एक जनांदोलन की शुरूआत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
एक जनांदोलन की शुरूआत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 29 अगस्त 2011

जनलोकपाल , जनांदोलन और जागता समाज ....१






पिछली बार जब अन्ना हज़ारे जंतर मंतर पर आमरण अनशन पर बैठे थे और जिस तरह से उसने सिर्फ़ पांच दिनों में अपना दायरा और प्रभाव बना दिया था उससे ये तो तय हो गया था कि अब इस देश की जनता के लहू का तापमान उतना गर्म तो जरूर हो चुका है कि , जरा सी आंच पे उबाल आ जाएगा और कांग्रेसी प्रभाव वाले शासनकाल को गौर से देखने पढने वाला व्यक्ति बडी आसानी से ये भांप सकता था कि हर समस्या को ये सरकार फ़ुंसी से फ़ोडा बनाए बगैर इसका हल नहीं तलाशेगी । यदि पिछले कुछ दिनों की गतिविधियों को गौर से देखा जाए तो बहुत सी बातें स्पष्ट दिख जाती हैं कि किस तरह से आज की स्थिति और शायद इससे ज्यादा बदतर की भी अपेक्षा सरकार पहले ही कर रही होगी । ठीक ऐन उस वक्त जबकि पता है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी हो जाने के बावजूद जो पार्टी आज तक न गांधी को छोड सकी और न ही गांधी के आदर्शों को मान सकी , और बिना गांधी के उसका थिंक टैंक बिल्कुल ही बंद सा पड जाता है , ऐसे में भी सरकार के घटक दलों की नेता , यानि कांग्रेस के साथ , कुर्सी के लिए चिपके तमाम दलों की अगुआ खराब स्वास्थ्य के कारण अमेरिकी स्ट्रेचर पर लेट जाती हैं , जबकि सुना गया था कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अमेरिकियों को ईलाज़ के चक्कर में भारत न जाने के लिए घुडका था ।


इंडिया अगेंस्ट करप्शन के मुहिम को एक उद्देश्य देते हुए जनलोकपाल बिल के रूप में परिवर्तन की चाह रखने वाले कुछ लोगों ने एक विचारधारा में खुद को पाते हुए इसे एक बडी लडाई की तरह लडने का निर्णय लिया । पिछले वर्षों में सूचना का अधिकार के लिए , ऐसी ही जद्दोज़हद और उसके प्रयोग से होने वाले बडे बडे सरकारी घपलों घोटालों के खुलासे से उत्साहित नागरिक समाज का ये गुट अब नए प्रयोगों और चुनौतियों के लिए तैयार हो रहा था । ये सिरा पकड कर वो लोग खुदबखुद इसके साथ जुडते चले गए जिनके मन में अब बदले जाने की , व्यवस्था के खिलाफ़ खडे होने की हिम्मत दिखाने की सोच पनप रही थी । युवा ब्रिगेड ने प्रशासनिक अधिकारियों की काबलियत , विधि विशेषज्ञों का मार्गदर्शन , मीडिया एवं आज के तमाम जनसंचार साधनों  सर्वश्रेष्ठ तालमेल , और एक सुनियोजित शैली को एक स्थान पर एक करके , देश में आजादी के बाद आम लोगों में राष्ट्रप्रेम जगाने का , कुछ गलत को रोकने के लिए झिंझोडने का और सबसे बढकर , आम जनों को अपने अधिकारों के प्रति सजग करने और दिखने का अभूतपूर्व मौका दे दिया । इस आंदोलन के अगुआ अन्ना हज़ारे को बनाए जाने के पीछे जिसका भी विचार था वो कितना काबिल और पुख्ता था  ,इस बात का अंदाज़ा इसी से हो जाता है कि ,तमाम कोशिशों और चालों के बावजूद भी सत्ता श्री बाबूराव किसन हज़ारे के खिलाफ़ कुछ भी नहीं निकाल पाई । जो कुछ निकाला भी गया उसकी गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से हो जाता है कि सरकार के  इन आरोपों पर जनप्रतिक्रिया के रूप में सरकार का उपहास उडाते सैकडों चुटकुले सुने सुनाए गए उन दिनों ।



