गली से गुजरते हो,
रोज़,
घर कभी, क्यूँ...
आते नहीं......
और ,
जब भी , लेते हो ,
वादा ,हमसे ,आने का,
कभी, अपना , पता ,
बताते नहीं...
ये जो , आँखों का,
सुरुर है.....
साकी का ,
कुसूर है,
प्याले कभी ,
बहकाते नहीं....
वो, कत्ल करके,
हमसे ,करते हैं ,
शिकायत , हम ,
जख्म , क्यूँ उनके,
सहलाते नहीं.....
काश कि,
मैं भी , बन पाता,
पाषाण ,बुत सामान,
तो हादसे , मुझे भी,
तड़पाते नहीं......
क्यूँ ,उम्मीद
लगाते हो उनसे ,
अधिकार पाने की,
जो कभी, हक़ ,
तुम्हारा दिलाते नहीं......
नाहक चिंतित हो अजय
जवाब देंहटाएंघर अगर आए
और वहीं ठहर गए
तो गली से गुजरना
हो जाएगा बंद
तो वो बंद हम करना चाहते नहीं
इसलिए घर बिन बुलाये आते नहीं
वाह अजयजी बहुत भावमय कविता है
जवाब देंहटाएंक्यों उमीद लगाते हो उनसे
अधिकार पाने की
जो कभी हक तुम्हारा दिलाते नहीं
लाजवाब बधाई
अच्छी रचना है।
जवाब देंहटाएंbadhiya rachana . badhai ajay ji .
जवाब देंहटाएंaap sab hamaaree gali aaye aur ghar bhee rachnaa pasand kee....dhanyavaad....sneh aur saath banaaye rakhein...........
जवाब देंहटाएंbahut badhiya
जवाब देंहटाएंvery touching...wo katal karke humse karte hai shikayat....yeh achhi rahi...khab me mere tute or saza bhi mujhe mile....
जवाब देंहटाएंस्पर्शी रचना है
जवाब देंहटाएंaap sabkaa bahut abahut aabhaar padhne aur saraahne ke liye.....
जवाब देंहटाएंbahut achhe ajay ji, achha likhate ho aap.
जवाब देंहटाएं