऐसे रिश्तों की व्यापकता बढेगी और उससे जो भी बच्चे होंगे यदि उनकी जिम्मेदारी शासन या सरकार उठाले तो बच्चों से संबंधित या उन्हें आधार बना कर जिस भी तरह का शोषण नारी समाज का किया जा रहा है वो शायद रुक जाए । हालांकि ऊपरी तौर पर ये कहने सुनने में अच्छा लग तो रहा है किंतु भारतीय शासन व्यवस्था और सरकार की कार्यशैली को जानने वाले भलीभांति जानते हैं कि ऐसे बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी उठाने में सरकार कितनी संजीदगी दिखाएगी । फ़िर इससे अलग एक संकट उभर के आएगा ऐसे रिश्तों से उत्पन्न संतानों की पहचान का संकट । यहां ये बताना ठीक होगा कि बेशक आज के आधुनिक युग में डीएनए जांच जैसी सुविधाओं के कारण कोई कठिन काम नहीं होगा  ये जानना कि संतान के असली माता पिता कौन हैं , मगर ध्यान रहे कि ये देश कोई बहुत छोटी या मध्यम जनसंख्या वाला देश नहीं है । अभी ही अपराधियों और अपराध के निर्धारण के लिए स्थापित विशिष्ट संस्थाएं डीएनए टेस्टिंग में महीनों का समय ले लेती हैं । तो आखिर वो कितना आसान काम होगा इसका अंदाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है ।

  ये बात स्पष्ट की जा चुकी है कि अदालत का फ़ैसला सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीय कानून और विशेषकर इस कृत्य का अपराध की श्रेणी में आने या न आने को लेकर आया है (हालांकि अभी न्यायालय का अंतिम फ़ैसला नहीं आया है)। न्यायपालिका को इस प्रवृत्ति और ,समाज द्वारा उसे अपनाए जाने या ठुकराए जाने , और इससे समाज पर पडने वाले किसी भी सकारात्मक /नकारात्मक परिणामों व प्रभावों से कोई सरोकार नहीं है । सबसे आश्चर्यजनक बात तो ये है कि इस भविष्य में आने वाले फ़ैसले के प्रति उनकी प्रतिक्रिया जानना सबसे ज्यादा उचित होगा जिन्होंने इसे अपनाया हुआ है । उनके अच्छे बुरे अनुभव ही इस बात का निर्धारण करेंगे कि लिव इन रिलेशनशिप , जिसे लेकर इतने उहापोह की स्थिति बनी हुई है , आखिर उसका भविष्य क्या होने वाला है भारतीय समाज में । मगर अफ़सोस कि अब तक उनकी अपेक्षित सक्रियता और प्रतिक्रिया कहीं देखने पढने को नहीं मिल रही है । खैर देर सवेर ये सामने आएगी ही ।

             एक बात और वो ये कि जो लोग इसे नारी मुक्ति से जोड कर देख रहे हैं , वे सिर्फ़ इसका एक पक्ष ही देख और दिखा रहे हैं । बेशक ये बात ठीक है कि ,कोई भी युवती विवाह के बाद  पारिवारिक स्थितियों और परिवेश में जाने के बाद बहुत सी चाही अनचाही जिम्मेदारियों और शायद मुश्किलों से भी खुद को रूबरू होता पाती है । ये सब उस संस्था को नकारने से परे किए जा सकेंगे । लेकिन क्या यही एक मात्र शर्त होगी महिला मुक्ति की । क्या महिलाएं इस सामाजिक रिश्ते से खुद को अलग करने के बावजूद , लिव इन रिलेशनशिप से उपजे किसी भी रिश्ते से खुद को अलग रख पाएगी । और सबसे बडी बात कि भारत अभी पश्चिमी समाज की तरह इतना परिपक्व नहीं हुआ है ,इसलिए ये भी देखने वाली बात होगी कि क्या भारतीय युवतियां भी एक के बाद एक बहुत से लिव इन रिलेशनशिप रखना चाहेंगी ? और फ़िर उन्मुक्तता का वही स्तर पाना चाहेंगी जो पश्चिमी समाज में उन्हें मिला हुआ है ।

      एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू को भी अभी तक नज़रअंदाज़ किया जा रहा है । कोई भी ऐसी परंपरा , कोई भी ऐसा प्रचलन यदि सिर्फ़ समाज के किसी एक छोटे से समूह तक सिमित रह जाता है तो उस स्थिति में उनकी आने वाली नस्लों के लिए जो कि जरूरी नहीं कि लिव इन रिलेशनशिप को ही या कि शादी को ही मानें । उस स्थिति में उन्हें बांकी समाज से किस तरह की दिक्कतों और विरोधों का सामना करना पडेगा अभी वो भी देखने वाली बात होगी । अभी तो ये बहस  बुद्धिजीवी गलियारों से बाहर निकल कर आम जनों के बीच नहीं पहुंचा है जब पहुंचेगा तभी पता चलेगा कि वो दुनिया कौन सी है जो इन रिश्तों के आधार पर बनाई जाने वाली है । इस मुद्दे पर आने वाली खबरों, बहसों, विवादों और विश्लेषणों पर नज़र रखना दिलचस्प होगा ॥

22 टिप्‍पणियां:

  1. पश्चिमी सभ्यता और हमारी संस्कृति में बुनियादी फर्क यही है की ये जो परिवार नाम की इकाई है , ये सिर्फ हमारे ही देश में पाई जाती है।
    पहले समलैंगिकता , फिर लिव इन रिलेशनशिप , ऐसे मुद्दों को बढ़ावा देकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
    अफ़सोस तो इस बात का है की अभी भी यहाँ ३८ % लोग गरीबी की रेखा से नीचे रहते हैं । लाखों लोग भूख से मर रहे हैं। कुछ मुट्ठी भर लोग अपनी संस्कृति को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
    याद रहे , घर अपनों से बनता है , चार दीवारों से नहीं।

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  2. जी हां डा. साहब आप बिल्कुल दुरूस्त फ़रमा रहे हैं मगर इसके पीछे कारण सिर्फ़ इतना ही है कि ये जो आपने मुट्ठीभर लोग कहा है न ..इनकी बंद मुट्ठी में ही देश के धन का बहुत बडा भाग छुपा हुआ है और वही सबकुछ कर और करवा रहा है ....
    अजय कुमार झा

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  3. मुझे भी कुछ कहना है -
    प्रकृति का जो मूल भाव/उद्येश्य है वह दो विपरीत लिंगियों में घनिष्ठ सम्बन्ध को प्रेरित कर संतानोत्पत्ति का है और चूंकि मनुष्य में वात्सल्य देखभाल जीव जगत में सबसे अधिक अवधि -वर्षों तक का है इसलिए उसने मात्र मनुष्य प्रजाति में पेयर बांडिंग को लम्बी अवधि तक बनाए रखने की जुगाड़ के तहत यौनोपहार आदि का प्रावधान कर रखा है .नारी प्रजनन की दृष्टि से सामान्यतः ४५ वर्र्ष तक सक्रिय रह पाती है -और उसकी कमनीयता भी उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख होती जाती है . संस्कृति के सच्चे कर्णधारों ने विवाह की संस्था को उत्तरोत्तर इसलिए महिमा मंडित किया है जिससे सैयां बेईमान कहीं खिसक न लें .
    मुझे लगता है यदि नर नारी आर्थिक रूप से समर्थ हों तो अलग ही रह सकते हैं -सम्बन्धों को ढोते रहने की हिमायत मैं भी नहीं करता -मगर जब लम्बे समय तक घनिष्ठ सम्बन्धों के साथ रहना ही है तो फिर विवाह की औपचारिकता निभाने में हर्ज ही क्या है -अन्यथा कुछ अलग सा सन्देश समाज में जा सकता है -यह भी की यहाँ दाल गल सकती है -और भी प्रजननोत्प्रेरित पुरुष तांक झाँक में लगे रह सकते हैं -
    विवाह पुरुष और स्त्री को सांस्क्रतिक और सामाजिक रूप से भी गहरे बाँधने -गठबंधन -का काम करता है -अनुष्ठानिक कर्मकांडों में सप्तपदी ,सात फेरे आदि का मनोवैग्यानिक दबाव भी डाला जाता है -ताकि यह बंधन फिर न छूटे-मगर आधुनिक जीवन शैली .इगो और मत्वाकान्क्षाओं ने इसमें भी दरार डालनी शुरू कर दी है ...हमें सावधान हो जाना चाहिए !
    पश्चिम के बढ़ते तलाक हमारे लिए खतरे की घन्टी है जो श्याद हमें सुनायी नहीं दे रही है . सम्बद्ध विच्छेद चाहे विवाह या फिर लिव इन के बाद हेई क्यों न हो नारी को अन्दर से बहुत खोखला कर डालते हैं -उम्र के साथ उसकी सेन्स आफ इन्सेक्योरिटी और बढ़ने लगती है -कई तो स्थायी सायिकोपैथ हो जाती हैं -हाँ आदमी नारी जीजिविषा की आपवादिक मिसाले हैं मगर वे नियम नहीं हैं .
    लिव इन रिलेशनशिप मेरी दृष्टि में भारत के लिए और मनुष्य प्रजाति के लिए भी धारणीय नहीं है .यह हमें दीगर स्तनपोषियों के व्यवहार के करीब ला देता है -स्वच्छंद कुत्तों बिल्लियों के सम्बन्ध एक तरह से लिव इन र्रिलेशंन्शिप ही तो हैं -मनुष्य की एकनिष्ठ दाम्पत्य एक उच्चतर विकसित अवस्था है जैवीय और सांस्क्रतिक दोनों दृष्टियों से ही ..क्या हम विकास क्रम को उलटने जा रहे हैं ? बहु पत्नी तथा बहु पति प्रथाएं भी समाप्त इसलिए हो रही हैं क्योंकि मनुष्य सांस्क्रतिक विकास उच्चतर स्तर पर अग्रसर है .हाँ यह मनुष्य की बहु रति प्रवृत्ति को भी शनै शंने उन्मूलित कर रही है .
    (कृपया मेरे इस मंतव्य को केवल अकादमीय स्तर पर लिया जाय -यह किसी के प्रति किसी भी बह्वना असे प्रेरित नहीं है )

