"अहि बेर गाम में आम खूब फ़रल अईछ , भोला भईया "(इस बार गांव में आम खूब फ़ले हुए हैं , भोला भईया ), जैसे ही फ़ोन पर चचेरे भाई ने ये कहा मैं हुलस पडा , ये जानते हुए भी कि उन आमों के स्वाद तो स्वाद इस बार तो उनकी सूरत भी देखने को नसीब न हो । और इस बार ही क्यों अब तो जमाना हो गया जब आम के मौसम में गांव जाना हुआ हो । और फ़िर अब आम ही कौन सा पहले जैसे रहे , वे भी हर दूसरे साल आने की बेवफ़ाई वाली रस्म ही निभाने में लगे हुए हैं , उसकी भी कोई गारंटी नहीं है । मगर जब चचेरे अनुज ने ये कह कर छेड दिया, तो फ़िर अगले दस मिनट तक तो फ़ोन पर आमों का ही ज़ायज़ा लिया गया । किस किस बाग में कौन कौन से आम फ़ले हैं , पिछले दिनों जो अंधड तूफ़ान आया था उसमें कितना नुकसान हुआ । फ़ोन करके जब बैठा तो अनायास ही वो आमों की दुनिया और उसके बीच पहुंचा हुआ मैं , बस यही रह गए कुछ देर के लिए ।शहरी जीवन में रहते हुए जो सबसे बडा नुकसान होता है वो होता है कि आप प्रकृति को सिर्फ़ चित्रों और चलचित्रों , टीवी , इंटरनेट पर ही देख सकते हैं , । आज के बच्चों से यदि पूछा जाए कि आम के लीची के , केले के , संतरे के , नींबू के मिर्च के टमाटर के , और इन तरह के तमाम पेड पौधों को असल में कभी देखा है तो उनका उत्तर स्वाभाविक रूप से न में ही होता था । हम पहले के बच्चों की एक खुशकिस्मती तो जरूर ये रही कि हमें , हम जैसे मां बाप नहीं मिले जो ग्राम प्रवास को भी किसी ट्रैवेल ट्रिप की तरह आरामदायक और सुकूनदेह की तरह का निश्चिंतता नहीं पाकर वहां जाने का कार्यक्रम टाल जाते थे । वे तो साल भर किसी न किसी बहाने खुद भी और हमें भी गांव ले जाने की जुगत में लगे रहते थे । और हम बच्चे भी तब शायद मिट्टी , पानी , पेड , बारिश, से ज्यादा प्यार किया करते थे।आम का एलबम मेरे जीवन में शायद बहुत बचपन में ही खुल गया था । ये तो यकीनी तौर पर कहना जरा कठिन है कि उन दिनों आम के पेड , नानी के गांव में ज्यादा थे या दादी के गांव ( आज जरूर कह सकता हूं कि दोनों ही गांव में अब आधे भी नहीं रहे , नहीं बचे ) मगर शहरी बच्चों को ये छूट थी कि बिना ये सोचे , ये परवाह किए कि वो आम के बगीचे किसके हैं , (उनके भी जिनसे पिछले दिनों हमारे घरवालों की नोक झोंक हुई हो और बातचीत तक बंद हो तो भी , कोई फ़र्क नहीं पडता था , न उनके लिए न हमारे लिए ) , हमें जो जहां जैसा दिखता था हम घुस पडते थे । और रही बात आम के प्रकार की । तो मोटे तौर पर हमें आम की नस्ल के बारें में दो बातें बताई गई थीं । एक आम के पेड कलमी हुआ करते थे और दूसरे जिन्हें शायद "सरही "कहा जाता था । कलमी बडे , मीठे , और सलीकेदार आम हुआ करते थे , उन्हें बाकायदा कलम के द्वारा तैयार किया जाता था और फ़िर बहुत तगडी देखभाल के साथ पाला पोसा जाता था । जबकि इसके ठीक उलट सरही आम वो होते थे जो इन कलमी आमों की गुठली को मिट्टी में रोप दिए जाने से निकलते थे । और उन आमों में ऐसे ऐसे प्रयोग होते थे कि बस पूछिए मत ।इन प्रयोगों का परिणाम ये होता था कि सरही आमों की कम से कम पच्चीस हज़ार प्रजातियां , उनका गंध , स्वाद भी बिल्कुल अलग अलग , उनकी शक्ल सूरत भी बिल्कुल अनोखी किसी का मुंह लाल है तो किसी का पिछवाडा , कोई आम ऐसा जो मुट्ठीमें समा जाए , तो कोई ऐसा जो लौकी के आकार और साईज़ का , एक में रेशे ही रेशे , तो एक में सिर्फ़ रस ही रस , एक में छिलका इतना पतला कि ....