शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

जो तुम रिपब्लिक तो हम पब्लिक हैं बाबू









आजादी की लडाई के बाद १९७७ और उसके बाद शायद अब वो समय आया हुआ है जब सच में ही एक आदमी हर राजनीतिक दांव पेंच को न सिर्फ़ समझ रहा है बल्कि उसमें अपनी सक्रियता और प्रभाव बना रहा है । बेशक ये स्थिति , महंगाई , भ्रष्टाचार , अन्याय , नक्सलवाद और इन जैसे जाने कितने ही मुद्दों के लिए अलग अलग लडी जा रही लडाई के कारण बन गई हो और जो जनांदोलन या कहा जाए कि जनाक्रोश पिछले दिनों देश ने देखा और दिखाया वो सिर्फ़ जनलोकपाल बिल बनाने या ना बनाने के कारण न भी हो तो भी कुछ बातें तो नि: संदेह ही ऐसी हुईं जो अब से पहले या इससे बेहतर पहले कभी नहीं हुई या हो पाई थीं । 

सबसे पहली गौर करने वाली बात । देश के संविधान निर्माताओं ने इसे आज  से आधी शदाब्दी पहले बनाते समय , इतनी कुशाग्रता और चतुराई अपनाई कि वो कहीं कहीं तो अति को छू गई । विश्व के सारे संविधानों के उपबंधों , अनुच्छेदों , व्यवस्थाथों को भारत के संविधान में जगह दी गई , बिना इसकी परवाह किए कि वो विश्व का सबसे बडा लिखित संविधान बन गया । चलिए मान लिया जाए कि उस समय ये निहायत ही जरूरी और एकमात्र विकल्प था तो भी क्या ऐसे उपबंध अनुच्छेद ऐसी व्यवस्थाएं जरूरी थीं बनाना जो आधी शताब्दी बीत जाने के बाद भी अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पहले से भी कहीं अधिक क्लिष्ट और विषम परिस्थितियों में फ़ंस गई हों चाहे वो फ़िर आरक्षण व्यवस्था हो चुनाव की व्यवस्था । सारे औपबंधिक व तात्कालिक उपायों को भी स्थाई बना के रख दिया गया । और तिस पर , हद तो ये है कि संविधान में लगातार ही संशोधन की प्रक्रिया चली आ रही है । चुनाव सुधार ,भ्रष्टाचार , अपराध , आतंकवाद आदि सबसे निपटने के लिए कानून पर कानून बनते और उसी रफ़्तार से बिसराते चले जा रहे हैं । अधिकारों की लडाई रोज़ लडी जा रही है किंतु जब बात कर्तव्यों की आती है तो अभी देश के समाज के अंदर , राष्ट्रीय गीत , राष्ट्रीय ध्वज आदि को सम्मान देने वाला राष्ट्रीय धर्म भी अभी कर्तव्य में नहीं जुड सका है । संविधान संशोधन की फ़ेहरिस्त लंबी से लंबी होती ही चली जा रही है । इसके बावजूद कानून ऐसे बन रहे हैं जिनके लिए कहा जाता है कि ,इन कानूनों में रह गई कमियों के कारण ही दोषी हर बार बच निकलते हैं , या फ़िर कि शायद ये छिद्र छोडे ही जानबूझ कर जाते रहे हैं । 


पिछले दिनों अन्ना के जनांदोलन को देखने आए एक विदेशी राजनीतिक सर्वेक्षक ने इस बात पर सुखद हैरानी जताई थी कि भारत में लोग किसी कानून के बनने और न बनने या फ़िर अच्छे कानून को बनाने के लिए सरकार पर दबाव डालने के लिए सडक पर उतर आए । देश के तमाम राजनीतिक विशेलेषक भी ये बात भली भांति जानते हैं कि , अबसे पहले शायद ही कभी आम आदमी ने किसी कानून के बनने से पहले उसके बारे में न सिर्फ़ जाना बल्कि खुल कर अपनी राय उस पर रखी । नागरिक समाज के कुछ लोगों ने आगे आकर सरकार के सामने दोहरी चुनौती रख दी । पहली ये कि लोकतंत्र में जनता के, जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों से अलग जाकर आम लोगों ने अपने बीच के कुछ लोगों पर ज्यादा भरोसा जताया । दूसरी ये कि , सिर्फ़ सरकार और निर्वाचित प्रतिनिधि ही बेहतर कानून बना सकते हैं इस मिथक को तोडते हुए नागरिक समाज ने उसी कानून का बेहतर मसौदा सरकार के सामने रख दिया । यही वो सबसे बडी वजह आज राजनीतिक वर्ग को खाए जा रही है कि , यदि ये काम भी उनसे छीन कर जनता ही अपने हाथों में ले लेगी तो फ़िर पिछले साठ सालों से चला आ रहा राजनीतिक वर्चस्व तथा , देश , समाज , कानून तक पर पडता दबदबा खत्म हो जाएगा । 