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  4. आदरणीय मिश्रा जी आपने इस मुद्दे से जुडा एक अनोखा ही पहलू खोल दिया ये कह कर कि स्वच्छंद कुत्ते बिल्लियों मे व्याप्त संबंध भी एक तरह से लिव इन रिलेशनशिप ही तो है ..और मैं भी अब इस दृष्टिकोण से सोच कर देखता हूं ...आभार
    अजय कुमार झा

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  5. आदर्णिय मिश्र जी ने इस विषय की चर्चा को एक नया आयाम देदिया है. अब इसको दोनों ही दृष्टिकोण से सोचकर चलना होगा.

    रामराम.

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  6. मुझे भी कुछ कहना है -(modified)
    प्रकृति का जो मूल भाव/उद्येश्य है वह दो विपरीत लिंगियों में घनिष्ठ सम्बन्ध को प्रेरित कर संतानोत्पत्ति का है और चूंकि मनुष्य में वात्सल्य देखभाल जीव जगत में सबसे अधिक अवधि -वर्षों तक का है इसलिए उसने मात्र मनुष्य प्रजाति में पेयर बांडिंग को लम्बी अवधि तक बनाए रखने की जुगाड़ के तहत यौनोपहार आदि का प्रावधान कर रखा है .नारी प्रजनन की दृष्टि से सामान्यतः ४५ वर्र्ष तक सक्रिय रह पाती है -और उसकी कमनीयता भी उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख होती जाती है . संस्कृति के सच्चे कर्णधारों ने विवाह की संस्था को उत्तरोत्तर इसलिए महिमा मंडित किया है जिससे सैयां बेईमान कहीं खिसक न लें .
    मुझे लगता है यदि नर नारी आर्थिक रूप से समर्थ हों तो अलग ही रह सकते हैं -सम्बन्धों को ढोते रहने की हिमायत मैं भी नहीं करता -मगर जब लम्बे समय तक घनिष्ठ सम्बन्धों के साथ रहना ही है तो फिर विवाह की औपचारिकता निभाने में हर्ज ही क्या है -अन्यथा कुछ अलग सा सन्देश समाज में जा सकता है -यह भी की यहाँ दाल गल सकती है -और भी प्रजननोत्प्रेरित पुरुष तांक झाँक में लगे रह सकते हैं -
    विवाह पुरुष और स्त्री को सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से भी गहरे बाँधने -गठबंधन -का काम करता है -अनुष्ठानिक कर्मकांडों में सप्तपदी ,सात फेरे आदि का मनोवैग्यानिक दबाव भी डाला जाता है -ताकि यह बंधन फिर न छूटे-मगर आधुनिक जीवन शैली -इगो और महत्वाकांक्षाओं ने इसमें भी दरार डालनी शुरू कर दी है ...हमें सावधान हो जाना चाहिए !
    पश्चिम के बढ़ते तलाक हमारे लिए खतरे की घन्टी है जो शायद क्षद्म आधुनिकता की शोर में हमें सुनायी नहीं दे रही है . सम्बद्ध विच्छेद चाहे विवाह या फिर लिव इन के बाद ही क्यों न हो नारी को अन्दर से बहुत खोखला कर डालते हैं -उम्र के साथ उसकी सेन्स आफ इन्सेक्योरिटी और भी बढ़ने लगती है -कई तो स्थायी सायिकोपैथ हो जाती हैं -हाँ अदम्य नारी जीजिविषा की आपवादिक मिसाले हैं मगर वे नियम नहीं हैं .