देश के पिछले कुछ वर्ष , हालांकि वैश्विक राजनीतिक हलचलों के बीच भी काफ़ी कुछ खुद को बचाए होने के बावजूद इतना ज्यादा उथल पुथल मचा गया कि लोगों का जो गुस्सा पिछले साठ सालों से लोगों द्वारा बहाने से मुल्तवी किया जा रहा था , वो अचानक ही फ़ट पडा । इस गुस्से का सही उपयोग और इस गुस्से को एक सही दिशा देकर इसे जनांदोलन के रूप में खडा करने का काम किया इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने । देश में भ्रष्टाचार आज इस कदर बढ गया था कि कहीं न कहीं , लगभग अस्सी नब्बे प्रतिशत के स्तर को छूने के कारण एक ऐसी मानसिकता बन गई कि भ्रष्टाचार अब इस देश से नहीं हटाया जा सकता । न्यायपालिका जो अब तक बडे ही धाकड रूप से आम जनता को अपने कानूनी पक्षों से संरक्षित किए हुए थी वो भी पिछले दिनों कुछ डगमगाती सी दिखी । देश में संचारतंत्र और वैश्विक आवागमन ने भारत के शहरी वर्ग को अपने काम में मशगूल होने के बावजूद , अधिकारों के प्रति सजग होने का मौका दिया । ऐसा नहीं था किस ऐसा सिर्फ़ समाज की मुख्यधारा में लगे हुए लोग सोच रहे थे , बाबा रामदेव ने अपने धर्मक्षेत्र को किनारे करते हुए देश के बडे आर्थिक भ्रष्टाचार यानि कालेधन की समस्या को उठा कर एक अलग आवाज़ बुलंद की । ये अलग बात रही कि , ऐसे मुद्दों पर सरकार और प्रशासन से लडने वाला अनुभव और सुयोजना की कमी ने सरकार के कूटनीतिज्ञों को ये मौका दे दिया कि उन्होंने बाबा रामदेव और मुद्दे को भी कुछ दिनों के लिए टाल दिया ।


मुद्दे के रूप में लोकपाल बिल जो कि संसद में महिला आरक्षण समेत कुछ ऐसे ही अभागे बिलों में से एक था जो सत्रों या बरसों से नहीं दशकों से लटका हुआ चला आ रहा था । सरकारी लोकपाल बिल का मसौदा पहले सी ही रुग्ण था रही सही कसर वर्तमान सरकार के मंत्रियों की घोटालों के प्रति निष्ठा , केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति का विवाद , और चरम पर पहुंचती महंगाई के लिए जिम्मेदार भ्रष्टाचार ने ये तय कर दिया कि अब जनता बर्दाश्त नहीं करना चाहती है । जनलोकपाल का प्रारूप तैयार करने का जिम्मा उठाया उस टीम ने जिसे आज सिविल सोसायटी कहा जा रहा है , इस बिल की इबारत लिखने वालों में दो तेज़ तर्रार और अपने अपने क्षेत्र के बेहतरीन प्रशासक , और दो विधि विशेषज्ञ पिता पुत्र ने अपनी काबलियत का पूरा प्रमाण देते हुए एक ऐसा बिल प्रारूप तैयार किया जिसमें से बचने के रास्ते तलाशाना बेहद कठिन साबित होता । ज्ञात हो कि,कानून बनने बनाने में जनता की इच्छा तो दूर बरसों तक आम नागरिकों को बने हुए कानूनों का पता ही नहीं होता और शायद इसलिए भी इसे वो लोग आसानी से तोड पाते हैं , इस लिहाज़ से भी ये पहली वो पहल रही जिसमें पूरे देश ने एक कानून के मसौदे को लेकर जम कर बहस की , खूब लिखा पढा गया , अगर इसे समर्थन मिला तो तीव्र प्रतिक्रिया और आरोप भी झेलने पडे । इस आंदोलन को प्रचार की धार देने के लिए  , मीडिया गुरू और प्रचार प्रसार का जिम्मा संभाले टीम अन्ना के एक सहयोगी तथा , आज की हर तकनीक से लैस युवा ब्रिगेड का तालमेल कुछ ऐसा मिला कि आंदोलन की तैयारी मीडिया ने भी वार लेवल पर की और चौबीस घंटे की पल पल की खबर सबके सामने रखी । ये मीडिया के कैमरों का भी सौभाग्य रहा कि पिछले तेरह दिनों में देश के करोडों चेहरों को बडी करीबी से पढा , चौबीस घंटे लगातार आम आदमी के साथ आंख से आंख मिलाए , और दूसरी तरफ़ सत्ता के गलियारों में चल रही एक एक गतिविधि भी ।


