बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

हिलता-डुलता चौथा खम्भा

कल की सबसे बड़ी ख़बर यही थी की शाहरुख़ खान का ऑपरेशन सफल रहा। कमाल है, सवा अरब की जनसंख्या वाले देश की सबसे बड़ी ख़बर यही थी। यकीनन शाहरुक आज उस मुकाम पर हैं जहाँ की उनसे जुडी हर ख़बर एक ख़बर ही है, पर क्या यही इकलौती ख़बर है। ऐसा भी नहीं है की मीडिया ने ये कारनामा पहली बार किया है। सच तो ये है की आज एलोक्त्रिनिक मीडिया का स्वरुप और कार्यशैली ही कुछ ऐसी बन चुकी है की एक आम आदमी भी सोचने पर मजबूर है की इन चैनल वालों के पास समाचार के आलावा सब कुछ है।

अभी कुछ समय पूर्व बीबी सी हिन्दी सेवा द्वारा कराये गए एक सर्वेक्षण में ६७ प्रतिशत लोगों ने माना की भारतीय मीडिया दिशाहें है। विवादित और सनसनी पैदा करने वाली ख़बरों के पीछे भाग रहा है। कई लोगों का विचार तो ये था की बहुत से मामलों में तो मीडिया स्वयं ही ख़बरों को विवादित और उत्तेजना से भर कर पेश करता है, जो एक हद तक सच भी लगता है। अफ़सोस की आज समाज के हरेक वर्ग और पेशे में व्याप्त हो रही कुरीतियों से मीडिया भी ख़ुद को बचा नहीं पाया है।

भारतीय एलेक्रोनिक मीडिया का सबसे बड़ा दोष है समाचारों की संवेदनशीलता और परिणाम को ना भांपते हुए, महज आगे रहे की होड़ में शामिल रहना। हलाँकि विश्लेषक बताते हैं की इसका कारण ये है की सभी समाचार चैनलों को चौबीस घंटे समाचार प्रसारित करने होते है। उस समय तो सब ठीक रहता है जब वास्तव में कुछ घटित होता है। स्थिति तब ख़राब हो जाती है जब सचमुच कुछ ऐसा न हो रहा हो जो आम लोगों से जुदा और समाचार बनने लायक हो। ऐसे में जबरन ख़बर बनने और समाचारों को जमन देने के लिए मीडिया जो कुछ भी करता है वह अक्सर नैतिकता को परे रख कर किया जता है।

आज समाचार चैनलों के सम्पादक और थिंक टैंक इतने अक्रियाशील हो गए हैं की विषयों के चयन से लेकर समाचार सम्पादन तथा कार्यक्रमों के निर्माण तक में मौलिकता तो दूर सिर्फ़ नक़ल और एक ही शैली पर चलते जाने का प्रचलन सा बन गया है। हद तो ये है की अपराध आधारित कार्यक्रमों को बनाने परोसने में विभिन्न समाचार चैनलों ने सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया है। समाचार चैनलों में व्याप्त बेतरतीबी का एक मुख्या कारण है व्यावसायिक दबाव। यानि हमेशा मुनाफे का कारोबार करने वाली ख़बरों की तलाश। टी आर पी की लम्बी उछल देने के लिए घटनाओं की प्रतीख्सा करते समाचार चैनल । एक सर्वेक्षण के मुताबिक नियमित दर्शकों में से लगभग ४२ प्रतिशत लोग अपराध समाचारों और ऐसी ही ख़बरों को देखना पसंद करते हैं,

मगर अब समय आ गया है की मीडिया को अपने चौथे स्तम्भ वाली भूमिका को निभाना चाहिए.

3 टिप्‍पणियां:

  1. मगर अब समय आ गया है की मीडिया को अपने चौथे स्तम्भ वाली भूमिका को निभाना चाहिए....बहुत सटीक बात....समझ में नहीं आता है कि क्‍या इसी दिन के लिए हमारे वैज्ञानिको ने इतनी महत्‍वपूर्ण खोज की थी ?

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  2. sangeeta jee, bahut bahut dhanyavaad. afsos yahee to hai aur hakeekat bhee ki inmein bhee to ham aap jaise samaaj se aaye log hee hain.

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  3. ajay ji apka lekh padha tarif ke kabil hai...
    mai khud media se juda hu...

    media ki dhar kund pad chuki hai to usaka asali wajah aur kuch nahi lalashahi hai aur vadambana ya hai ki koi uske khilaf muh na kholna chahata..
    agar media ke swarup ko bachana hai to sabse pahle jaruri hai us lala-shahi k khilaf awaj uthana..
    aaj koi b bada editor in chief CM ua PM ke cabin me ghusane se na dare par us lala malik k cabin me ghusane me uski b halat patali hoti hai.... kayi udaharan hai aise.... gaur kijiye jara charo taraf....
    shubhkamnaye aapke lekhan ke liye....

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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