ये मूर्तियां , मां शारदे की जय के नारे से गुण्जायमान हो रही होंगी |
आज का ही दिन , बहुत बरसों पहले , बहुत बरसों पहले इसलिए कहा है क्योंकि दिल्ली में खानाबदोशी के जीवन से पहले जब एक स्थाई और बहुत ही खूबसूरत जिंदगी जिया करते थे उन दिनों , आज का दिन , यानि वसंत पंचमीं के दिन का मतलब था , सज़ा हुआ दालान , प्रसाद की खुशबू से गमकता -महकता हुआ आंगन और ऊपर रंग बिरंगी पताकाओं की लंबी लंबी लडियों से दूर दूर तक की सज़ावट , खूब जोर जोर से बजता हुआ भौंपू जिसमें हम अपने अपने स्वाद के हिसाब से गला फ़ाड साउंड में गाने चला के सुना करते थे । मगर रुकिए किस्सा यहां से नहीं शुरू होता था ।
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जैसा कि मैंने अनुभव किया है कि चाहे जो भी कहिए अपने देश का एक गज़ब का रिवाज़ है और वो है हमारे त्यौहारों पर्वों की अधिकता और विशिष्ट होने के कारण कमाल की रोचकता । अब देखिए न इत्ता खुशकिस्मत देश भी और कौन सा होगा या कितने होंगे जिन्हें शीत ऋतु , ग्रीष्म ऋतु , शरद और वसंत तक प्रकृति का हर रंग देखने को मिलता है , हम वसंत में रंगों से सराबोर हो उठते हैं , तो शीत ऋतु में रौशनियों की चकमकाहट , यानि कि हमारे पास जितने ज्यादा बदलते हुए मौसम हैं , उससे भी ज्यादा उन्हें सैलिब्रेट करने की वज़हें ।
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मुझे याद है कि सरस्वती पूजा , जिसे उन दिनों बच्चे फ़्लो में सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती पूजा कहते थे , की तैयारी तो संभवत: वर्ष के शुरूआती दिनों से ही हो जाती थी और उसमें सबसे पहले काम होता था प्रतिमा बनाने वाले कुम्हार को इसके लिए बेना(बयाना) देना । हम उन्हें जाकर बता देते थे कि हमें कितनी बडी ,छोटी और कैसी मूर्ति चाहिए । सरस्वती पूजा हम अपने ही दालान पर किया करते थे , वो भी जब देखा कि हमारे बहुत सारे मित्र अपने अपने दालानों घरों पर सरस्वती पूजा बडे ही मनोयोग से कर रहे हैं तब हम जो अपने टोले के कुछ मित्रों ने भी यही सोचा कि हमें भी मां शारदे की पूजा अर्चना के इस दिन को उत्साह पूर्वक मनाना ही चाहिए । हम सब मित्र इसके लिए साल भर में जमा किए हुए पैसों का उपयोग करते थे और जो कमती बढती होती थी उसके लिए अभिभावकों को पटाया जाता था ।
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स्थान और प्रतिमा का निर्धारण होने के बाद तैयारियां शुरू हो जाती थी , बाजा वाले को साटा देना (यानि उस दिन के लिए उसे बुक करना ) , दरी , सजावट का सामान , प्रसाद का सामान , पूजा सामग्री , आदि तमाम कार्य सबके जिम्मे लगाए जाते । असली तैयारी शुरू होती थी दो दिन पहले जब हम मेहराब ( बांस की बाति{हरे कच्चे बांस को चीर के बनाई गई लंबी छोटी खपच्चियां ) ,अशोक के पत्ते , रंगीन कागज़ों को तिकोनी कटाई और फ़िर उन्हें लंबी सुतरियों पे बांध के दूर दूर तक लगाई जाने वाली पताकाएं । और यहां से जो हमारी जीत तोड मेहनत और भाग दौड का सिलसिला शुरू होता था तो फ़िर वो प्रतिमा विसर्जन तक यूं ही चलता रहता था ।
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पूजा से एक दिन पहले हम बैलगाडी पर बैठ कर मूर्ति लाने के लिए निकलते थे , जहां से ये मूर्ति लाई जाती थी वो गांव लगभग सात आठ किलोमीटर था , कच्चे पक्के रास्ते और हिचकोले खाती हमारी बैलगाडी । मूर्ति को किसी भी झटके से बचाने के लिए बैलगाडी में खूब सारा पुआल बिछा कर उसे गद्देनुमा बना दिया जाता था और फ़िर कुछ ज्यादा सक्षम मित्र प्रतिमा को उस गांव से लेकर अपने दालान तक लाने के लिए विशेष जिम्मा उठाते थे । प्रतिमा को साडी या बडी चुनरी से अच्छी तरह ढांप कर खूब जोर जोर से गला फ़ाड नारे , सरोसत्ती माता की जय ,सरोसत्ती माता की जय ..मां सरस्वती को दालान पे बनाए गए चौकी प्लेटफ़ार्म पे स्थापित किया जाता था ।