अब क्या क्या कहा जाए किस किस के बारे में । वो आमों का मौसम भी कमाल हुआ करता था । मेरे ख्याल से आमों की चौकीदारी का समय तब से शुरू हो जाता था जब उनमें गुठलियों का आना शुरू हो जाता था । आमों के बगीचे में सबके अपने अपने बाग होते थे इसलिए सभी वहीं पर अपनी अपनी खटिया लेकर वहां पूरे साजो सामान के साथ डट जाते थे ।इतना ही नहीं बाकायदा , दो तीन महीनों के लिए एक कुटिया बनाई जाती थी जो इतनी मजबूत और सुरक्षित होती थी कि धूप बरसात आदि से मजे से बचाव होता था उनमें । दिन में सब के सब बैठ के गप्पें हांक रहे हैं , गीत गा रहे हैं , और झूले भी खूब डलते थे । मानो पूरा परिवार ही वहीं जम जाया करता था , खासकर बच्चे ।गर्मी की रातों में अचानक धूल भरी आंधियां और फ़िर बारिश । ये एक अघोषित सा नियम था कि इस अंधड तूफ़ान में टपकने वाले आमों पर , जो लूट सके उसका , वाला फ़ार्मूला लागू होता था । बस वो स्पर्धा तो देखने वाली होती थी । सुबह जब मौसम साफ़ होता था तो अपना अपना स्कोर कार्ड सब दिखाते समय जितने गर्व भरे होते थे उतने तो सहवाग और तेंदुलकर भी नहीं होते सैंचुरी पार्टनरशिप करने पर भी । आमों का उपयोग भी कमाल ही था । अलग अलग साईज़ ,अलग अलग स्वाद के हिसाब से , अचार , चटनी , मुरब्बे , खटमिट्ठी , आम पापड जिसे हम लोग आम तौर पर अम्मट कहते थे , के अलावा कच्चे आम नमक के साथ और पके हुए आम तो थे ही । आमों को जबरदस्ती पकाने की प्रणाली भी कमाल की हुआ करती थी । मिट्टी में एक गहरा गड्ढा खोदा जाता था ,उसके तल में पत्ते बिछा कर आमों के लिए नर्म बिस्तर तैयर करके उन आमों को बडे प्यार से , मजे से रख दिया जाता था , फ़िर उस गड्ढे को पुआल और फ़ूस से अच्छी तरह ढक दिया जाता , बस एक मुहाना छोड दिया जाता था ।उस मुहाने पर एक मिट्ठी का बर्तन उलटा करके , जिसकें पेंदी में एक छेद होता था उसे रख दिया जाता था । अब शुरू होती थी उसे पकाने की प्रक्रिया । उस छेद में हल्दी , और एक पावडर शायद कार्बाईड होता था या कोई और पता नहीं , भूसे में आग लगा कर उसे धीरे धीरे फ़ूंकते थे और गड्ढे को बंद कर देते थे । आश्चर्यजनक रूप से इस प्रक्रिया से अडतालीस घंटे में ही कच्चे आम और केले भी पक जाते थे । ऐसा अक्सर नवयुवक तब जरूर करते थे जब चुरा कर ढेर सारे आम तोड लाते थे और फ़िर छुपा कर उन्हें पका कर काफ़ी दिनों का राशन जमा हो जाता था ।इधर कुछ वर्षों में आमों की पैदावार में भी काफ़ी परिवर्तन देखने को मिले । इनमें से एक खास तो ये कि अब ये आम के वृक्ष हरेक दूसरे साल ही फ़ल देने को तैयार होते थे । अब तो सुना है कि इसके लिए भी बाकायदा उन्हें इंजेक्शन वैगेरह देना पडता है , ओह दुखद है ये । इन आम के बगीचों से सिर्फ़ इतना ही भर रिश्ता नहीं होता है गांवों में , ये प्रतीक होते हैं सामूहिकता का जहां सब परिवारों के पुरखों की समाधि स्थल बनी होती है । अक्सर दाह संस्कार वैगेरह भी इन्हीं आम के बाग बगीचों के में हुआ करते थे । उपनयन , मुंडन , जूडशीतल , जैसे बहुत से संस्कार और त्यौहार इन आम के बगीचों के बिना पूर्ण नहीं हो सकते थे ।"भोला भईया , अहि बेर गाम में आम खूब फ़रल अईछ " कानों में अब तक गूंज रहा था ये । पिछले ग्राम प्रवास के दौरान मेरे द्वारा लगाए गए आम के पेडों की खींची गई तस्वीर , सुना है कि अबकि ये भी लदे हुए हैं ...