जो सरकार पहले , नागरिक समाज और उसके किसी प्रतिनिधि के अस्तित्व और हैसियत तक को मानने को तैयार नहीं थी , उसने जब देश को इस मुद्दे पर आंदोलित होते हुए देखा और अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भी अन्ना बाबूराव हज़ारे के प्रभाव में आकर लोगों को सडक पर उतरने से रोकने के लिए कुछ भी करने में खुद को असमर्थ मानने समझने लगी तो थकहार कर इस मसौदे को संसद के पटल पर रखा गया । किंतु इस बीच जिस तरह से एक ऐसे कानून जिसे जनता समझ रही है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में प्रभावी सहायता और शक्ति मिलेगी , उस कानून को लेकर सभी राजनीतिक दलों के रवैये को देखकर जनता जिस तरह से चुनाव के समय देख लेने जैसी चेतावनी पर उतर आई तो सभी राजनीतिक दल भी इस बात को भलीभांति समझ और भांप गए कि दशकों से चला आ रहा ये सब छीना जा सकता है । सरकार के लिए दुविधा और मुश्किल और भी ज्यादा इसलिए बढ गई क्योंकि ,पिछले ही दिनों , देश के अन्य बडे मुद्दों जैसे काले धन को वापस लाने का मुद्दा , राईट टू रिकॉल और राईट टू रिजेक्ट का मुद्दा भी साथ साथ उठने लगा और दूसरी तरफ़ वर्तमान सरकार के बहुत सारे मंत्री तक बडे आर्थिक घोटालों के आरोपी बनके जेल जाने लगे । 


इस स्थिति में आने के बाद राजनीतिक दल मौन होकर ये सब देखते रहेंगे ऐसी अपेक्षा करना ही बेमानी होता । पिछले दिनों नागरिक समाज के उन प्रतिनिधियों जो कि सीधे सीधे इस लडाई के अगुआ रहे , उन्हें हर तरह से निशाने पर लिया गया । बाबा रामदेव के साथ तो पुलिस ने रात के अंधेरे में जो कुछ किया वो न्यायपालिका तक को नागवार गुजरा और उसने स्वत: संज्ञान लेते हुए सरकार को तलब कर दिया । सिविल सोसायटी के सदस्य ,अन्ना बाबू राव हज़ारे ,किरन बेदी , अरविंद केजरीवाल और अब डॉ कुमार विश्वास तक को किसी न किसी मामले में नोटिस पकडा दिया गया ।


 इससे भी आगे बढकर , एक सदस्य प्रशांत भूषण से काशमीर विवाद से जुडा एक सवाल और उस पर दी गई प्रतिक्रिया के कारण उनके साथ मारपीट तक की गई । अगले दिन एक आम सभा में जाते समय अरविंद केजरीवाल पर चप्पल तक फ़ेंकी गई और अभी आगे जाने क्या क्या होना है । क्या इस देश की जनता को इतनी सी समझ नहीं है कि आयकर जैसे मलाईदार विभाग में एक राजपत्रित अधिकारी और दिल्ली पुलिस की वरिष्ठ अधिकारी जैसे प्रभावी पदों को लात मार कर नौकरी से बाहर हो जाने वाले सिविल सेवा के ये अधिकारी अपने नौकरी में भरपूर मलाई और भ्रष्टाचार कर सकने के मौके को छोड कर हवाई यात्रा करके पैसे बनाने जैसा महान घोटाला करेंगे । किसी को अपमानित करना , उसके साथ अचानक ही मार पीट कर अपनी बहादुरी दिखाना उतना ही आसान है जितना कि अपनी छत पर खडे होकर गली में किसी के ऊपर कंकड मार के छिप जाना । अरविंद केजरीवाल पर निशाना साधने वाले क्या ये हिम्मत कर सकते हैं कि पहले देश की सबसे बडी प्रतियोगिता परीक्षा को पास करके , सरकारी सेवा में आएं , या फ़िर ये कि उनके सामने आकर मुद्दे पर आमने सामने बात करें । 


क्या देश के पास दूसरी किरन बेदी है , वो किरन बेदी जिसने न सिर्फ़ देश भर में , बल्कि विश्व भर में ख्याति अर्ज़ित की । प्रशांत भूषण से जनलोकपाल मुद्दे पर उनकी राय जानना तो प्रासंगिक लगता है किंतु उनसे जम्मू काशमीर विवाद पर प्रतिक्रिया लेकर मारपिटाई करना तर्कसंगत नहीं लगता खासकर जब वहीं से खुले आम कोई यह कह कर कि वो पाकिस्तानी एजेंट है , सरकार जो चाहे कर ले , सरकार की छाती पर मूंग दलता है और उसका बाल तक बांका नहीं होता और तो और कोई प्रतिक्रिया तक नहीं देता , जाने तब ऐसी सेनाएं कहां होती हैं । 


