कहते हैं कि समय पंख लगा के उडता है , पता नहीं सच है कि झूठ मगर मां के देहांत को एक साल पूरा भी हो गया , अभी तो लगता है जैसे कि अभी किसी दिन अचानक फ़ोन आएगा, बेटा कितने दिन हो गए तूने फ़ोन नहीं किया ,बेटा पापा की दवाई खत्म हो रही है या फ़िर कोई और बात । मगर नहीं सब खामोश , मां के देहांत के बाद तो ऐसा लगा कि जिंदगी की असली परिभाषा ही सामने आ गई । बहुत करीब से किसी अपने की मौत ने बहुत कुछ सिखा समझा दिया था । पिताजी की मानसिक हालत पहले से ही बहुत ठीक न होने के कारण हमारी अभिभावक की भूमिका में मां रही थीं । अपनी शादी के लायक और सबसे काबिल संतान( मेरी दीदी) को खोने के बहुत समय बाद तक तो जैसे मां एक दम टूट सी गई थी ।मगर फ़िर हम दोनों के लिए उन्होंने खुद को संभाल लिया और हमसे ज्यादा पिताजी के लिए । मां का जाना हमारे लिए ऐसा ही था जैसे अपने घोंसले का उजड जाना । खैर नियति के आगे कब किसकी चली है जो हमारी चलती ।सबसे पहले हम सभी पारिवारिक लोगों ने बाल कटाने/नाखून कटाने ,और महिलाओं के लिए निर्धारित कुछ विशेष कार्यों को पूरा किया गया । इसके बाद श्राद्ध और बरसी जैसे कर्मों को करवाने वाले विशेष पंडितों जिन्हें हमारे यहां "महापात्र " कहा जाता है उन्हें बुलावा भिजवाया गया । उन्होंने आकर सारा पूजा कर्म संपन्न करवाया । बदकिस्मती से उसकी कोई भी फ़ोटो कई कारणों से उपलब्ध नहीं हो पाई जिसमें से एक था मेरे खुद का पूजा पर बैठा होना ॥
बरसी में हमारे यहां मुख्य रूप से ये कार्य होते हैं एक तो बरसी पर माता जी की आत्मा की शांति के लिए मिथिलांचल के अनुसार निर्धारित पूजा , कर्म ,इत्यादि और उसके बाद सामूहिक भोज । इस भोज का हमारे मिथिलांचल के किसी भी शुभ और अशुभ अवसर के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही खास महत्व है । और शायद ये सदियों से रहा है । आपको जानकर ये बहुत आश्चर्य हो कि कुछ खास संस्कारो/समारोहों/अवसरों के लिए तो इन भोजों में खाने परोसने के लिए भी अलग अलग व्यवस्था और प्रकार निर्धारित हैं । इस सामूहिक भोजन की कहानी भी बहुत ही रोचक और शायद आज शहरी समाज को एक बहुत बडी सीख देने वाली साबित हो । सबसे पहले ग्रामीण आपस में ये तय करते हैं कि मेजबान किस तरह का कैसा भोजन सबको कराना चाहते हैं । उसी के अनुरूप सभी खरीददारी की जाती है । और यहां ये बता दूं कि अभी भी जबकि इतनी ज्यादा खेती बाडी रही नहीं तब भी अभी भी दाल चावल, सब्जी, दूध दही आदि सब कुछ गांव के अपने लोगों द्वारा ही एक दूसरे को उपलब्ध कराया जाता है ।
सारी सामग्री इकट्ठी होने के बाद गांव की महिलाओं का काम शुरू होता है । सभी सब्जियों को धो कर अच्छी तरह साफ़ करने के बाद उन्हें बहुत ही बढिया तरीके से अलग अलग करके काटना । काटने के लिए जरूरी सामान , चाकू, हंसिया, या और भी कुछ वे सब अपने अपने घरों से ही ले कर आती हैं । इसके बाद बांकी का सारा काम , यानि उस सामान को पकाना और शाम के भोज के लिए उसे सलीके से रखना । सुबह से ये काम शुरू होता है और सबसे अधिक कमाल की बात ये होती है कि समय की सीमितता का पूरा ख्याल रखते हुए वे इतने कमाल के तरीके से सारा काम निपटा लेते हैं कि कुछ पता ही नहीं चलता । इसके बाद सामूहिक भोज ( रात्रि हो जाने के कारण सामूहिक भोज के चित्र बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं आ सके ) में परोसने से खाने और खाने के बाद झूठन की सफ़ाई तक का सारा काम सब आपस में ही करते हैं । और एक बात और इन सामूहिक भोजों में उपयोग में आने वाली सभी वस्तुएं, मसलन , बडी दरियां, बरतन, पेट्रोमेक्स लाईटें आदि भी आपसी सहभागिता से हो जाती हैं ।
मैं सोचता हूं कि क्या कभी ये आपसी सहभागिता/ ये सामाजिक गठबंधन की भावना / या आप इसे और जो भी नाम देना चाहें ........आज के नगरीय जीवन में संभव है .......??

