बुधवार, 30 जून 2010
एक पोस्ट .......आम भी , और खास भी !.....अजय कुमार झा
सोमवार, 28 जून 2010
सर , आप तो बडे ही क्यूट हैं ......अजय कुमार झा
"अरे आप तो बिल्कुल वैसे ही दिखते हैं जैसी फ़ोटो आपने अपनी प्रोफ़ाईल में लगाई हुई है "ये बात जब मैंने अपनी पहली ब्लोग्गर मीट एक साथी ब्लोग्गर के मुंह से सुनी थी तो बरबस ही मुस्कुरा उठा था । और पलट कर यही कहा था कि , ऐसा तो सबके साथ ही होता है । सब वैसे ही दिखते हैं जैसी उनकी फ़ोटो होती है , या यूं कहें कि फ़ोटो वैसी ही दिखती है जैसे हम खुद होते हैं । मगर बहुत बार ऐसा नहीं होता है । जैसे कि कई मित्र अपनी प्रोफ़ाईल फ़ोटो से बहुत ही अलग दिखे । खैर ये तो बात आई गई हो गई । मगर यकीनन तौर पर अपने बारें में मैं इतन अतो कह ही सकता हूं कि किसी भी तरह से मैं फ़ोटोजेनिक तो कतई नहीं रहा कभी भी । विवाह ,समारोह, आयोजनों , और भी तमाम उन स्थानों पर जहां सामूहिक फ़ोटो की गुंजाईश होती थी वहां मैं मजे में आपको आंखें मूंदे हुए दिख जाऊंगा । पता नहीं क्यों मगर मेरे साथ ऐसा अक्सर ही होता है ।प्रोफ़ाईल पर भी जो फ़ोटो मिली , वो मैंने जैसे तैसे चेप दी । क्योंकि पता था मुझे कौन सा शाहरूख खान या सलमान खान के खूबसूरत चेहरे की चाहत देखने वाले मुझे पढने के लिए आने वाले हैं वो तो अजय कुमार झा को ही पढने आएंगे । खैर इसी बीच पाबला जी का दिल्ली आना हुआ और उस ब्लोग्गर मीट के दौरान उन्होंने कब ये फ़ोटो खींच ली और किस कोण से खींची मुझे पता ही नहीं चला ,लेकिन जब घर में ही उस फ़ोटो की तारीफ़ हुई तो लगा कि ये वक्त सही है और इस फ़ोटो को प्रोफ़ाईल पर चेप दिया जाए । असली बात तो इसके बाद शुरू हुई ।चैट पर अक्सर कोई न कोई अजनबी मित्र आ ही जाता है , और अपनी आदत के अनुसार मैं भी तब तक उनकी बातों का जवाब देता रहता हूं जब तक कि सिलसिला उधर से बना रहता है । मगर अभी कुछ दिनों पहले तो एक ऐसा वाकया हुआ कि समझ ही नहीं आया कि उसे दिलचस्प कहूं या शौकिंग ।एक अजनबी ने खटकाया , अभिवादन होता इससे पहले ही उधर से कहा गया कि ,आप तो बडे क्यूट हैंजी शुक्रियाआपकी फ़ोटो की लुक तो गजब की है ,अब मैं चुहल के मूड में आ चुका था ,जी कभी कभी कैमरा भी गलती कर बैठता हैअरे नहीं नहीं सर सच में आपकी फ़ोटोलुक तो कमाल की है ,जी शुक्रिया , क्या आप भी लिखते हैं ( ये मेरा स्वाभाविक प्रश्न होता है ..उसी तरह से जैसे सावन के हरेक अंधे को हरा ही हरा दिखता है ..उसी तरह मुझे भी हरेक नेटिया मित्र ब्लोग्गर ही दिखता है )जी नहीं नहीं मैंने तो बस आपको और्कुट में देखा है , आप शादीशुदा हैं क्या ?अब माथा ठनका , लगा कि कोई युवती/महिला मित्र तो नहीं है , जी मैं शादीशुदा ही नहीं हूं बल्कि दो बच्चों का बाप हूं ।सर फ़ोटो से तो नहीं लगता , आप तो बहुत जवान दिखते हैं ?बात फ़िर वहीं की वहीं " क्या मैं आपको जानता हूं "? अब मैं कुछ भी कहने से पहले सशंकित हो चुका था इसलिए पूरी तरह आश्वस्त होना चाहता था ,कि कहीं कोई मेरी बैंड बजाने पर नहीं तुला हुआ है ?" अरे सर जान पहचान में कितनी देर लगती है , आईये कभी साथ साथ पिक्चर देखने चलते हैं , आपके शौक क्या क्या हैं , चलिए न कहीं इंज्वाय करते हैं । आप समझ रहे हैं न मैं क्या कह रहे हैं । कोई जरूरी थोडी है कि रोज घर में ही इंज्वाय किया जाए ? मैं यहीं दिल्ली में फ़लानी जगह पर काम करता हूं । देखिए न दुनिया कितनी फ़ास्ट हो गई है , और हम कितने पिछडे हुए हैं , सर आप समझ रहे हैं न मैं क्या कह रहा हूं , अपना फ़ोन नंबर दीजीए , किसी दिन प्रोग्राम बनाते हैं ...चैट पर वाक्य आते जा रहे थे ..और मेरे दिमाग में एक ही गान गूंज रहा था .....ओतेरेकि ........गेगेगेगे ..गे रे सायबा ......मैं चुपचाप वहां से निकल आया लौगआऊट हुआ और उसके बाद उन्हें ब्लौक कर दिया ।आप बहुत क्यूट हैं .......हा हा हा मेरे कानों में अब तक यही गूंज रहा था .....पाबला जी ..हाय कैसी फ़ोटो खींची आपने ..?????
शुक्रवार, 25 जून 2010
नदिया के पार , एक जीवन को जीती पिक्चर , चंद जुडी यादें .....
आजकल चारों तरफ़ ही काईट्स, राजनीति .के रिव्यू , और आम पाठकों /दर्शकों की प्यारी प्यारी राय जानकर उन फ़िल्मों के प्रति ऐसा वैराग्य जाग गया कि टीवी पर उनके प्रोमो देख कर मन में यही बात उठ रही थी कि , बेटा , दिखाओ दिखाओ , जितना भी तडक भडक दिखाना है , असलियत अब सामने आ गई है , अब तो बेटा हम धेला भर भी नहीं खर्च करेंगे । वैसे भी काईट्स तो कट के फ़टाक से किसी चैनल पर आ रही है , राजनीति को भी देर सवेर किसी न किसी चैनल पर ठौर मिल ही जाएगा । टीवी पर आजकल थोडा बहुत समय तो हमें भी मिल ही जा रहा है , फ़ुटबाल विश्व कप के बहाने से । श्रीमती जी भी मना नहीं कर पा रही हैं कि कम से कम इसी बहाने कुछ देर तो स्क्रीन का सूरत बदलेगा , कंप्यूटर न सही , टीवी ही सही । मगर उन्हें निराशा तो है ही कि हमें साधना के मरने ( सीरीयल बिदाई , स्टार प्लस ) से ज्यादा अच्छा ब्राजील का मैच लगता है । वैसे इससे ज्यादा उन्हें हमारी उस राय से है जो इन सीरीयलों के प्रति हमारी है कि , या तो इन सीरीयलों में कोई न कोई समारोह हो रहा होता है या फ़िर कोई न कोई स्यापा । खैर इस सबके बीच ही लोकल केबल पर अचानक एक चैनल पर पहुंच कर ठिठक गया ।गुंजा , चंदन , ओंकार , रज्जो ,बलिहार ................जी हां .नदिया के पार,पिक्चर , आ रही थी । बस उसके बाद तो हम एक तरफ़ और पूरा घर एक तरफ़ । हमने भी उस दिन ठान ही लिया कि अब तो चाहे जो हो अब तो ये मोर्चा हम नहीं छोडने वाले हैं । दूसरी पार्टी , जिसमें ऐसे समय में अक्सर हमारा पुत्र बडे आराम से मां का साथ गठबंधन सरकार बना लेता है ताकि बाद में दोनों बदल बदल कर अपने सीरीयल और कार्टून देखते रहें , भी जल्दी ही समझ गई और दूसरे टीवी की तरफ़ खिसकना ही मुनासिब समझा ।ओह एक एक दृश्य मुझे जाने कहां खींचे ले जा रहा था । उन दिनों जब हम शहरों में रहा करते थे , मगर गर्मियों की छुट्टियों में अनिवार्य रूप से गांव जाना तय रहता था । कुल दो महीने की छुट्टी । एक महीना दादा दादी के पास तो अगला एक महीना नानी के गांव में । नाना जी और मामा जी , नहीं थे हमारे और नानी भी शुरू से ही हमारी मौसी के यहां रहीं , क्योंकि उनके ससुराल में कोई नहीं था । सो कुल मिलाकर ननिहाल वही रहा हमारा क्योंकि इकलौती मौसी और नानी वहीं रहते थे हमारे । तो दो महीने में एक एक महीने का कोटा होता था दोनों जगहों का ।पिक्चर देखते जा रहे थे और उन लम्हों को जीते जा रहे थे । याद आ गया वो जमाना , रेल की बिना आरक्षण वाली यात्राएं , और तब सफ़र में सुराहियां चलती थीं जी । अजी लाख ये कूलकिंग के मयूर जग और बिसलेरी की बोतलें चलें मगर सुराही और छागल के ठंडे मीठे पानी का तो कोई जवाब ही नहीं था । थकान भरी यात्रा के बाद सुबह सुबह ही स्टेशन पर उतरना और फ़िर वहां से तांगे पर निकलती थी सवारी । आज जिस सफ़र को कार और जीप में सिर्फ़ कुछ मिनटों में ही नाप जाते हैं उस कच्चे पक्के रास्ते को तय करने में उन दिनों कम से कम तीन चार घंटे लगते थे और उससे अधिक आनंद तो आता था रास्ते में पडने वाले उन दृश्यों को निहारने का । बीच में पडने वाले दस पंद्रह गांव , सडक किनारे बने हुए चौक चौराहे , उन पर कुछ गुमटियां , ज्यादातर पान की , पोखर तालाब , आम के बगीचे , जो उन दिनों इतने लदे फ़दे होते थे कि बस देखते ही बनते थे । कहीं कोई ट्रैफ़िक नहीं कोई चिल्ल पों नहीं । रास्ते में आते जाते तांगे और वही बैल गाडियां ।नदिया के पार का वो गाना याद है आपको , सांची कहे तोहरे आवन से हमरे ...वो गेंहू का ढेर याद आया जिस पर लेट कर सचिन गाते हैं , अनधन के लागे भंडार भौजी । बस वैसे ही धान गेंहू के ढेर ढेरियां हर आंगन में दिखाई देती थीं । दादी के पास खूब मन लगता था , वहां पापा अपने काम में व्यस्त , मम्मी ससुराल में पस्त ..और हम बच्चे मस्त ही मस्त । मगर असली मजा तो नानी यानि हमारी मौसी के गांव में आता था । मौसा जी की कटही बैलगाडी (कटही इसलिए कि उसके टायर भी लकडी के होते थे जी ) वही नदिया के पार में ..कौन दिसा में लेके चला रे बटोहिया वाले .....को लेकर ..उसे अपने ही मजबूत बैलों के जोडे से हांकते हुए मौसेरे भाई लोग लेकर पहुंचते थे । उसके ऊपर बेंत को बांध कर ओहार लगाया जाता था धूप से बचने के लिए । और बस हम लोग लद जाते थे ..बा पेटी बक्से सहित ।रास्ते में जो उधम मचता था , उसे क्य वर्णन किया जाए । गन्ने के खेत में से गन्ने उडाए जा रहे हैं , तो जहां तहां आम के पेडों को ढेलियाने का क्रम चल रहा है । बीच बीच में जो गांव पड रहे हैं , उनमें बहुरियांए निकल के मानो अंदाज़ा लगा रहे हैं कि कौन जा रहे हैं , एक आध बुढऊ बीच बीच में पूछ भी रहे हैं ..की यौ ..कत के सवारी छैक ..( क्या जी , कहां की सवारी है ) और जो यात्रा दादी के गांव से सुबह शुरू होती थी वो देर शाम तक खत्म होती थी , मौसी के गांव जाकर । इन नियमित यात्राओं के अलावा , शादी ब्याह पर जाना , और जाने कितने ही त्यौहारों को मनाया जाना । वो गाना याद है ....जोगीरा सारारारारा ........बस होली में वही धूम मचती थी ..गांवों में ......। किसी अपने ही साथी को या नाटक नौटंकी वाले को लडकी बना के (नटुआ ) उसे ही बीच में नचा के ...जोगीरा सारारा .....। ये पिक्चर अक्सर मुझे बहुत रुलाती है ।बच्चे बीच बीच में आते हैं और देख रहे हैं । मम्मी से पूछते हैं ..आज पापा को क्या हुआ है चिपक कर बैठ गए हैं टीवी से .....मम्मी ये ...भौजी ..क्या होता है , मम्मी पापा बीच बीच में हंस भी रहे हैं । और मैं सबसे बेखबर ....एक जीवन को जीने में लगा होता हूं ....क्योंकि जानता हूं कि ....अब शायद उस गुजरे हुए जीवन को फ़िर दोबारा उस तरह तो नहीं ही जी पाऊंगा ।
सोमवार, 21 जून 2010
ऐसे मोड पर संकंलकों की कुछ बातें, ब्लोग्स पढने के कुछ उपाय
इत्तेफ़ाक की बात है कि अभी कुछ दिनों पहले ही एक साथी ब्लोग्गर ने अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर करते हुए पूछा था कि फ़ौलोवर बनने और बनाए जाने के पीछे का औचित्य क्या है ? और जैसा मुझे याद है कि मेरे द्वारा दी गई टिप्पणी में ये भी लिखा गया था कि , इससे आपको अपने डैशबोर्ड पर उन सभी ब्लोग्स की सारी ताज़ी पोस्टें दिखती रहती हैं । और दूसरा इत्तेफ़ाक ये देखिए कि अब जबकि आज की तारीख में निर्विवाद रूप से सबसे लोकप्रिय एग्रीगेटर पोस्ट के लिखे जाने तक , किन्हीं अज्ञात कारणों से एक जगह पर थम सा गया है , पोस्टें पढने के लिए मेरे द्वारा अपनाए गए बहुत सारे विकल्पों में एक कारगर विकल्प ये भी है ।हिंदी ब्लोगकुट
इसी मोड पर मुझे अपनी वो बात भी बार बार याद आ रही है जिसकी वकालत मैं बार बार करता आ रहा हूं कि , आज जब लगातार ब्लोग्स की संख्या , नियमित रूप से लिखने पढने वालो की संख्या भी बढती जा रही है तो फ़िर ऐसे में क्यों ये जरूरी नहीं लगता कि , और भी अन्य विकल्प आएं । नए नए कलेवर और नए नए तेवरों के साथ , नई नई सुविधाओं के साथ , और बहुत सारे नए प्रयोगों के साथ । सोचिए कोई ऐसा एग्रीगेटर होत जो सिर्फ़ सबसे कम पढी गई पोस्टों , सबसे कम टिप्पणी की गई पोस्टों को दिखाए और जैसे ही पढने /टीपने वालों की संख्या में वृद्धि होते ही उसका स्थान अपने आप नई पोस्ट ले लिया करे , सोचिए क्या हो यदि कोई ऐसा एग्रीगेटर हो जो सिर्फ़ और सिर्फ़ टीप्पणियां दिखाए ,और इस तरह की बानगी लिए बहुत सारे एग्रीगेटर्स । मगर अफ़सोस की बात तो ये है कि विकल्प बढने की बजाय घटते ही जा रहे हैं । नारद , हिंदी ब्लोग्स ,ब्लोग प्रहरी , और अब ब्लोगवाणी के स्वास्थ्य में नियमित अनियमित गिरावट । चलिए हम तो फ़िलहाल यही शुक्र मना सकते हैं कि ये सब जल्दी ही ठीक हो जाए और इंड्ली जैसे नए नए खिलाडी भी मैदान में उतरे ।
चलिए इसी बहाने आपको अपने वो उपाय बताता चलूं जिनसे ऐसी स्थितियों में मैं पोस्टें पढने का जुगाड करता हूं । हालांकि ये भी समय खाने वाला ही होता है मगर वो कहते हैं न कि नहीं से कुछ भला । पहला तरीका होता है ब्लोग पोस्टें । जी हां बहुत सारी ब्लोग पोस्टों पर पसंद सूची लगी होती है जिनपर ताजी अपडेटेड पोस्टें दिखती रहती हैं , तो बस वहीं से शुरू हो जाईए , एक से दूसरे , दूसरे से तीसरे ।दूसरा है ब्लोग्गर प्रोफ़ाईल ...जी ये भी बडे काम की चीज़ है । अरे भाई यहां भी कमाल है , हरेक ब्लोग्गर की प्रोफ़ाईल में आपको उन ब्लोग्स की सूची मिल जाएगी जिन्हें वो फ़ौलो कर रहे हैं तो उसे क्लिक करते ही आपको जाहिर तौर पर उस ब्लोग की ताजी पोस्टें मिल जाएंगी । अब कुछ और मजेदार जुगाड , जितनी भी चर्चाओं वाले ब्लोगस हैं उनमें घुस जाईये , बस ढेर सारे ब्लोग लिंक्स । ब्लोग औन प्रिंट , भी ऐसा ही एक ब्लोग है जिस पर आपको कम से कम एक हजार ब्लोग्स के लिंक्स तो मिल ही जाएंगे ।
चलिए अब चलते हैं एग्रीगेटर्स की ओर । इन दिनों आप इडली तो जोर शोर से खा ही रहे हैं । इसके अलावा रफ़्तार भी आपकी पोस्ट पढने के रफ़्तार को बढा सकता है । इनके साथ ही फ़ीडक्ल्सटर पर बने हुए दर्जन भर निजि एग्रीगेटर्स भी हैं जिनमें सभी में आपको बहुत सारी पोस्टों की ताजी झलकियां मिल जाएंगी । इस बीच तफ़रीह के लिए , बीबीसी ब्लोग्स, जागरण जंक्शन ब्लोग्स , नवभारतटाईम्स ब्लोग्स , हिंदुस्तान ब्लोग्स आदि को भी चर सकते। अब जाहिर सी बात है कि चिट्ठाजगत पर तो आप ये पोस्ट पढ ही रहे हैं ।कुछ और भी हैं
क्लिप्प्ड इन
दैट्स हिंदी
हिंदी ब्लोगजगत
चलिए अब कुछ समय तक के लिए तो आपके पास पोस्टों की खुराक पूरी करने लायक जुगाड हो ह
शनिवार, 5 जून 2010
अति सर्वत्र वर्जयेत ...............अजय कुमार झा
जितने समय से भी ब्लोग्गिंग कर रहा हूं , ब्लोग्गिंग की इस अनोखी दुनिया के बहुत सारे रंग रूप और कई तरह के दौर भी देखे और जाने अभी कितने ही देखने बांकी हैं । पिछले दिनों से जो कुछ भी देख पढ रहा हूं , वो कहीं से भी आश्चर्यजनक नहीं है हां दुखद और अफ़सोसजनक जरूर लग रहा है मुझे । मैं कभी नहीं चाहता था कि इस तरह की बातों पर लगातार पोस्ट पर पोस्ट लिख बातों को बढाता चलूं , और शायद मेरे साथ अन्य सभी भी यही सोच कर एकतरफ़ा होती ये स्लोग्गिंग देख रहे थे । मगर कहते हैं न कि अति सर्वत्र वर्जयेत । सुना पढा है कि शिशुपाल का अंत करने से पहले भगवान ने सिर्फ़ गिनती ज़ारी रखी थी चुपचाप , और गिनती पूरी हो जाने के बाद किसी ईशारे , किसी चेतावनी , किसी आग्रह की प्रतीक्षा भी नहीं की थी , क्योंकि उन्हें भलीभांति पता था कि शिशुपाल जो भी कर रहा है , कह रहा है उसका अच्छा बुरा निहातार्थ और परिणाम बहुत अच्छी तरह से समझ रहा है ।
एक साथी ब्लोग्गर द्वारा एक पोस्ट के माध्यम से एक प्रश्न उठाया जाता है , या कहें कि असहमति दर्ज़ की जाती है , मुझे थोडा सा कष्ट इसलिए होता है कि जब आमने सामने बैठ कर सुबह से शाम तक आपस में बहुत सारी बातें बांटी गई थी तो उस वक्त आखिर किन वजहों से इन बातों को नहीं कहा उठाया गया ? आखिर वो कौन से कारण थे जिसने उस दिन के इतने समय बाद साथी ब्लोग्गर को अपनी असहमति उठाने को मजबूर किया । खैर उनके अपने कुछ कारण रहे होंगे ,इसलिए मुझे भी जैसी प्रतिक्रिया देनी थी दे दी ।
चूंकि कुछ मित्रों ने जानबूझ कर या अनजाने में अपने ब्लोग बेनामी विकल्प का द्वार इसलिए छोड रखा है कि उसका उपयोग दूसरे वे साथी ब्लोग्गर्स जो इन्हीं ,मौकों की तलाश में रहते हैं खूब दस्त और उलटी करते हैं । यदि मान लें कि साहस के रूप में ये विकल्प द्वार खुला रख दिया गया है , और ये भी मान लिया कि उन विकल्पों का दुरूपयोग किया जाता दिख रहा है , तो क्या इतनी आसान बात भी समझी नहीं जा सकती कि यदि उन अमर्यादित भाषा , गाली गलौज वाली नैसर्गिक टिप्पणियों को सजा कर रखने के बजाय उन्हें हटा दिया जाए । और यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो सिर्फ़ दो ही वजह हो सकती हैं ,पहली ये कि लिखने वाले खुद चाहते हों कि ऐसी ही टिप्पणियां आती रहें , और शायद उससे अधिक ये भी कि इन बेनामियों की आड में वे खुद ही अपने विचार अपनी असहमति उसी तरह से प्रकट कर सकें जिस तरह से वो करना चाहते थे ।
विचार कभी भी एक जैसे नहीं हो सकते , होने भी नहीं चाहिए और हैं भी नहीं । इसी तरह लिखने का अंदाज़ भी , भाषा भी शैली भी सबका अलग अलग ही है जो स्वाभाविक भी है । इससे शिकायत भी नहीं होनी चाहिए और है भी नहीं । लेकिन इतने दिनों से एक शब्द मेरी नज़र में बार बार खटक रहा है , "अन्याय "............अन्याय , ...अन्याय । ब्लोग जगत में अन्याय हो रहा है ....ब्लोगजगत में कुछ ब्लोग्गर्स अन्याय कर रहे हैं ....और ब्लोगजगत में कुछ ब्लोग्गर्स ....अन्य ब्लोग्गर्स के साथ अन्याय कर रहे हैं ...। यदि कुछ साथी ऐसा महसूस कर रहे हैं तो नि:संदेह बहुत ही अफ़सोस की बात है । मगर इतने दिनों तक ढूंढने के बाद भी समझ नहीं पा रहा हूं कि , आखिर , वो अन्याय है क्या , कौन सा अन्याय , किस तरह का है , और कौन कर रहा है , किन पर कर रहा है । क्या लोगों को साथ बिठाना कर औपचारिक अनौपचारिक बात मुलाकात करना अन्याय है , क्या वहां एक दूसरे से गले मिलना सभी बातों को बांटना अन्याय था , क्या ये अन्याय था कि हम बेहिचक , बेझिझक सभी को अपना मान कर सब कुछ साझा कर रहे थे और कर रहे हैं नहीं तो फ़िर आखिर है क्या वो अन्याय । अब ज़रा इन पक्षों को भी देख लिया जाए । लगातार पोस्ट पर पोस्ट लगाई जाती रहीं , कभी नाम से कभी बेनाम से और उन पर वैसी ही टिप्पणियं भी डाली डलवाई जाती रहीं जैसी कि इस तरह की पोस्टों पर डलती हैं , जिनसे नाराजगी खुले तौर पर थी उनके लिए भी और उनके साथ जोडे जाने वाले उन साथी ब्लोग्गर्स के लिए भी जो अपने नाम के अनुरूप न सिर्फ़ एक खुशदिल इंसान हैं बल्कि अपनी पोस्टों , अपनी टिप्पणियों से स्नेह ही बांटते रहे । एक उदाहरण ...........सिर्फ़ एक उदाहरण दें कि कब किसने वो अपमान , वो गाली गलौज, वो अमर्यादित भाषा इस्तेमाल की .......तो अन्याय कौन कर रहा था किसके प्रति । किसी सिद्धांत की खिलाफ़त की जाती है ....इसमें कोई नई बात नहीं ..कोई बुरी बात भी नहीं है ..न ही बुरा मानने की बात है उनके लिए भी जो उस सिद्धांत के साथ हैं .......मगर उस सिद्धांत को न मानने के लिए आप उसे गुटबंदी , मठाधीशी , गिरोहबाजी और जाने किन किन उपमाओं से नवाज़ें .....जबकि ये बातें बिल्कुल स्पष्ट थी कि इस उद्देश्य के लिए और इस उद्देश्य के परे भी यदि कुछ ब्लोग्गर्स इकट्ठा हुए हैं ...........तो क्या साबित किया जा सकता है कि वहां हुई बातों से , वहां बांटे गए विचारों से , वहां पर हुए विमर्श से किस तरह की गुटबंदी का प्रयास किया जा रहा था और कौन कर रहा था । चलिए ये भी मान लिया कि ये सब एक संभावित परिणाम के मद्देनज़र किया गया था .........अच्छी बात है यदि इस हिसाब से भी कोई भलमनसाहत छिपी हुई है इसमें ब्लोगजगत की तो ये भी सही ...........मगर मुखालफ़त करते करते ....खुद उसी की वकालत करने का प्रयास शुरू हो जाता .......और उद्देश्य कैसे कैसे ..........टौप चालीस को उखाड फ़ेंकना है ..मठाधीशों को उखाड फ़ेंकना है .....वरिष्ठ ब्लोग्गर्स की दादागिरि नहीं चलने देनी है । बहुत अच्छी बात है ये भी ...कि कम से कम उद्देश्य तो सीधे सपाट रख दिए गए ।