    लिव इन रिलेशनशिप मेरी दृष्टि में भारत के लिए और मनुष्य प्रजाति के लिए भी धारणीय नहीं है .यह हमें दीगर स्तनपोषियों के व्यवहार के करीब ला देता है -स्वच्छंद कुत्तों बिल्लियों के सम्बन्ध एक तरह से अस्थायी लिव इन रिलेशनशिप ही तो हैं - एकनिष्ठ दाम्पत्य एक उच्चतर विकसित अवस्था है जैवीय और सांस्क्रतिक दोनों दृष्टियों से ही ..क्या हम विकास क्रम को उलटने जा रहे हैं ? बहु पत्नी तथा बहु पति प्रथाएं भी समाप्त इसलिए हो रही हैं क्योंकि मनुष्य जैव -सांस्क्रतिक विकास के उच्चतर स्तर पर अग्रसर है .हाँ यह मनुष्य की बहु रति प्रवृत्ति को भी शनै शंने उन्मूलित कर रही है .
    (कृपया मेरे इस मंतव्य को केवल अकादमीय स्तर पर लिया जाय -यह किसी के प्रति किसी भी भावना से प्रेरित नहीं है )

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  7. हम इतिहास में जा कर देखें तो हर युग में विवाहेतर लिव-इन संबंध बनते रहे हैं। एक लंबे समय तक चलने के उपरांत इस संबंध में वे सभी गुण उत्पन्न हो जाते हैं जो कि विवाह में होते हैं।
    समस्या यह है कि लिव-इन-रिलेशन संबंध में रहने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है। एसे में उस रिलेशन को कहीं न कहीं कानून के दायरे में तो लाना होगा।
    मुझे यह लगता है कि स्त्री-पुरुष विवाह के दायित्वों और अधिकारों से मुक्त रह कर संबंध बनाना चाहते हैं। लेकिन इस संबंध से संताने तो उत्पन्न होंगी ही। उन के वयस्क होने तक उन के प्रति दायित्वों का निर्धारण तो नितांत आवश्यक है। वह तभी संभव है जब कि इस संबंध को किसी भी भांति कानून के दायरे में लाया जाए।

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  8. द्विवेदी जी , जहां तक मेरी जानकारी है जिन देशों में ये लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता मिली हुई है वहां भी इस पर आधारित किसी विवाद, किसी समस्या या किसी वाद के लिए लगभग उन्हीं कानूनों का सहारा लिया जा रहा है जो शादी और पारिवारिक कानून से संबंधित है ..देर सवेर भारत में भी लिव इन रिलेशनशिप को ऐसे ही किसी कानून के दायरे में लाना ही होगा ...मगर मुझे तो लग रहा है कि अभी भी भ्रारतीय महानगरों में इस लिव इन संस्था की संख्या बहुत ही नगण्य जैसी है ।

    मिश्रा जी , जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं कि चाहे बहुत कम ही सही मगर अब पश्चिमी देशों में एक विचार वो पनपना शुरू हो चुका है जो भारतीय परंपराओं और संस्कृति को अनुकरणीय मान रहा है , ब्रिटेन में ..save virginity .....एक ऐसा ही मुहिम था ....अभी बहुत कुछ तय होना बांकी है । मगर ये तय है कि जिसका पलडा भारी होगा वओ ही संचालक समाज होगा आगे

    अजय कुमार झा

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  9. "लिव इन रिलेशनशिप" यह पहले से ही भारत मै मोजूद है, लेकिन समाज इसे अच्छी नजरो से नही देखता, बात भी सही है, प्यार क्या हजारो का दिल तोड कर किया जाता है??? नही यह प्यार नही हो सकता....
    दुसरी बात मै तो रहता ही इस पश्चिमी दुनिया मै हुं, ओर दिन रात इन्हे देखता हुं, मै क्या जो भी लोग विदेशो मै खास कर युरोप , अमेरिका ओर कनाडा मै रहते होंगे, वो इस "लिव इन रिलेशनशिप" को बहुत नजदीक से जानते होंगे... यह एक ऎश करने का खुला तरीका है, जिस मै कोई बंधन नही, एक दो या दस साल एक दुजे से प्यार किया, दिल भर गया तो राम राम, ओर इस तरह से १० , २० बार तो प्यार हो ही जाता है, ओर इस मै सब से बडा धोखा होता है महिला के संग..... मानो या ना मानो, जिसे नारी अपनी आजादी समझती है, एक दिन इसी आजादी के कारण रोती है, लेकिन तब तक सब कुछ लुट चुका होता है, अगर बच्चे हो तो वो भी ठुकरा कर कब के चले जाते है...... युरोप मै २५,३०% जोडे ही "लिव इन रिलेशनशिप" मै रहते है, ओर २ % ही १० साल से ज्यादा आगे बढ पाते है, बाकी ६ महीने से २ साल का समय भी नही निकाल पाते...
    वेसे यहां हर शुक्र वार ओर शनिवार को लोग डिस्को जाते है ओर अपने लिये एक रात का साथी ढूढते है, दुसरे दिन सुबह तु कोन ओर मै कोन?
    तो क्या इस "लिव इन रिलेशनशिप" के बाद अब इस बात की भी उम्मीद करनी चाहिये......
    मै डॉ टी एस दराल जी ओर Arvind Mishra ओर आप के लेख से सहमत हुं, हमे बचाना चाहिये इस बिमारी से अपने आने वाली पीढी को ओर आज की पीढी को

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  10. बहुत बहुत शुक्रिया राज भाटिया जी ..दरअसल इस मुद्दे पर कोई राय कायम करने के लिए आप जैसे प्रवासी भारतीयों का अनुभव और उनका विचार बहुत ही काम का सिद्ध होगा । क्योंकि आप लोग जहां भारतीय संस्कृति से भलीभांति वाकिफ़ हैं वही अब विदेशों में चल रही सभ्यता से और उसके हर अच्छे बुरे पहलू /परिणामों से भी परिचित हो रहे हैं । सुना तो ये भी है कि ..अब भारतीय शहरों मे भी वाईफ़ स्वैपिंग यानि पत्नियों की अदलाबदली तक हो रही है ...
    अजय कुमार झा

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  11. जीवन का सृजन नहीं होगा ...
    बूढों की फ़ौज होगी...
    अपवाद को नियम बनाना है क्या ?...
    क्या भारत तैयार है?....
    ...समाज में मनमानियां तो पहले भी थी....
    अब बाहर सतह पर आ रही है....
    ........सामयिक पोस्ट.....
    .भविष्य में नारियाँ शक्तिशाली होती जायेंगी ......पुरुष कमजोर होते जायेंगे...
    देखें मेरे ब्लॉग पर पूरा कमेन्ट....
    http://laddoospeaks.blogspot.com/

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  12. मुझे भी कुछ कहना है -
    प्रकृति का जो मूल भाव/उद्येश्य है वह दो विपरीत लिंगियों में घनिष्ठ सम्बन्ध को प्रेरित कर संतानोत्पत्ति का है और चूंकि मनुष्य में वात्सल्य देखभाल जीव जगत में सबसे अधिक अवधि -वर्षों तक का है इसलिए उसने मात्र मनुष्य प्रजाति में पेयर बांडिंग को लम्बी अवधि तक बनाए रखने की जुगाड़ के तहत यौनोपहार आदि का प्रावधान कर रखा है .नारी प्रजनन की दृष्टि से सामान्यतः ४५ वर्र्ष तक सक्रिय रह पाती है -और उसकी कमनीयता भी उत्तरोत्तर ह्रासोन्मुख होती जाती है . संस्कृति के सच्चे कर्णधारों ने विवाह की संस्था को उत्तरोत्तर इसलिए महिमा मंडित किया है जिससे सैयां बेईमान कहीं खिसक न लें .

