सोमवार, 24 दिसंबर 2007

किताबों से दोस्ती

क्या आपको वे दिन याद हैं , अपने बचपन के जब हम सब शायद आप भी चंदामामा, चंपक , बालभारती, चीतु-नीतू ,और पता नहीं कौन कौन से सबके कितने दीवाने हुआ करते थे । उसके बाद दौर आया कॉमिक्स का वेताल, मेंद्रक, लंबू छोटू, नागराज , और भी ढेर सारे हाँ चाचा चौधरी भी, इस कॉमिक्स के दौर ने तो जैसे सभी बच्चों को बाँध कर रख दिया था। स्कूल की लिब्ररी तक में ये पुस्तकें और कॉमिक्स मंगाये जाती थी।
सोचता हूँ कि काश आज के बच्चों को भी वही सब मिल पाटा , लेकिन क्या ये आज कल के बच्चे जो मोबाईल और इंटरनेट से चिपके रहते हैं उन्हें कॉमिक्स बाँध सकते थे अपने मोह में मगर ये भी तो एक कड़वा सच है कि आज बाल साहित्य के बारे में किसी को कोई चिंता नहीं है , कौन आज सोच रहा है कि बच्चों को क्या मिलना चाहिए और क्या नहीं मिलना चाहिए । हाँ हाल ही में स्कूल शूट आउट वाले हादसे के बाद थोडे दिनों तक ये शोर जारूर मचेगा और फिर सब शांत ।


खैर , मैं इससे अलग एक बात और ये करने आया हूँ कि आज आप हम में से कितने लोग ऐसे हैं जो किताबें पढ़ने का शौक रखते हैं। मैंने शौक सह्ब्द इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि किताबें पढ़ने का जूनून या आदत तो अब सिर्फ उन लोगों में ही बची है जो या कि जिनका लगाव साहित्य जगत के साथ है। हालांकि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ये सारे शौक या आदतें खुद बा खुद आती हैं इन्हें पैदा नहीं किया जा सकता लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता । मैं जब कोल्लेज में था तो जानते हैं मेरी पसंद की किताबें कौन सी होती थी, जी हाँ वही २० -२० रूपये में मिलने वाली वेदप्रकाश शर्मा जी, कर्नल रणजीत के उपन्यास, यदि आप खरीद कर नहीं पढ़ना चाहते तो उन दिनों ये किताबें १ रूपये प्रतिदिन के किराए पर मिल जाया करती थी। नहीं ऐसा नहीं है कि ये किताबें कोई गलत किताबें थी या कि मुझे उन्हें पढ़ने का कोई अफ़सोस है। मगर कालांतर में जब मेरा दायरा बढ़ा तो मेरा परिचय हिन्दी साहित्य ,जिसे विशुद्ध हिन्दी साहित्य ,अंगरेजी साहित्य ,से हुआ। संयोग ऐसा था कि जो पहली किताब मुझे पढ़ने को मिली वो थी धर्मं वीर भारती कि "गुनाहों का देवता" , मेरे ख्याल से यदि किसी को हिन्दी साहित्य के प्रति शुरुआत करवाने हो तो इस से बेहतर किताब दूसरी कोई और नहीं हो सकती । इसके बाद तो जैसे ये एक अनथक सिलसिला शुरू हो गया। राजधानी में रहने के कारण एक ये फायदा और भी हुआ कि शुरू से अब तक सभी दिल्ली पुस्तक मेलों में मैं शामिल हो सका। आज मेरी अपनी लाईब्ररी में लगभग ४०० हिन्दी अंग्रेजी कि पुस्तकें हैं । शिवानी ,प्रेमचंद , हरिवंस्रै बच्हन,नागार्जुन, खुस्वंत सिंह और भी बहुत सारे लेखकों की किताबें हैं।



मैंने ये भी अनुभव किया है कि आपकी कताब पढ़ने की आदत का प्रभाव आपके चरित्र ,आपकी भाषा, आपकी लेखनी, आपके माहौल सब पर पड़ ही जाता है । किसी यात्रा पर निकलूं या कभी घर पर अकेला रहूँ तो किताबें मेरा अच्छा साथ निभाती हैं। हालांकि मैंने हमेशा यही कोशिश की है कि मेरे आसपास जो लोग हैं उन्हें भी पढ़ने का शौक हो मगर कभी कभी तब तकलीफ होती है जब लोग किताबें माँग कर ले तो जाते हैं मगर वापस ही नहीं करते। कुछ एक किताबें तो मुझे दोबारा कह्रीद्नी पडी हैं।

तो आप क्या करते हैं, क्या आप भी किताबें पढ़ते हैं.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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