शनिवार, 26 अप्रैल 2008

चिट्ठाकारी से दूर कुछ दिन

कुछ माह पहले जब मैंने ये ब्लोग्गिंग शुरू की थी तब ये सोचा नहीं था की इतनी ज़ल्दी ये एक आदत या कहूं की लत सी बन जायेगी जिसे एक तरह से लोग addiktion कहते हैं। अब ऐसा सबके साथ होता है या की फ़िर सिर्फ़ मेरे साथ हुआ ये तो पता नहीं , मगर ऐसा लगने लगा था की यदि आज कोई पोस्ट नहीं लिखी या फ़िर की आज किसी भी वजह से थोड़ी देर भी ब्लॉगजगत पर नहीं बिताया, किसी को पढा नहीं किसी को कोई तिप्प्न्नी नहीं की तो एक खालीपन , एक सूनापन , एक बेचैनी से महसूस करने लगता था मैं। और बहुत सारे मित्रों और करीबी लोगों की नाराजगी झेलने के बावजूद ब्लोग्गिंग का साथ नहीं छूट रहा था, मैं चाहता भी नहीं था की किसी भी वज़ह से ये सिलसिला रुके। मगर कहते हैं न की सब कुछ अपने सोचे नहीं होता। तब मुझे ही कहाँ पता था की इतने दिनों तक मैं ऐसा फंस जाऊँगा की अलग अलग कारणों से कि लिखना तो दूर पढ़ना या फ़िर कि तिप्प्न्नी करना भी भारी पडेगा।

पहले किसी कारणवश सपरिवार यहाँ से बाहर जाना हुआ, वहाँ पर अपेक्षा से ज्यादा समय लग गया, मगर शुक्र था कि जल्दी न सही मगर लौटना तो हुआ जिसकी खुशी मैंने अपने पिछले पोस्ट के माध्यम से आप सब के साथ बाँटीं भी थी । लेकिन हाय , रे मेरी किस्मत अभी ठीक से यहाँ आया भी नहीं था कि घर से फोन आ गया कि माता जी की तबियत kहराब है फौरन घर आओ। और माता जी या बाबूजी से संबंधित कोई भी बात मेरे लिए तेलेग्त्राम के समान होती है, सर बोरिया बिस्तर बांधा और भाग लिया। उन्हें गठिया की परेशानी है , खैर अब पता नहीं कितने दिनों बाद lऔता हूँ तो बहुत कुछ सोचने लगा।

मुझे ऐसा लगने लगा था कीलगातार यहाँ ब्लॉग जगत पर लिखने के कारण मेरी लेखनी और मेरे विचारों में एक सीमितता सी आ गयी थी । मैं जो सप्ताह में कई बड़े बड़े लेख और कई कहानियां , व्यंग्य आदि जो सब लिखने रहता था वो सब यदि पूरी तरह बंद नहीं तो शिथिल तो जरूर ही पड़ गए थे। मेरे कहने का मतलब की मेरी सोच सिर पोस्ट के हिसाब से , यहाँ पर जगह और समय के हिसाब से थोड़ी संकुचित सी हो रही थी। हालांकि द्विवेदी जी सहित कुछ मित्रों ने सलाह भी दी थी की ये जरूरी नहीं की रोज़ रोज़ थोडा लिखा ही जाए । दिमाग को यदि थोडा आराम देने से कुछ बेहतर पकता है तो उसे आराम करने दो । अब जाकर समझ आया। एक दूसरा ख्याल ये आया की ये जरूरी नहीं की एक ही पोस्ट में सारी बात या कहूं की एक ही दिन सारी बात कह डालूँ सो तय किया है की अब यदि कोई बड़ी और लम्बी बात कहनी होगी तो उसे टुकडों में कहूंगा।

चिट्ठाकारी से कुछ दिनों की दूरी मुझे आखरी तो बहुत मगर बहुत कुछ पता भी चल गया , विशेष कर ये बात की चलो यदि कभी मजबूरी में कभी थोड़ी दूरी हो भी जाए तो नयी उर्जा और नयी सोच के साथ वापसी और भी ज्यादा आनंद देती है। वैसे फिलहाल तो अपना जमे रहने का इरादा है.

3 टिप्‍पणियां:

मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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