कोशिश तो,
हमने भी की,
अपनी झोलियाँ,
भरने की,
किस्मत अपनी,
की हर बार,
खुशियों की,
खुरचन ही मिली।
जब कर लिए,
सारे प्रयास,
और ढूंढ लिए,
कई प्रश्नों के,
उत्तर भी,
हर जवाब से,
इक नयी,
उलझन ही मिली॥
चाहा की तुम्हें,
रुसवा करके,
सिला दूँ, तुम्हें,
तुम्हारी बेवफाई का,
तुम्हें दी ,
हर चोट से,
अपने भीतर इक,
तड़पन सी मिली॥
मैं मानता था,
अपने अन्दर,
तुम्हारे वजूद को,
मगर न जाने क्यों,
हर बार , बहुत,
दूर तुम्हारी,
धड़कन ही मिली...
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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला