शुक्रवार, 29 मई 2009

गली से गुजरते हो, रोज़

गली से गुजरते हो,
रोज़,
घर कभी, क्यूँ...
आते नहीं......

और ,
जब भी , लेते हो ,
वादा ,हमसे ,आने का,
कभी, अपना , पता ,
बताते नहीं...

ये जो , आँखों का,
सुरुर है.....
साकी का ,
कुसूर है,
प्याले कभी ,
बहकाते नहीं....

वो, कत्ल करके,
हमसे ,करते हैं ,
शिकायत , हम ,
जख्म , क्यूँ उनके,
सहलाते नहीं.....

काश कि,
मैं भी , बन पाता,
पाषाण ,बुत सामान,
तो हादसे , मुझे भी,
तड़पाते नहीं......

क्यूँ ,उम्मीद
लगाते हो उनसे ,
अधिकार पाने की,
जो कभी, हक़ ,
तुम्हारा दिलाते नहीं......

10 टिप्‍पणियां:

  1. नाहक चिंतित हो अजय
    घर अगर आए
    और वहीं ठहर गए
    तो गली से गुजरना
    हो जाएगा बंद

    तो वो बंद हम करना चाहते नहीं
    इसलिए घर बिन बुलाये आते नहीं

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  2. वाह अजयजी बहुत भावमय कविता है
    क्यों उमीद लगाते हो उनसे
    अधिकार पाने की
    जो कभी हक तुम्हारा दिलाते नहीं
    लाजवाब बधाई

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  3. aap sab hamaaree gali aaye aur ghar bhee rachnaa pasand kee....dhanyavaad....sneh aur saath banaaye rakhein...........

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  4. very touching...wo katal karke humse karte hai shikayat....yeh achhi rahi...khab me mere tute or saza bhi mujhe mile....

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  5. bahut achhe ajay ji, achha likhate ho aap.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला