समय घूम फ़िर कर वहीं आ खडा होता है और ऐसे समय में तो मुझे लगता है मानो हम सब किसी पार्क में एक दूसरे के पीछे भाग भाग कर गोल गोल घूम घूम कर रेलगाडी छुक छुक छुक छुक खेलने में लगे हैं । दिल्ली विधानसभा चुनाव एक बार फ़िर से लडे जाने वाले हैं , अपने यहां इस देश में लोकतंत्र इतने हाहाकारी रूप से मज़बूत है कि लगभग हर कोई अपनी सरकार बना ही बैठा है , और अपने अपने तरीके से चला भी रहा है , नहीं चल रहा है तो गरीब और उससे भी अधिक मध्यम वर्ग वाले का घर , खैर ..
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यहां बात पोलिटिकली एक्सप्रैस करने की है तो पिछले सारे अनुभव यही बताते हैं कि आप चाहे जो मर्ज़ी करें , किसी के लिए भी भक्त हो जाएं या किसी के प्रति विरक्त हो जाएं , सार्वजनिक रूप से खुद को व्यक्त करने के दो नियमों का पालन किया जाना अपेक्षित होता है , पहला हर विचार , हर राजनैतिक सोच और हर राजनेता का चुनाव सबका अपना सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना निजि मत और राय है इसलिए बेशक असहमति संभावित भी है और सराहनीय भी किंतु उससे ज्यादा उचित है कि अपने द्वारा निर्धारित किए गए राजनैतिक विचार , या उम्मीदवार अथवा राजनैतिक दल ही सही के सकारात्मक पक्षों को सार्थक रूप से आगे सरकाया जाए ।
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दूसरा नियम ये है कि , चाहे किसी के भी पक्ष में हों या किसी के भी धुर विरोधी हों , व्यक्त ही न करें , स्पष्टत: तो कतई नहीं , इससे सारे हाथों में लड्डू की संभावना बढ जाती है , फ़िर जिसे चाहें उसे मर्ज़ी जी भर के कोसें , मगर फ़िर रिवर्स फ़ायरिंग की भी पूरी संभावना रहती है जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता । दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले के परिदृश्य को याद करें तो कम से कम मुझ जैसे लाखों युवाओं को सिविल सोसायटी के रूप में यकायक ही हमारे बीच से निकल कर राष्ट्रीय फ़लक पर सियासत को सीधे सीधे चुनौती देकर उनसे बेहतर कर दिखाने की हुंकार भरते कुछ जननायकों ने एक अजीब ही फ़िज़ा बना दी । मैं स्वयं उन सारी उथलपुथल का गवाह रहा और बेहद नज़दीक से सारी स्थितियों को समझता रहा । अपने अनुभवों के आधार पर इतना तो स्पष्ट समझ में आ चुका था कि कुछ गैर राजनीतिक सोच और दांव पेंच से अनभिज्ञ जोशीले लोगों ने किसी बडे परिवर्तन का मन बना कर अपनी आर पार की लडाई छेड दी ।
देश परिवर्तन मोड में था , लोग मानो बिजली पानी के मुद्दों तक पर सडकों पर उतरने को आमादा हो चुके थे , आज़िज़ होने की स्थिति ने वो चमत्कार कर दिखाया जिसकी उम्मीद उन्हें भी नहीं थी जिनके साथ ये चमत्कार हो गया । मगर हाय रे भारतीय लोकतंत्र और हाय रे एक आम आदमी, की पोलिटिकल इम्मैच्योरिटी यानि राजनैतिक अपरिपक्वता , इसका परिणाम आत्मघाती साबित हुआ , और मुट्ठी भर तने हुए लोग भी एक अनुशासन में नहीं रह सके । बिखराव को अगर रोकने की पुरज़ोर कोशिश की जाती तो शायद स्थिति कुछ और ही होती ।
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यहां बात पोलिटिकली एक्सप्रैस करने की है तो पिछले सारे अनुभव यही बताते हैं कि आप चाहे जो मर्ज़ी करें , किसी के लिए भी भक्त हो जाएं या किसी के प्रति विरक्त हो जाएं , सार्वजनिक रूप से खुद को व्यक्त करने के दो नियमों का पालन किया जाना अपेक्षित होता है , पहला हर विचार , हर राजनैतिक सोच और हर राजनेता का चुनाव सबका अपना सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना निजि मत और राय है इसलिए बेशक असहमति संभावित भी है और सराहनीय भी किंतु उससे ज्यादा उचित है कि अपने द्वारा निर्धारित किए गए राजनैतिक विचार , या उम्मीदवार अथवा राजनैतिक दल ही सही के सकारात्मक पक्षों को सार्थक रूप से आगे सरकाया जाए ।
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दूसरा नियम ये है कि , चाहे किसी के भी पक्ष में हों या किसी के भी धुर विरोधी हों , व्यक्त ही न करें , स्पष्टत: तो कतई नहीं , इससे सारे हाथों में लड्डू की संभावना बढ जाती है , फ़िर जिसे चाहें उसे मर्ज़ी जी भर के कोसें , मगर फ़िर रिवर्स फ़ायरिंग की भी पूरी संभावना रहती है जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता । दिल्ली के पिछले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले के परिदृश्य को याद करें तो कम से कम मुझ जैसे लाखों युवाओं को सिविल सोसायटी के रूप में यकायक ही हमारे बीच से निकल कर राष्ट्रीय फ़लक पर सियासत को सीधे सीधे चुनौती देकर उनसे बेहतर कर दिखाने की हुंकार भरते कुछ जननायकों ने एक अजीब ही फ़िज़ा बना दी । मैं स्वयं उन सारी उथलपुथल का गवाह रहा और बेहद नज़दीक से सारी स्थितियों को समझता रहा । अपने अनुभवों के आधार पर इतना तो स्पष्ट समझ में आ चुका था कि कुछ गैर राजनीतिक सोच और दांव पेंच से अनभिज्ञ जोशीले लोगों ने किसी बडे परिवर्तन का मन बना कर अपनी आर पार की लडाई छेड दी ।
देश परिवर्तन मोड में था , लोग मानो बिजली पानी के मुद्दों तक पर सडकों पर उतरने को आमादा हो चुके थे , आज़िज़ होने की स्थिति ने वो चमत्कार कर दिखाया जिसकी उम्मीद उन्हें भी नहीं थी जिनके साथ ये चमत्कार हो गया । मगर हाय रे भारतीय लोकतंत्र और हाय रे एक आम आदमी, की पोलिटिकल इम्मैच्योरिटी यानि राजनैतिक अपरिपक्वता , इसका परिणाम आत्मघाती साबित हुआ , और मुट्ठी भर तने हुए लोग भी एक अनुशासन में नहीं रह सके । बिखराव को अगर रोकने की पुरज़ोर कोशिश की जाती तो शायद स्थिति कुछ और ही होती ।
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इस बीच लोकसभा के महाचुनाव में देश भर ने मानो राष्ट्रीय जनमानस का परिचय देते हुए अपना फ़ैसला सुनाया कि अब उसे अमुक व्यक्ति अमुक दल और अमुक विचार को ही समर्थन देने का मन बना लिया है । इस चुनाव के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनावों में इस प्रभाव को देखा और महसूस किया गया जिसे लोगों ने मौज़ लेते हुए लहर का नाम दिया । दिल्ली विधानसभा चुनाव , उसका मिज़ाज़ और उसके विश्लेषण का आकलन या अंदाज़ा लगाना सहज़ नहीं है , कारण भी बहुत सारे हैं किंतु इस बीच हमारे जैसे बहुत सारे लोग अब अरविंद केजरीवाल से सीधे सीधे कहना चाह रहे हैं कि अरविंद ..पहले हम आपके पीछे थे ...नीयत पे अभी भी हमें कोई संदेह नहीं किंतु आपकी अपरिपक्वता का खामियाज़ा देश और समाज क्यों भुगते ....इसलिए अब ............
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कुछ तो चुनाव परिणामों के बाद के लिए भी छोड दिया जाना चाहिए कि नहीं ..........
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कुछ तो चुनाव परिणामों के बाद के लिए भी छोड दिया जाना चाहिए कि नहीं ..........