जंतर मंतर पर , कुछ माह पहले 


इस लडाई की शुरूआत अब से कुछ महीनों पहले इस बात को लेकर हुई कि लोकपाल बिल की प्रारूप समिति में से आधे सदस्य सीधे जनता में से ही होने चाहिएं जिसे सरकार ने सिर से ही नकार दिया । और पहले से ही तय हुआ अनशन शुरू किया , धरनों और प्रदर्शन के लिए अब तक एक स्थापित हो चुका बिंदु जंतर मंतर । इस मुहिम की शुरूआत बहुत धमाकेदार नहीं होकर भी इतनी तो थी ही कि पहले दिन से ही इसे व्यापक मीडिया कवरेज मिला । पांचवें दिन जाते जाते सरकार लंबलेट हो चुकी थी तथा सिविल सोसायटी के पांच सदस्यों के साथ वार्ता की सहमति पर आंदोलन को स्थगित किया गया लेकिन उसी वक्त अन्ना ने ये कह दिया था कि अगर इन तमाम बैठकों के बावजूद सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक मजबूत कानून के रूप मे ,ज्नलोकपाल बिल को गंभीरता से नहीं लिया तो सोलह अगस्त से इस आंदोलन को पुन: खडा कर दिया जाएगा । इस बीच जो कुछ हुआ और होता चला गया उसने न सिर्फ़ सरकार की मंशा को ज़ाहिर किया बल्कि एक एक करके खुले घोटालों की पर्तों ने आम जनता का क्रोध और क्षुब्धता को भी चरम पर पहुंचा दिया ।





कल इससे आगे बात करेंगे .....

रविवार, 10 अप्रैल 2011

इस जनांदोलन की शुरूआत ने किसे क्या दिया ?? ............अजय कुमार झा


एक आगाज़ है ये , अंजाम तो अभी बांकी है


पिछले पांच दिनों में जो कुछ देश ने देखा , जो कुछ भारतीय अवाम ने किया , वो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में शायद आजादी के बाद पहली बार ही हुआ था । हालांकि बहुत से मुद्दों पर इससे बडे बडे जनसमूह ने अपनी मांगों को लेकर इससे भी बडे प्रयास किए और जीते भी हैं लेकिन फ़िर भी आजादी के बासठ वर्षों के बाद पिछले पांच दिनों में ही लोकतंत्र की आत्मा को उसकी ताकत को सबने एक स्वर में महसूस किया है । अब चूंकि ये जनांदोलन अपना रंग दिखाने लगा है तो ये बहुत जरूरी है कि इस माहौल को , वातावरण को  बरकरार रखा जाए और आज जनमानस के सामने यही सबसे बडी चुनौती है । अब सबको ये समझ लेना चाहिए कि ये आग जो अन्ना की एक हुंकार पर लोगों के भीतर सुलग उठी है उसे अपने अपने स्तर पर अपने अपने दायरे में , अपने घरों दफ़्तरों , मुहल्लों , गलियों शहरों में उबालते रहना होगा अगर वाकई सब चाहते हैं कि देश बदले देश की तकदीर बदले । जो लोग इस आंदोलन को क्षणिक आवेश मात्र मान रहे हैं उन्हें कुछ बताना जरूरी हो जाता है कि इस शुरूआत ने आखिर इस देश को इस समाज को , इस सरकार को  , और सबको क्या क्या दिया ।
आंदोलन का जयघोष हो चुका है


सबसे पहले बात राजनेताओं की , इस आंदोलन ने उन्हें ये सबक दे दिया है कि अब अवाम किसी भी राजनीतिक दल की मोहताज़ नहीं रहेगी वो अब चोरों में से एक चोर चुनने के लिए ही मजबूर होकर नहीं बैठेगी , वो अपना हीरो अपने बीच में से ही खुद चुन लेगी ..और अगर हीरो न भी मिला तो खुद ही हीरो हो लेगी । अब उसे धर्म , जाति , क्षेत्र आदि के सहारे बंट कर या बांट कर लडने की जरूरत नहीं रह जाएगी , वो आएगी , ऐसे ही किसी मुद्दे को पकडेगी , सरकार को घेरेगी , सत्ता को ललकारेगी और फ़िर जीत कर उसके मुंह पर तमाचा मार के चल देगी । कुछ राजनीतिज्ञ जो इस कोशिश में आंदोलन के दौरान अपनी किस्मत चमकाने की गर्ज़ से आए भी थे वे भी अपना सा मुंह लेकर चलते बने क्योंकि उस वक्त जनता अपनी आंखें खोले पूरी तरह बेशर्म निर्लज्ज , बेखौफ़ और बेलिहाज़ होकर बैठी थी सो वहीं से उलटे पांव खदेड दिया उनको ।
सजग मीडिया , चुस्त और मुस्तैद