मगर यहां पर फ़िर मेरी समझ थोडा धोखा खाने लगती है कि ....न तो ये तय किया गया है कि आखिर हैं कौन वो ब्लोग्गर्स जिन्हें उखाड फ़ेंकना है ....फ़लाना जी ... ढिमकाना जी ...झा जी , पांडे जी..मिश्रा जी , शर्मा जी . वर्मा जी ,,दूबे जी , चौबे जी ...सिंह जी ..चौहान जी ..कुमार जी ...और गिनती जारी है ....तो इन्हें उखाड फ़ेंकना है ? कहां से ....चिट्ठाजगत के टौप से ...वो तो सक्रीयता क्रम है ..कुछ दिनों तक पोस्ट न लिखें ..न पढें तो खुद ब खुद नीचे चली जाती है और ऐसे ही ऊपर भी ..। नहीं तो ब्लोगवाणी से ..कैसे पसंद नापसंद का चटका लगा कर ..तो इसके लिए इतना अन्याय अन्याय करने की आवश्यकता क्या है ...ये तो सबके पास ही हैं विकल्प । नहीं शायद इस तरह नहीं तो फ़िर ........ओह अच्छा अच्छा ..उनसे बेहतर बहुत ही बेहतर लिख कर पढ कर , इतना छा जाना है कि वे अपने आप दरकिनार हो जाएंगे ..हां ये हुई न बात ..मगर फ़िर इसमें वरिष्ठ ब्लोग्गर और जूनियर ब्लोग्गर की बात कहां से आती है । और आखिर है कौन सा वो पैमाना जिससे ये नपाई हो रही है ......ब्लोग्गर की उम्र से , ब्लोग्गिंग की उम्र से, ज्यादा लिखने वाले पढने वाले टिप्पणी करने से , ज्यादा पढे जाने वाले पसंद नापसंद किए जाने वालों से , ...आखिर कोई क्राईटेरिया तो बताईये खुल कर ...ताकि सभी को अंदाज़ा तो हो को उसे किस पाले में रखा जा रहा है । वर्ना तो हर कोई अपने सीनियर से जूनियर है और हर सीनियर अपने जूनियर से सीनियर .........। चलिए ये न सही कम से कम ये तो बताया ही जा सकता है कि .....अमुक अमुक ब्लोग्गर्स इस मुहिम के साथ जुड चुके हैं ....खैर ये बहस तो अभी भी बहस के दौर में ही है । जहां तक मेरी बात है .............अब मैं किसी भी सामूहिक ब्लोग तक से नहीं जुडने तक का मन बना चुका हूं ..........तो जाहिर है कि ये बताने की जरूरत नहीं है कि संगठन को लेकर मेरी सोच क्या हो रही है । हां संगठन और साथ में जिन्हें फ़र्क समझ आ रहा हो वे समझ सकेंगे कि मेरा कहना क्या है ?
अब एक आखिरी बात .......मुझ सहित , मैं यहां अपने तमाम साथी ब्लोग्गर्स को इस स्थिति में तो पाता ही हूं कि वे ब्लोग्गिंग करने में सक्षम हैं तो , निश्चित रूप से अपने वास्तविक जीवन में भी जरूर अपने अपने मुकाम हासिल किए होंगे ही । और जाहिर सी बात है कि जब सब इतने सक्षम हैं तो फ़िर अपना मान सम्मान बचाने में भी पूरी तरह से समर्थ भी हैं ही । अब समय बदल रहा है ...इसलिए हमेशा ही शेर आया शेर आया वाली कहानी का दोहराव हो ये जरूरी नहीं है । मैं नहीं जानता कि भविष्य हम ब्लोग्गर्स को किन किन रास्तों और हालातों तक पहुंचाएगा , मगर इतना तो कहा ही जा सकता है हिंदी ब्लोग्गिंग का एक फ़ायदा नुकसान ये भी है कि यहां अंग्रेजी ब्लोग्गिंग की तरह आपको ये जानने समझने के लिए कि आपको अपने मान सम्मान की रक्षा कैसे करनी है ये सोचने की जरूरत नहीं है कि उसके लिए आपको शायद अमेरिका , फ़्रांस , आस्ट्रेलिया आदि का नक्शा देखना पडेगा । उसके लिए तो सभी साथी ब्लोग्गर्स यहीं आसपास ही दिख और दिखाए जा सकते हैं । अब इस मुद्दे पर जो कि मेरी नज़र में कभी मुद्दा नहीं था , मैं आगे नहीं लिखूंगा इसलिए आज ही सारी बात कह गया । उम्मीद है कि अब इस पर मुझसे इससे ज्यादा नहीं लिखवाया जाएगा और कल कुछ सकारात्मक लिख सकने का मन बना सकूंगा ।
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