मंगलवार, 24 जुलाई 2012

एलबम में छुपी जिंदगी ............





हमारा मस्तिष्क ,अपने आप में एक खूबसूरत एलबम की तरह होता है , एक ऐसा एलबम जिसमें हमारे चाहने न चाहने से कोई तस्वीर नहीं लगती , बल्कि यादों का ऐसा कोलाज़ बन जाता है जिन्हें टटोल कर कुछ लोग तो जिंदगी तक गुज़ार देते हैं । हमारे भी अंतर्मन में जाने ऐसी कितनी ही जिंदगियां गड्डमगड्ड पडी हुई हैं । समय असमय वो अपने आप ट्रेलर की तरह सामने से गुज़र जाती हैं । लेकिन मन के भीतर की यादों को चाहे जितना बखान किया जाए , बताया जाए , हर कोई उसे ठीक ठीक वैसा ही समझ ले या कि हम उसे वैसा ही बयां भी कर पाएं ये जरूरी तो नहीं । इसलिए ही शायद फ़ोटो खींचने का चलन शुरू हुआ होगा \ जिसने भी इसे शुरू किया उसका एहसान मानव को मानना ही चाहिए । चित्रों , तस्वीरों और फ़ोटो में जाने हमने कितनी ही  जिंदगियों को सहेज़ कर रख छोडा है । जबसे मोबाइल आया है तबसे  और भी  आसान हो गया इन्हें सहेज़ना । देखिए न मैं खुद यही करता हूं अब ...मोबाइल से खींची गई कुछ तस्वीरों और हर फ़ोटो के साथ एक दास्तान एक फ़साना ...है न





मां अन्नपूर्णा मंदिर , जालंधर


                शहर की पथरीली मिट्टी , कुछ नकली काली परत वाली धूल से जब भी जी जाता है ऊब ,
                 आंखों को शीतल और मन को पावन करने को , नहीं मिलती है ये हरी हरी सी दूब




दिल्ली से मधुबनी रेल यात्रा के दौरान


                     ज़िंदगी को सफ़र समझ के चलते रहे दिन रात सही , मगर पटरियों पर जो पल गुज़रे ,
                              वहीं फ़साना बन बैठा , यादें कुछ और जुडीं , जहां कहीं भी रुक हम उतरे








           जीवन धार बनी युगों से तुम इस धरा पर , इठलाती इतराती , शीतल सर्प सरीखी बहती हो
           निचोड निचोड पहाडों से अमृत लाती , हम रोज़ घोलते विष तुममें , फ़िर भी कुछ न कहती हो


             शहर की आपाधापी में , हम इंसान से कब मशीन हुए , इसका गुमान कहां अब होता है ,
              यूं फ़ुर्सत में बैठ पल दो पल ,यार संग बोल बतियाने को , अक्सर ये मन रोता है








सैंट्रल स्कूल दानापुर , जिसे बरसों बाद देखा था
                             

                              कैसे कह दें अब कुछ याद नहीं , कैसे कह दें कि सब भूल गए ,

                              एक एक चैप्टर एक एक पीरीयड याद आया , जब भी अपने स्कूल गए




                  हम जैसे कुछ बदकिस्मत , अक्सर जाने कई वज़हों से , इन शहरों में आ फ़ंसते हैं ,
                            जहां सब कुछ छोडा छूटा , जाकर देखो , कुछ लोग वहां अब भी बसते हैं









    कभी कभी मन करता है , मांग लें इस ईश्वर से , इक और भी जीवन दे दो उधार ,
    कंकड पत्थर में बहुत जी लिए , अब प्रकृति की गोद में भी थोडे तो दें दिन गुज़ार






चलिए आज के लिए इतना ही ......

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ख़ूबसूरत तस्वीरें.... नॉस्टैल्जिक कर दिया आपने...

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  2. रेल, दानापुर...आप स्मृतियों में बहाकर ले गये..

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. मोबाईल से इतने सुन्दर चित्र खींचकर आपने मन मोह लिया .
    हमारी शागिर्दी ने जलवा दिखा दिया ! :)

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  5. चित्रमय खुबसूरत प्रस्तुती......

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  6. साफ मन में अंकित सुंदर तस्‍वीरें.

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मैंने तो जो कहना था कह दिया...और अब बारी आपकी है..जो भी लगे..बिलकुल स्पष्ट कहिये ..मैं आपको भी पढ़ना चाहता हूँ......और अपने लिखे को जानने के लिए आपकी प्रतिक्रियाओं से बेहतर और क्या हो सकता है भला

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