एक आगाज़ है ये , अंजाम तो अभी बांकी है |
पिछले पांच दिनों में जो कुछ देश ने देखा , जो कुछ भारतीय अवाम ने किया , वो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में शायद आजादी के बाद पहली बार ही हुआ था । हालांकि बहुत से मुद्दों पर इससे बडे बडे जनसमूह ने अपनी मांगों को लेकर इससे भी बडे प्रयास किए और जीते भी हैं लेकिन फ़िर भी आजादी के बासठ वर्षों के बाद पिछले पांच दिनों में ही लोकतंत्र की आत्मा को उसकी ताकत को सबने एक स्वर में महसूस किया है । अब चूंकि ये जनांदोलन अपना रंग दिखाने लगा है तो ये बहुत जरूरी है कि इस माहौल को , वातावरण को बरकरार रखा जाए और आज जनमानस के सामने यही सबसे बडी चुनौती है । अब सबको ये समझ लेना चाहिए कि ये आग जो अन्ना की एक हुंकार पर लोगों के भीतर सुलग उठी है उसे अपने अपने स्तर पर अपने अपने दायरे में , अपने घरों दफ़्तरों , मुहल्लों , गलियों शहरों में उबालते रहना होगा अगर वाकई सब चाहते हैं कि देश बदले देश की तकदीर बदले । जो लोग इस आंदोलन को क्षणिक आवेश मात्र मान रहे हैं उन्हें कुछ बताना जरूरी हो जाता है कि इस शुरूआत ने आखिर इस देश को इस समाज को , इस सरकार को , और सबको क्या क्या दिया ।
आंदोलन का जयघोष हो चुका है |
सबसे पहले बात राजनेताओं की , इस आंदोलन ने उन्हें ये सबक दे दिया है कि अब अवाम किसी भी राजनीतिक दल की मोहताज़ नहीं रहेगी वो अब चोरों में से एक चोर चुनने के लिए ही मजबूर होकर नहीं बैठेगी , वो अपना हीरो अपने बीच में से ही खुद चुन लेगी ..और अगर हीरो न भी मिला तो खुद ही हीरो हो लेगी । अब उसे धर्म , जाति , क्षेत्र आदि के सहारे बंट कर या बांट कर लडने की जरूरत नहीं रह जाएगी , वो आएगी , ऐसे ही किसी मुद्दे को पकडेगी , सरकार को घेरेगी , सत्ता को ललकारेगी और फ़िर जीत कर उसके मुंह पर तमाचा मार के चल देगी । कुछ राजनीतिज्ञ जो इस कोशिश में आंदोलन के दौरान अपनी किस्मत चमकाने की गर्ज़ से आए भी थे वे भी अपना सा मुंह लेकर चलते बने क्योंकि उस वक्त जनता अपनी आंखें खोले पूरी तरह बेशर्म निर्लज्ज , बेखौफ़ और बेलिहाज़ होकर बैठी थी सो वहीं से उलटे पांव खदेड दिया उनको ।
सजग मीडिया , चुस्त और मुस्तैद |
इस आंदोलन ने मीडिया को ये बता दिया कि अगर वे सच्चाई का साथ देंगे , अगर वे पत्रकारिता के धर्म को निर्वाह करने का जज़्बा दिखाएंगे . जो कि उन्हें अपना बाज़ार बचाए रखने के लिए भी देना ही होगा क्योंकि आखिर उस बाज़ार के खरीददार जब खुद ही उन समाचारों के , उन खबरों के केंद्र में होंगे तो ही वे खुद पर विश्वास को जीत पाएंगे और जनता के दिल में भी अपने लिए वही जगह बना सकेंगें जिसके लिए उन्हें लोकतंत्र का चौथा खंबा माना कहा जाता रहा है । जीत के जश्न में कुछ खुद को बहुत ही प्रबुद्ध पत्रकार समझने वाले लोग जब जबरन घुस कर वहां अपना मीडियापन दिखाने की कोशिश करने की जुगत में थे तो अवाम ने उनके साथ भी वही सलूक किया जो उन्होंने राजनेताओं के साथ किया था । मीडिया को भी इस बात का एहसास हो गया था कि असली लडाई , असली मुद्दे , असली लोग ही असली खबर हैं बांकी सब तो बस दुकानदारी है और कुछ नहीं । ये अब टीआरपी का रिकॉर्ड रखने वाले खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं कि क्रिकेट विश्व कप को जुनून की तरह देखने वाली जनता ने दो दिन बाद से ही आंदोलन की एक एक खबर को सीने से लगाए रखा । मीडिया को ये भी एहसास हुआ होगा कि अगर वो चाहें तो अब भी देश की विचारधारा को बनाने और मोडने वाली शक्ति बन सकते हैं जैसा कि इस बार उन्होंने बन के दिखाया ।
ये है युवा जोश , युवा जुनून , |
अक्सर जब इस तरह के सामाजिक प्रयास किए गए या ऐसी कोई कोशिश की जाती रही है तो समाज को हमेशा ही ये शिकायत रही है कि देश का युवा इन आंदोलनों से और ऐसे सभी प्रयासों से न सिर्फ़ खुद को अलग रखता आया है बल्कि अपने बीच इसे बेहद उदासीन मानता समझता रहा है । इस जनांदोलन में युवाओं के झुकाव ने , उनके जोश ने , उनके जज़्बे ने पूरे देश की धारणा को न सिर्फ़ गलत साबित किया बल्कि खुद के साथ ही पूरे समाज को दिखा बता और जता भी दिया कि अगर वो शीला मुन्नी जैसे गानों पर मदहोश होके नाच सकता है अगर क्रिकेट विश्वकप के उन्मादी जुनून को सिर माथे लगा सकता है तो फ़िर देश को बदलने के लिए इस तरह की तहरीरों में भी शिरकत कर सकता है । इस पूरे आंदोलन का खाका तैयार करने में , उसके समर्थन में माहौल बनाने में , लोगों को जोडने में और तो और इतनी बडी भीड को नियंत्रित करके रखने तक में युवाओं की जो भूमिका रही है उस पर देश को गर्व होना चाहिए । युवा जान गए हैं कि अगर अपना भविष्य बचाना है , बनाना है तो फ़िर ये भी करना ही होगा ।
सबसे बडा संदेश गया है देश की सरकार को , सत्ता के मद में चूर वातानुकूलित कमरों में बैठ कर सवा अरब की जनसंख्या की आखों में धूल झोंकने वाले उन सवा पांच सौ लोगों को कि ये लोकतंत्र है और इस लोकतंत्र की मालिक अब भी आम अवाम ही है । जनता ही जनार्दन है , ये अलग बात है कि उसने इतने दिनों तक ढील दे रखी थी लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं लगाना चाहिए कि जनता बेवकूफ़ है । सरकार को पहली बार ये एहसास हो गया है कि जो जनता उन्हें इस सत्ता पर बिठा सकती है वो अपने लिए , देश के लिए सही कानून , सही नीतियां , खजाने का हिसाब , और इन जनसेवकों को जनसेवा का मतलब समझा भी सकती है । अभी तो ये लडाई शुरू ही हुई है . वो भी सीमित मांग और सीमित साधनों और एक संतुलित नपे तुले राह को पकड के । कल्पना करिए कि अगर यही जनता मिस्र का रास्ता अख्तियार कर लेती तो कौन बचा सकता था इस सरकार को और उसके नुमाइंदों को ।
ये लोकतंत्र है , इसे भीड समझने की भूल करना खुशफ़हमी पालने जैसा है |
इसलिए ये कह भर देना कि ये बस एक क्षणिक आवेश भर था जो समय के साथ भुला दिया जाएगा एक खुशफ़हमी की तरह है । अन्ना हज़ारे ने अल्टीमेटम दे दिया है कि अगर पंद्रह अगस्त तक ये जनलोकपाल विधेयक नहीं पारित हुआ तो फ़िर फ़िर वही जंतर और फ़िर वही मंतर । और अबकि तो शायद जनता पांच दिन का इंतज़ार भी न करे ....