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पूजा की सुबह से पहले की वो रात अब भी यूं की यूं याद है कि जब मां के जिम्मे प्रसाद , पूजा , आदि की तैयारी , के अलावा हम सबको रात भर दूध/चाय भिजवाते रहना ताकि दोस्तों की मंडली उर्ज़ा के साथ काम करती रहे । मूर्ति, पांडाल , पताकाएं , सब कुछ सजाते सजाते भोर हो जाती थी । अधिकांशत: पूजा पर भी मैं ही बैठता था और उसकी वज़ह थी , मुझे रंगीन धोती पहनने का बहुत ही शौक था , अब भी है , और संस्कृत के मंत्रोंच्चारण से प्यार । उन दिनों मुझे स्त्रोतरत्नावली से तांडव स्त्रोत सहित जाने कितने ही स्त्रोत यूं ही कंठस्थ हो चुके थे मैं नियमित रूप से सुबह पूजा भी किया करता था , ये बदस्तूर अब भी जारी है ।
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नियत समय पर पूजा अर्चना और प्रसाद वितरण के बाद होता था गला फ़ाड बाजा बजाने का सर्वप्रिय कार्यक्रम , हालत ये हो जाती थी कि जब तक आंगन से मां और चाचियां हमें दौडा कर पीटने को उतारू न हो जाती थीं तब तक उसका वोल्यूम यूं ही बढा रहता था । पूजा के बाद सभी दोस्तों की मंडली निकलती थी अन्य दोस्तों द्वारा की जा रही पूजा में शामिल होने के लिए , प्रसाद लेने के लिए और सज़ी धज़ी मां शारदे को देखने के लिए । एक दिलवस्प बात बताना ठीक होगा कि जैसा कि उन दिनों हम मानते थे कि मां शारदे के चरणों में सारी पुस्तकें रख देने से हमें जरूर अच्छे नंबर आएंगे और मैं तो सबसे ऊपर गणित की पुस्तक ही रखता था :) :) :) :) ।
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दोपहर को भजन कीर्तन का दौर चलता था , ढोल मंजीरे और तालियां मार मार के सारे सुरों की ऐसी तैसी करते हुए हम सरस्वती माता को प्रसन्न करने का फ़ुल टू जोर लगाते थे । शाम की पूजा के बाद गैस वाली पैट्रोमैक्स लाइट से रौशनी की जाती थी । और कार्यक्रम के नाम पर उन दिनों का एकमात्र और सबसे पसंदीदा आयोजन होता था , वीसीआर के साथ तीन पिक्चरों का दौर (वीसीआर और वो तीन पिक्चरें ---एक पोस्ट पढवाउंगा आपको इनसे जुडी यादों से भी ) ,सुबह तक हमें ये याद नहीं होता था कि कौन से पिक्चर का कौन सा संवाद था ।
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अगले दिन दोपहर के समय मूर्ति विसर्जन का समय होता था । बाद में तो प्रतिमा को दो तीन या जितने भी दिन मन हो रखा जाने लगा था , मगर उस समय हम यही करते थे । मां शारदे की विदाई का समय ठीक वैसा ही होता था जैसे कोई घर की बेटी गौना कराके ससुराल जाने की तैयारी में हो । बैलगाडी को खूब सज़ाया जाता था , और हम सब , जितने उस बैलगाडी पर लद सकते थे उतने सब , ढोल मंज़ीरों से लैस होकर बैठ जाया करते थे । उस दिन पहली बार फ़िज़ा में गुलाल की खुशबू और रंग जम कर उडाए जाते थे , और यूं लगता था मानो हमने वसंतोत्सव और फ़ागुन का आगाज़ कर दिया हो ।
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खूब गाते बजाते पूरे गांव घूमते हुए , बीचोबीच बने सरोवर में हम प्रतिमा को पूरी श्रद्धा के साथ विसर्जित करते थे । जनवरी फ़रवरी के गांव के बेहद सर्द दिनों में , सरोवर के जमा देने वाले पानी में जब हम दोस्त मां सरस्वती की प्रतिमा को हाथों में उठाए ज्यादा से ज्यादा आगे ले जाने की धुन में उतरते थे तो वो आनंद ही कुछ और होता था । थके हारे हुए वापस आने पर सबको ठंडाई मिलती थी वो भंग तरंग वाली , और शाम को जो रंग जमता था ,उसके क्या कहने .............। गांव से शहर आने के बाद भी ये सिलसिला चलता रहा शायद बहुत सालों तक , हमारी जगह अगली फ़ौज़ आई , उसके बाद उससे भी अगली , और अब भी ये चल रहा है .. अभी हाल ही में जब गांव गया था तो पोस्ट के ऊपर खींची हुई फ़ोटो इसका प्रमाण है । चलते चलते ..हमारे पवन भाई का कार्टून भी देखें आप
बोलो सरोसत्ती माई की जय |
जवाब देंहटाएंसरसत्ती माई की जय
हटाएंअजय बाबू! एकदम फोटू उतार दिए हैं आप! आपसे बड़का खानांबदोस बनकर त हम घूम रहे हैं जहाँ बसंत पंचमी आकर कब चला जाता है बुझएबे नहीं करता है!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सलिल दादा कमोबेश यही हाल सबका है दादा
हटाएंविद्या कसम क्या शानदार लिख डाले हैं :)
जवाब देंहटाएंएकदममे से सरसती मैया का पुजा याद आ गया :)
शुक्रिया मुकेश भाई , शुक्रिया और आभार आपका
हटाएंबुलेटिन टीम को हमारा शुक्रिया और आभार
जवाब देंहटाएंसरस्वती पूजा का उत्साह सारी रेल लाइनों के किनारे भी बहुत दिखा हमें।
जवाब देंहटाएंजी बिल्कुल सही कह रहे हैं आप
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