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  13. लिव इन रिलेशनशिप याने सम्बन्ध बना के रहना सम्बन्धित होना नही दूसरे शब्दों मे रिश्ता नाम की चीज नही। शायद हमारे देश मे सभ्यता और संस्कृति जो अभी कुछ हद तक कह सकते हैं जीवित है उसे यह संक्रामक रोग का शिकार बनाने आ रही है ऐसा प्रतीत होता है. इस पर सम्मानीय ब्लागरों की टिपण्णी से सहमत.

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  14. निश्चित ही इस विषय पर चल रही बहस और लेखन रोचक है. बस, अभी नजर रख रहा हूँ. कुछ विचार जोड़ पाया तो जरुर लिखूंगा.

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  15. @झा जी
    मैं एक महानगर में रा रही हूँ और मैंने ऐसे कई रिश्तों पर करीब से नज़र डाली है .....यह रिश्ते हर रश्ते की तरह एक दौर से गुज़रते है शुरुवात में दोनों को सामंजस्य बैठाने में काफी समय लगता है,सबसे आश्चर्य की बात होती है पुरुष का व्यव्हार घर के काम में हाँथ बटाने से लेकर पूरे समय काफी सहयोगात्मक रवैया .. अगर ऑफिस से जल्दी आ गए तो खाना भी तैयार कर देते है .. तानाशाही वाला रूप "ये लाओ ,ये करो ,वो क्यों नहीं हुआ आदि आदि ..गायब ...सहजीवन में पति पत्नी के बजाय साथ सहचर के रूप में रहते है......पर समय बीतने पर अगर दोनों महसूस करते है वो एक साथ जीवन बिता सकते है तो शादी ........ वरना अलग अलग राहें
    शादी की तरह एक ही पक्ष से सारी अपेक्षाए नहीं होती इस रिश्ते में ..समाज का तो नहीं पता पर नारी को पूरा अधिकार मिलता है

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  16. मिश्रा जी ने जो कहा कुत्ते बिल्लियों के बारे में वह सही नहीं है . मानव जितना उत्त्श्रिंखल कोई जीव नहीं होता . पशु वैज्ञानिकों ने यह देखा है की कुत्तो में भी एक सीमित यौन संबंध होता है .
    पश्चिम के एक जाने माने यौन विशेषज्ञ का यह मानना है की स्वभावतः मनुष्य एक polygamous जीव है .समय और काल के चलते धरती के कुछ क्षेत्रों में परिसतिथीजन्य, विवाह जैसी संस्था का जन्म हुआ और समय और काल ने इसे बहुमत से स्वीकार कर लिया . क्योंकि ऐसा ना होने से संघर्ष की अवस्था बढ़ जाती . लेकिन धीरे धीरे जब से पैसे का प्रभाव बढ़ने लगा यह संस्था भी दागित हुई है .
    "मनुष्य वही करता है जो उसका दिमाग सोच सकता है "

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  17. @ सोनल जी ,
    आपने कहा कि इन रिश्तों में नारी को पूरी स्वतंत्रता होती है ..शायद मुकाबले विवाह संस्था के ...मगर आपने जो उदाहरण दिए वो बहुत ही तार्किक से नहीं लगे । मैं खुद ऐसे बहुत से परिवारों और खुद अपने आपको देखता हूं तो वही समर्पण पाता हूं । मुझे इस लिव इन की सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात ये लग रही है कि सब कुछ जैसे सिर्फ़ और सिर्फ़ दैहिक संबंधों पर आधारित करके सोचा और किया जा रहा है । देखना ये है कि आने वाले समय में ये प्रवृत्ति किस कदर प्रभावित कर पाती है समाज को ।

    डा. महेश जी ,
    आपकी प्रतिक्रिया से सहमत हूं , मगर शायद डा अरविंद जी कहना यही है कि यदि यौन स्वच्छंदता के लिए ही इन रिश्तों को मान्यता दी जा रही है तो फ़िर तो पशुवत ही है ॥आप दोनों का आभार

    अजय कुमार झा

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  18. @झा जी
    विषय बोल्ड है ,आज की नारी शिक्षित है,उसको अपना भला बुरा अच्छी तरह पता है ...किसी ने ये सोचा सब जानकर भी नारी सहजीवन में क्यों जा रही है ,पुरुष का समझ में आता है है उसके पास खोने को कुछ नहीं है ... कुछ तो आकर्षण या ऐसा कुछ होगा तो वो ऐसे रिश्ते से जुड़ रही है..मैंने थोड़ा बहुत जो भी पढ़ा है भारत में पुराने समय से कबीलों और कुछ जातियों में ...विवाह पूर्व समबंध, या बिना विवाह साथ रहना गलत नहीं है.... रांगेय राघव जी के "कब तक पुकारूँ " में भी उदाहरण है

    रही बात दैहिक संबंधों की ....तो नारी को हमेशा से इस्तेमाल करते आये है .. बिना सहमती के किया गया अपरिचित/परिचित द्वारा बलात्कार ,या विवाह के बाद जबरदस्ती होने स्थापित होने वाले सम्बन्ध ..नारी की नैतिकता और समाज के प्रति जिम्मेदारी के बड़े बड़े निबंध पढ़ती आ रही हूँ ...पुरुष की नैतिकता के बारे में भी उतने खुले मन से चर्चा कीजिये क्षमा कीजिएगा ...सारी चर्चा एकतरफा है . एक भी लेख पुरुष को संयम बरतने की सीख देता नहीं देखा मैंने, अगर कोई नारी अपनी मर्जी का जीवन जीना चाहती है तो उसके शुभचिंतक चारों ओर से घेर लेते है .
    मेरा अनुभव कम है पर मेरी वय में मैं जो महसूस कर रही है मैंने वो लिखा है ... आज की नारी में ना संस्कारों की कमी है ना समझदारी की . विवाह संस्था से मन उचटने का कोई तो कारण होगा...विचार करे
    हो सकता है मेरे विचार तार्किक ना लगे पर नारी ने कभी किसी रिश्ते को तर्क की कसोटी पर नहीं परखा..अगर परखा होता तो शायद परिवार प्रथा का कभी का अंत हो गया होता....नारी प्रेम चाहती है प्रेम के बदले.

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  19. सोनल जी ,
    आप एक महिला होने के नाते इस बात को जितने बेहतर तरीके से रख सकती थीं शायद एक पुरूष होने के नाते मैं खुद नहीं रख पाता, मगर मुझे लगता है कि एकांगी दृष्टिकोण आपने ही रखा है , मैंने तो अपने लेख में कहीं भी इस बात को नहीं रखा , आप खुद ही बताईये कि domestic violence act किनके सरंक्षण के लिए बना और किनसे सुरक्षा के लिए बना ,,महिलाओं के लिए और पुरूषों से सुरक्षा हेतु हालांकि इसके दायरें में परिवार की अन्य महिलाएं भी आती हैं मगर मुख्यतया ये बना तो उनके लिए ही है । और फ़िर सबसे बडी बात जो मैं बार बार कह रहा हूं वो यही तो है कि यदि जिसका पलडा भारी होगा वही आगे जाकर संचालक शक्ति होगी , और समाज की दिशा तय करेगी । ये तो आप महिलाओं को ही देखना है कि आगे का भविष्य आपको कैसा चाहिए ...मगर हां ...आपकी संख्या इतनी जरूर हो कि वो अलग थलग वाली स्थिति न रहे । यदि इससे वास्तव में ही नारी मुक्त हो सकती है तो अभी से शुभकामनाएं सबको । वैसे मैं कभी नहीं चाहूंगा कि मेरे परिवार में से कोई इस रिश्ते को कभी भी निभाना चाहे

    अजय कुमार झा

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  20. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  21. @ झा जी, अरविंद मिश्रा जी, सोनल जी
    इस विषय पर एक छोटी सी टिप्पणी देना मुझे गवारा नही हुआ, सो आप ही की बात को आगे बढ़ाते हुए एक पोस्ट को ही टिप्पणी के रूप में रख रहा हूं। मुझे लगता है कि इस संदर्भ में भी बात की जानी चाहिए...

    सवाल : विवाह संस्था, लिवइन रिलेशन या स्वतंत्रता
    http://khalish-inmythought.blogspot.com/2010/04/blog-post.html

    जवाब देंहटाएं

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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