इस आंदोलन ने मीडिया को ये बता दिया कि अगर वे सच्चाई का साथ देंगे , अगर वे पत्रकारिता के धर्म को निर्वाह करने का जज़्बा दिखाएंगे . जो कि उन्हें अपना बाज़ार बचाए रखने के लिए भी देना ही होगा क्योंकि आखिर उस बाज़ार के खरीददार जब खुद ही उन समाचारों के , उन खबरों के केंद्र में होंगे तो ही वे खुद पर विश्वास को जीत पाएंगे और जनता के दिल में भी अपने लिए वही जगह बना सकेंगें जिसके लिए उन्हें लोकतंत्र का चौथा खंबा माना कहा जाता रहा है । जीत के जश्न में कुछ खुद को बहुत ही प्रबुद्ध पत्रकार समझने वाले लोग जब जबरन घुस कर वहां अपना मीडियापन दिखाने की कोशिश करने की जुगत में थे तो अवाम ने उनके साथ भी वही सलूक किया जो उन्होंने राजनेताओं के साथ किया था । मीडिया को भी इस बात का एहसास हो गया था कि असली लडाई , असली मुद्दे , असली लोग ही असली खबर हैं बांकी सब तो बस दुकानदारी है और कुछ नहीं । ये अब टीआरपी का रिकॉर्ड रखने वाले खुद अंदाज़ा लगा सकते हैं कि क्रिकेट विश्व कप को जुनून की तरह देखने वाली जनता ने दो दिन बाद से ही आंदोलन की एक एक खबर को सीने से लगाए रखा । मीडिया को ये भी एहसास हुआ होगा कि अगर वो चाहें तो अब भी देश की विचारधारा को बनाने और मोडने वाली शक्ति बन सकते हैं जैसा कि इस बार उन्होंने बन के दिखाया ।

ये है युवा जोश , युवा जुनून ,

अक्सर जब इस तरह के सामाजिक प्रयास किए गए या ऐसी कोई कोशिश की जाती रही है  तो समाज को हमेशा ही ये शिकायत रही है कि देश का युवा इन आंदोलनों से और ऐसे सभी प्रयासों से न सिर्फ़ खुद को अलग रखता आया है बल्कि अपने बीच इसे बेहद उदासीन मानता समझता रहा है । इस जनांदोलन में युवाओं के झुकाव ने , उनके जोश ने , उनके जज़्बे ने पूरे देश की धारणा को न सिर्फ़ गलत साबित किया बल्कि खुद के साथ ही पूरे समाज को दिखा बता और जता भी दिया कि अगर वो शीला मुन्नी जैसे गानों पर मदहोश होके नाच सकता है अगर क्रिकेट विश्वकप के उन्मादी जुनून को सिर माथे लगा सकता है तो फ़िर देश को बदलने के लिए इस तरह की तहरीरों में भी शिरकत कर सकता है । इस पूरे आंदोलन का खाका तैयार करने में , उसके समर्थन में माहौल बनाने में , लोगों को जोडने में और तो और इतनी बडी भीड को नियंत्रित करके रखने तक में युवाओं की जो भूमिका रही है उस पर देश को गर्व होना चाहिए । युवा जान गए हैं कि अगर अपना भविष्य बचाना है , बनाना है तो फ़िर ये भी करना ही होगा ।

सबसे बडा संदेश गया है देश की सरकार को , सत्ता के मद में चूर वातानुकूलित कमरों में बैठ कर सवा अरब की जनसंख्या की आखों में धूल झोंकने वाले उन सवा पांच सौ लोगों को कि ये लोकतंत्र है और इस लोकतंत्र की मालिक अब भी आम अवाम ही है । जनता ही जनार्दन है , ये अलग बात है कि उसने इतने दिनों तक ढील दे रखी थी लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं लगाना चाहिए कि जनता बेवकूफ़ है । सरकार को पहली बार ये एहसास हो गया है कि जो जनता उन्हें इस सत्ता पर बिठा सकती है वो अपने लिए , देश के लिए सही कानून , सही नीतियां , खजाने का हिसाब , और इन जनसेवकों को जनसेवा का मतलब समझा भी सकती है । अभी तो ये लडाई शुरू ही हुई है . वो भी सीमित मांग और सीमित साधनों और एक संतुलित नपे तुले राह को पकड के । कल्पना करिए कि अगर यही जनता मिस्र का रास्ता अख्तियार कर लेती तो कौन बचा सकता था इस सरकार को और उसके नुमाइंदों को ।
ये लोकतंत्र है , इसे भीड समझने की भूल करना खुशफ़हमी पालने जैसा है

इसलिए ये कह भर देना कि ये बस एक क्षणिक आवेश भर था जो समय के साथ भुला दिया जाएगा एक खुशफ़हमी की तरह है । अन्ना हज़ारे ने अल्टीमेटम दे दिया है कि अगर पंद्रह अगस्त तक ये जनलोकपाल विधेयक नहीं पारित हुआ तो फ़िर फ़िर वही जंतर और फ़िर वही मंतर । और अबकि तो शायद जनता पांच दिन का इंतज़ार भी न करे ....


Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...