(टाईम्स ऑफ इंडिया से साभार )
हाँ भाई, आज तो अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है सो सबके कदम ऊपर होंगे ही। वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय दिवस के मौके पर कम से कम दिल्ली , मुंबई जैसे महानगरों में तो महिला दिवस की धूम जरूर दिखाई देती ही है। मैं यहाँ इस बहस में बिल्कुल नहीं पढ़ना चाहता की किसी विशेष दिवस या सप्ताह मनाने या नहीं मनाने से क्या फर्क पड़ता और क्या नहीं पड़ता है। बस इतना कहना चाहता हूँ की इसमें कोई बुराई तो नहीं ही है, हाँ यदि इस दिवस का कुछ और भी सार्थक उपयोग हो सके तो जरूर ही एक ऐसा समय भी आयेगा की जब ये महिला दिवस शहर से निकल कर गावों में पहुँच जायेगा।
हालाँकि ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है की महिलाओं की स्थिति , उनके ओहदे, उनकी शक्ति और उनके सामाजिक स्टार में कोई भी बदलाव नहीं आया है। बदलाव तो ऐसा आया है की अब तो ये एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन गया है। मगर न जाने क्यों आज इस महिला दिवस पर न चाहते हुए भी मुझे दो घटनाएं जरूर ही याद आ रही हैं। पहली कुछ समय पहले की है। देश की पहली महिला आई पी एस अधिकारी, जिसे पुरे विश्व में सम्मान की नजरों से देखा जाता है उन्हें जबरन न जाने किन कारणों से दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नहीं बन्ने दिया गया। और दुःख की बात ये है की ऐसा तब हुआ, जब राष्ट्रपति के पद पर , दिल्ली के मुख्यमंत्री के पद पर और शाशन करने वाली पार्टी के सबसे ताकात्वर ओहदे पर महिलाएं ही बैठी हुई थी। पूरा देश चुपचाप तमाशा देखता रहा। स्वयं महिला जगत ने इस पर कोई मुखर विरोध नहीं दर्ज कार्या। दूसरी घटना थी मंगलोर के पब में कुछ लोगों द्वारा लड़कियों और महिलों के बेरहमी से पिटाई। हालाँकि में कभी महिलाओं के किसी भी ऐसे कदम , जो बेशक उन्हें आधुनिकता का एहसास दिलाते हों, के पक्ष में कभी भी नहीं रहा जो उन्हें उनकी प्राकृतिक महिला संवेदनाओं को चकनाचूर कर देता है। फ़िर चाहे वो फैशन हो, चाहे किसी भी तरह का नशा करने की बात हो या फ़िर लिव इन रीलेसहनशिप जैसी बातें हों। मगर किसी भी परिस्थिति में ये सारे फैसले निश्चित और सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वयं महिलाओं को ही लेने का हक़ है।
मुझे यकीन हैं की यदि मेरे संस्कार मेरी पत्नी, मेरी बहन, मेरी बेटी को सब कुछ समझा देते हैं तो वो स्वयं ही अपने निर्णय लेने में सक्षम होंगी। मगर किसी भी हालत में मैं ऐसा कभी नहीं चाहूँगा की मुझे अपना निर्णय उन पर थोपने की नौबत आए। जहाँ तक महिला दिवस की बात है तो इतना तो तय है की ये सारे दिवस , दिन सप्ताह, महीने, इन महानगरों की सीमाओं तक जाते जाते दम तोड़ देते हैं। जिस दिन मेरे घर पर काम करने वाली मेरी बूढी काम वाली अम्मा को महिला दिवस समझ आयेगा, उस दिन मुझे ये दिवस ज्यादा पसंद आयेगा। खैर फ़िर भी सबको महिला दिवस की ढेरों शुभकामनायें.
बहुत अच्छा आलेख ... जिस दिन मेरे घर पर काम करने वाली मेरी बूढी काम वाली अम्मा को महिला दिवस समझ आयेगा, उस दिन मुझे ये दिवस ज्यादा पसंद आयेगा ... बिल्कुल सही कहा ।
जवाब देंहटाएंबहुत सही विश्लेषण.
जवाब देंहटाएंसिर्फ महानगरों में महिला दिवस मानाने से स्थिति सुधरने वाली नहीं है.
परिवर्तन की असली ज़रूरत तो ज़मीनी स्तर पर है.
aap dono ka bahut bahut dhanyavaad. padhne aur apnee sahmati jatane ke liye.
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