हरियाणा में अन्ना टीम द्वारा कांग्रेस के प्रत्याशी को वोट न देने की अपील को चुनाव परिणाम आने से पहले तक इस रूप में दिखाया गया मानो अन्ना हज़ारे और कांग्रेस के बीच चुनाव हो रहा हो । इस तरह की बातें सामने आईं कि अगर कांग्रेस हरियाणा में नहीं हारती तो वो टीम अन्ना के आम आदमी के समर्थन के दावे की हार होगी ,लेकिन परिणाम निकलने के बाद फ़ौरन ये कहा जाने लगा कि शीतकालीन सत्र तक टीम अन्ना को प्रतीक्षा करनी चाहिए । भविष्य में सरकार का रूख जनलोकपाल को लेकर चाहे जो भी हो ,आम आदमी ने ईशारा कर दिया है कि अब वो सिर्फ़ तमाशाई बनकर नहीं बैठेगा ,भले इस बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सोच रहे एक एक व्यक्ति को नोटिस भेज दिया जाए या चप्पल जूते  मारे जाएं । 


मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

इरोम की लडाई ..एक दशक का अनशन









रविवार ,2 अक्तूबर , को जंतर मंतर दिल्ली पर शांति मार्च का आयोजन करते , इरोम की लडाई में साथ आए दोस्त , जिनमें एक मैं भी था , और हमारे मित्र मयंक सक्सेना जी भी , जिनके एक संदेश से मैं यहां पहुंच सका














पिछले दिनों जनलोकपाल बिल को लेकर , जिस तरह से पूरे देश के अवाम के बीच एक उथल पुथल , व्यवस्था और सरकार के विरूद्ध  आक्रोश के साथ साथ पहली बार ऐसा हुआ कि किसी प्रस्तावित कानून के मसौदे और उसके प्रावधानों को लेकर जनता के बीच जम कर बहस चली । और इस बहस की न सिर्फ़ आवाज़ संसद तक पहुंची बल्कि थकहार कर उन्हें भी जनता की भावना को पटल पर रखना पडा । ये पिछले साठ सालों में पहली बार हुआ कि जनता ने खुल कर कहा कि यदि कानून समाज के लिए ही बनाए जाते हैं , आम लोगों के लिए बनाए जाते हैं तो फ़िर उन्हें बनाने का हक भी समाज को ही मिलना चाहिए , कम से कम उतना तो जरूर ही कि पिछले सभी बने हुए कानूनों में जानबूझ कर छोडे गए छिद्रों की गुंजाईश को कम किया जा सके । एक साल में दो दो बार आम जनता को सडक पर उतरने के लिए उद्वेलित करने वाले अन्ना हज़ारे ने जब अनशन का रास्ता अपनाया , और न सिर्फ़ अपनाया बल्कि अनशन की ताकत भी दिखा दी तो स्वाभाविक रूप से देश में पिछले कुछ वर्षों में तेज़ हुई एक बहस को फ़िर से हवा दे दी । ये मुद्दा है , मणिपुर की इरोम शर्मिला के अनशन से जुडा हुआ मुद्दा । यानि  The Armed Forces (Special Powers) Act,1958, (As Amended in 1972),को मणिपुर , पूर्वोत्तर राज्यों , आदि से समाप्त करना क्योंकि ये जीवन के नैसर्गिक अधिकारों का प्रत्यक्ष उल्लंघन है ।


यूं तो , इस समस्या से जुड कर अब कई पहलुओं पर लोग बहस कर रहे हैं , मसलन क्या पूर्वोत्तर का अलगाववाद , देश, सरकार , समाज   द्वारा उन क्षेत्रों की , की गई घोर उपेक्षा से ही पनपा है । लेकिन इरोम की लडाई का मुद्दा है भारत सरकार का ये कानून । वर्ष २००० में इसी निरंकुश कानून का सहारा लेकर सुरक्षा जवानों ने एक युवती के सामने दस लोगों को मार डाला ।इरोम शर्मिला ही वो युवती थीं जिन्होंने इस घटना को देखा था और उस दिन से लेकर आज तक इरोम ने इस निरंकुश कानून को मणिपुर पर जबरन थोपे जाने का विरोध करते हुए अनशन के रास्ते को अपना लिया । सशस्त्र सेना (विशेष अधिकार ) कानून १९५८ ,संशोधित १९७२ , एक ऐसा कानून जिसमें साधारण अधिकार से ज्यादा ताकत दी गई सुरक्षा बलों को । असम , मणिपुर, मेघालय , नागालैंड , त्रिपुरा और अरूणाचल प्रदेश व मिज़ोरम यानि पूर्वोत्तर राज्यों में इस कानून को लागू किए इस कानून के अनुसार , किसी भी अशांत क्षेत्र में शांति की स्थापना के लिए , सुरक्षा बल के अधिकारी व सैनिक सिर्फ़ शक के आधार पर किसी को गोली तक मार सकते हैं । किसी के भी घर में घुस कर तलाशी ली जा सकती है और किसी को भी बिना वारंट के गिरफ़्तार किया जा सकता है । अशांत क्षेत्र का निर्धारण भी सुरक्षा बल ही स्थिति को देखते हुए कर सकते हैं । आज़ादी के इतने बरसों बाद भी देश की जो सरकार एक तरफ़ खुलेआम सबका कत्ल करने वाले आतंकियों को न्याय के नाम पर सालों सालों जीवित रखती है वहीं दूसरी तरफ़ पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों के साथ इतना गहरा भेदभाव जैसा कानून थोपे बैठी है कि , आज इन राज्यों में ये मानसिकता पनप चुकी है कि वो उस दिन को प्रदेश का काला दिन मानते हैं जिस दिन इन राज्यों का विलय पूरे देश के साथ कर दिया गया था ।







इस पूरे घटनाक्रम में कुछ बातें जो विशेष तौर पर निकल कर सामने आई हैं वो ये कि क्या इतने सालों बाद भी पूर्वोत्तर राज्यों को , उनके निवासियों को , वहां के समाज , वहां की समस्याओं को मुख्य धारा में लाकर देखा समझा जा सका है । अपनी अलग शारिरिक छवि , रंग रूप की बहुलता के कारण , उत्तर पूर्व से बाहर उनकी पहचान , एक उपहासात्मक मानसिकता से जोड दी गई है । आज सिक्किम की बाढ हो या मणिपुर का कोई हादसा न वो राष्ट्रीय मुद्दा है और न ही वो मुद्दा ही रह पाता है । आज जिन कानूनों के लागू होने के कारण वहां के मूल लोगों की जिंदगी के अधिकार को ही छीन लिया गया है , उस अधिकार को हटाने तो दूर आज सरकार उस कानून पर बहस तक करने को तैयार नहीं है । इस अराजक और निरंकुश कानून को हटाए जाने की मांग को लेकर अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला से कोई सिर्फ़ और सिर्फ़ तभी मिल सकता है जब उसके पास मणिपुर के मुख्यमंत्री का आदेश हो । इतनी सख्ती , इतना डर , इतना अलगाव , क्यों , आखिर क्यों । उस देश में क्यों , जो अपने देश के , समाज के और देश के सम्मान के हत्यारे को भी बरसों तक जाने अनजाने देश का मेहमान बनाए रखती है । अपने देश के नागरिकों , से निपटने के लिए विशेष अधिकार वो भी इतना निरंकुश कि सिर्फ़ शांति स्थापना की प्रक्रिया में शक शुबहे पर भी किसी की भी जान ली जा सकती है , और सबसे बडी अमानवीय बात ये है कि ये कानून है , एक विधिक अधिकार ।


इरोम की लडाई को आज एक दशक बीत चुके हैं , और उसकी ये लडाई तब शुरू हुई थी जब मीडिया , आज के जैसा मीडिया नहीं था ,मीडिया ने बाज़ार का रूप नहीं लिया था , इतनी व्यावसायिकता नहीं आई थी । अब समय बदल गया है , पिछले कुछ सालों में पूरे विश्व में हो रहे परिवर्तनों में जिस तरह से आम जनांदोलनों ने भूमिका निभाई है और जन विचार , या एक दिशा देने में मीडिया ने जो भूमिका निभाई है उसे देखते हुए अब ये अपेक्षा की जा रही है कि यदि देश को भविष्य में अपना अस्तित्व और देशवासियों को खुद को बचाए रखना है तो फ़िर अब आम आदमी की हर मांग , उसकी हर बात को मुख्य धारा  में लाकर पूरे देश के सामने रखना  ही होगा ।ये लडाई शुरू हो चुकी है , और अब लोगों ने इरोम की लडाई को दिल्ली की सडकों पर उतारना शुरू कर दिया है । यदि इसी तरह आम आदमी की हर लडाई में देश का आम आदमी जुड जाए तो यकीनन देश का कल , कुछ अलग होगा ॥







अब ये तय कर लिया है कि , इस मुहिम और आम आदमी की हर मुहिम के साथ कदम से कदम और कंधे से कंधे मिला कर चलेंगे ..अब घिसटना मंजूर नहीं है मुझे ...........

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